Saturday, June 18, 2022

बाबू देवकीनंदन खत्री: तिलिस्मी दुनिया के नायाब लेखक

 

बाबू देवकीनंदन खत्री, हिंदी साहित्य के एक बेजोड़ लेखक हैं, जिनके नाम पर हिंदी भाषा के प्रथम और अद्वितीय रहस्य-रोमांच और तिलस्मों से परिपूर्ण उपन्यास की रचना का श्रेय दर्ज़ है। उनके विषय में ऐसी मान्यता है कि जितने हिंदी पाठक उन्होंने उत्पन्न किए उतने किसी और ग्रंथकार ने किसी युग में नहीं किए। 
खत्री के उपन्यासों के अद्भुत ऐयार और उनकी ऐयारी के आश्चर्यचकित कर देने वाले कारनामें अपने पाठकों की सुध-बुध और खाना-पीना तक भुला देने में सक्षम थे। उनके हज़ारों पृष्ठों के उपन्यासों में एक भी अवसर ऐसा नहीं आता था जहाँ पाठक की रोचकता में कमी आए। उनके उपन्यास आदि से अंत तक अपने पाठक को अपने साथ बांधे रखते थे। भाषा शैली ऐसी कि शाला के छात्रों को भी उन्हें पढ़ने में असुविधा न हो। पात्रों और घटनाओं का विलक्षण साम्य जो पाठक को उनके साथ जुड़ने के लिए आकर्षित करता हो। यह सब तभी संभव है जबकि रचनाकार की बुद्धिमत्ता और सृजनशीलता का स्तर अति उच्च चेतना का हो। हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में क्रांति लाने वाले लेखक के रूप में वे युग-युगांतर तक याद किए जाऐंगे। 
जीवन परिचय 
बिहार भारतवर्ष का ऐतिहासिक सुसंस्कृत प्रदेश है। इसी प्रदेश के समस्तीपुर जिले के चकमेहसी के गाँव मालीनगर को हिंदी साहित्य के एक मूर्धन्य लेखक बाबू देवकीनंदन खत्री की जन्मस्थली होने का गौरव प्राप्त है। पिता लाला ईश्वरदास खत्री, जो कि एक धनी व्यापारी थे, के घर दिनाँक १८ जून १८६१ को इस विलक्षण लेखक का जन्म हुआ था। उनके पूर्वज मुगलों के शासन काल में राज दरबार में उच्च पदों पर नियुक्त थे। इसीलिए बाबू देवकीनंदन खत्री का बचपन संपन्नता में बीता। हालाँकि उन्होंने अपने बचपन का अधिकांश समय अपनी ननिहाल में व्यतीत किया। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा पंजाब में उर्दू फ़ारसी में ग्रहण की। कालांतर में महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र शेरशाह के शासनकाल में उनके पिता पंजाब से विस्थापित होकर वाराणसी चले आए, जहाँ उन्होंने संस्कृत, हिंदी तथा अंग्रेजी भाषाओं का भी अध्ययन किया। उनकी विशिष्ट पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण जहाँ उनकी मित्रता विभिन्न शाही परिवार के व्यक्तियों से थी, वहीं उनकी व्यक्तिगत रुचियों के कारण कई पीर-औलिया, साधु-संन्यासी और तांत्रिक भी उनके घनिष्ठ मित्र थे।  
प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा के उपरांत उन्होंने गया की टेकारी रियासत में वहाँ के राजा के यहाँ नौकरी कर ली। कालांतर में उन्होंने नौकरी छोड़ कर वाराणसी में एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की, जिसका नाम उन्होंने 'लहरी' रखा। सन १८९९-१९०० के दरमियान उन्होंने इस प्रेस से हिंदी मासिक पत्र 'सुदर्शन' का प्रकाशन आरंभ किया।
