"जैसे आँधी से उठी धूल हो
लोग शहर से गाँव चले जा रहे हैं
जैसे १९४७ फिर आ गया हो
लोग चले जा रहे हैं
भूख चली जा रही है
आँधी चली जा रही है
गठरियाँ चली जा रही हैं
झोले चले जा रहे हैं
पानी से भरी बोतलें चली जा रही हैं
दो क़दम चलना सीखा है
जिन्होंने अभी-अभी घूँघट छोड़ना सीखा है
जिन्होंने अभी खड़े होना सीखा है
जिन्होंने पहली बार जानी है थकान
सब चले जा रहे हैं गाँव की ओर
कड़ी धूप है
लोग चले जा रहे हैं
बारिश रुक नहीं रही है
लोग भी थम नहीं रहे हैं
भूख रोक रही है
लोग उससे हाथ छुड़ा कर भाग रहे हैं
महानगर से चली जा रही है उसकी नींव
उसका मूर्ख ढाँचा हँस रहा है।"
वैश्विक महामारी कोविड-१९ का प्रकोप, भारत में लाकडाउन का भयावह मँज़र, सड़कों पर उमड़ती भीड़, झुँड के झुँड लोग रोटी रोज़गार के अभाव में महानगरों से गाँव की ओर पलायन करते, धक्के खाते, भूखे-प्यासे सैकड़ों कि०मी० बीवी-बच्चों सहित सामान से लदे-फदे जा रहे हैं। विष्णु नागर ने अपनी कविता के उक्त अंश में मानव की पीड़ा और उसके कष्टों का सजीव और मर्मस्पर्शी चित्रण संवेदनात्मक भावुकता के साथ प्रस्तुत किया है। हिंदी साहित्य जगत के प्रख्यात और लिख्खाड़ साहित्यकार विष्णु नागर जी संवेदनशील, यथार्थवादी दृष्टिकोण के जनपक्षधर रचनाकार हैं।
हिंदी के ऐसे अप्रतिम रचनाकार का जन्म १४ जून,१९५० को मध्य प्रदेश के शाजापुर में हुआ था। इनका बचपन और छात्र जीवन शाजापुर में ही बीता। पिता के अचानक निधन के बाद इनकी माँ ने इन्हें बहुत प्यार से पाला-पोसा। विष्णु नागर जी को जब पहली नौकरी मिली तो वे अपनी माँ के साथ आकर कम पैसों के कारण एक बहुत छोटे मकान में रहने लगे, जहाँ उनकी माँ तेज़ शोर-शराबे के कारण ठीक से सो भी नहीं पाती थीं। दिल्ली प्रेस में नौकरी की, परंतु वहाँ बाॅस के तनाव व दबाव को लंबे समय तक झेलने के बजाए उन्होंने त्यागपत्र देना उचित समझा और वह नौकरी छोड़ दी।
आरंभिक शिक्षा-दीक्षा के बाद १९७१ से दिल्ली में स्वतंत्र पत्रकारिता शुरू की। 'नवभारत टाइम्स', जर्मन रेडियो 'डोयचे वैले', 'हिंदुस्तान' दैनिक आदि से संबद्धता रही। बाद में 'कादंबिनी' के कार्यकारी संपादक रहे और कुछ समय तक दैनिक 'नई दुनिया' से भी संबद्धता रही। उन्होंने 'शुक्रवार' पत्रिका का भी संपादन किया। अब वे एक बड़े प्रसिद्ध साहित्यकार होने के साथ-साथ स्वतंत्र पत्रकारिता भी कर रहे हैं। इस समय साप्ताहिक वामपंथी मुखपत्र 'लोकलहर' में "नागर जी खबर लाए हैं" शीर्षक से नियमित व्यंग्य-स्तंभ लिख रहे हैं। जिसमें व्यंग्य की पैनी धार स्पष्ट देखी जा सकती है। ०५ जून, २०२२ के 'लोकलहर साप्ताहिक' में 'नागर जी खबर लाए हैं' स्तंभ का यह व्यंग्य अंश निर्भीकता के साथ देश के सम्राट पर गहरी चोट करता है,
