हिंदी साहित्य के इतिहास में ब्रज भाषा का एक लंबा दौर जब अपने अवसान में था उस समय एक प्रखर विद्वान ने पंजाब में जालंधर के फिल्लौर में जन्म लिया। उनका नाम रखा गया श्रद्धाराम शर्मा और बाद में गाँव का नाम इनके उपनाम के रूप में प्रसिद्ध हो गया और उन्हें पंडित श्रद्धाराम शर्मा 'फिल्लौरी' के नाम से जाना गया। एक साहित्यकार के साथ-साथ सामाजिक सुधारक के रूप में भी वे महत्वपूर्ण हैं। खासकर पंजाब प्रांत में तो उन्होंने समाज सुधार की जो बयार चलाई उसने आगे चलकर वहाँ आर्यसमाज के लिए एक सशक्त पृष्ठभूमि तैयार की।
फिल्लौरी जी ने मात्र ७ वर्ष की आयु में गुरुमुखी सीख ली थी और १० वर्ष की अवस्था तक संस्कृत, हिंदी, फ़ारसी, ज्योतिष, अंग्रेज़ी आदि की पढ़ाई शुरू कर दी और बहुत जल्दी ही इन पर अधिकार भी कर लिया।
उनके संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा है, "संवत १९१० के लगभग ही विलक्षण प्रतिभाशाली विद्वान पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी जी के व्याख्यानों और कथाओं की धूम पंजाब में आरंभ हुई। पंजाब के सब छोटे बड़े स्थानों में घूमकर पंडित श्रद्धाराम जी उपदेश और वक्तृताएँ देते तथा रामायण महाभारत आदि की कथाएँ सुनाते।" पंडित जी के घर में प्रारंभ से ही महाभारत ,रामायण आदि कथाओं को सुनाने की परंपरा रही थी अतः उनमें ये गुण स्वाभाविक रूप से विकसित हो गया था। परंतु आगे चलकर उन्होंने महाभारत का इस तरह से वाचन शुरू कर दिया जिसके द्वारा वे लोक में चेतना का संचार करते थे। अंग्रेज़ सरकार को यह रास नहीं आया, और उन्हें सरकार ने वहाँ से निष्कासित कर दिया। यह उनकी विद्वत्ता ही थी कि सरकार के विरोध के बावजूद भी उनकी पुस्तक 'पंजाबी बातचीत' को अंग्रेजी सरकार की सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा आइसीएस के पाठ्यक्रम से हटाया नहीं गया। निष्कासन के बाद भी उनकी ख्याति कम नहीं हुई और लोग दूर-दूर से उनको सुनने आते रहे। एक ईसाई पादरी, फादर न्यूटन उनसे इतना प्रभावित हुआ कि सरकार को उनका निष्कासन समाप्त करने हेतु उसने प्रार्थना पत्र दे दिया और बाद में उनके आग्रह पर पंडित जी ने बाइबिल का कुछ अंश अनूदित भी किया।
विविध भाषाओं के ज्ञान ने उनकी रचनाओं को विविधता दी। उन्होंने पंजाबी ,हिंदी ,संस्कृत और उर्दू भाषा में विभिन्न ग्रंथ लिखे। हिंदी गद्य के विकास में फिल्लौरी जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उस समय खड़ी बोली अपना रूप विकसित कर रही थी। ऐसे समय में उन्होंने एक ऐसी धार्मिक आरती की रचना की, जिसका महत्त्व आज भी उतना ही है और लगभग हर मंदिर में 'ॐ जय जगदीश हरे' की गूँज सुनाई देती है। सन १८७७ में प्रकाशित उनका प्रसिद्ध उपन्यास 'भाग्यवती' आरंभिक हिंदी उपन्यासों में बहुत चर्चित उपन्यास माना जाता है। कुछ विद्वान इसे हिंदी का पहला उपन्यास भी मानते हैं। ऐसा कहा जाता है, उस समय में लोग अपनी पुत्री के विवाह में यह उपन्यास भेंट करते थे । एक छोटे से साहित्यिक और सामाजिक जीवन के बाद २४ जून १८८१ को लाहौर में उनका देहावसान हो गया।