उस समय काशी में ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह का शासन था और बाबू देवकीनंदन खत्री से उनकी घनिष्ठ मित्रता थी। बाबू देवकीनंदन जी को घूमने का शौक था और काशी नरेश उनके भ्रमण के लिए सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ कर दिया करते थे। उन्होंने काशी नरेश से मित्रता के बलबूते पर उनसे चकिया और नौगढ़ के जंगलों के ठेके भी ले लिए थे। ये जंगल मनोहारी वन संपदा और प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण थे। बाबू देवकीनंदन खत्री "चंद्रकांता" में लिखते हैं, 
"नौगढ़ और विजयगढ़ का राज पहाड़ी है, जंगल भी बहुत भारी और घना है, नदियाँ चंद्रप्रभा और कर्मनाशा घूमती हुईं इन पहाड़ों पर बहती हैं। जाबूजा खोह और दर्रे पहाड़ों में बड़े खूबसूरत कुदरती बने हुए हैं। पेड़ों में साखू, तेंद, विजयसार, सनई, कोरया, गो, खाजा, पेयार, जिगना, आसन आदि के पेड़ हैं। इसके अलावा पारिजात के पेड़ भी हैं। मील-भर इधर-उधर जाइए तो घने जंगल में फँस जाइएगा। कहीं रास्ता न मालूम होगा कि कहाँ से आए और किधर जाएँगे। बरसात के मौसम में तो अजब ही कैफियत रहती है, कोस भर जाइए, रास्ते में दस नाले मिलेंगे। जंगली जानवरों में बारहसिंघा, चीता, भालू, तेंदुआ, चिकारा, लंगूर, बंदर वगैरह के अलावा कभी-कभी शेर भी दिखाई देते हैं मगर बरसात में नहीं, क्योंकि नदी नालों में पानी ज्यादा हो जाने से उनके रहने की जगह खराब हो जाती है, और तब वे ऊँची पहाड़ियों पर चले जाते हैं। इन पहाड़ों पर हिरन नहीं होते मगर पहाड़ के नीचे बहुत से दीख पड़ते हैं। परिंदों में तीतर, बटेर, आदि की अपेक्षा मोर ज्यादा होते हैं। गरज कि ये सुहावने पहाड़ अभी तक लिखे मुताबिक मौजूद हैं और हर तरह से देखने के काबिल हैं।"
तिलस्मी कथाओं के लेखक का रचना संसार 
वन संपदा के आस-पास विचरण करने वाले बाबू देवकीनंदन खत्री जी के लेखन में प्रकृति अनायास ही आकर खिलवाड़ करने लगी। उन घने जंगलों में एक आकर्षण था जिसमें उनकी उत्सुकता समय के साथ-साथ बढ़ती गई। इस प्रदेश में कई पुराने किलों और महलों के खंडहरों की उपलब्धता भी थी।  बाबू देवकीनंदन खत्री वन के अपने कार्यों के साथ साथ इन खंडहरों का भ्रमण भी करते। स्थानीय लोगों से जनश्रुति में प्रचलित ढेरों कहानियाँ सुनते। और इन के ऐतिहासिक तथ्यों की खोज-बीन करते। राज परिवारों से घनिष्ठता के कारण राज-काज की राजनीति, राज-शत्रु और उनसे निबटने के तरीके, राजसी समस्याएँ और उनके निदान की उनकी जानकारी के साथ जब इन टूटे फूटे खंडहरों और किलों की भौगोलिक संरचनाओं की जानकारी मिली, तो उसने जन्म दिया कुछ तिलस्मी कथाओं और रोमांचक पात्रों को। इनके लेखक हृदय ने इन सब को आत्मसात करके अपने पहले उपन्यास को आकार दिया और उन्होंने इसे नाम दिया, 'चंद्रकांता' तिलिस्म, रहस्य और रोमांच से भरपूर इस उपन्यास ने उस समय के प्रबुद्ध पाठक वर्ग में धूम मचा दी। अपनी तरह का यह पहला उपन्यास था। बाबू देवकीनंदन द्वारा अपनी कल्पना से रचित एक विलक्षण प्रजाति ऐय्यार और उनकी ऐय्यारी के कारनामों से रू-ब-रू होना पाठकों के लिए एकदम नया अनुभव था, उपन्यास के हर पृष्ठ पर एक राज खुलता था और अगले पृष्ठ के लिए एक राज पुनः