"उन्हें जो प्रधानमंत्री मानते हैं, वे गलत करते हैं। मोदीजी तो राजा हैं। वैसे राजा कहना भी उनके कद को छोटा करना है। वह तो चक्रवर्ती सम्राट हैं। विनम्र हैं, इसलिए मुकुट धारण नहीं करते, वरना उन्हें कौन रोक सकता है? और सम्राटों की बात हमेशा से निराली रही है। मक्खन खाना तो उनके लिए बहुत ही मामूली बात है। वह चाहें तो मक्खन से मुँह धो सकते हैं। मन करे तो मक्खन के स्विमिंग पूल में तैर सकते हैं। मक्खन के बिस्तर पर मक्खन का तकिया लगाकर सो सकते हैं। वह ऐसा सब कुछ कर सकते हैं, जो चक्रवर्ती सम्राटों और बादशाहों ने किया।------"
"उन्हें जो प्रधानमंत्री मानते हैं, वे गलत करते हैं। मोदीजी तो राजा हैं। वैसे राजा कहना भी उनके कद को छोटा करना है। वह तो चक्रवर्ती सम्राट हैं। विनम्र हैं, इसलिए मुकुट धारण नहीं करते, वरना उन्हें कौन रोक सकता है? और सम्राटों की बात हमेशा से निराली रही है। मक्खन खाना तो उनके लिए बहुत ही मामूली बात है। वह चाहें तो मक्खन से मुँह धो सकते हैं। मन करे तो मक्खन के स्विमिंग पूल में तैर सकते हैं। मक्खन के बिस्तर पर मक्खन का तकिया लगाकर सो सकते हैं। वह ऐसा सब कुछ कर सकते हैं, जो चक्रवर्ती सम्राटों और बादशाहों ने किया।------"
कविता की दुनिया में चार दशक से सक्रिय विष्णु नागर व्यंग्य और विडंबना के कवि तो हैं ही साथ ही जीवन की संवेदना के विविध रंगों के भी कवि हैं। प्रतिकार-कवियों की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए उनका समकालीन हस्तक्षेप लगातार बना रहा है। उन्होंने छोटी कविताओं की संवाद क्षमता से हिंदी जगत को परिचित कराया। वे अपनी तरह के अलग कवि हैं। उनकी कविताएँ न केवल सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों से मुठभेड़ करती रही हैं, बल्कि संसार को बदलने की आकांक्षा भी प्रकट करती रही हैं।
विष्णु नागर के पास जीवन और रचना का एक सुदीर्घ समृद्ध अनुभव संसार है। उन्होंने अनेक विधाओं में समान श्रेष्ठता के साथ लिखा है। हिंदी में 'मूलतः' और 'भूलतः' जैसे विभाजनों को वे तत्परता से मिटाते हैं। उनके भीतर एक ऐसा सजग, सक्रिय, सक्षम रचनाकार है, जो सामाजिक न्याय की उत्कट इच्छा से भरा हुआ है। उनकी रचनाशीलता निजी सुख-दुख का अतिक्रमण करती हुई व्यापक रूप में समय व समाज को भांति-भांति से अभिव्यक्त करती है।
इनकी एक कविता विशेषतः छोटे बच्चों को समयबोध कराती है कि इस समाज में अमीर और गरीब क्यों हैं? उसकी पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार हैं,
उनकी एक और कविता जो मनुष्यों के लिए मुर्गे के रूपक में है,
इनकी एक कविता विशेषतः छोटे बच्चों को समयबोध कराती है कि इस समाज में अमीर और गरीब क्यों हैं? उसकी पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार हैं,
किसी भी ऐसे देश में
जहाँ ग़रीब बहुत हों और अमीर बहुत कम
एक बच्चे के मन में भी यह सवाल उठता है कि ऐसा क्यों?
