Saturday, June 11, 2022

स्वामी दयानंद सरस्वती : उच्च लक्ष्य को समर्पित जीवन

 

देश और विदेश में आर्यसमाज संस्था और मंदिर काफी जाने पहचाने हैं। आर्यसमाज सामाजिक सुधार की गहरी चेतना के साथ जीवन को सादगी और सरलता की अनूठी यात्रा पर ले चलता है। इस यात्रा के एक पहलू के रूप में हम भारतीय पद्धति के वैवाहिक तामझाम को सादगी और सरलता से आर्यसमाज मंदिर में संपन्न होने वाले विवाह के रूप में देख सकते हैं। इस महत्वपूर्ण संस्था के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती हैं, जिनका जीवन और चिंतन आवश्यक रूप से जानने योग्य है।

हम आज जिन्हें स्वामी दयानंद के रूप में जानते हैं, मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उनका नाम मूल शंकर रखा गया था। इनका जन्म एक साधारण परिवार में १८२४ में गुजरात के काठियावाड़ इलाके के टंकारा गाँव में हुआ। उनके पिता करशनलाल जी तिवारी और माँ यशोदा बाई थी। घर में धार्मिक वातावरण था। उनकी शिक्षा का आरंभ घर पर ही हुआ। जानकारी ऐसी है कि १४ वर्ष की कम उम्र में ही उन्होंने वेदों का अध्ययन किया। आने वाले समय में "वेदों की ओर लौटो" उनका प्रिय आग्रह बना।

किशोरावस्था में निजी जीवन की कुछ अप्रत्याशित घटनाओं ने मूलशंकर के हृदय में हलचल मचा दी। बहन और चाचा की आकस्मिक मृत्यु ने उनके मन पर गहरा प्रभाव छोड़ा और जीवन की नश्वरता का बोध कराया। उनके परिवार की शिव पर गहरी आस्था थी। किंतु एक बार शिवरात्रि पर्व पर किशोर स्वामी जी ने देखा कि शिव मंदिर में चूहे प्रसाद की खोज में शिव प्रतिमा पर चढ़े हुए हैं। यह दृश्य देखकर उनका मोहभंग हुआ, मूर्तिपूजा के प्रति उनके विचार बदले कि पत्थर में भगवान नहीं हैं। इसी क्रम में जब वे जीवन और मृत्यु संबंधी प्रश्नों में उलझने लगे, तब माता-पिता ने उनके विवाह को सही रास्ता समझा। लेकिन इस बालक का जीवन पथ सामान्य से कुछ अलग ही होना था। अतः जीवन, मृत्यु और आत्मा संबंधी तमाम प्रश्नों को मन में लिए, सत्य की खोज में मूलशंकर २१ वर्ष की आयु में घर छोड़कर निकल पड़े। अब वे संन्यासी होकर गुरु की खोज में भटकने लगे और अपना नाम भी दयानंद कर लिया। आखिरकार १८६० में वे विद्वान स्वामी विरजानंद (१७७८-१८६८) के आश्रम में मथुरा पहुँचे। दृष्टिहीन स्वामी विरजानंद ने ऋषिकेश, हरिद्वार, काशी, कलकत्ता, अलवर में भ्रमण करते हुए ज्ञानार्जन किया था। आखिर में मथुरा आकर पाठशाला स्थापित की। भेंट होने पर विरजानंद जी ने पूछा, "तुम कौन हो?" दयानंद ने उत्तर दिया, "यही जानना चाहता हूँ कि वास्तव में मैं कौन हूँ?" विरजानंद ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया। यहाँ दयानंद ने एक नई दृष्टि से वेदों का अभ्यास किया।

गुरु स्वामी विरजानंद ने अपना सामर्थ्य भर ज्ञान और शिक्षा दयानंद को दी। दीक्षा पूरी होने पर गुरु दक्षिणा स्वरूप दयानंद से यह माँगा कि पराधीन देश में अंधकार है, अंधविश्वास और कुरीतियाँ फ़ैली हैं, तुम इन्हें समाप्त करो, ज्ञान की ज्योति जलाओ, धार्मिक पाखंडों से जन-जीवन को बचाओ। गुरुवचनों का पालन करते हुए स्वामी दयानंद सरस्वती ने देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक उत्थान का बीड़ा उठाया।