बन जाता था। शैली ऐसी कि पाठक एक बार पढ़ना शुरु करे तो उसके लिए उसे छोड़ना असंभव। और छोड़े भी कैसे? उपन्यास को छोड़ देने में क्रम टूटने से उसे आगे समझ न पाने का भय भी तो रहता था। यह ऐसा समय था जब अच्छा साहित्य उर्दू और फ़ारसी भाषा में ही उपलब्ध था। ऐसे में देवनागरी में लिखे गए बाबू देवकीनंदन खत्री के उपन्यास एक और क्रांति लेकर आए। उनके उपन्यास मूलतः पढ़ने की इच्छा से कई प्रबुद्ध व्यक्तियों ने हिंदी सीखी।  
वे उर्दू और फ़ारसी दोनों भाषाओं में पारंगत थे और अपने उपन्यासों की रचना इन भाषाओं में करने में पूर्णतः सक्षम भी। पर, कतिपय हिंदी के कल्याण की, अपनी मातृभाषा के प्रचार प्रसार की किसी अंतर्निहित इच्छा ने ही उन्हें अपने उपन्यास देवनागरी भाषा में लिखने के लिए प्रेरित किया होगा। शायद अपने मासिक पत्र के प्रकाशन के कारण उन्हें हिंदी की दुर्दशा ने विचलित किया होगा, उन्होंने यह अनुभव किया होगा कि इस देश में मातृभाषा पढ़ने वाले पाठकों की कमी है और इन्हीं कारणों से उन्होंने यह निर्णय लिया होगा।  
खैर, कारण जो भी रहा हो, इतना तो तय है कि हिंदी उपन्यासों की ख्याति और प्रसिद्धि में बाबू देवकीनंदन खत्री का स्थान अद्वितीय है। बाद में उन्होंने चंद्रकांता के विस्तार के रूप में 'चंद्रकांता संतति' लिखा जो कि चंद्रकांता से भी अधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय हुआ। यह उपन्यास २४ खंडों में प्रकशित हुआ। इसके उपरांत उन्होंने 'भूतनाथ' लिखना प्रारंभ किया, जिसके ६ खंड लिखने के उपरांत उनका देहांत हो गया और बाद में इस उपन्यास के १५ खंडों को उनके पुत्र श्री दुर्गाप्रसाद खत्री ने पूरा किया। १ अगस्त १९१३ को मृत्युलोक के सारे तिलिस्म तोड़ कर उनकी आत्मा स्वतंत्र हो गई और देह पंचतत्वों में विलीन हुई, किंतु उनके द्वारा रचे गए तिलिस्म और रहस्य आज भी अपने पाठकों को उतना ही रोमांचित करते हैं उतने ही रोचक हैं जितने उस समय थे।
समय की सीमाओं को नष्ट कर देना ही लेखक की परम सफलता है और इस मामले में बाबू देवकीनंदन खत्री के उपन्यास अभूतपूर्व ही नहीं भी विलक्षण हैं। इन जगप्रसिद्ध उपन्यासों के अतिरिक्त उन्होंने 'कुसुम कुमारी', 'वीरेन्द्र वीर उर्फ कटोरा भर खून', 'काजर की कोठरी', 'नरेन्द्र मोहिनी', 'गुप्त गोदना', 'काजर की कोठरी' और 'भूतनाथ' की भी रचना की।
बाबू देवकीनंदन खत्री का तिलस्मी संसार 
बाबू देवकीनंदन खत्री ने अपने उपन्यास एक प्रत्यक्षदर्शी के कथन के तौर पर लिखे हैं। शायद इसीलिए अध्याय के विभिन्न उपखंडों को उन्होंने 'बयान' शीर्षक दिया है। और इस प्रकार वह स्वयं इन उपन्यासों में एक सूत्रधार की भूमिका में हैं। हम उनके प्रथम उपन्यास 'चन्द्रकान्ता' के निम्नलिखित उद्धरणों से इस बात को समझ सकते हैं। उपन्यास इस प्रकार आगे बढ़ता है, मानों लेखक अपने पाठक से रू-ब-रू होकर उसे खुद की देखी घटनाएँ सुना रहा हो। एक स्थान पर वह  एक बाग़ का सौंदर्य बड़े विस्तार से लिखते हैं किंतु फिर उसी खंड में किसी दूसरे बाग़ के बारे में वह  पाठकों को संबोधित करते हुए लिखते हैं,