लेकिन यहाँ सिर्फ़ बच्चों के मन में ही
ये सवाल उठते हैं
सिर्फ़ बच्चे ही डरकर नींद से उठ बैठते हैं
और रोने लगते हैं
और इंतज़ार करते हैं कि कोई आए
और उन्हें चुप कराए
और जब कोई नहीं आता
तो रोते-रोते न जाने कब
वे फिर सो जाते हैं।
उनकी एक और कविता जो मनुष्यों के लिए मुर्गे के रूपक में है,
"हमारा क्या है
हम तो जी मुर्गे-मुर्गियाँ हैं
हमें ऐसे मार दो या वैसे मार दो
हलाल कर दो या झटके से मार दो
चाहो तो बर्ड फ्लू हो जाने के डर से मार दो
मार दो जी, जी भरकर मार दो
मार दो जी, हज़ारों और लाखों की संख्या में मार दो
परेशान मत होना जी, यह मजबूरी है हमारी
कि मरने से पहले हम तड़पती ज़रूर हैं.
चीख़ती-चिल्लाती ज़रूर हैं
चेताती हैं ज़रूर कि लोगों, भेड़-बकरियों और मनुष्यों तुम भी
अच्छी तरह सुन लो, समझ लो, जान लो
कि आज हमें मारा जा रहा है तो कल तुम्हारी बारी भी आ सकती है
अकेले की नहीं लाखों के साथ आ सकती है
हम जानती हैं हमारे मारे जाने से क्रांतियाँ नहीं होतीं
हम जानती हैं कि हमारे मारे जाने को मरना तक नहीं माना जाता
हम जानती हैं
हम आदमियों के लिए साग-सब्जियाँ हैं, फलफ्रूट हैं
हमारे मरने से सिर्फ़
आदमी का खाना कुछ और स्वादिष्ट हो जाता है
हमें मालूम है मुर्गे-मुर्गी होने का मतलब ही है
अपने आप नहीं मरना, मारा जाना
हमें मालूम है हम मुर्गेमुर्गी होने का अर्थ नहीं बदल सकते
फिर भी हम मुर्गेमुर्गियाँ हैं
जो कभी किसी कविता, किसी कहानी में प्रकट हो जाते हैं
हम मुर्गेमुर्गियाँ हैं
इसलिए कभी किसी को इस बहाने यह याद आ जाता है
कि ऐसा मनुष्यों के साथ भी होता है, फिर-फिर होता है
हम मुर्गेमुर्गियाँ हैं इसलिए हम सुबह कुकड़ू कूँ ज़रूर करते हैं
हम अपनी नियति को जानकर भी दाने खाना नहीं छोड़ते हैं
कुछ भी, कैसे भी करो
मुर्गेमुर्गियों को आलू बैंगन नहीं समझा जा सकता"
विष्णु नागर जी की साहित्य विधा बहुआयामी व बहुमुखी है। उनके साहित्य में जनसरोकार के सभी पहलू दिखाई देते हैं। उनका साहित्य मुंशी प्रेमचंद की भाषा में कहा जाए तो व्यवस्था परिवर्तन हेतु समाज के आगे चलने वाली मशाल है। जैसे उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'ईश्वर की कहानियाँ' का एक उद्धरण दृष्टिगत है,
"ईश्वर से पूछा गया कि उन्हें कौन-सा मौसम अच्छा लगता है - ठंड का, गरमी का या बरसात का?
ईश्वर ने कहा - मूर्ख! यह सवाल गरीबों से किया करते हैं, ईश्वर से नहीं।"
"ईश्वर से पूछा गया कि उन्हें कौन-सा मौसम अच्छा लगता है - ठंड का, गरमी का या बरसात का?
