तालियों की गड़गड़ाहट के बीच उन्होंने कहा - “मैं आश्चर्यचकित, मुदित, सम्मानित और अभिभूत हूँ! . . . जब से किताब लॉन्गलिस्ट हुई है, इसे विश्वमंच पर हिंदी का आगमन माना जा रहा है। पहली बार इसका माध्यम बनना अच्छा लगता है। लेकिन मुझे यह कहना होगा कि इसकी पृष्ठभूमि में हिंदी और अन्य दक्षिण एशियाई भाषाओं के अद्भुत लेखन की एक समृद्ध साहित्यिक परंपरा है। इन भाषाओं के कुछ बेहतरीन लेखकों को जानना विश्व साहित्य को समृद्ध करेगा।” उन्होंने आगे कहा, "कुछ संयोग मिल जाते हैं और एक कृति और उसकी लेखक रोशनी की ज़द में आ जाती है।”
तालियाँ तेज़ होती चली गईं। अवसर था गीतांजलि श्री के हिंदी उपन्यास ‘रेत समाधि’ के डेज़ी रॉकवेल द्वारा किए अंग्रेज़ी अनुवाद ‘टूम ऑफ सेंड’ को '२०२२ अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार’ मिलने का। यह कोई संकोची वक्तव्य भर नहीं था, सच तो यह है कि गीतांजलि को जब अनुवाद के प्रकाशक ‘टिल्टेड एक्सिस प्रेस’ से लॉन्गलिस्ट होने का ईमेल आया तो उन्हें बड़ी देर तक विश्वास ही नहीं हुआ।
यह हिंदी एवं किसी भारतीय भाषा को मिला ‘बुकर प्राइज़ फाउंडेशन’ का पहला सम्मान है। उल्लेखनीय है कि ‘अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार’ अन्य भाषाओं में लिखी किताबों के यूके या आयरलैंड में छपे अंग्रेज़ी अनुवाद को दिया जाता है। इस बार छह शॉर्टलिस्ट हुई किताबों में २०१८ की ‘नोबल प्राइज़ फॉर लिटरेचर’ विजेता और ‘२०१८ अंतर्राष्ट्रीय बुकर’ विजेता पोलिश लेखिका ओल्गा तोकार्चुक की किताब ‘द बुक्स ऑफ़ जेकब’ भी शामिल थी, जीतना आसान नहीं था।
न्यायाधीश मंडल के अध्यक्ष, ८५ से अधिक किताबों के अनुवादक, फ्रैंक वैन ने कहा, “मुझे नहीं लगता मैंने ‘टूम ऑफ सैंड’ जैसा पहले कभी कुछ पढ़ा है! मुझे लगता है कि इसमें एक जीवंतता और जान है, एक ताकत और जोश है, जिसकी दुनिया को आज ज़रुरत है!” दूसरी निर्णायक विव ग्रोस्कोप कहती हैं, “यह किताब कथा-कहन और पहचान तलाशने की इंसानी जद्दोजहद की असली मास्टरक्लास है! यह पारिवारिक रिश्तों पर अद्भुत रौशनी डालती है!” किताब की अनुवादक डेज़ी ने समारोह में हरे रंग के सलवार-सूट के दुपट्टे को संभालते हुए एक बहुत खूबसूरत, अनुरागपूर्ण धन्यवाद भाषण दिया। गीतांजलि ने आवार्ड के आसपास हुए साक्षात्कारों में कई ज़रूरी बातें कहीं, जैसे - “भाषाओं का कोई पदक्रम (hierarchy) नहीं होना चाहिएI हर भाषा की किताब दूसरी भाषा में अनूदित हो, और अपने नए घर बनाए!”
