इसमें १३३० दोहों से भी छोटे पद हैं, जिन्हें तमिल भाषा में 'कुरल' (छोटा) कहा जाता है। आकार की दृष्टि से यह तमिल भाषा का सबसे छोटा छंद है। यह कालजयी, सर्वकल्याणकारी ग्रन्थ तीन मुख्य भागों (मुपाल) में विभाजित है - धर्म, अर्थ और काम। उनमें क्रमश: ३८ , ७० और २५ अध्याय, यानि कुल १३३ अधिकारम हैं। हर अध्याय में १० कुरल हैं, हर कुरल में केवल पौने दो पंक्तियाँ हैं! पहली पंक्ति में तीन+एक शब्द हैं और दूसरी में तीन। कुरल छंद की पंक्तियों के प्रथम शब्दों में तुक होती है। पुस्तक के इस सुनियोजित स्वरूप के कारण नीतियाँ कंठस्थ करने में सुगम हैं।
जीवन के तीन लौकिक पुरुषार्थों - धर्म, अर्थ और काम के सम्बन्ध में हमारे कर्तव्य, आदर्श, आचरण, गुण, मूल्य इत्यादि इस ग्रन्थ में समाहित हैं! चूँकि यह जीवन पर्यन्त काम आने वाले सूत्र हैं, सो इनके विषय भी व्यापक हैं। विषयों के प्रतिपादन में एक क्रमबद्धता भी है। धर्म-काण्ड में ईश्वर-स्तुति, वर्षा, गृहस्थ जीवन, संन्यास, आध्यात्म, नियति का बल आदि व्यक्तिगत आचारों और व्यवहारों पर विचार किया है। अर्थ-काण्ड में राजनीति, शासकों का आदर्श, मंत्रियों का कर्तव्य, राज्य की अर्थ-व्यवस्था, सैन्यबल, सामाजिक जीवन इत्यादि पर विचार किया गया है। काम-काण्ड में सौंदर्य वर्णन, विरह, मिलन, मान की सूक्ष्मता इत्यादि पर सूक्तियाँ हैं।
'तिरुक्कुरल' के सूत्र जीवन के हर पहलू को स्पर्श करते हैं। संभाषण पर उन्होंने लिखा:
उन्होंने वाणी की धार समझाते हुए लिखा:
व्यक्ति के चुनाव पर:
नैतिक मूल्यों और जीवन यापन के प्रश्नों का उत्तर देती कुंजी-सी है यह किताब। कहा जाता है कि तिरुवल्लुवर ने सरसों में छेद कर सात समुंदर जितना ज्ञान उसमें समो दिया है। हर तमिल घर में ‘तिरुक्कुरल’ की एक प्रति अवश्य मिलेगी! इस तरह की सफलता बहुत कम ग्रथों को मिलती है! यह मात्र ग्रन्थ ही नहीं लोकजीवन और प्रशासन को दिशानिर्देश देने वाली जीती-जागती किताब है- फिर बात चाहे सूखा पड़ने पर एलिस के द्वारा कुएँ खुदाने की हो या आज की चेन्नई के मेट्रो ट्रैन में उकेरे उनके कुरल से लोगों को सही दिशा मिलने की बात हो! परन्तु यह स्वीकार्य तिरुवल्लुवर को सदैव नहीं मिला! जब वे तमिल संगम में पहली बार अपने कुरल प्रस्तुत कर रहे थे तो उसका लघुरूप विद्वानों के गले नहीं उतरा! कोई भी इसे मानक कविता मानने को तैयार ही न हुआ, क्योंकि यह तो पूरे दो पंक्तियों की भी न थीं।
उस समय एक महान कवयित्री अव्वयैर ने तिरुवल्लुवर का पक्ष लिया और लोगों को समझाया। अव्वयैर स्वयं मानवता और नैतिकता पर कविताएँ लिखा करती थीं। कहा जाता है कि बहुत बहस के बाद अंतत: उन्होंने कहा कि 'मैं यह ताम्रपात्रों पर लिखा ग्रंथ मानाक्षी अम्मन के मंदिर में बने तालाब में फेंक देती हूँ, माता को ही तय करने दो कि यह मान्य ग्रंथ है कि नहीं!' कहते हैं कि पहले तो ग्रंथ पानी में डूब गया फिर माँ सरस्वती ने स्वयं उन्हें बाहर निकाला और ग्रंथ का नाम मुपाल से बदल कर ‘तिरुक्कुरल’ रखा। यह सब मान्यताएँ और किवदंतियाँ हैं, जिन्हें मानना ज़रूरी नहीं है पर एक लेखक का संघर्ष दर्ज़ करना महत्वपूर्ण है। सबसे बड़ी बात यह है कि किसी धर्म की छाया 'तिरुक्कुरल' पर नहीं पड़ी! शायद यही कारण है कि हिन्दू, बौद्ध, जैन और ईसाई सभी ने उन पर अपने पंथ के होने का दवा किया। जहाँ एक तरफ जैन, शैव, वैष्णव एवं बौद्ध धर्म के अनुयायी तिरुवल्लुवर को अपना मतावलम्बी मानते हैं, वहीं दूसरी और वल्लूवर स्वयं किसी धर्म को नहीं वरन कर केवल मानवता को मानते थे और ईश्वर में विश्वास रखते थे।
कुरल की कीर्ति भारतीय साहित्य में ही नहीं विश्व साहित्य में भी प्रतिष्ठित है। आज यह किताब हिन्दी, गुजराती, अरबी, चीनी, बांग्ला इत्यादि मिला कर ४२ भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित हुई है। अंग्रेज़ी में डॉ. राजाराम का अनुवाद बेहतरीन बताया जाता है। हिंदी में इसके कम से कम १९ अनुवाद हैं और कुछ तो मुक्तक की शक्ल में ही हैं। ई-पुस्तकालय पर विद्याभूषण पं. गोविंदराय जैन, शास्त्री जी द्वारा किया हिंदी में अनुवाद उपलब्ध है। 'तिरुक्कुरल' के हिंदी अनुवाद के लिए टी ई एस राघवन जी को २०२० का साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार प्रदान किया गया। उनका कहना है कि तिरुक्कुरल’ के संक्षिप्त रूप में दिए सार्वभौमिक सिद्धांतों को पालन कर हम एक शांतिपूर्ण समाज बना सकते हैं।
२०१० में बौद्ध अनुयायी यू शी द्वारा किया गया चीनी अनुवाद राष्ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलाम ने ताइवान में तीसवें ‘वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ पोएट्स’ में विमोचित किया। इसका थाई अनुवाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी २०१९ बैंकॉक यात्रा में विमोचित करते हुए इसे जीवन जीने के लिए एक “गाइडिंग लाइट” कहा! सेन्ट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ क्लासिकल तमिल ने विश्व की १०२ भाषाओं में इसके अनुवाद का मानस बनाया है। परन्तु अनुवाद में एक समस्या है- कुरल बहुत कम शब्दों में गहरी बात कहते हैं और बिना तमिल में पढ़े इनका अंग्रेजी से अनुवाद करने में कई बार इनकी आत्मा कुचली जाती है!
१९६४ में ने ‘तिरुक्कुरल’ का हिंदी में अनुवाद किया और उसके बारे में सुन्दर शब्दों में लिखा है- “दो हज़ार वर्षों के पहले तिरुवल्लुवर के हृदय सागर के मंथन के फलस्वरूप निकले हुए सुचिन्तित विचार रत्न इतने मूल्यवान हैं कि बीसवीं शताब्दी के इस अणु युग में भी इनका महत्व और उपयोगिता कम नहीं हुए हैं और इसमें संदेह नहीं है कि चिर-काल तक ये बने रहेंगे! धर्म और अर्थ-काण्ड नीतिप्रधान होने पर भी उनमें कविता की सरसता और सौन्दर्य हैं ही फिर काम-काण्ड का तो क्या पूछना! संयोग और विप्रलंब शृंगार की ऐसी हृदयग्राही छटा अन्यत्र दुर्लभ है। मुक्तक की तरह जहाँ एक-एक ‘कुरल’ अपने में पूर्ण हैं, वहीं सारे काण्ड में एक सुंदर नाटक का सा भान होता है। इस नाटक में प्रधान पात्र नायक और नायिका हैं। नायक और नायिका की सहायता के लिये एक सखी और एक सखा का भी उपयोजन हुआ है। पूर्वराग, प्रथम मिलन, संयोगानन्द, विरह-दुःख फिर पुनर्मिलन के साथ यह सरस काण्ड समाप्त होता है।"
