Tuesday, June 21, 2022

चेतना की स्वतंत्र उड़ान भरते रचनाकार - विष्णु प्रभाकर

 

"त्रास देता है जो

वह हँसता है,

त्रसित है जो

वह रोता है,

कितनी निकटता है

रोने और हँसने में…!"

मानव जीवन के आडंबरों, त्रासदियों, झूठ और फरेब को बड़ी नज़दीकियों से देखने और परखने वाले मानव मन के चितेरे विष्णु प्रभाकर द्वंद्व व अनुभवों को स्याही में डुबोकर पन्नों पर उकेरने वाले प्रख्यात लेखक हैं। सामाजिक विकास का लक्ष्य लिए उनकी रचनाएँ देश-प्रेम और राष्ट्रवाद की भावनाओं को तो पोषित करती ही हैं, साथ ही समाज की रीतियुक्त परंपराओं व आडंबरों पर भी प्रहार करती चलती हैं।


अनेक लघु कथाएँ, उपन्यास, नाटक तथा यात्रा-संस्मरण लिखने वाले विष्णु प्रभाकर एक ऐसे रचनाकार थे, जो आंदोलनों से कभी नहीं जुड़े; न किसी आलोचक से प्रभावित हुए। अपनी चेतना की स्वतंत्र उड़ान भरते हुए उन्होंने अपने भीतर प्रवाहित विचारधाराओं और संवेदनाओं को ही स्वर दिया। उन्होंने लिखा,


मेरे अंधेरे बंद मकान के 

खुले आँगन में 

कैक्टस नहीं उगते,

मनीप्लांट खूब फैलता है। 

लोग कहते हैं 

पौधों में चेतना नहीं होती।   


२१ जून १९१२ को उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के गाँव मीरापुर में प्रतिष्ठित और संपन्न परिवार में जन्मे विष्णु प्रभाकर का बचपन भरे-पूरे संयुक्त परिवार में बीता। पिता दुर्गा प्रसाद धार्मिक विचारों वाले व्यक्ति थे और माता महादेवी शिक्षित, स्वाभिमानी और संस्कारी महिला थीं; जिन्होंने अपने समय में पर्दा-प्रथा का विरोध करते हुए पर्दा त्याग दिया था। परिवार में वही पहली पढ़ी-लिखी महिला थीं। वे संभ्रांत परिवार से आई थीं, लेकिन इस परिवार में आकर गोबर पाथने तक से उन्होंने परहेज नहीं किया। आर्थिक तंगी में अपने जेवर तक बेच डाले। माँ का यह त्याग और स्वाभिमान ही आगे चलकर विष्णु प्रभाकर के लिए प्रेरणा-शक्ति बना। उन पर बचपन से ही अपनी माँ का प्रभाव बड़ा गहरा था। माँ के पास गहनों और कपड़ों से भी कीमती एक बक्सा था, अपनी किताबों का। उन्हीं किताबों को पढ़कर, फाड़कर, सहलाकर विष्णु प्रभाकर ने छापे के अक्षरों की महिमा को आत्मसात किया, उसके महत्त्व को समझा। पिता की तंबाकू की दुकान थी। आय सीमित थी। कुछ बड़े हुए, तो पिता की दुकान पर जाना शुरू किया। वहाँ अपने लिए टोकरे भरी किताबें खोज निकालीं। दरअसल अपनी आत्मकथा में अपने इस अनुभव के विषय में लिखा भी है- "उनकी दुकान में नाना रूप तंबाकू के टोकरों के साथ एक और टोकरा रहता था। उसमें किताबें भरी रहती थीं। मेरा पहला पुस्तकालय वही था। वहीं पर मैंने भागवत से लेकर ‘किस्सा साढ़े तीन यार’ तक से परिचय प्राप्त किया।" वहीं पर उन्होंने किस्सा हातिमताई, किस्सा छबीली मटियारी से लेकर राधेश्याम कथावाचक की रामायण, प्रेमसागर और सुखसागर तक का पारायण कर डाला। पढ़ने का ऐसा शौक चढ़ा कि उन्होंने चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति और भूतनाथ की रोचक कहानियाँ पढ़कर कल्पना के अनेक मायाजाल बुन डाले। पढ़ते-पढ़ते अक्सर सोचा करते, "कैसे लिखीं इन्होंने ये किताबें? क्या मैं भी कभी ऐसा लिख सकता हूँ?"


