भाषाप्रेम अपने साथ राष्ट्रप्रेम लेकर आता है और
राष्ट्रप्रेम राष्ट्रहित में कई ऐसे कार्य करवाता है जो इतिहास के पन्नों पर
स्वर्णाक्षरों में अंकित हो जाते हैं। यह दास्तान एक ऐसे ही मराठी मानुष की है जिन्होंने
हिन्दी प्रेम में कई ऐसे कारनामे किये, जिसने न
केवल मध्य भारत में पत्रकारिता की नींव रखी, बल्कि सम्पूर्ण
भारत को भारतीयता का बोध कराया। पण्डित माधवराव सप्रे हिन्दी जगत् का एक अविस्मरणीय
नाम हैं और पिछले डेढ़ शतकों से अपनी अमिट पहचान बनाए हुए हैं। सप्रे जी के संबंध
में पहले ही बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा चुका है, फिर भी हर काल,
हर दशक में तत्कालीन पीढ़ी उन्हें अपने अनुसार याद करती है, उनका
अनुसरण करती है और उनसे प्रेरणा लेती है। आज उनकी १५१वीं जन्मशती पर उनकी
जीवन-गाथा से एक बार पुनः यह मंच समृद्ध हो रहा है:-
माधवराव सप्रे का जन्म १९ जून १८७१ को मध्य
प्रदेश के दामोह ज़िले के पथरिया गाँव में हुआ था। जब वे तीन साल के हुए, उनके पिता कोडोपंत सप्रे तथा माँ लक्ष्मीबाई अपने ज्येष्ठ पुत्र बाबुराव
सप्रे के पास बिलासपुर आकर बस गए। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा बिलासपुर में ही हुई। दसवीं
करने के लिए वे रायपुर गए। पढ़ाई में मेधावी माधवराव को आरम्भ से ही छात्रवृत्ति
मिलने लगी थी। उन्होंने १८८९ में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बीए किया और एल एल बी
में दाखिला ले लिया। इसी वर्ष रायपुर के असिस्टेंट कमिश्नर की पुत्री से उनका
विवाह हुआ और इस होनहार नौजवान को उनके स्वसुर ने तहसीलदार की नौकरी पेश की।
किन्तु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को आदर्श मानने वाले माधवराव ने अंग्रेज़ों का
नौकर बनना अस्वीकार कर अपने कर्मपथ पर आगे बढ़ना उचित समझा। वैचारिक प्रतिबद्धता के
कारण उन्होंने कानून की पढाई भी छोड़ दी। पढ़ाई के प्रति रूचि उन्हें पहले जबलपुर, फिर ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज ले गयी। १८९६ में उन्होंने इलाहाबाद
विश्विद्यालय से फाइन आर्ट्स सीखा और वे छत्तीसगढ़ वापस आ गए। इस बीच दुर्भाग्यवश
उनकी पत्नी का देहांत हो गया था और परिवार वालों के हठ ने उन्हें दूसरी शादी करने
को बाध्य कर दिया। सरकारी नौकरी को तो पहले ही ठोकर मार चुके थे, सो पारिवारिक ज़िम्मेदारियों का वहन करने के लिए वे पेण्ड्रा के राजकुमार
को पचास रुपए मासिक वेतन पर अंग्रेज़ी सिखाने लगे। तक़रीबन एक साल के शिक्षण में
उन्होंने जो धन अर्जित किया उस पूंजी से पेण्ड्रा से ही जनवरी १९०० में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’
का प्रकाशन आरम्भ किया। इस नेक काम में उनके साथी बने उनके दो परम मित्र – पण्डित वामन
राव लाखे और रामराव चिंचोलकर। यह एक विचार-प्रधान पत्रिका थी। इसमें समाचार, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य
लेख, वैचारिक निबंध तथा समालोचनाएँ छपती थीं। ‘छत्तीसगढ़ मित्र’
भारतीय पत्रकारिता में विशेष महत्त्व रखता है। अव्वल तो यह मध्य-भारत का प्रथम हिन्दी
पत्र था और इसने पत्रकारिता के कई मानदण्ड स्थापित किये और दूसरा यह कि हिन्दी