उनके ही अनुवाद से कुछ मुक्तक:
न्यायनिष्ठता पर:
राष्ट्र पर वे लिखते हैं:
सेना पर:
“शौर्य, मान, विश्वस्तता, करना सद्व्य्वहार। ये ही सेना के लिये, रक्षक गुण हैं चार॥”
प्रणय में मान पर उन्होंने लिखा:
“ज्यों भोजन में नमक हो, प्रणय-कलह त्यों जान। ज़रा बढ़ाओ तो उसे, ज्यादा नमक समान॥”
इतना पुराना ग्रंथ होने पर भी इसकी एक बड़ी बात यह है कि यह धर्म और जाति पर नहीं वरन कर्तव्य और सिद्धांतों पर दृष्टिपात करता है। तिरूवल्लूवर को ‘दक्षिण का कबीर‘ भी कहते हैं। यों तो किन्हीं दो विभिन्न काल में रह रहे संत कवियों की तुलना करना ठीक नहीं लगता, परन्तु तिरूवल्लूवर और कबीर के जीवन में कई समानताएँ हैं। कहते हैं कि दोनों को उनके जन्म देने वाले माता-पिता ने त्याग दिया था। दोनों को बहुत प्रेम करने वाले दूसरे मात-पिता मिले। दोनों का जीवन के प्रति स्पष्ट दृष्टिकोण और ज्ञान विशद था। दोनों धर्म, पंथ से परे, गृहस्थ जीवन में भी निर्लिप्त भाव से रहने वाले जुलाहे थे! चूँकि यह बात बहुत पुरानी है, तो तिरुवल्लुवर के जन्म और जीवन काल के बारे में निश्चित हो कर कुछ कहना संभव नहीं है। इसलिए हम सबसे प्रचलित मान्यताओं की उंगली थाम कर आगे बढ़ते हैं।
मान्यता है कि आज से करीब दो-ढाई हज़ार वर्ष पूर्व दक्षिण भारतीय चेन्नई शहर के सांस्कृतिक केन्द्र मायलापुर में वल्लुवर का जन्म हुआ। उन्हें थेवा पुलवर, वल्लुवर और पोयामोड़ी पुलवर जैसे अन्य नामों से भी जाना जाता है। उनके असली पिता भगवन ने घूमते रहने का व्रत लिया हुआ था, सो अपने नन्हे पुत्र को पेड़ के नीचे पत्तों पर रख उनके असली माता-पिता देशाटन को चले गए! एक दयालु और पुत्र विहीन महिला ने उस बालक को देखा और प्रेम और ममता से पाल-पोस कर बड़ा किया। वल्लू गृहस्थी में बड़े होने के कारण उनका नाम पड़ा ‘वल्लूर’।
वल्लूर को बड़े होने पर जब अपने जन्म का वृत्तांत ज्ञात हुआ तो उनके हृदय में वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने अपने धर्म माता-पिता से अनुमति ली और वन को प्रस्थान कर गए। वहाँ उन्होंने कई सिद्धियाँ प्राप्त कीं। परन्तु संसार की सेवा को तत्पर हो उन्होंने संन्यास त्यागा और नगर की ओर लौट आए। वहाँ उनका विवाह एक विदुषी स्त्री वासुकि से हुआ और दोनों जुलाहे के व्यवसाय में रत सुख से रहने लगे। उनकी पत्नी वासुकी एक पवित्र और समर्पित आदर्श पत्नी थीं, जिन्होंने कभी भी अपने पति के आदेशों की अवज्ञा नहीं की। उनके गृहस्थ जीवन को ले कर बहुत सी कथाएँ लोकप्रिय हैं, जिसमें एक कथा यह कि वल्लुवर एक सुई और पानी का साफ़ कटोरा पास में रख कर भोजन ग्रहण करते थे कि कोई दाना गिरे तो वह उसे सुई से उठा कर, धो कर खा लें, परन्तु वासुकि इतनी सुघड़ थीं कि कभी एक भी दाना अन्न भूमि पर नहीं गिरा!
