गुलगुली गिल में गलीचा हैं, गुनीजन हैं,
चाँदनी है, चिक है चिरागन की माला हैं।
कहैं पद्माकर त्यौं गजक गिजा है सजी
सेज हैं सुराही हैं सुरा हैं और प्याला हैं।
सिसिर के पाला को व्यापत न कसाला तिन्हें,
जिनके अधीन ऐते उदित मसाला हैं।
तान तुक ताला है, विनोद के रसाला है,
सुबाला हैं, दुसाला हैं, विसाला चित्रसाला हैं।
सन १७०० में जब तात्कालिक दरबारी संस्कृति और संस्कृत साहित्यशास्त्र ने हिंदी कविता को शास्त्रीय अनुशासन की ओर प्रवृत्त किया, तब हिंदी में 'रीति' या 'काव्यरीति' शब्द का प्रयोग काव्यशास्त्र के लिए होने लगा। काव्यशास्त्र के नियमों का पालन करते हुए और सृजनात्मकता, रस व अलंकार युक्त लक्षणग्रंथों को ध्यान में रखते हुए इस समय के काव्य को 'रीतिकाव्य' कहा गया। इस काव्य की पुरानी परंपरा के स्पष्ट संकेत हमें, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, फारसी और हिंदी के आदिकाव्य तथा कृष्णकाव्य में मिलते हैं। कवित्त, सवैये और दोहों के प्रयोग से शृंगार प्रधान और मुक्तक रचनाएँ करते-करते अधिकांश कवि 'आचार्य' की संज्ञा पा चुके थे। राजाश्रित होने के कारण इन कवियों की अधिकतर कविताएँ दरबारी होतीं थीं, जिसके परिणामस्वरूप कविता साधारण जनता से विमुख होती गई परंतु चमत्कारपूर्ण व्यंजना से युक्त होती गई।
इसी शृंखला में सन १७५३ में दक्षिण के आत्रेय, आर्चनानस, शबास्य-त्रिपवरान्वित, कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तरीय शाखा के यशस्वी तैलंग ब्राह्मण परिवार में पद्माकर जी का जन्म हुआ। वे तेलुगु भाषी थे। इनके पिता मोहनलाल भट्ट थे। अपना परिचय वे स्वयं इस प्रकार देते हैं,
भट्ट तिलंगाने को, बुण्देलखंड-वासी कवि, सुजस-प्रकासी 'पद्माकर' सुनामा हों
जोरत कबित्त छंद-छप्पय अनेक भांति, संस्कृत-प्राकृत पढी जु गुनग्रासा हों
हय रथ पालकी गेंद गृह ग्राम चारू आखर लगाय लेत लाखन की सामां हों
मेरे जान मेरे जान मेरे तुम कान्ह हो जगतसिंह तेरे जान तेरो वह विप्र मैं सुदामा हों।
पद्माकर 'कवीश्वर' एक प्रतिभासंपन्न कवि थे। उनके पूरे कुटुंब का वातावरण कवितामय था। इस कारण उन्हें कविता घुट्टी में मिली। उनमें आशु-कवित्त-शक्ति थी जो उन्होंने अपने पहले के कवियों और संस्कृत-विद्वानों की सुदीर्घ वंश-परंपरा से प्राप्त की थी। ९ वर्ष की उम्र में ही पद्माकर उत्कृष्ट कविता लिखने लगे थे। कहते हैं कि उनके पिता के साथ-साथ उनके कुल के अन्य लोग भी आदर के पात्र थे, जिसके कारण इनके कुल या वंश का नाम ही 'कवीश्वर' पड़ गया। ब्रजभाषा कवियों में पद्माकर जी का स्थान महत्त्वपूर्ण रहा है। वे हिंदी साहित्य के रीतिकालीन कवियों में अंतिम चरण के सुप्रसिद्ध और विशेष सम्मानित कवि थे। अलंकार-निरूपक आचार्यों में उनका नाम आता है। नवरसों का सफल निरूपण करने वाले गिने-चुने आचार्यों में पद्माकर जी का नाम लिया जाता है। हिंदी भाषी न होते हुए भी पद्माकर जी ने आंध्र के अनगिनत तैलंग-ब्राह्मणों की भाँति हिंदी और संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि में विशेष योगदान दिया।