साहित्य में समालोचना का आगाज़ भी इसी पत्र से हुआ था। संभवतः इसी के लेखन-संपादन
के कारण माधवराव को हिन्दी का प्रथम समालोचक कहा गया है। माधवराव की कहानियाँ
भी सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ मित्र के विभिन्न अंकों में सिलसिलेवार प्रकाशित हुईं। उनमें से एक कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिन्दी की पहली मौलिक लघु-कथा
भी कहा गया है, हालाँकि इस पर मतभेद कायम है। समाज-सुधार, तार्किक विचार और हिन्दी सेवा से
ओत-प्रोत ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ की ख्याति कम ही समय में समूचे देश में फैल गयी थी किन्तु
अर्थाभाव के फलस्वरूप तीन वर्षों में ही दिसम्बर १९०२ के अंक के साथ इसका प्रकाशन
रुक गया।
वर्ष १९०० में ही, माधवराव की प्रेरणा से कंकालिपुरा, रायपुर में ‘आनंद समाज वाचनालय’ की स्थापना हुई। यह उस पूरे प्रान्त में राष्ट्रीय चेतना और राजनीतिक
विचार-विमर्श का एकमात्र केंद्र था। माधवराव ने १९०५ में नागपुर में ‘हिन्दी
ग्रन्थ प्रकाशन मण्डली’ की स्थापना की। यहीं से मई, १९०६ में
‘हिन्दी ग्रंथमाला’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ।
इसमें तत्कालीन विद्वानों की हिन्दी की उत्कृष्ट रचनाओं एवं लेखों का धारावाहिक
प्रकाशन होता था। बाद में इस ग्रंथमाला को पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया, जिसके
विज्ञापन के अनुसार भारतवर्ष का इतिहास, अन्य देशों के
इतिहास, प्रसिद्ध देशी-विदेशी स्त्री-पुरुषों के जीवन-चरित्र, ऐतिहासिक नाटक, उपन्यास और आख्यायिका, भारतवर्ष की वर्तमान राजनीति, विज्ञान और समालोचना
से संबंधित पुस्तकों का प्रकाशन सुनिश्चित किया गया था। इसी ग्रंथमाला के अंतर्गत सप्रे
जी की पुस्तिका ‘स्वदेशी आन्दोलन एवं बायकाट’ नाम से छपी जिसकी
हज़ारों प्रतियाँ हाथों-हाथ बिक गयीं। इसमें सप्रे जी ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था,
“जब तक इस देश में स्वराज्य स्थापित न हो जाएगा तब तक अन्य विषयों में सुधार
करने का यत्न सफल न होगा।” भला ऐसी
सोच को ब्रिटिश सरकार कैसे बर्दाश्त करती! फलस्वरूप, १९०९ में ब्रिटिश सरकार प्रेस
एक्ट के तहत् हिन्दी ग्रंथमाला को प्रतिबंधित कर प्रकाशित प्रतियों को जब्त कर
लिया गया। किन्तु मिशन पर निकले एक सच्चे सिपाही की तरह सप्रे जी साल-दर-साल अपने
लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे।
१९०५ में हुए बनारस हिन्दी अधिवेशन में माधवराव
ने मध्य-प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया था। यहीं उनकी मुलाकात पण्डित बाल गंगाधर
तिलक से हुई। वे तिलक जी के विचारों और
व्यक्तित्व से मुग्ध थे और उनके विचारों को हिन्दी में प्रसारित करना चाहते थे।
इसी उद्देश्य से उन्होंने तिलक जी की मराठी पत्रिका ‘केसरी’ को हिन्दी में निकालने का प्रस्ताव रखा जिसकी स्वीकृति मिलने पर १३
अप्रैल १९०७ को नागपुर से साप्ताहिक ‘हिन्दी केसरी’ का
प्रकाशन आरम्भ किया। इस पत्र का घोषित उद्देश्य था – “राजनैतिक दासता से मुक्त होकर
स्वराज प्राप्त करना।” इसमें मराठी केसरी के लेखों के अनुवाद के साथ-साथ