ईश्वर ने कहा - मूर्ख! यह सवाल गरीबों से किया करते हैं, ईश्वर से नहीं।"
उनके साहित्य में मानवीय संवेदना के सभी पहलुओं के साथ-साथ मानव के अंतर्द्वंद्व के पहलू भी स्पष्ट दिखाई देते हैं। उनकी लघुकथा 'औरत' और 'शांतिमार्ग' इन भावनाओं को बखूबी प्रकट करती हैं,
"लोग तो एक पैसे के लिए जान छोड़ते हैं, हमीं क्यों छोड़ें अपने दस रुपए। बिना माँगे पड़ोसी देने वाला नहीं। हमें बेशर्म होकर माँगना पड़ेगा।
यही औरत थोड़ी देर पहले अपने पति से कह रही थी, 'बेचारों की हालत ख़स्ता है। मुझसे तो देखा नहीं जाता। और तो क्या कर सकते हैं? उसके बच्चों को किसी न किसी बहाने घर बुलाकर खाना खिला देती हूँ।"
"लोग तो एक पैसे के लिए जान छोड़ते हैं, हमीं क्यों छोड़ें अपने दस रुपए। बिना माँगे पड़ोसी देने वाला नहीं। हमें बेशर्म होकर माँगना पड़ेगा।
यही औरत थोड़ी देर पहले अपने पति से कह रही थी, 'बेचारों की हालत ख़स्ता है। मुझसे तो देखा नहीं जाता। और तो क्या कर सकते हैं? उसके बच्चों को किसी न किसी बहाने घर बुलाकर खाना खिला देती हूँ।"
उनकी लघु कथा "शांति का मार्ग" वाकई बहुत मारक है और मध्यम वर्ग की दुविधाओं व उसके वर्ग चरित्र को अच्छे से उजागर करता है,
"धोबी का कुत्ता घर का, न घाट का। इस मुहावरे पर बहस हो रही थी। एक ने कहा, 'धोबी के कुत्ते की नियत पर हँसने वाले हम कौन?'
दूसरे ने कहा - 'हाँ, हम कौन? हम भी तो कुत्ते-से हैं।'
तीसरे ने कहा - 'कुत्ते से मत कहो। कुत्ते हैं कुत्ते और धोबी के ही है।' इस पर सब हँस पड़े और अपने-अपने घर चले गए और उस रात मजे से सो गए।
अगले दिन फिर मिले। एक ने दूसरे को छेड़ दिया - 'और कुत्ते? मेरा मतलब धोबी के कुत्ते।'
इतना कहना था कि वह उस पर लात-घूसों से पिल पड़ा। उसे मार-मार कर अधमरा कर दिया, हालांकि वह उनका मित्र था।और फिर हुआ यह कि सबने एक दूसरे से मिलना बंद कर दिया। सबने माना कि सुख शांति से रहने का यही एक मात्र उपाय है।"
"धोबी का कुत्ता घर का, न घाट का। इस मुहावरे पर बहस हो रही थी। एक ने कहा, 'धोबी के कुत्ते की नियत पर हँसने वाले हम कौन?'