जीवन पथ पर अनेकानेक यात्राओं के क्रम में जब दयानंद बंबई (ब्रिटिश भारत में बॉम्बे प्रेसीडेंसी) पहुँचे तो ७ अप्रैल १८७५ को वहाँ आर्यसमाज की स्थापना की। उनका लक्ष्य प्राचीन वैदिक धर्म की पुनः स्थापना भी था, इसकी पूर्ति के लिए 'सत्यार्थ प्रकाश' नामक शिक्षाप्रद ग्रंथ सम्मुख आया, जिसमें विविध विषयों पर उनके व्याख्यान  संकलित हैं। स्वामी जी का जन्म गुजरात में हुआ था, उनकी मातृभाषा गुजराती थी, पर वे संस्कृत में लिखते और संभाषण करते थे। उन्होंने ऋग्वेद का भाष्य लिखा।

स्वामी दयानंद ने धर्म के नाम पर व्याप्त पाखंड का अनवरत विरोध किया। इस दिशा में प्रयत्नशील भारतीय विचारकों से इनकी भेंट हुई जिनमें ईश्वरचंद्र विद्यासागर और केशवचंद्र सेन प्रमुख हैं। स्वामी जी ने बाल विवाह, दहेज़ प्रथा, पर्दा प्रथा, छुआछूत, मूर्तिपूजा, बहुदेववाद का विरोध किया। उन्होंने स्वास्थ्य और नैतिकता की दृष्टि से विवाह की उपयुक्त आयु पर भी विचार प्रकट किए। विधवा के पुनर्विवाह का समर्थन किया। जो कुप्रथाएँ अभिशाप हैं, स्वामी जी ने उनका विरोध किया। पराधीन देश में स्वामी जी ने नारी की दुर्दशा और उसकी अशिक्षा से टक्कर लेने की ठानी, नारी के लिए समान अधिकारों का समर्थन किया। 

१८६९ से १८७३ के बीच दयानंद के ये सभी प्रयास अत्यंत तीव्र हुए,जब वे गुरु के आदेशानुसार वास्तविक वैदिक धर्म का ज्ञान वितरित करने को तत्पर हुए। एक ऐसे समय में जब जन साधारण के मन में अंधविश्वास चरम पर था, समाज में अनेक बुराइयाँ थी, उस समय वे गाँव-शहर-कस्बे घूम-घूम कर इनसे बचने का आग्रह करने लगे। उन्होंने समाज को बदलने का संकल्प ले लिया था।

१८८६ में लाहौर में इनकी प्रेरणा से लाला हंसराज ने दयानंद एंग्लो वैदिक स्कूल स्थापित किया। १८८९ में यह कॉलेज बना। इनके विचारों को अपनाने और फैलाने के लिए आज पूरे भारत में डीएवी संस्थाएँ विद्यमान हैं। शिक्षा से सर्वांगीण विकास हो और शरीर व मन की आत्मिक शुद्धि भी हो,स्वामी जी की यह आकांक्षा थी इसलिए वे पाश्चात्य शिक्षा पद्धति के विरोधी थे। उनकी प्रेरणा से वैदिक स्कूल, गुरुकुल स्थापित हुए जिनमें वैदिक मूल्यों, भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म की शिक्षा पर बल दिया गया। यह भारतीय शिक्षा को ब्रिटिश शिक्षा पद्धति से मुक्त करने का प्रयास भी था। इस शिक्षा पद्धति में अनुशासित जीवन, दैनिक संध्या वंदन, वैदिक मंत्रोच्चार, संस्कृत शास्त्र अध्ययन, वेद-उपनिषद-व्याकरण का ज्ञान जैसे विषय प्रमुखता से शामिल थे। 