आचार्य शुक्ल के अनुसार मृत्यु के समय उनके मुँह से सहसा निकला, "भारत में भाषा के लेखक दो हैं एक काशी में दूसरा पंजाब में ,परंतु आज एक ही रह जाएगा।" वे हिंदी गद्य के प्रचार में आजीवन लगे रहे। जब वे निष्कासित हुए तो उन्होंने जगह-जगह की यात्राएँ कीं, जिसके दौरान स्त्रियों की दशा को देखकर लगातार चिंतन करते रहे और यहीं से भाग्यवती उपन्यास की पृष्ठभूमि तैयार हो गई। यह उपन्यास उस समय की विधवा प्रथा के विरुद्ध एक प्रमुख दस्तावेज साबित हुआ क्योंकि यह एक ऐसी स्त्री की कथा है जो बाल विधवा थी। बाद में इसका ऐसा प्रभाव पड़ा कि प्रकाशकों ने इसे निशुल्क बाँटना प्रारंभ कर दिया। इस उपन्यास की पहली समीक्षा उस समय के प्रतिष्ठित पत्र 'हिंदी प्रदीप' में प्रकाशित हुई। गोपाल राय के शब्दों में, "भाग्यवती का चरित्र अविश्वसनीय होने पर भी स्वावलंबन का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत करता है।" डॉ० सभापति मिश्र ने अपनी पुस्तक हिंदी साहित्य का प्रवृत्तिपरक इतिहास में लिखा है, "श्रद्धाराम फिल्लौरी कृत भाग्यवती भारतीय नारियों के गृहस्थ धर्म की व्याख्या प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास ने जीवन की यथार्थ परिस्थितियों के आधार पर आदर्श की प्रतिष्ठा की है। प्रथम औपन्यासिक रचना होते हुए भी यह एक सफल कृति है।" भाग्यवती उपन्यास प्रमुख रूप से स्त्रियों में जागृति लाने के उद्देश्य से लिखा गया था। इस उपन्यास की मुख्य पात्र एक स्त्री है, इसमें स्त्रियों के प्रगतिशील रूप का चित्रण है एवं उनके अधिकारों और स्थितियों की बात की गई है। 'हिंदी साहित्य कोश' में भाग्यवती को 'सामाजिक उपन्यास' स्वीकार करते हुए कहा गया है कि हिंदी का पहला मौलिक उपन्यास होने के कारण यह ऐतिहासिक महत्व रखता है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि काशी और हरिद्वार को केंद्र में रखकर लिखी गई है।
भाग्यवती उपन्यास के संदर्भ में इस बात का जिक्र करना भी आवश्यक है कि लेखक ने इस उपन्यास को किस रूप में देखा है ,कहने का आशय यह है कि उपन्यास की भूमिका में फिल्लौरी जी ने यह उल्लेख किया है कि, "मैंने यह उपन्यास स्त्रियों को नैतिकता और आदर्श की शिक्षा देने के लिए लिखा है। भले ही इस उपन्यास में स्त्री सुधार का स्वर हावी है। परंतु स्त्रियों की सामाजिक दशा को सही संदर्भ में प्रस्तुत करने वाला यह उपन्यास है।" यद्यपि इस कथन को पढ़कर लोग उनकी आलोचना भी कर सकते हैं, पर हमको यह नहीं भूलना चाहिए कि हम किस समय की बात कर रहे हैं। यह वह दौर था जब स्त्रियाँ विकट समस्याओं से जूझ रही थीं, तमाम आंदोलनों के बाद भी स्त्री-शिक्षा मात्र एक स्वप्न की तरह था। १८७७ ई० वह समय था जब स्त्री को पढ़ाना एक बहुत बड़ा कदम माना जाता था और आगे आने वाले समाज का कोई चित्र नहीं था। ऐसे समय में हम लेखक से एक सशक्त नारी चरित्र की आशा करते हैं तो यह नाइंसाफ़ी होगी। लेकिन उस समय में भी जब भाग्यवती की नायिका यह कहती है,