विष्णु प्रभाकर ने सदा ही सामाजिक नवोदय व नवाचारों में अपनी गंभीर भूमिका का निर्वहन किया। इस आचरण की जड़ तो बचपन में ही पैठ गई थी। आरंभ से ही उन्होंने सर्वधर्म ऐक्य का विस्तार देखा। अपनी आत्मकथा के प्रथम भाग पंखहीन में इन्हीं स्मृतियों को दोहराते हुए कहा, "एक प्रथा थी उन दिनों। उसका प्रचलन कब हुआ, मैं नहीं जानता? सामंतवाद की देन हो सकती है वह, लेकिन तब तो प्रेम का प्रतीक होकर रह गई थी। उन दिनों सब घरों में गायें रहती थीं। हमारे घर में भी कई गायें थीं। मीठी ईद के दिन सब हिंदू अपनी गायों का दूध ग़रीब मुसलमानों को दे दिया करते थे। उस ईद की मुझे याद है। मेरे छोटे चाचा दूध की बाल्टी भरे अपने बड़े द्वार पर खड़े थे। मैं तो सदा उनके साथ रहता ही था। मुसलमान भाई वहाँ आते और चाचा उनकी बाल्टी या लोटे में दूध उड़ेल देते।"


इनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही विद्यालय में हुई, मगर वहाँ शिक्षा का कोई विशेष प्रबंध तो था नहीं, और माँ पढ़ी-लिखी होने के कारण शिक्षा का महत्त्व समझती थीं, तो उन्होंने इन्हें आगे पढ़ने के लिए इनके मामा के पास हिसार भेज दिया। मामाजी के घर में बड़ा साहित्यिक माहौल था, बहुत-सी पुस्तकें थीं जी लुभाने को। यहाँ इन्हें प्राचीन साहित्य पढ़ने का खूब अवसर मिला। हिंदी भाष्य, वेद, पुराण, बाइबिल, कुरान, महाभारत, रामायण सब घोंट लिए; मगर इतने पर ही ज्ञान-पिपासा शांत न हुई, और परिचय हुआ सम-सामयिक लेखकों प्रेमचंद, प्रसाद, बंकिम चंद्र, रवींद्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र आदि के लेखन से। कहते हैं न कि पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं। विष्णु प्रभाकर की भी बचपन से ही लेखन की प्रवृत्ति रही थी। लगभग १९२६ में सातवीं कक्षा में पढ़ते हुए चुपचाप से 'बाल सखा' पत्रिका में एक पत्र लिखकर भेजा। बड़ा संक्षिप्त और प्यारा-सा पत्र था। कुछ इस तरह,


मान्यवर संपादक जी, नमस्ते। 

मेरा छोटा भाई मुझे बहुत लड़ता है। मैं क्या करूँ? 

आपका आज्ञाकारी

विष्णु गुप्त, कक्षा- ७


संयोग से वह पत्र उस पत्रिका में छप भी गया। साथियों की दृष्टि में सम्मान झलकने लगा। यहीं से बचपन की अभिलाषा बलवती हो उठी और लेखन की प्रवृत्ति ज़ोर पकड़ने लगी।