पद्माकर, राजदरबारी कवि थे जिन्होंने अनेक राजदरबारों में सम्मान प्राप्त किया। वे दरबारी संस्कृति के लोगों से घिरे रहते थे। उन्होंने अतुल संपत्ति भी अर्जित की। सुधाकर पांडेय जी कहते हैं कि, "पद्माकर ऐसे सरस्वती पुत्र थे, जिन पर लक्ष्मी जी की कृपा सदा से रही। वे अनेक नरेशों द्वारा सम्मानित किए गए थे। वे जब चलते थे तो राजाओं की तरह उनके साथ उनका जुलूस चलता था और उसमें गणिकाएँ भी रहती थीं।" अपनी काव्य-शक्ति के प्रताप से उन्होंने ५६ लाख रुपए नकद, ५६ गांव और ५६ हाथी इनाम में पाए थे। सतारा के महाराज रघुनाथ राव जो 'राघोवा' के नाम से प्रसिद्ध थे, उनसे भी इन्हें एक हाथी, एक लाख रुपए और दस गांवों की संपत्ति इनाम में मिली। माना जाता है कि रघुनाथराव के पन्ना और जयपुर के रनिवासों में पद्माकर जी का पर्दा भी नहीं था। उत्सवों और त्योहारों के अवसर पर उन्होंने राजसी शृंगार में सजी अनेक कमनीय-कांताओं को निकट से देखा था। वे कुछ ही दिनों में इतने धनाढ्य हो गए थे कि आवश्यकता पड़ने पर कई राजाओं और राजघरानों को आर्थिक सहायता भी देते थे। पन्ना महाराज हिंदुपति के गुरु के रूप में उन्हें पांच गांव जागीर में प्राप्त हुए, जयपुर नरेश सवाई प्रतापसिंह ने उन्हें एक हाथी, स्वर्ण पदक, जागीर तथा कवि 'शिरोमणि' की उपाधि से सम्मानित किया और बाद में जयपुर के राजा जगत सिंह ने उन्हें दरबार में गांव की जागीर, धन संपदा और आदर दिया। उनके वंशज गुरु कमलाकर 'कमल' और भाल चंद्रराव, पद्माकर को मुगल युग के भामाशाह जैसे मानते हैं, जिन्होंने महाराणा प्रताप को मेवाड़ की सैन्य शक्ति पुनर्गठित करने के उद्देश्य से अपनी संपत्ति दान कर दी थी। उन्हें समय-समय पर नागपुर, दतिया, सतारा, सागर, जयपुर, उदयपुर, ग्वालियर, अजयगढ़ और बूंदी दरबार की ओर से सम्मान और धन मिलता रहा।
पद्माकर जी के रचित ग्रंथों में हिम्मत बहादुर वीरुदावली, पद्माभरण, जगद्विनोद, राम रसायन (अनुवाद), गंगा लहरी, आलीजा प्रकाश, प्रतापसिंह विरुदावली, प्रबोध पचासा, ईश्वर पचीसी, यमुना लहरी, प्रतापसिंह सफरनामा, भगवत् पंचाशिका, राजनीति, कलिपचीसी, रायसा, हितोपदेश भाषा (अनुवाद), अश्वमेघ आदि प्रमुख हैं। अजयगढ़ के गुसाईं अनूप गिरी की काव्यात्मक-प्रशंसा में उन्होंने 'हिम्मत बहादुर विरुदावली', जयपुर नरेश प्रताप सिंह के सम्मान में 'प्रतापसिंह विरुदावली' और सवाई जगत सिंह के लिए 'जगत विनोद', ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया के सम्मान में आलीजाप्रकाश, जयपुर नरेश ईश्वरी सिंह की प्रशस्ति में 'ईश्वर पचीसी' जैसे सुप्रसिद्ध काव्य ग्रंथों की रचना की।
इनके काव्य में शृंगार, राजप्रशस्ति और भक्ति की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। इनकी भाषा स्निग्ध, मधुर, सजीव, सरस, काव्यमय, सुव्यवस्थित, अनेकरूपता लिए हुए प्रवाहपूर्ण है। इनकी शैली वर्णनात्मक और चित्रात्मक है। इनके काव्य में भाव और रस की धारा प्रवाहित होती है, कहीं शृंगार रस तो कहीं अनुप्रास की झंकार है, तो कहीं इनका काव्य मनुष्य जीवन को शांत सरोवर के समान स्थिर और गंभीर छाया प्रदान करता है। पद्माकर ने सजीव-सी दिखने वाली अपनी कल्पना के माध्यम से शौर्य, शृंगार, प्रेम, भक्ति, राजदरबार की संपन्न