तिरुवल्लुवर ने गृहस्थ जीवन की दिव्यता और पवित्रता के ने मापदंड स्थापित किए। उन्होंने बताया कि शुद्ध जीवन के लिए संन्यासी बनने की आवश्यकता नहीं है।
“एक गृहस्थ कर्तव्य परायण बनने में दूसरों की भी सहायता करता है।”
वासुकि की मृत्यु के बाद वल्लूवर ने अपने जीवन के अनुभवों को समेट कर अपनी विलक्षण प्रतिभा से एक ग्रन्थ लिखना शुरु किया जिसकी चर्चा इस आलेख में हमने की।
“सच्चे धार्मिक जीवने के लिए इन चार चीज़ों से बचना चाहिए- ईर्ष्या, काम, क्रोध और कटु वचन।”
तिरुवल्लुवर के अस्तित्व के पुरातात्विक साक्ष्य अब तक स्थापित नहीं हुए है परन्तु भाषाई साक्ष्यों के माद्यम से ही लोकआस्था का एक ओजस्वी प्रदीप निरंतर दैदीप्यमान है। तमिल कैलेंडर की अवधि तिरुवल्लुवर आन्दु (वर्ष) से आरंभ होती है। सोलहवीं शताब्दी में एकंबेश्वर प्रांगण में ही तिरुवल्लुवर का एक मंदिर बनाया गया। १९७६ में चेन्नई में वल्लुवर कोट्टम बनाया गया। इसमें भारत का सनसे बड़ा ऑडिटोरियम है। २००० में तमिलनाडु राज्य के कन्याकुमारी में तिरुवल्लुवर की १३३ फ़ीट ऊँची एक पत्थर की प्रतिमा बनाई गई और उस पर उनके द्वारा कही गयी बातों को उकेरा गया है। बेंगलुरु में २००९ में उनकी एक प्रतिमा स्थापित की गई। देश के बाहर भी संत तिरुवल्लुवर के बहुत से अनुयायी हैं। लन्दन युनिवर्स्टी के साउथ एशियन इंस्टिट्यूट (SOAS) के वे आइकन हैं! उनकी एक मूर्ति १९९६ में तमिलनाडु सरकार ने SOAS को भेंट की थी। आज तक उनकी छत्र-छाया में ज्ञान का केंद्र बनी यह संस्था उनकी मुरीद है!
तमिल विद्वान् प्रो. सेल्वकेसवरयर के शब्दों में ,"तमिल भाषा के दो लौह स्तंभ हैं - कंबन और तिरुवल्लुवर!” १९३५ से राज्य में मध्य जनवरी में तिरुवल्लुवर दिवस मनाया जाता है। यह राज्य के पोंगल समारोह का एक हिस्सा है। उनकी महान कृति के नाम पर भारत सरकार एक एक्सप्रेस ट्रेन चलाती है - ‘तिरुक्कुरल एक्स्प्रेस’ जो कन्याकुमारी से हज़रत निज़ामुद्दीन जंक्शन तक जाती है! पता नहीं यह सायास है या अनायास परन्तु यह ट्रेन भी अपने नामदाता की तरह मानव को, उसके बनाये धर्मों से परे, मानवता के धर्म से जोड़ती है! भारत में तिरुवल्लुवर विश्वविद्यालय, तिरुवल्लुवर हाईवे, डाक टिकट इत्यादि सब हैं, परन्तु प्रश्न यह है कि भारतीय आज उनके बताये हुए सूत्रों पर कितना अमल करते हैं!
सन्दर्भ:
१. https://sanskrit.dasarpai.com/thirukkural-complete-in-hindi/
२. https://hindi.swarajyamag.com/krual-part-1-dharma-householder/
३. https://web.archive.org/web/20091027145958/http://geocities.com/nvkashraf/kur-trans/Hind-Int.htm
४ . https://www.youtube.com/watch?v=zcGuK_nmyXM
५. https://hindi.swarajyamag.com/kural-persuasion-art-speech-councilor/
७. https://en.wikipedia.org/wiki/Kural
८. https://pocketexplorer.in/thiruvalluvar-statue-in-hindi-history/
१०. https://epustakalay.com/book/67567-tirukkural-by-govind-ray-jain/
लेखक परिचय
शार्दुला नोगजा सुपरिचित हिंदी कवयित्री हैं और हिंदी के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। वे तेल एवं ऊर्जा सलाहकार के रूप में २००५ से सिंगापुर में कार्यरत हैं। उनकी संस्था ‘कविताई-सिंगापुर' भारत और सिंगापुर के काव्य स्वरों को जोड़ती है। शार्दुला ‘हिंदी से प्यार है’ की कोर टीम से ‘साहित्यकार-तिथिवार’ परियोजना का नेतृत्व और प्रबंधन कर रही हैं। shardula.nogaja@gmail.com
सुश्री गायत्री सोमासुंदरम तमिल साहित्य की एक समर्पित पाठक हैं। पेशे से डाटा एनालिस्ट गायत्री लेखन-पठन में गहरी रुचि रखती हैं। एक वक्ता के रूप में उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा नौ साल की उम्र में आरम्भ की। वे सिंगापुर में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत हैं। गायत्री शार्दुला की मेंटी हैं।
बहुत सुंदर विवरण , तिरुवल्लुर के बारे में शायद ही कोइ साहित्य प्रेमी हो जो नहीं जानता हो। आपने संक्षिप्त में बहुत कुछ लिखा। साधुवाद। एक बात समझ नही आ रही तिरुवल्लुर का व्यक्तित्व कबीर दे कई गुना अधिक है और वे उससे बहुत पहले के हैं , सामान्यतः लोगों को ऐसा नाम अपने से बड़े का दिया जाता हसि, हिसाब से तो कबीर को कहा जाना चाहिए उत्तर का तिरवल्लुर ।
ReplyDeleteअगा सुरेश जी यह देखिए कितनी सही बात कही आपने! तभी देखेंगे कि मैंने भी इस समानता को नेति-नेति कहते हुए ही लिखा है। यह बस भाषा कि बात है कि जो कबीर को पहले से जानते हैं उन्हें जब तिर्वल्लुवर जी के बारे में पता चलता है तो वे एक सूत्र जोड़ना चाहते हैं!