हिन्दी के मौलिक लेख भी होते थे, जैसे - कालापानी, अंग्रेज़ी सरकार
की दामन-नीति, भारत माँ के पुत्रों के कर्तव्य, बम-गोले का रहस्य, देश की दुर्दशा, स्वदेशी के प्रचार, विदेशी के बहिष्कार, आत्मगौरव के बोध से सबंधित
समाचार और विचार प्रकाशित होते थे। अपने उग्र तेवर और उत्तेजक लेखों के कारण शीघ्र
ही यह पत्र भी अंग्रेज़ों की नज़रों पर चढ़ता गया और २२ अगस्त १९०८ को माधवराव सप्रे
को देशद्रोह के जुर्म में गिरफ़्तार कर लिया गया। अबतक सप्रे जी एक प्रखर पत्रकार
के रूप में भारतवर्ष में प्रतिष्ठित हो चुके थे और उनकी गिरफ़्तारी का असर भी
देशव्यापी हुआ। जेल की यातनाओं और भारतीयों पर किये जाने वाले ज़ुल्म के क़िस्सों से
सप्रे जी का परिवार भली-भाँति परिचित था, सो पितातुल्य बड़े भाई बाबुराव ने ‘आत्महत्या
की धमकी’ देते हुए माधव को माफ़ीनामे पर हस्ताक्षर करने के
लिए मजबूर कर दिया। वे तीन माह में ही रिहा कर दिए गए। किन्तु भाई की प्राणरक्षा
के लिए माँगी माफ़ी ने उन्हें आत्मग्लानि से भर दिया था। अंग्रेज़ों के सामने झुकने
का संताप इतना गहरा हुआ कि लगभग डेढ़ साल वे अज्ञातवास में एक भिक्षुक के समान रहे।
मन की शांति के लिए वे हनुमानगढ़ के रामदास मठ में रहकर गुरु समर्थ रामदास के ‘दासबोध’ का अध्ययन करने लगे। इस ग्रन्थ ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि स्व
प्रेरणा से ही मराठी के इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद करना आरम्भ कर दिया। जिस तरह
केसरी के विचारों को हिन्दी भाषियों तक लाने के लिए उन्होंने हिन्दी केसरी निकला
था, उसी तरह भारत के अमूल्य ग्रंथों और भारतीय दर्शन को
आमजनों तक पहुँचाने के लिए तिलक के मराठी ‘गीता-रहस्य’, ‘महाभारत-मीमांसा’ समेत दस पुस्तकों को हिन्दी में अनूदित किया। साथ
ही उन्होंने श्रीराम चरित, एकनाथ चरित्र, आत्म विद्या, भारतीय युद्ध नामक ग्रंथों की रचना की।
कलम की ताकत समझते हुए अपने ओजस्वी लेखों को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करने लगे। उस काल की श्रेष्ठ पत्रिका ‘सरस्वती’ में छद्मनामों - माधवदास रामदासी, त्रिमूर्ति शर्मा, त्रिविक्रम शर्मा - से उनके कई लेख प्रकाशित
हुए।
१९१६ में जबलपुर के सातवें अखिल भारतीय हिन्दी सम्मलेन में उन्होंने पहली बार देशी-भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने की बात कही थी। पत्रकारिता और सम्पादन में अपना मन रमा चुके सप्रे जी एक बार पुनः १९१९-२० में जबलपुर आये। उन्हें अपना आदर्श और प्रेरणा मानने वाले माखनलाल चतुर्वेदी ने उनकी छत्र-छाया में ही ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन आरम्भ किया।
लगभग
पचपन वर्ष की आयु में ही रायपुर में २३ अप्रैल १९२६ को सप्रे जी का देहावसान हो गया। माधवराव सप्रे के जीवन संघर्ष, उनकी साहित्य साधना,
हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उनके योगदान, उनकी
राष्ट्रवादी चेतना, समाजसेवा और राजनीतिक सक्रियता को याद करते
हुए माखनलाल चतुर्वेदी ने ११, सितम्बर १९२६ के ‘कर्मवीर'
में लिखा था – “पिछले पच्चीस वर्षों तक पं. माधवराव सप्रे जी