सन १९२५ में प्लेग की महामारी की चपेट में आकर इनका परिवार और समृद्धि भरे दिन, सब नष्ट हो गए। दसवीं पास करते न करते पारिवारिक दायित्वों ने आगे पढ़ने के सपनों और स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के सपनों को चकनाचूर कर दिया और इन्हें परिवार का दायित्व संभालते हुए नौकरी करनी पड़ी। आरंभ में उन्हें चतुर्थ श्रेणी की नौकरी मिली। सरकारी नौकरी थी और १८ रुपए प्रतिमाह का वेतन था। घोर परिश्रम, लगन व कर्त्तव्य परायणता के चलते शीघ्र ही तरक्की मिल गई और वेतन भी बढ़ गया, पूरे चालीस रुपए। उन्होंने इस विडंबना का भी उल्लेख किया है, "प्रारंभ में क्लास फोर ऑफिसर के दफ़्तरी की नौकरी करने को विवश होना पड़ा। उसके बाद शीघ्र ही मुझे क्लर्क की नौकरी मिल गई। वह आजकल की तरह आपा-धापी का युग नहीं था। सब काम आसानी से हो जाते थे। चालीस रुपये वेतन भी मुझे मिला; लेकिन मन में जो पीड़ा थी वह दूर न हो सकी। डायरी के हर पन्ने पर लिखता था- Better to die. और भी यातनाएँ सही मैंने, पर वे मेरी इतनी निजी हैं कि किसी से बाँटने की इच्छा नहीं होती। यही तो मेरी शक्ति थी। शुरू में मैंने कविताएँ लिखीं। वह युग गद्य काव्य का भी था, तो मैंने कुछ गद्य काव्य भी लिखे, फिर कहानी भी लिखी, पर अंततः कहानी लिखना ही मुझे रास आया।"


अपने घर-परिवार की जिम्मेदारियों को उन्होंने पूरी तरह से निभाया और उनके अथक प्रयासों का ही परिणाम था कि उनके परिवार की आर्थिक स्थिति थोड़ी बदल गई। इसी से शक्ति पाकर उन्होंने अपनी पढ़ाई भी पूरी की। पंजाब विश्वविद्यालय से बी०ए० और फिर हिंदी ‘प्रभाकर’ की परीक्षा उत्तीर्ण की। सरकारी सेवा करते हुए भी विष्णु प्रभाकर ने अपनी प्रवृत्तियों, जैसे साहित्य का अध्ययन और लेखनकार्य का सतत प्रयास जारी रखा। वर्ष १९३१ में उनकी पहली कहानी प्रकाशित हुई और पहली एकांकी लिखी १९३९ में जिसका नाम था 'हत्या के बाद'। विष्णु प्रभाकर ने अपनी लेखनी से हिंदी-साहित्य को समृद्ध किया। उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई। 


विष्णु प्रभाकर मानते थे कि उनके जीवन के विकास-क्रम में तीन लोगों का विशेष योगदान रहा। सृजन की राह पर प्रेरणा मिली उन्हें प्रेमचंद से, जिनकी लेखनी की सजगता से इनमें सृजन की चेतना जगी। ‘आवारा मसीहा’ के नाम से जिनकी जीवनी उन्होंने लिखी, वे शरतचंद्र जिनके लिए उन्होंने स्वयं अपनी जीवनी के दूसरे भाग 'मुक्त गगन में' में लिखा है "तब किसी ज्योतिषी ने यह भविष्यवाणी नहीं की थी कि यह बालक बड़ा होकर अमर कथाशिल्पी शरतचंद्र की जीवनी लिखने में जीवन के अनमोल १४ वर्ष व्यतीत करेगा।" और सबसे प्रमुख प्रभाव खुद पर वे मानते थे गांधी जी का, जिनके सत्याग्रह के अद्भुत अस्त्र ने इनके मन में प्रारंभ से ही देश-प्रेम की अलख जला दी थी; इन पर गांधीवादी विचारधारा का गहन असर रहा।