दूसरे ने कहा - 'हाँ, हम कौन? हम भी तो कुत्ते-से हैं।'
तीसरे ने कहा - 'कुत्ते से मत कहो। कुत्ते हैं कुत्ते और धोबी के ही है।' इस पर सब हँस पड़े और अपने-अपने घर चले गए और उस रात मजे से सो गए।
अगले दिन फिर मिले। एक ने दूसरे को छेड़ दिया - 'और कुत्ते? मेरा मतलब धोबी के कुत्ते।'
इतना कहना था कि वह उस पर लात-घूसों से पिल पड़ा। उसे मार-मार कर अधमरा कर दिया, हालांकि वह उनका मित्र था।और फिर हुआ यह कि सबने एक दूसरे से मिलना बंद कर दिया। सबने माना कि सुख शांति से रहने का यही एक मात्र उपाय है।"
विष्णु नागर जी अपने व्यंग्य बाणों से लुटेरे सिस्टम पर कड़ी चोट करते हैं। उनकी कविता 'अखिल भारतीय लुटेरा' का यह अंश कितना पैना है, जो सिस्टम के सीने में तीर की तरह चुभ रहा है,
"दिल्ली का लुटेरा था अखिल भारतीय था
फर्राटेदार अंग्रेजी बोलता था
लुटनेवाला चूँकि बाहर से आया था
इसलिए फर्राटेदार हिंदी भी नहीं बोलता था
लुटेरे को निर्दोष साबित होना ही था
लुटनेवाले ने उस दिन ईश्वर से सिर्फ एक ही प्रार्थना की कि
भगवान मेरे बच्चों को इस दिल्ली में फर्राटेदार अंग्रेजी बोलनेवाला जरूर बनाए
और ईश्वर ने उसके बच्चों को तो नहीं
मगर उसके बच्चों के बच्चों को जरूर इस योग्य बना दिया।"
इसी प्रकार आज जब सत्ता के द्वारा बुलडोज़र का इस्तेमाल कर सब कुछ तोड़ा जा रहा है, तब विष्णु नागर बुलडोज़र पर निशाना साधते हुए उसे विचार बता रहे हैं,
"बुलडोजर एक विचार है
जो एक मशीन के रूप में सामने आता है
और आँखों से ओझल रहता है
बुलडोजर एक विचार है
हर विचार सुंदर नहीं होता
लेकिन वह चूँकि मशीन बन आया है तो
इस विचार को भी कुचलता हुआ आया है
कि हर विचार को सुंदर होना चाहिए
बुलडोजर एक विचार है
जो अपने शोर में हर दहशत को निगल लेता है
तमाशबीन इसके करतब देखते हैं
और अपने हर उद्वेलन पर ख़ुद
बुलडोजर चला देते हैं
जब भी देखो मशीन को
इसके पीछे के विचार को देखो
वरना हर मशीन जिसे देखकर बुलडोजर का ख़याल तक नहीं आता
बुलडोजर साबित हो सकती है।"
इस समय विष्णु नागर जी दिल्ली में नवभारत टाइम्स अपार्टमेंट्स ,मयूर बिहार,फेज-१ में अपनी पत्नी के साथ रहते हुए स्वतंत्र पत्रकारिता और साहित्य सेवा करते हुए अपनी विविधतापूर्ण रचनाओं द्वारा भारतीय लोकतंत्र व संविधान के विशाल वृक्ष को लोकतंत्र व संविधान विरोधी ताकतों से बचाने का प्रयत्न कर रहे हैं। उनके जन्मदिन पर हार्दिक शुभकामनाओं के साथ उनके दीर्घ जीवन की कामना करते हुए उनकी बहुमूल्य साहित्य सेवा को याद करते हैं।
"हर स्वप्न के लिए नींद चाहिए,
हर नींद के लिए थकान।"
संदर्भ
औरत लघुकथा - विष्णु नागर
शांति का मार्ग लघुकथा - विष्णु नागर
सुन्दर आलेख, कवि, कथाकार, व्यंग्यकार, पत्रकार नगर जी को जानना सुखद !
ReplyDeleteसुनील जी, सटीक उद्धरणों के साथ गठी शैली में विष्णु नागर जी पर लिखा आपका यह आलेख उनकी संवेदनाओं, व्यंग्य, कटाक्ष सभी की अनुपम झलक पेश करता है। आपको इस आलेख के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteसुनील जी नमस्ते। साहित्यकार विष्णु नागर जी पर आपका लेख बहुत अच्छा है। उनकी कविताओं के उदाहरण लेख को और रोचक बना रहे हैं। आपको संवेदनाओं से भरे इस लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसुनील जी, सुगठित, रोचक और प्रवाहमय आलेख लिखा है आपने विष्णु नागर जी पर। आपको इसके लिए बधाई।
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