हिन्दी के एक आधार स्तम्भ, साहित्य, समाज और राजनीति की संस्थाओं के सहायक उत्पादक तथा उनमें राष्ट्रीय तेज
भरने वाले, प्रदेश के गांवों में घूम-घूम कर, अपनी कलम को राष्ट्र की जरूरत और विदेशी सत्ता से जकड़े हुए गरीबों का करुण
क्रंदन बना डालने वाले, धर्म में धंस कर, उसे राष्ट्रीय सेवा के लिए विवश करने वाले तथा अपने अस्तित्व को सर्वथा
मिटा कर, सर्वथा नगण्य बना कर अपने आसपास के व्यक्तियों और
संस्थाओं के महत्व को बढ़ाने और चिरंजीवी बनाने वाले थे।"
सप्रे जी का
लेखन काल बहुत लम्बा नहीं रहा। यह १९०० से १९२० तक फैला हुआ है किन्तु उनकी लेखनी
की विविधता और वृहद् विषयों पर उनकी जानकारी विस्मयकारी है। उनके निबंध इस काल की
अधिसंख्य प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे - विशेष रूप से सरस्वती, मर्यादा, प्रभा,
विद्यार्थी, अभ्युदय, ज्ञानशक्ति,
ललिता, श्रीशारदा, विज्ञान,
हितकारिणी, हिन्दी चित्रमय जगत् आदि। इनके
अलावा छत्तीसगढ़ मित्र, हिन्दी ग्रंथमाला, हिन्दी केसरी तथा कर्मवीर के भी वे नियमित लेखक थे। उनका बहुत सारा लेखन
अब भी इन्हीं पत्रिकाओं में कैद है। उनके निबंधों को पढ़ने पर मालूम होता है कि
उनके ज्ञान का दायरा कितना व्यापक था। उन्होंने राजनीति, इतिहास,
अर्थशास्त्रा, सामाजशास्त्र, मनोविज्ञान और विज्ञान से सम्बंधित विषयों पर जो निबंध लिखे हैं वे उस समय
के हिन्दी गद्य की स्थिति को देखते हुए आश्चर्यजनक लगते हैं। माधवराव सप्रे हिन्दी
के उन थोड़े से लेखकों में है, जिन्होंने हिन्दी को समाज-विज्ञान
के विषयों और मुद्दों पर चिन्तन और लेखन की भाषा बनाने का सफल प्रयत्न किया।
विभिन्न पत्रों में प्रकाशित उनके लेखों के कुछ अंश उनकी सोच और दृष्टि की
व्यापकता का प्रत्यक्ष प्रमाण है :
“अपनी बुद्धि, शक्ति और युक्ति में अविश्वास के
कारण उन्हें अपनी राष्ट्रीय उन्नति का कोई उपाय सूझ नहीं पड़ा तब वे अपनी प्राचीन
संस्थाओं और प्रथाओं के पहले से अधिक संरक्षक (कंजरवेटिव) बन गये।....हमारे
प्राचीन विचारों को ऐसे नूतन विचारों से सामना करना पड़ा जो हरदम क्यों और कैसे
पूछा करते हैं, जो केवल शब्दों के आडम्बर पर विश्वास करके
चुप नहीं रह सकते और जो परीक्षा तथा निरीक्षण के सब सामान देकर लोगों को अपने
सिद्धांतों की सत्यता सिद्ध करने के लिए पुकारा करते हैं।'' –
‘राष्ट्रीय जागृति की मीमांसा’ निबंध में मध्यकाल के हिन्दू समाज की मानसिकता
का विश्लेषण
“स्वामी को गुरु
जानना, स्वामी की भक्ति करना, स्वामी की सेवा सुश्रुषा करना, स्वामी को सर्वदा
संतुष्ट करना स्त्रियों के ये चार काम हैं। वाह! स्त्रियों के कर्त्तव्य तो आपने
खूब कहे, क्या यही स्त्रियों की योग्यता है? क्या यही उनके जन्म का उद्देश्य है? क्या यही उनके
जन्म की सार्थकता है? हाँ! ऐसे ही पक्षपातों से स्त्रियों का
सारा जन्म नष्ट हो गया। ... हम यह पूछते हैं कि पुरुष भी अपनी स्त्री के वश में
क्यों न रहे। पहले तो यही बुरा है कि कोई व्यक्ति जबरदस्ती किसी दूसरे के वश में
किया जाए। व्यक्ति स्वातंत्र्य का नाश होते ही स्वाभाविक प्रेम का लोप हो जाता है।....