वास्तव में विष्णु प्रभाकर के साहित्यिक जीवन की एक बड़ी उपलब्धि रही शरतचंद्र की जीवनी ‘आवारा मसीहा’, जिसे लिखने के लिए उन्हें पूरे १४ वर्ष लगे। शरतचंद्र को जानने के लिए वे लगभग सभी स्रोतों, जगहों तक गए, बांग्ला भी सीखी और जब यह जीवनी छपी तो साहित्य जगत में विष्णु प्रभाकर की धूम मच गयी। कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, बाल-साहित्य आदि सभी विधाओं में प्रचुर साहित्य लिखने के बावजूद ‘आवारा मसीहा’ जैसे उनकी पहचान का पर्याय बन गई। इसके बाद इन्होंने ‘अर्धनारीश्वर’ लिखा, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। सन १९५४ में प्रकाशित उनकी कहानी ‘धरती अब भी घूम रही है’ काफी लोकप्रिय हुई। लेखक का खुद का मानना है कि जितनी प्रसिद्धि उन्हें इस कहानी से मिली, उतनी तो अपनी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक ‘आवारा मसीहा’ से भी नहीं मिली। 


दिल्ली के साहित्यिक-जीवन को एक दिशा देने में इनकी बड़ी भूमिका रही। स्वतंत्रता प्राप्ति के दिनों में विष्णु प्रभाकर का साहित्य के प्रति योगदान अतुलनीय रहा। उस समय, जब मानवता बिखर रही थी और जीवन-मूल्य अपनी प्रासंगिकता नए सिरे से तलाश रहे थे, इनकी लेखनी मनुष्य और मनुष्यता के बीच खोते विश्वास को पुनर्जीवन दे पाने के संघर्ष में रत थी। सत्य है कि साहित्य और संस्कृति ने मानवता को पुष्ट करने के लिए सदैव सेतु का ही कार्य किया है। भानु कुमार जैन ने विष्णु प्रभाकर की साहित्यधर्मिता पर टिप्पणी देते हुए कहा था, "विष्णु प्रभाकर भावुक और आदर्शवादी लेखक हैं, मध्यवर्गीय समाज का चित्रण करने में उनकी लेखनी सधी हुई है। इनका विश्वास है कि समाज में जब तक आमूलचूल क्रांति नहीं होती, तब तक शांति स्थापित नहीं हो सकती।" 


वस्तुतः जीवन की मार्मिक अभिव्यक्ति के रचनाकार का यह परिचय सार्थक ही तो है। स्वतंत्रता प्राप्ति के उस रोमांचकारी युग परिवर्तन के साक्षी रहे विष्णु प्रभाकर की कहानियाँ उस समय की लगभग सभी मासिक पत्रिकाओं जैसे आजकल, विश्वमित्र, विशाल भारती, विश्ववाणी, जनवाणी, हंस, नया हिंद, सरस्वती और चित्रलेखा आदि में प्रकाशित हुईं। उनकी कहानियों का स्वर मानवीय संवेदना की आधार-भूमि पर उपजी संवेदना से मिश्रित रहा है; और यही संवेदनात्मक विश्लेषण इनकी विशिष्टता रही है। विष्णु जी की रचनाओं में राष्ट्रीय जागरुकता, समाज के प्रति चिंतन और मातृ-भूमि के प्रति उदात्त-प्रेम की भावना दृष्टव्य रही है। 


विष्णु प्रभाकर ने बाल भारती सरीखी अनेक पत्रिकाओं का संपादन भी किया, साथ ही आकाशवाणी, दूरदर्शन, रंगमंच, पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रकाशन संबंधी मीडिया के अन्य क्षेत्र में वे आरंभ से ही सक्रिय रहे। सितंबर १९५५ में आकाशवाणी में ड्रामा प्रोड्यूसर के तौर पर नियुक्त हो गए। यहाँ उन्होंने १९५७ तक काम किया। विष्णु प्रभाकर ने देश-विदेश की अनेक यात्राएँ कीं और इसके बाद इन्होंने जीवन-पर्यंत साहित्य की साधना में स्वयं को अर्पित कर दिया। हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें 'पद्म भूषण' तथा 'महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार' से अलंकृत किया।  