"पाठक! घड़ी-घड़ी बाग की तारीफ करना तथा हर एक गुल-बूटे और पत्तियों की कैफियत लिखना मुझे मंजूर नहीं, क्योंकि इस छोटे से ग्रंथ को शुरू से इस वक्त तक मुख्तसर ही में लिखता चला आया हूँ। सिवाय इसके, इस खोह के बाग कौन बड़े लंबे-चौड़े हैं जिनके लिए कई पन्ने कागज के बरबाद किए जाएँ, लेकिन इतना कहना जरूरी है कि इस खोह में जितने बाग हैं, चाहे छोटे भी हो मगर सभी की सजावट अच्छी है और फूलों के सिवाय पहाड़ी खुशनुमा पत्तियों की बहार कहीं बढ़ी-चढ़ी है।"
कई स्थानों पर वह पाठकों की उत्सुकता को समझते हुए किसी प्रसंग का विस्तृत वर्णन बाद में किए जाने का आश्वासन देते चलते हैं, ताकि तात्कालिक क्रम भी न टूटे और कोई प्रश्न पाठक के मन में अनुत्तरित भी न रह जाए। उदाहरण के लिए इसे देखें,
"वीरेंद्रसिंह इस बात को सुन कर और भी हैरान हुए और उस घाटी की कैफियत जानने के लिए जिद करने लगे। आखिर तेजसिंह ने वहाँ का हाल जो कुछ अपने गुरु से सुना था, कहा, जिसे सुन कर वीरेंद्रसिंह बहुत प्रसन्न हुए। तेजसिंह ने वीरेंद्रसिंह से क्या कहा, वे इतना खुश क्यों हुए, और यह घाटी कैसी थी यह सब हाल किसी दूसरे मौके पर बयान किया जाएगा।" 
अब जान लेते हैं, उनके उपन्यासों के विशिष्ट पात्रों और वस्तुओं के बारे में। इनका ज्ञान होना उनके उपन्यासों को समझने के लिए अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि न सिर्फ इनका उल्लेख उनके उपन्यासों में बार-बार किया गया है, बल्कि उनकी कहानी में एक महत्वपूर्ण भूमिका भी है। 
तिलिस्म :- सबसे पहले समझते हैं वास्तव में तिलिस्म क्या है और क्यों बनाए जाते थे। बाबू देवकी नंदन खत्री ने 'चन्द्रकांता' में संवादों के माध्यम से इसे विस्तार से समझाया है। तो आइए उन्हीं से समझते हैं,  
सुरेंद्र, "पहले यह बताइए कि तिलिस्म किसे कहते हैं और वह कैसे बनाया जाता है?"
बाबा जी, "तिलिस्म वही शख्स तैयार कराता है जिसके पास बहुत माल-खजाना हो और वारिस न हो। तब वह अच्छे-अच्छे ज्योतिषी और नजूमियों से दरियाफ्त करता है कि उसके या उसके भाइयों के खानदान में कभी कोई प्रतापी या लायक पैदा होगा या नहीं? आखिर ज्योतिषी या नजूमी इस बात का पता देते हैं कि इतने दिनों के बाद आपके खानदान में एक लड़का प्रतापी होगा, बल्कि उसकी एक जन्म-पत्री लिख कर तैयार कर देते हैं। उसी के नाम से खजाना और अच्छी-अच्छी कीमती चीजों को रख कर उस पर तिलिस्म बाँधते हैं। पुराने जमाने के राजाओं को जब तिलिस्म बाँधने की जरूरत पड़ती थी तो बड़े-बड़े ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग इकट्ठे किए जाते थे। उन्हीं लोगों के कहे मुताबिक तिलिस्म बाँधने के लिए जमीन खोदी जाती थी, उसी जमीन के अंदर खजाना रख कर ऊपर तिलिस्मी इमारत बनाई जाती थी"