१९०१ में स्वामी दयानंद ने हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। उन्होंने देश में अनेक स्थानों पर अनाथ आश्रम और विधवा आश्रम खुलवाए। वेदों के अध्ययन और मंदिरों में जाने से रोके गए दलितों के प्रति स्वामी जी की पूरी सहानुभूति थी और वे इन स्थितियों का विरोध करते थे। उन्होंने योग्यता में जाति के आधार को सर्वथा अस्वीकार करते हुए कहा कि कोई भी पढ़ा लिखा योग्य है और अपढ़ अयोग्य है। उनकी अस्पृश्यता और छुआछूत विरोधी दृष्टि गाँधी जी के निकट पहुँची थी। गाँधी जी ने उनकी देन को और उनके महत्व को स्वीकारा।

स्वामी जी को एक सुधारक, उपदेशक, चिंतक और धार्मिक व्यक्ति के रूप में मान्यता मिली। किंतु वे राष्ट्रभक्ति के उच्च आदर्श पर भी खरे उतरते हैं। उन्होंने स्वशासन और स्वराज्य की कल्पना की। "भारत भारतीयों के लिए" यह नारा दिया। "भारत पर गर्व करो", यह मान्यता दी। अनेक रूपों में देशवासियों का उद्बोधन-प्रबोधन किया कि सब भारत को उन्नत करने का प्रयास करो। स्वामीजी के इन विचारों के कारण अंग्रेजों के प्रति भारतवासियों में आक्रोश उपजा, देश प्रेम की भावना जागी।

स्वामी जी का चिंतन प्रगतिशील चिंतन रहा, जिसकी प्रशंसा गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने भी की। स्वदेशी से प्रेम उनका आदर्श था। लोकतंत्र में सब स्वतंत्र हों, समान हों, सबके बीच भाईचारा हो। एक का अधिकार विशेष का अधिकार हो, ऐसे विचारों का उन्होंने सदा विरोध किया। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और उन्हें हिंदी कम आती थी। लेकिन उनकी दृष्टि संकुचित नहीं विस्तृत थी, इसलिए उन्होंने राष्ट्रभाषा का समर्थन किया।

ऐसे मानव मूल्यों के हितैषी स्वामी जी किसी कारणवश कुछ लोगों के कोपभाजन बने। उनके प्रखर वैचारिक उन्मेष और स्पष्ट कथनों के कारण बहुत से लोग उनके विरोधी हो गए, जो उन्हें राह का काँटा समझ कर राह से हटाने को प्रयत्नशील रहते थे। १८८३ में जब अजमेर में उनका निधन हुआ, तब वे महाराजा के अतिथि थे। स्वामी जी के सदाचार पूर्ण उपदेशात्मक कथनों से आहत एक समूह ने रसोई में एक षड्यंत्र के तहत, पहले तो उनके भोजन में काँच पीस कर डाल दिया, तबियत ख़राब होने पर जिस डॉक्टर की निगरानी में वे थे, उसने भी निदान और इलाज में देरी की। बाद में ज्ञात हुआ कि यह सब ब्रिटिश शासन की शह पर हुआ क्योंकि वे उनकी आँख का काँटा बन गए थे। उनकी यह परिकल्पना अंग्रेजों को हर पल आहत करती थी कि सबसे पहले आर्यावर्त से अँगरेज़ जाएँ। ब्रिटिश शासन ने आर्यसमाज को राजनैतिक महत्वाकांक्षा के रूप में आँका।

आज स्वामी जी नहीं हैं,परंतु उनके न होने पर भी संस्था रूप में विद्यमान अनुयायियों ने उनके काम को आगे बढ़ाए रखा है। एक समय लाला लाजपत राय ने आर्यसमाज को अपनाया था, आज देश और विदेश में लाखों लोग इसके अनुयायी हैं। आर्यसमाज के सदस्य एक ईश्वर स्वरूप में विश्वास करते हैं जो ज्ञान का स्रोत है। आर्यसमाज की मुख्य अवधारणा यह है कि "पूरे संसार में सबका भला हो, स्वभाव में सत्य और प्रेम का वास हो, सब मिलकर ज्ञान को बढ़ाएँ और अज्ञान को दूर करें, सबका हित ही आत्महित है।"