पूरी एक सदी के साहित्यिक जीवन तथा देश व समाज की परिस्थितियों पर विहंगम दृष्टिपात करती तीन खंडों में प्रकाशित उनकी आत्मकथा (पंखहीन, मुक्त गगन में, और पंछी उड़ गया) हिंदी-साहित्य की अद्वितीय उपलब्धि है। विष्णु प्रभाकर की सभी रचनाओं की तरह ही उनकी आत्मकथा को भी बहुत ख्याति प्राप्त हुई। ‘आवारा मसीहा’ की ही भाँति अपनी आत्मकथा को पूर्ण करने में भी इन्होंने पूरे १५ वर्ष व्यतीत किए। 


११ अप्रैल २००९ को हिंदी साहित्य का यह दैदीप्यमान सितारा सदा के लिए अनंत में विलीन हो गया। उन्होंने अपनी वसीयत में इच्छा व्यक्त की थी कि मरणोपरांत उनके अंग दान कर दिए जाएँ। अतः उनके परिवार ने उनका पार्थिव शरीर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को सौंप दिया। जीवनोपरांत भी विष्णु प्रभाकर अपनी जिजीविषा का संचार-सूत्र सबको प्रेषित कर गए। 


श्री विष्णु प्रभाकर - जीवन परिचय

वास्तविक नाम

श्री विष्णु दयाल गुप्त

जन्म

२१ जून १९१२, गाँव- मीरापुर, जिला- मुजफ्फरनगर, उ० प्र० 

निधन

११ अप्रैल २००९, नई दिल्ली

दादा 

श्री चिरंजीलाल गुप्त

माता

श्रीमती महादेवी गुप्ता

पिता

श्री दुर्गा प्रसाद गुप्त

भाई

श्री ब्रह्मानंद, श्री महेश प्रसाद, श्री कैलाशचंद्र, श्री प्रह्लाद 

पत्नी

श्रीमती सुशीला प्रभाकर

संतान

श्रीमती अनीता प्रभाकर, श्रीमती अर्चना प्रभाकर (पुत्रियाँ)

श्री अतुल प्रभाकर, श्री अमित प्रभाकर (पुत्र)

प्रेरणा-पुरुष

स्वामी नाथूराम प्रेमी व श्री यशपाल जैन

शिक्षा व कर्म-क्षेत्र

  • मैट्रिक - चंदूलाल एंग्लो-वैदिक हाईस्कूल, हिसार (१९२९)

  • हिंदी ‘प्रभाकर’ व ‘भूषण’, पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर

  • संस्कृत ‘प्रज्ञा’, पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर

  • बी० ए० ‘अंग्रेजी’, पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर

लेखन सहयात्री

  मुंशी प्रेमचंद, यशपाल व अज्ञेय

साहित्यिक रचनाएँ

कहानी संग्रह

  • आदि और अंत (१९४५)

  • जिंदगी के थपेड़े (१९५२)

  • संघर्ष के बाद (१९५३)

  • धरती अब भी घूम रही है (१९५४)

  • सफर के साथी (१९६०)

  • खिलौने (१९८१)

  • एक और कुंती (१९८५)

  • जिंदगी एक रिहर्सल (१९८६)

  • आपकी कृपा

  • एक कहानी का जन्म

  • एक आसमान के नीचे

  • मेरा वतन

  • अधूरी कहानी

  • पाप का घड़ा

कविता

  • चलता चला जाऊंगा (१९६८)

उपन्यास

  • निशिकांत (१९५५)

  • अर्धनारीश्वर (१९९२)

  • संकल्प (१९९३)

  • तट के बंधन

  • स्वप्नमयी

  • स्वराज्य की कहानी

  • ढलती रात

  • दर्पण का व्यक्ति

  • कोई तो 

  • परछाई

नाटक

  • नव प्रभात (१९५१)

  • चंद्रहार (१९५२)

  • समाधि (१९५२)

  • होरी (१९५५)

  • डॉक्टर (१९५८)

  • युगे युगे क्रांति (१९७०)

  • टूटते परिवेश (१९७४)

  • कुहासा और किरण (१९७५)

  • बंदिनी (१९७९)

  • अब और नहीं (१९८१)

  • सत्ता के आर-पार (१९८१)