"विद्या बन्धु विदेश में, विद्या विपत सहाय।
जो नारी विद्यावती सो कैसे दुख पाय।।"
तो यह एक उम्मीद की किरण के रूप में ही दिखता है। इसका स्वर संस्कृत की प्रसिद्ध उक्ति 'विद्वान सर्वत्र पूज्यते' से मिलता है, जहाँ विद्वान का कोई लिंग निर्धारित नहीं है। वह जो भी हो यदि ज्ञानी है तो आदर का ही पात्र होगा। इस प्रकार यह लेखक की सबसे बड़ी उपलब्धि ही कही जाएगी कि उन्होंने आदर्शवाद को आगे रखकर भी अपनी मूल बात उपन्यास में छूटने नहीं दी।
हिंदी के अतिरिक्त फिल्लौरी जी पंजाबी संस्कृति और परंपरा के भी प्रतिष्ठित रचनाकार रहे हैं। अपनी पहली पुस्तक 'सिक्खां दे राज दी विथियाँ' के बाद ही वे पंजाबी साहित्य के पितृपुरुष के नाम से विख्यात हो गए। इस पुस्तक में पंजाब की लोक परंपराओं, लोक संगीत, लोक संस्कृति आदि की विस्तृत जानकारी दी गई है। इससे उनकी ख्याति राष्ट्रीय स्तर तक पहुँच गई और राजा महाराजाओं से उनको समय-समय पर सम्मान भी मिलता रहा। 'भाग्यवती' के साथ-साथ उनकी एक रचना 'असूल एक मजाहिब' भी सम्मानित हुई। इन तमाम समाज सुधारों के साथ हिंदी के बालपन को फिल्लौरी जी ने एक दिशा दी, जिससे परिनिष्ठित मानक भाषा का एक आधार निर्धारित हुआ। इस कारण उनको प्रारंभिक हिंदी का एक कुशल शिल्पकार कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। पंजाब के पास होने के कारण इनकी भाषा में दुआबी और मालवी का मिश्रित रूप प्राप्त होता है। इस तरह अपना संपूर्ण जीवन इन्होंने समाज सुधार और भाषा परिष्कार में अर्पित कर दिया और एक मजबूत नींव के रूप में यह आज भी हिंदी में विख्यात हैं।
श्रद्धाराम शर्मा 'फिल्लौरी' : जीवन परिचय |
जन्म | १८३७ ई०, फिल्लौर (जालंधर, पंजाब) |
निधन | २४ जून १८८१, लाहौर |
पिता | जयदयालु शर्मा |
पत्नी | महताब कौर |
शिक्षा | संस्कृत, हिंदी, फ़ारसी, पंजाबी और ज्योतिष विषय में अध्ययन |
साहित्यिक रचनाएँ |
संस्कृत | - नित्यप्रार्थना
- भृगुसंहिता (अधूरी रचना)
- हरितालिका व्रत कृष्णस्तुति विषयक कुछ श्लोक, जो अब अप्राप्य हैं।
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हिंदी | - तत्वदीपक
- सत्य धर्म मुक्तावली
- भाग्यवती
- सत्योपदेश
- बीजमंत्र (यह सत्यामृतप्रवाह नामक रचना की भूमिका है) सत्यामृतप्रवाह
- पाकसाधनी (रसोई शिक्षा विषयक)
- कौतुक संग्रह
- दृष्टांतावली
- रामलकामधेनु
- आत्मचिकित्सा (यह आध्यात्मिक पुस्तक पहले संस्कृत में लिखी गई थी, बाद में इसका हिंदी में अनुवाद कर दिया गया और इसे फुल्लौरी जी की अंतिम रचना "सत्यामृत प्रवाह' के प्रारंभ में जोड़ दिया गया था)।
- हिंदी में प्रसिद्ध आरती 'ॐ जय जगदीश हरे' की रचना
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उर्दू | - दुर्जन-मुख-चपेटिका
- धर्मकसौटी (दो भाग)
- धर्मसंवाद
- उपदेश संग्रह
- असूल ए मज़ाहिब पहली तीनों रचनाओं में भागवत (सनातन) धर्म का प्रतिपादन एवं भारतीय तथा अभारतीय प्राचीन अर्वाचीन मतों का जोरदार खंडन किया गया है।
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पंजाबी | - बारहमासा