जब तक समाज में स्त्री और पुरुष दोनों के अधिकार समान भाव के न होंगे तब तक समाज
की उन्नति न होगी और स्त्री पुरुषों में स्वाभाविक प्रेम का बंधन न रहेगा।” – फरवरी
१९०१, छत्तीसगढ़ मित्र में ‘बालाबोधिनी’ नामक एक किताब
की समीक्षा
“राष्ट्र की
उन्नति और अवनति स्त्रियों की उन्नति और अवनति पर अवलम्बित है। हम लोगों में
राष्ट्रीयता के भाव की जागृति के साथ-साथ स्त्रियों के विषय में भी विचार करने की
इच्छा उत्पन्न हुई है। जिन राष्ट्रों में स्त्रियों की स्वाधीनता तथा उनके हक पर
पूरा ध्यान दिया जाता है वे उन्नति के मार्ग में एक-एक कदम आगे बढ़ते चले जाते हैं।
और जो राष्ट्र इन बातों पर ध्यान नहीं देते वे निस्तेज और बलहीन होकर पराधीनता की
कड़ी ज़ंजीर में बंध जाते हैं।” – ‘स्त्रियाँ और राष्ट्र’ लेख, १९१५ में मर्यादा पत्रिका में
प्रकाशित
“मनुष्य जाति की
प्रगति के लिए इतिहास के समान और कोई शिक्षक नहीं है।” – माधवराव सप्रे
माधवराव सप्रे: एक संक्षिप्त
परिचय |
|
नाम |
पण्डित माधवराव सप्रे |
छद्म नाम |
माधवदास रामदासी, त्रिमूर्ति शर्मा, त्रिविक्रम शर्मा |
जन्म |
१९ जून, १८७१
पथरिया (दामोह जिला, मध्य प्रदेश) |
मृत्यु |
२३ अप्रैल, १९२६
रायपुर (तब मध्य प्रदेश, अब छत्तीसगढ़) |
पिता |
श्री कोडोपंत सप्रे |
माँ |
श्रीमती लक्ष्मीबाई |
बड़ा भाई |
श्री बाबूराव सप्रे |
शिक्षा |
प्रारम्भिक : बिलासपुर (अब छत्तीसगढ़) मैट्रिक : शासकीय विद्यालय, रायपुर बीए : कलकत्ता विश्वविद्यालय |
साहित्यिक योगदान |
|
प्रमुख कृतियाँ |
·
स्वदेशी
आंदोलन और बॉयकाट (८००० प्रतियाँ प्रकाशित) ·
यूरोप के
इतिहास से सीखने योग्य बातें ·
हमारे सामाजिक
ह्रास के कुछ कारणों का विचार ·
माधवराव सप्रे
की कहानियाँ (संपादन : देवी प्रसाद वर्मा) ·
जीवन संग्राम
में विजय-प्राप्ति के कुछ उपाय |
संपादन -प्रकाशन |
छत्तीसगढ़ मित्र (मासिक पत्रिका, जनवरी १९०० – दिसम्बर १९०२), पेण्ड्रा (बिलासपुर)) |
हिन्दी ग्रंथमाला (मई १९०६ में नागपुर से) (१९०९ में
अंग्रेज़ों ने इसे बंद करवा दिया) |
|
हिन्दी केसरी (साप्ताहिक पत्र, १३ अप्रैल १९०७ –
२२ अगस्त १९०८ (सप्रे जी गिरफ़्तार कर लिए गए) नागपुर (महाराष्ट्र)) |
|
अनुवाद |
हिंदी दासबोध (समर्थ रामदास की मराठी में लिखी गई प्रसिद्ध) |
गीता रहस्य/कर्मयोगाशास्त्र (बाल गंगाधर तिलक की मराठी पुस्तक)
(१९१६) (अब तक २४ संस्करण प्रकाशित) |
|
महाभारत मीमांसा (महाभारत के उपसंहार : चिंतामणी विनायक वैद्य
द्वारा मराठी में लिखी गई प्रसिद्ध पुस्तक) |
|
कहानियाँ |
·
सुभाषित रत्न
१ ·
सुभाषित रत्न २ ·
एक पथिक का
स्वप्न ·
सम्मान किसे
कहते हैं? ·
आज़म ·
एक टोकरी भर
मिट्टी नोट: सभी
छत्तीसगढ़ मित्र में प्रकाशित |
१९२४ |
अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मलेन के अध्यक्ष
नियुक्त |
१९ जून १९८४ |
माधवराव सप्रे समाचारपत्र संग्रहालय की स्थापना |
सप्रे संग्रहालय की यात्रा |
१९८४ में रानी कमलापति महल के पुराने बुर्ज से सप्रे
संग्रहालय की स्थापना स्थान की कमी पड़ने पर १९८७ में आचार्य नरेन्द्रदेव पुस्तकालय