  • गांधार की भिक्षुणी (१९८२)

  • केरल के क्रांतिकारी (१९८६)

  • लिपस्टिक की मुस्कान

  • श्वेत कमल

  • रक्त चंदन

आत्मकथा

  • पंखहीन (खंड १) – २००४

  • मुक्त गगन में (खंड २) – २००४

  • और पंछी उड़ गया (खंड ३) - २००४ 

जीवनी

  • आवारा मसीहा (१९७४)

  • यादों की तीर्थ यात्रा

  • समांतर रेखाएँ

  • जाने अनजाने

  • मेरे हमसफर

एकांकी

  • हत्या के बाद (१९३९)

  • इंसान (१९४७)

  • क्या वह दोषी था? (१९५१)

  • अशोक (१९५६)

  • दस बजे रात (१९५९)

  • ये रेखाए ये दायरे (१९६३)

  • ऊंचा पर्वत गहरा सागर (१९६६)

  • पाप

  • रक्त चंदन

  • देवताओं की घाटी

  • वीर पूजा

  • नया समाज

  • प्रतिशोध

  • प्रकाश और परछाई

  • मैं भी मानव हूँ

  • बंधन मुक्त

निबंध

  • क्या खोया क्या पाया

  • जन-समाज और संस्कृति : एक समग्र दृष्टि

संस्मरण

  • जाने- अनजाने

  • कुछ शब्द : कुछ रेखाएँ

  • यादों की तीर्थयात्रा

  • मेरे अग्रज : मेरे मीत

  • राह चलते चलते

यात्रा-वृत्तांत

  • ज्योतिपुन्ज हिमालय

  • जमुना गंगा के नैहर में

बाल-साहित्य

  • कुंती के बेटे

  • रामू की होली

  • जब दीदी भूत बनी

  • जादू की गाय

  • बापू की बातें

  • अमर शहीद भगत सिंह

  • काका कालेलकर

  • सरदार वल्लभ भाई पटेल

पुरस्कार व सम्मान

  • सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार (आवारा मसीहा) - १९७६

  • पाब्लो नेरुदा सम्मान (आवारा मसीहा)

  • महात्मा गांधी साहित्य सम्मान (उ० प्र० हिंदी संस्थान)

  • डॉ० राजेंद्र प्रसाद शिखर सम्मान (राजभाषा विभाग, बिहार)

  • शलाका सम्मान, १९८७-८८ (हिंदी अकादमी, दिल्ली)

  • मूर्तिदेवी पुरस्कार (अर्धनारीश्वर)- १९८८

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार (अर्धनारीश्वर)- १९९३

  • महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार- १९९५

  • पद्म भूषण- २००४


संदर्भ

  • विष्णु प्रभाकर व्यक्तित्व एवं कृतित्व - डॉ० राज लक्ष्मी नायडू

  • विष्णु प्रभाकर व्यक्ति और साहित्य - संपादक डॉ० महीप सिंह

  • क्या खोया क्या पाया - विष्णु प्रभाकर

  • पंखहीन - विष्णु प्रभाकर

  • मुक्त गगन में - विष्णु प्रभाकर

  • और पंछी उड़ गया - विष्णु प्रभाकर

  • विकिपीडिया

  • हिंदी साहित्य कोश 

लेखक परिचय

 विनीता काम्बीरी

प्रवक्ता(हिंदी) - शिक्षा निदेशालय, दिल्ली प्रशासन प्रस्तोता(हिंदी)- एफएम रेनबो चैनल (आकाशवाणी दिल्ली)    
सम्मान व पुरस्कार- 
सहस्राब्दी हिंदी सेवी सम्मान, (अंतर्राष्ट्रीय विश्व शान्ति प्रबोधक महासंघ
नेशनल वुमन एक्सीलेंस अवार्ड, (पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय, भारत सरकार)
राज्य शिक्षक सम्मान, (शिक्षा निदेशालय, दिल्ली सरकार)
रुचि- मिनिएचर-पेंटिंग, कहानी कविता लिखना 
ईमेल: vinitakambiri@gmail.com