ऐयार :- प्रत्येक राजा या राज वंश से संबधित व्यक्तियों के पास एक से अधिक ऐयार होते थे। किंतु ऐयार का अर्थ मात्र गुप्तचर या जासूस से पूर्णतः अभिव्यक्त नहीं होता, क्योंकि ये गुप्तचरों या जासूसों की सभी योग्यताओं के अतिरिक्त कुछ अन्य योग्यताएँ भी रखते थे। जिनमें प्रमुख थीं---किसी भी अन्य व्यक्ति का हू-ब-हू रूप बना लेना, और वो भी कुछ ही पलों में, उसके रंग- रूप आकार आवाज़ इत्यादि की एकदम सत्य प्रतिलिपि, प्रतिद्वंदी पक्ष के ऐसे रूप परिवर्तित किए ऐयार को पहचानना और उसे उसके वास्तविक रूप में लाना, तिलिस्म बाँधना और उनका तोड़ ढूँढना, दूरियों को क्षण भर में तय कर लेना, अपने स्वामी पर हुए धोके से किए गए जानलेवा आक्रमण का उपचार कर स्वामी की रक्षा करना। ये ऐयार वंशानुगत होते थे, अपने स्वामी के लिए पूर्ण रूप से वफादार होते थे, एवं ऐयारी के उसूलों का पालन करते थे। ये ऐयार पूरी गोपनीयता से अपना दायित्व निभाते थे। राजा भी किसी शत्रु के ऐयार के पकड़े जाने पर सामान्यतः उसे मृत्यु दंड नहीं देते थे। कुछ उद्धरणों से यह बात समझते हैं, 
तेजसिंह ने कहा – "सुनिए, यह तो आपको मालूम हो ही चुका है कि क्रूरसिंह महाराज शिवदत्त से मदद लेने चुनारगढ़ गया है, अब उसके वहाँ जाने का क्या नतीजा निकला वह भी सुनिए। वहाँ से शिवदत्त ने चार ऐयार और एक ज्योतिषी को उनके साथ कर दिया है। वह ज्योतिषी बहुत अच्छा रमल फेंकता है, नाजिम पहले से उसके साथ है। अब इन लोगों की मंडली भारी हो गई, ये लोग कम फसाद नहीं करेंगे, इसीलिए मैं अर्ज करता हूँ कि आप सँभल कर रहिए। मैं अब काम की फिक्र में जाता हूँ, मुझे यकीन है कि उन ऐयारों में से कोई-न-कोई जरूर इस तरफ भी आएगा और आपको फँसाने की कोशिश करेगा। आप होशियार रहिएगा और किसी के साथ कहीं न जाइएगा, न किसी का दिया कुछ खाइएगा, बल्कि इत्र, फूल वगैरह भी कुछ कोई दे तो न सूँघिएगा और इस बात का भी ख्याल रखिएगा कि मेरी सूरत बना के भी वे लोग आएँ तो ताज्जुब नहीं। इस तरह आप मुझको पहचान लीजिएगा, देखिए मेरी आँख के अंदर, नीचे की तरफ यह एक तिल है जिसको कोई नहीं जानता। आज से ले कर दिन में चाहे जितनी बार जब भी मैं आपके पास आया करूँगा इस तिल को छिपे तौर से दिखला कर अपना परिचय आपको दिया करूँगा। अगर यह काम मैं न करूँ तो समझ लीजिएगा कि धोखा है।"
अब इन उद्धरणों से यह भी पता चलता है कि हर ऐयार के पास एक ऐयारी का बटुआ हुआ करता था, जिसमें निम्नलिखित वस्तुएँ अनिवार्यतः रहा करतीं थीं, जैसे बेहोशी की बुकनी अर्थात पाउडर या द्रव जिसे सूँघ कर कोई भी बेहोश हो जाए, लखलखा, जिसे सूँघने से बेहोशी की दवा का असर समाप्त हो जाता था। मोमबत्ती, रस्सी, भेष बदलने का सारा सामान इत्यादि। ‘रमल’ जो कि एक ऐसा यंत्र था जो दिशा, नक्षत्र, स्थान इत्यादि के आधार पर सटीक भविष्यवाणी करने में उपयोगी था। यूँ कहें कि यह एक सॉफ्टवेयर था जिसमें कुछ इनपुट से सटीक गणनाएँ करना संभव था और इनपुट की दक्षता इसे उपयोग करने वाले की बुद्धिमत्ता पर निर्भर करती थी। 
"वह बहुत अच्छी रमल फेंकता है” इस वाक्य को "वह उस सॉफ्टवेयर का पूर्ण दक्षता से उपयोग करने में सिद्धहस्त है" कहकर समझा जा सकता है।
बाबू देवकीनंदन खत्री के पाठक एक बार इस संसार में प्रवेश कर लेने के बाद खुद भी उस में से आसानी से निकल नहीं पाते थे और इस रहस्य-रोमांच के रस में पूर्णतः डूब जाते थे। तभी मैंने उन्हें ऐयार लेखक कह कर संबोधित किया है।