Deleteतिरुवल्लुवर ने तमिल भाषा में काव्य-कर्म किया है पर उनकी कृति में पूरे भारत की शास्त्रीय मनीषा और लोक-मानस एक साथ प्रतिध्वनित होता है। मानव जीवन के समस्त पहलुओं को समेटता उनका महाकाव्य तिरुक्कुरल, देश और काल की सीमाओं को लाँघकर, पूरे संसार के लोगों के लिए उपयोगी है। लेखिका-द्वय की यह प्रस्तुति सराहनीय है।
ReplyDeleteक्या हम जान सकते हैं कि महाकवि के छंदों का हिन्दी में इतना सुन्दर पद्यानुवाद किसने किया है?
अंतिम अनुच्छेद से पूर्व वाले अनुच्छेद की पहली पंक्ति में सही शब्द 'दैदीप्यमान्' होगा।
कृपया यह भी बताएँ कि 'मेंटी' किस भाषा का शब्द है और इसका अर्थ क्या है?
तमिलनाडु के महान सन्त तिरुवल्लुवर के विराट व्यक्तित्व एवं सृजनात्मकता एवं
Deleteउपदेशात्मकता पर बहुचर्चित कवयित्री शार्दुला नोगजा का लेख बहुत हीज्ञानवर्धक
एवं उपादेयतापूर्ण है। उत्तर भारत में सन्त-कवि कबीर और दक्षिण भारत खासकर
तमिलनाडु की सन्त-परम्परान में तिरुवल्लुवर ने अपने-अपने कीर्तिमान स्थापित
किए। इस श्रमसाध्य एक शोधपरक लेख के लिए विदुषी लेखिका और "हिन्दी से
प्यार है" समूह की प्रबन्ध समिति को बधाई। ---डॉ.राहुल, नई दिल्ली( भारत )
नमस्ते शुक्रिया 🙏🏻
Deleteकुछ पद अनुवादक के नाम सहित दिए हैं। खास कर छंदात्मक अनुवाद एम. जी. वेंकटकृष्णन के हैं। Mentee यानि जो हमारे mentorship में हो परन्तु हमारे सम्सब का सही संप्रेषण करने वाला हिन्दी शब्द आसानी से न मिला।गायत्री हिन्दी नहीं जानती हैं।
दैदीप्यमान शब्द इंगित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद! हलनत तो शायद न लग सके आसानी से परन्तु बाकी मात्रा की त्रुटि अभी ठीक कर देती हूँ । यूँ ही प्रश्न और उत्साह का सिलसिला बना रहे। माँ सरस्वती सहाय हों!
Deleteडॉ राहुल आपका हार्दिक धन्यवाद! कृपया इस परियोजना पर अपना स्नेह बनाए रखें।
ReplyDeleteशार्दुला जी, गायत्री जी नमस्ते। आप दोनों को इस बढ़िया लेख के लिए हार्दिक बधाई। आपके लेख के माध्यम से संत तिरुवल्लुवर जी के बारे में जानकारी मिली। लेख शोधपूर्ण एवं जानकारी भरा है। पुनः बधाई।
ReplyDeleteदीपक जी हार्दिक आभार, आप सा संपादक और पाठक पा कर तिथिवार फल फूल रहा है!
ReplyDeleteशार्दुला और गायत्री जी, मन मोह लिया लेख में दिए गए प्रत्येक कुरल ने। अगर अनुवाद में वे ऐसा चमत्कार कर रहे हैं तो मूल भाषा में उनके प्रभाव का अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल है। धन्य थे हमारे पूर्वज जो, बिना तथाकथित ग्रन्थ पढ़े ही, सदा ज्ञान की खान रहे, मानवता ही जिनका एकमात्र धर्म रही। संत तिरुवल्लुवर के कारण ही शायर कह सका है, “कुछ बात है ऐसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।” आप दोनों को ह्रदय तल से आभार और बधाई।
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