गायत्री मंत्र आर्यसमाज सदस्य के लिए सबसे पवित्र मंत्र है, नित्य संध्या और पवित्र अग्नि को अर्पित हवन की भी आर्यसमाज में मान्यता है। स्वामी जी के प्रमुख ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' का अंग्रेज़ी अनुवाद 'Light of Truth' नाम से हुआ है।

स्वामी दयानंद सरस्वती ऐसे समाज सुधारक और देश भक्त थे,जो आज भी प्रासंगिक हैं। उनकी स्मृति को शत-शत नमन।

स्वामी दयानंद सरस्वती : जीवन परिचय

मुल नाम

मूलशंकर तिवारी

जन्म

१२ फरवरी १८२४, टंकारा (काठियावाड़, गुजरात)

निधन

३० अक्तुबर १८८३, अजमेर

पिता

करशनलाल जी तिवारी

माता

यशोदाबाई

शिक्षा

  • आरंभिक शिक्षा घर पर

  • स्वाध्याय से संस्कृतशास्त्र और वेदों का अध्ययन

  • विरजानंद आश्रम मथुरा में अध्ययन

कृतियाँ

  • सत्यार्थप्रकाश

  • भ्रांतिनिवारण

  • ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका

  • अष्टाध्यायीभाष्य

  • ऋग्वेदभाष्य

  • यजुर्वेदभाष्य

  • चतुर्वेदविषयसूची

  • वेदांगप्रकाश

  • संस्कृतवाक्यप्रबोध

  • व्यवहारभानु

सम्मान

  • आर्य समाज को समर्पित 2000 का डाक टिकट
    C:\Users\vijyasati\Desktop\220px-Arya_Samaj_2000_stamp_of_India.jpg

लेखक परिचय

डॉ. विजया सती 
पूर्व एसोसिएट प्रोफ़ेसर, हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
पूर्व विजिटिंग प्रोफ़ेसर, ऐलते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त, हंगरी
पूर्व प्रोफ़ेसर हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़, सिओल, दक्षिण कोरिया
प्रकाशनादि - राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियों में आलेख प्रस्तुति और उनका प्रकाशन
संप्रति - स्वांतः सुखाय, लिखना-पढ़ना
ईमेल - vijayasatijuly1@gmail.com

4 comments:

  1. विजय नगरकरJune 11, 2022 at 9:59 AM

    स्वामी दयानंद सरस्वती और आर्य समाज के बारे में बहुत रोचक ज्ञानप्रद जानकारी पूर्ण लेख हेतु हार्दिक धन्यवाद, डॉ विजया सती जी💐 हिंदी प्रचार कार्य में आर्यसमाज की विशेष भूमिका रही है। अनेक बार आर्यसमाज के हिंदी प्रेमी कार्यकर्ताओं का सहयोग और मार्गदर्शन प्राप्त हुआ है।🙏

    ReplyDelete
  2. आभार आपका
    प्रकाशन में एक छोटी भूल के लिए क्षमाप्रार्थी हूं

    ReplyDelete
  3. विजया जी, स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनके कार्यों, विचारों और सोच से अवगत कराता उत्तम आलेख प्रस्तुत किया है आपने। देश में अस्पृश्यता तथा छुआछूत सहित अनेक कुरीतियों के विरुद्ध मुहिम चलाने वाले इस महानुभव को नमन, और आपको उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से इतना सुन्दर परिचय कराने के आभार और बधाई।

    ReplyDelete
  4. डॉ. विजया जी नमस्ते। प्रगतिशील चिंतक, दार्शनिक, समाज सुधारक आदरणीय स्वामी दयानंद सरस्वती जी का सामाजिक योगदान अतुलनीय है। आपने स्वामी जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। आपको इस शोधपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।

    ReplyDelete

आलेख पढ़ने के लिए चित्र पर क्लिक करें।

कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...