देवकीनंदन खत्री : जीवन परिचय

जन्म

१८ जून १८६१, ग्राम मालीनगर, जिला समस्तीपुर, बिहार

निधन

१ अगस्त १९१३

पिता

लाला ईश्वरदास खत्री

प्रारंभिक शिक्षा

लाहौर, तत्कालीन पंजाब

उच्च शिक्षा

वाराणसी, उत्तर प्रदेश

कार्यक्षेत्र

प्रारंभिक कार्य

टेकारी रियासत में वहाँ के राजा के यहाँ नौकरी 

उत्तरोत्तर कार्य

वाराणसी में एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना

अन्य कार्य

  • सुदर्शन मासिक पत्र का प्रकाशन
  • चकिया और नौगढ़ के जंगलों के ठेके

साहित्यिक रचनाएँ

  • चंद्रकांता, १८८८ - १८९२

  • चंद्रकांता संतति, १८९४ - १९०४

  • भूतनाथ, १९०७ - १९१३

  • कुसुम कुमारी

  • वीरेन्द्र वीर उर्फ कटोरा भर खून

  • काजर की कोठरी

  • नरेन्द्र मोहिनी

  • गुप्त गोदना

  • काजर की कोठरी

संदर्भ


लेखक परिचय

अमित खरे 


पद - संयुक्त संचालक 

विभाग - मध्य प्रदेश विद्युत् नियामक आयोग, भोपाल (मध्य प्रदेश) 

शिक्षा - विद्युत् अभियांत्रिकी में स्नातकोत्तर उपाधि।  

प्रकाशन - विभिन्न ई-पत्रिकाओं एवं समाचारपत्रों में रचनाएँ प्रकाशित।  विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगताओं में विजेता।  विगत दो वर्षों से 'कविता की पाठशाला' व्हाट्सएप्प समूह की सक्रिय सदस्यता।


मोबाईल -
9406902151, ई-मेल - amit190767 @yahoo.co. in 

6 comments:

  1. अमित जी, देवकीनंदन खत्री की अद्भुत रचनाओं तक की उनकी यात्रा और पृष्ठभूमि से आपने इस आलेख के ज़रिए परिचित कराया ही, साथ ही उनकी अत्यंत लोकप्रिय रचनाओं के ऐसे उद्धरण प्रस्तुत किए, जिन ने उनकी रचनाओं से अनभिज्ञ लोगों, जैसे मैं, में उनके प्रति जिज्ञासा जगाई है। आपको इस उत्तम लेख के लिए बधाई और आभार।

    ReplyDelete
  2. अमित जी नमस्ते। आपने बाबू देवकीनंदन खत्री जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। लगभग हम सभी ने उनकी तिलस्मी कृतियों को डूबकर पढ़ा है। एक बार शुरू किया तो ख़त्म होने तक चैन नहीं मिलता है। आपका लेख पुनः उन बीते दिनों में ले कर गया। आपको इस रोचक लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।

    ReplyDelete
  3. अमित जी, देवकीनंदन खत्री जी पर लिखे आपके इस आलेख में आपने भी उसी तरह शब्दों का तिलिस्म रचा है जैसा कि देवकी नंदन जी ने अपनी रचना में रचा। आपने इस प्रवाहमय और रोचक आलेख के माध्यम से खत्री जी के रचना संसार से परिचित कराया । आपको इस उत्तम लेख के लिए बधाई और आभार।

    ReplyDelete
  4. अमित जी, आपके आलेख ने कई वर्ष पूर्व पढ़े चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति उपन्यासों की शृंखला को मन में पुनर्जीवित कर दिया। देवकीनंदन खत्री जी की ऐसी लेखन शैली कि सुध बुध भुला दे, ऐसा कथावाचन कि आगे क्या हुआ, यह जानने की जिज्ञासा भूख प्यास भुला दे और ऐसी तिलिस्म की दुनिया जो कि कल्पना लोक को उस ऊँची उड़ान पर ले जाए जहाँ से वापस लौटने ही न दे। ऐसे कथाशिल्पी पर आलेख और उनके उपन्यासों के उद्धरण देकर आपने मन मोह लिया। बारम्बार अभिवादन और आभार इस लेख के लिए।
    विनीता काम्बीरी

    ReplyDelete
  5. अमित बहुत बढ़िया लिखा है! ख़ूब मज़ा आया पढ़ कर और सारी टिप्पणियाँ पढ़ कर भी। मुझे लगता है सब अपनी टिप्पणियों को ब्लॉग पर डालें तो काफ़ी महत्वपूर्ण दृष्टिकोण हमारे पास जमा हो जाएँगे। आपका Harry Porter Vs चंद्रकांता का विवेचन बहुत ही बढ़िया है, उसे तो ब्लॉग पर दर्ज करिए ही!
    अपनी आलेख प्रेषित होने से पहले इतनी बात हुई कि मुझे तो ध्यान ही नहीं रहा कि आलेख प्रेषित होने पर बधाई नहीं दी मैंने!

    ReplyDelete

आलेख पढ़ने के लिए चित्र पर क्लिक करें।

कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...