भवन के ऊपर नगरपालिक निगम भोपाल ने एक मंजिल का निर्माण कर ३००० वर्गफुट स्थान
उपलब्ध कराया। यह जगह भी कम पड़ी तब १९ जून १९९६ को सप्रे संग्रहालय अपने भवन
में स्थानांतरित हुआ। अब संग्रहालय के पास ११००० वर्गफुट स्थान उपलब्ध है। |
ज्ञान कोश |
सप्रे संग्रहालय में १९८४६ शीर्षक समाचार पत्र और पत्रिकाएँ, २८०४८ संदर्भ-ग्रंथ, १४६७
अन्य दस्तावेज, २८४ लब्ध प्रतिष्ठ
साहित्यकारों-पत्रकारों-राजनेताओं के ३५०० पत्र, १६३ गजेटियर,
१७९ अभिनंदन ग्रंथ, २८२ शब्दकोश, ४६७ रिपोर्ट और ६५३ पाण्डुलिपियाँ संग्रहीत हैं। शोध संदर्भ के लिए
महत्वपूर्ण यह सामग्री पच्चीस लाख पृष्ठों से अधिक है। संचित सामग्री में हिन्दी,
उर्दू, अंग्रेजी, मराठी,
गुजराती भाषाओं की सामग्री बहुतायत में है। |
सप्रे जी द्वारा स्थापनाएँ |
|
१९०० |
आनंद
समाज वाचनालय, कंकालिपुरा रायपुर |
१९०५ |
हिन्दी
ग्रन्थ प्रकाशन मण्डली, नागपुर |
१९१० |
रामदासी मठ, रायपुर |
१९१२ |
जानकीदेवी कन्या पाठशाला, रायपुर |
१९२१ |
राष्ट्रीय विद्यालय एवं अनाथालय (असहयोग आन्दोलन में सरकारी
स्कूल त्यागने वाले विद्यार्थियों के लिए) |
सन्दर्भ:
- https://web.archive.org
- epustakalay.com
- माधवराव सप्रे की कहानियाँ, संपादन : देवी प्रसाद वर्मा
- खड़ीबोली का आन्दोलन
- https://yathavat.com/special/ishesh-kriti-vrati-pt-madhavrao-sapre/
लेखक परिचय

ईमेल - journalistdeepa@gmail.com
व्हाट्सएप - +91 8095809095
दीपा आज सुबह-सुबह जब भूमिका के लिए आलेख पढ़ रही थी तो सोच रही थी कि सारे क्रंतिकारी पत्रकार तुम्हारी झोली में ही आते हैं!
ReplyDeleteसप्रे जी तो गजब प्रणेता थे ही, तुमने भी गजब जोश से लिखा है! सोच रही हूँ कि १९०० में ऐसी बात सोचना और लिखना -कितनी चेतना लगी होगी-“पहले तो यही बुरा है कि कोई व्यक्ति जबरदस्ती किसी दूसरे के वश में किया जाए। व्यक्ति स्वातंत्र्य का नाश होते ही स्वाभाविक प्रेम का लोप हो जाता है।”
एक और बात, बाल गंगाधर तिलक का कितने लोगों पर कितना ओजस्वी प्रभाव पड़ा, जीवन के हर क्षेत्र को उससे कितनी सकारात्मक ऊर्जा मिली यह भी रोमांचित करता है!
शानदार आलेख🙏🙏
ReplyDeleteदीपा जी नमस्ते। आपकी लेखनी निरन्तर महान साहित्यकारों से परिचय करवा कर मुझ जैसे पाठकों को ऊर्जावान बना देती है। आपके लेख के माध्यम से साहित्यकार एवं क्रांतिकारी पत्रकार पंडित माधवराव जी के बारे में जानने का अवसर मिला। आपको इस शोधपूर्ण एवं रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteदीपा, पण्डित माधवराव सप्रे के व्यक्तित्व और कृतित्व की व्यापकता को दर्शाता यह आलेख बड़ा सार्थक, सहज और पठनीय है। इसके लिए तुम्हें धन्यवाद और बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteदीपा, बहुत ही अच्छा लगा माधवराव सप्रे का विस्तृत परिचय तुम्हारी क़लम से पाकर। उन्होंने जिस बेबाकी और तत्परता से सभी कार्यों को किया और अपने मूल्यों का निर्वहन किया, ये बातें विस्मित और प्रेरित करती हैं। सुंदर लेखन के लिए बधाई और शुभकामनाएँ।
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