- सिक्खाँ दे इतिहास दी विथिआँ
- पंजाबी बातचीत
- बैंत और विसनपदों में विरचित समग्र "रामलीला' तथा "कृष्णलीला' (अप्राप्य)।
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संदर्भ
हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल
हिंदी साहित्य का प्रवृत्तिपरक इतिहास, डॉ० सभापति मिश्र
गद्यकोश
भाग्यवती : श्रद्धाराम फिल्लौरी लिखित हिंदी का ‘प्रथम’ उपन्यास कालजयी रचना, डॉ० योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
https://www.deshbandhu.co.in/vichar
विनीत काण्डपाल
स्नातक (प्रतिष्ठा) हिंदी, हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
स्नातकोत्तर हिंदी, किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
अनुवाद डिप्लोमा, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
शोधार्थी, सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय अल्मोड़ा (उत्तराखंड)
मोबाइल - 8954940795
ईमेल -vineetkandpal1998@gmail.com
विनीत, इस सुंदर आलेख के लिए में तुम्हें बधाई देना चाहती हूं.इतनी विशद जानकारी दी तुमने, फिल्लौरी जी के विषय में जैसे उनका युग साकार कर दिया. एक अच्छे शोधार्थी की तरह तुमने विषय विस्तार को समेटा, धन्यवाद शुभकामनाएं !
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत आभार मैम
Deleteभूल से में ...यह मैं है !
ReplyDeleteसुंदर लेख........
ReplyDeleteआदरणीय विनीत जी, बहुत ही खूबसूरत शब्दरचना और संकल्पित विचारधारा से पंडित श्रद्धाराम 'फ़िल्लौरी' पर यह आलेख रचा गया है। आज आपके आलेख द्वारा जो हमारे सनातन धर्म में विख्यात आरती 'ॐ जय जगदीश हरे' है उसकी ज्ञानपुर्ति हुई है। भगवती उपन्यास की भी इतनी विस्तृत जानकारी इस आलेख में प्रस्तुत कर पंडित फ़िल्लौरी जी के बारे में और जानने की उत्सुकता बड़ा रही है। हिंदी साहित्य के कुशल शिल्पकार पर आपका लेख पंजाबी साहित्य और संस्कृति का भी बखूबी बखान कर रहा है। अतिसुस्पष्ठ, सरल और ललित शब्दशैली से भरपूर इस आलेख के लिए आपका आभार और अग्रिम सारे आलेखों के लिए मंगलकामनाएं।
ReplyDeleteआभार आपका सूर्यकांत जी
Deleteविनीत जी नमस्ते। आपने श्री श्रद्धाराम शर्मा 'फिल्लौरी' जी पर अच्छा शोधपरक लेख लिखा है। फिल्लौरी जी को शायद इतनी प्रसिद्ध नहीं मिली जितनी उनकी आरती को मिली। आपने लेख के माध्यम से उनके रचना संसार से विस्तृत रूप में परिचित करवाया। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteशुक्रिया दीपक जी
Deleteविनीत जी, श्रद्धाराम शर्मा 'फिल्लौरी' जी पर आपने बहुत सुन्दर लेख लिखा है। इस लेख के माध्यम से फिल्लौरी जी के जीवन वृत्तांत और रचना-संसार की विस्तृत जानकारी मिली। आपको इस सारगर्भित लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
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ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद आभा मैम, मुझे खुशी हुई आपको लेख अच्छा लगा
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