गतिविधियों, मेलों-उत्सवों, युद्धों, नायक-नायिकाभेद, और प्रकृति सौंदर्य में षडऋतु वर्णन आदि का मार्मिक चित्रण किया है। लाक्षणिक शब्दों के प्रयोग से उन्होंने सूक्ष्म से सूक्ष्म भावानुभूतियों को सहज ही मूर्तिमान कर दिखाया है। उनके 'गणगौर' मेले के वर्णन और ऋतु-वर्णन में जीवंतता और चित्रात्मकता के दर्शन होते हैं। उनके आलंकारिक वर्णन का प्रभाव परवर्ती कवियों पर भी पड़ा। काव्य गुणों का पूरा निर्वाह उनके छंदों में हुआ है। छंदानुशासन और काव्य-प्रवाह की दृष्टि से दोहा, सवैया और कवित्त पर पद्माकर का असाधारण अधिकार था।
सिन्धु के सपूत सुत सिंधु तनया के बंधु
मन्दिर अमन्द सुभ स्न्दर सुधाई के।
कहै 'पद्माकर' गिरीस के बसे हौ सीस
तारन के ईस कुलकारन कन्हाई के।।
लाक्ष्णिक काव्यों की रचना करने वाले कवि पद्माकर जीवन के अंतिम समय में कुष्ठरोग से ग्रस्त हुए। गंगाजल के औषधिमूलक प्रयोग के बाद कुछ समय के लिए वे स्वस्थ भी हुए थे, अपनी अंतिम काव्य रचना - 'गंगा-लहरी' लिख कर समाप्त करने के उपरांत कानपुर में गंगा किनारे ८० वर्ष की आयु में सन १८३३ में उन्होंने परलोक गमन किया। सागर में तालाब घाट पर पद्माकर की मूर्ति आज भी स्थापित है।
आरस सो आरत, सँभारत न सीस पट,
गजब गुजारति गरीबन की धार पर।
कहैं पद्माकर सुरा सों सरसार तैसे,
बिथुरि बिअराजै बार हीरन के हार पर
छाजत छबीले छिति छहरि छरा के छोर,
भोर उठि आई केलिमंदिर के द्वार पर।
एक पग भीतर औ एक देहरी पै धारे,
एक कर कंज, एक कर है किवार पर
संदर्भ
- हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
- नकछेदी तिवारी : देवनागर, वत्सर-1, अंक-1, 'पद्माकर कवि' पृष्ठ १७
- भालचंद्र कवीश्वर तैलंग,'माधुरी' अंक फरवरी १९३४, पृष्ठ ३४
- पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र : 'पद्माकर ग्रंथावली'
- शिव सिंह 'सरोज' : 'हिंदी सहित्य का प्रथम' इतिहास: कवि संख्या ४४६ पृष्ठ २४५
- सुधाकर पांडेय : 'हिंदी-साहित्य-चिंतन' 'कला-मंदिर', दिल्ली पृष्ठ ३४९-३५४
- डॉ॰ भालचंद्र राव, प्रोफ़ेसर एवं विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मराठवाडा विश्वविद्यालय द्वारा राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर में दिया व्याख्यान
- स्व. पंडित रत्नगर्भ तैलंग महापुरा और स्व. कमलाकर 'कमल' जयपुर के स्रोतों से प्राप्त जानकारी तथा 'उत्तर भारतीय आन्ध्र-तैलंग-भट्ट-वंशवृक्ष' (भाग-२) संपादक स्व० पोतकूर्ची कंठमणि शास्त्री और करंजी गोकुलानंद तैलंग द्वारा 'शुद्धाद्वैत वैष्णव वेल्लनाटीय युवक-मंडल', नाथद्वारा से वि० सं० २००७ में प्रकाशित पद्माकर कवीश्वर की ग्रंथ-सूची
रीति-काल के अन्तिम खेबे के कवियों में पद्माकर भट्ट का सर्वोच्च
ReplyDeleteस्थान है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित डॉ.सी.कामेश्वरी
का लेख उनके गहन अनुशीलन का साक्ष्य है।विदुषी लेखिका ने बड़ी
गहराई में पाकर उनके चिन्नत के रत्न-कणों से अपने विवेचन को
आधारित किया है। लेख अति ज्ञानवर्धक एव संग्रहणीय है।
दीपा जी की परिचयात्मक प्रस्तुति काबिलेतारीफ है।बधाई।
डॉ.राहुल,नई दिल्ली (भारत)
बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteकवि पद्माकर के बारे में अच्छी जानकारी प्रस्तुत की गई है,हार्दिक अभिनंदन, डॉ कामेश्वरी जी 💐
ReplyDeleteकामेश्वरी जी, आपने बहुत सरल और रुचिपूर्ण तरीक़े से कवि पद्माकर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को इस आलेख में प्रस्तुत किया है। सरस्वती और लक्ष्मी दोनों का आशीष प्राप्त इस महान कवि ने दक्षिण में भी हिंदी और संस्कृत की पताका को फहराए रखा।
ReplyDeleteआपको इस आलेख के लिए आभार और बधाई।
जी । धन्यवाद ।
Deleteलोकप्रिय कवि बिहारी जी के साथ साथ आदरणीय पद्माकर जी भी रीतिकाल के सर्वश्रेष्ठ राजदरबारी कवि रहे हैं। पूर्णता और उत्कृष्ट कोटि के पंडित कवि पद्माकर जी को अनेक राजाओ और राज्यों के दरबार मे अच्छा सम्मान प्राप्त हुआ है। आदरणीया डॉ. कामेश्वरी जी ने इस आलेख में उनकी कृति श्रृंगार का रस अपने शब्दों को घोल में मिलाकर बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत किया है। आपकी लेखनीय कल्पना भावपूर्ण चित्र की प्रत्यक्ष अनुभूति करा रही है। आद. पद्माकर जी की अभिव्यक्तियाँ पढ़कर खूब सारा ज्ञान प्राप्त हो रहा है। आपके आलेख द्वारा पद्माकर जी की अत्यंत कोमल पदावली भाव और रस की धारा में बहकर अलंकारों की झंकार लगा रही है। उनकी अनेकरूपता को एकरूप कर सुंदर और ज्ञानवर्धक आलेख प्रस्तुत करने हेतु आपका आभार और अनन्त मंगलकामनाएं।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद। लेख लिखने में जितना आनंद का अनुभव किया, आपकी प्रशंसाएं पाकर उतना ही आनंद का अनुभव कर रही हूं ।
Deleteडॉ. कामेश्वरी जी नमस्ते। आपने रीतिकालीन कवि पद्माकर जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। लेख में सम्मिलित उनके छन्दों ने लेख को रोचक बना दिया है। लेख पर आई टिप्पणियों ने लेख को और भी विस्तार दे दिया है। आपको इस शोधपूर्ण लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteजी । अतिशय आनंद । धन्यवाद ।
Deleteअभिनंदन
ReplyDeleteजी । धन्यवाद ।
ReplyDeleteवाह, कामेश्वरी जी। आपकी भाषा ने मुग्ध कर दिया। अच्छी हिंदी लिखना, और वाक्य संरचना को बिना विकट बनाए, प्रवाहमय, मधुर विधि से पाठक तक बात पहुँचाना, इसका उदाहरण आपने इस आलेख में प्रस्तुत किया है। पद्माकर के लेखन पर काफ़ी जानकारी मिली। उनकी छंद रचना सुंदर है और आपके द्वारा प्रस्तुत उद्धरण उन्हें और पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं ।
ReplyDeleteआपको बधाई, साधुवाद। 💐💐
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ReplyDeleteकामेश्वरी जी के लेख में पद्माकर जी पर उत्तम जानकारी दी गयी है.
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ReplyDeleteकामेश्वरी जी नमस्ते। कवि पद्माकर जी पर बहुत अच्छा लेख। आपने अपने इस लेख में उनके छन्दों को जिस तरह पिरोया है उसने लेख को पढ़ने का आनंद दोगुना कर दिया। आपने कवि के साहित्यिक योगदान को विस्तार से जानने का अवसर दिया। आपको इस शोधपूर्ण और समृद्ध लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
जी । बहुत बहुत धन्यवाद।
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