7 comments:

  1. विनीता जी ने आज हिंदी साहित्य के ज्ञाता और इतिहास में विशेष स्थान रखने वाले मशहूर साहित्यकार विष्णु प्रभाकर जी पर अतिप्रभावी आलेख प्रस्तुत किया है। उनकी लिखी गई कृतियाँ शैक्षणिक व्यवस्था में इस्तेमाल की जाती हैं। अपनी अस्मिता के अंतर्गत उन्होंने अपने बहुमूल्य रचनाओं से हमें ज्ञानवर्धित किया है। लेखनीय भाषा में संप्रेषण की अपूर्व क्षमता रखने वाले प्रभाकर जी पर और उनके कृतित्व पर आदरणीया विनीता जी का आलेख अतिसुस्पष्ठ एवं सुगठित है। सुंदर वाक्यरचना से संयोजित शब्दो का चयन भी आवयशक्तानुसार किया गया है। प्रभावोत्पादक आलेख के लिए आपको असंख्य शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
  2. विजय नगरकरJune 21, 2022 at 3:00 PM

    विनिता जी, बहुत सुंदर लेख, हार्दिक बधाई 👏💐
    स्व विष्णु प्रभाकर जी के साथ पत्राचार होता था। उनका हिंदीतर नवलेखक और हिंदी भाषा के प्रति बेहद संवेदनशील और मार्गदर्शक दृष्टिकोण था। इतने बड़े लेखक से पोस्टकार्ड प्राप्त होना मेरे लिए अमूल्य बात थी।
    सुना था आखरी दिनों में उनके घर के स्वामित्व को लेकर भी विवाद हुआ था, जिससे वे नाराज थे।🙏 उनका एक पत्र साझा कर रहा हूं।

    ReplyDelete
  3. अच्छा आलेख। प्रभाकर जी के बारे में बहुत कुछ जानकारी मिली
    शिवानन्द सिंह "सहयोगी'

    ReplyDelete
  4. विनीता जी नमस्ते। आपका विष्णु प्रभाकर जी पर लिखा यह लेख बहुत अच्छा है। आपने सीमित शब्द सीमा में विस्तृत लिखा है। लेख में दिए गए रचनाओं के अंश / कथन भी रोचक हैं। आपको इस जानकारी भरे रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।

    ReplyDelete
  5. लेख की एक सीमा होती है, उस सीमा में बन्धकर जो भी कहा गया बहुत अच्छा कहा गया। यह सच है कि एक विशाल व्यक्तित्व को सीमित शब्दो में व्यक्त नहीं किया जा सकता पर एक समग्र झलक अवश्य प्रस्तुत की जा सकती है। उस दृष्टि से यह बहुत अच्छा लेख है, विनीत जी को बधाई। 9810911826 अतुल कुमार प्रभाकर

    ReplyDelete
  6. विनीता जी, आपने विष्णु प्रभाकर जैसे साहित्यकार के जीवन और साहित्य-मार्ग के विभिन्न पहलुओं को बख़ूबी समेटता हुआ एक अत्यंत पठनीय लेख प्रस्तुत किया है। सातवीं कक्षा के विद्यार्थी द्वारा लिखा पत्र साहित्य-जगत के प्रति उनकी दिलचस्पी और समर्पण दिखाता है। आपको इस आलेख के लिए बधाई और आभार।

    ReplyDelete
  7. विनीता जी, विष्णु प्रभाकर जी पर एक अत्युत्तम लेख पढ़ने को मिला। आपने बेहद सधी हुई शैली में विष्णु प्रभाकर जी की जीवन यात्रा , उनके संघर्ष और साहित्य के प्रति उनके अनुराग और रचना संसार को हमसे परिचित कराया है। इस जानकारीपूर्ण आलेख के लिए आपको बधाई और धन्यवाद।

    ReplyDelete

आलेख पढ़ने के लिए चित्र पर क्लिक करें।

कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...