‘रेत समाधि’ एक अस्सी साल की औरत की कहानी है जो अपने पति के इंतकाल के बाद अवसाद की तहों में चली जाती है और जीवन से पीठ कर लेती है। फिर सरहद पार जाने की आस से बँधा उसका एक नया जीवन शुरू होता है। स्वयं की माँ, और हम सब की माँओं की खोती हुई जिजीविषा ने गीतांजलि को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या सच में ये स्त्रियाँ जीवन से पीठ कर के बैठ गयीं हैं, या असल में वह किसी दूसरी ज़िन्दगी की ओर देख रही हैं? इस भावना और जिजीविषा के जीर्णोद्धार की विश्वव्यापी अनुगूँज का नतीजा है कि अंतर्राष्ट्रीय बूकर के निर्णायक मंडल ने इस किताब को “जीवन्त और बाँध लेने वाला उपन्यास” माना!
गीतांजलि ने बीबीसी हिंदी से साक्षात्कार में कहा, “लेखक की ज़िंदगी में, मैं नहीं मानती कि पुरस्कार कोई पड़ाव या मंज़िल होता है।” उन्होंने युवा लेखकों को संदेश दिया कि आप शिद्दत से लिखिए और अन्य पचड़ों में मत पड़िए। लिखने का मज़ा लेते रहिए।
गीतांजलि साफ़गोई से कहती हैं, “लेखक के लिए सबसे बड़ी चुनौती उसके भीतर से आती है बाहर से नहीं! मेरी जो चुनौतियाँ थीं मेरे भीतर से ही आईं और मैंने बाहर से कोई समझौता नहीं किया। बाहर वालों की ज़रूरत या इच्छा, पसंद-नापसंद के हिसाब से मैंने अपने लेखन में कोई समझौता नहीं किया। मैं इस जोखिम के लिए तैयार हूँ कि मेरी कृति असफल मान ली जाए!”
किताब को लिखने में ७-८ साल लगे। आज से तीन साल पहले कानपुर में हुए विमोचन में ‘रेत समाधि’ का अर्थ खोलते हुए गीतांजलि ने कहा, “कोई भी कहानी यों खत्म नहीं हो जाती, दफ़्न नहीं हो जाती, वो समाधि में चली जाती है; जैसे उस पर रेत डाल दी गई हो। ज़रा भी छेड़ से वह रेत उड़ती है और कहानी फिर से उभर आती है। आपको केवल दादी ही नहीं अन्य पात्रों के जीवन में भी इसके गूँज-अनुगूँज मिलेंगे।” इस साक्षात्कार में उन्होंने किताब के प्रवाह और रवानी को लेकर भी कुछ मानीखेज उत्तर दिए हैं जो आज इस उपन्यास का विरोध कर रहे लोगों को सुनने चाहिएँ!
‘अब तो मैं नहीं उठूँगी से अब तो मैं नई ही उठूँगी’ की एक दिलचस्प यात्रा है यह किताब! यह कहानी बहुत से रिश्तों को सँवारती है - माँ-बेटी, भाई-बहन, माँ और एक ट्रांसजेंडर। अपने कमरे की दीवार से शुरू करते हुए वह अस्सीसाला औरत सारी सीमाएँ ध्वस्त करती हुई चलती है - उम्र की, देश की, दुनिया की! गीतांजलि कहती हैं - ’हर सीमारेखा एक सेतु ही तो है!” लेखिका एक साक्षात्कार में यह सपष्ट कहती हैं,“मैंने स्त्री विमर्श को ले कर यह उपन्यास नहीं लिखा है! मैंने इंसानों को लेकर, जीवन को लेकर, एक भावनाप्रद संसार रचा है। अनायास ही स्त्री विमर्श लेखन में आ जाता है। मैं कोई फॉमूला ले कर नहीं चलती हूँ कि मुझे कुछ मुद्दे उठाने हैं। मुद्दे अपने-आप उठते हैं !”
गीतांजलि का लेखन अलग है, क्योंकि उनकी जीवन-यात्रा अलग है। उनका जन्म १२ जून १९५७ में मैनपुरी, उत्तर प्रदेश में हुआ। पिता स्व. अनिरुद्ध पांडेय प्रशासनिक अधिकारी थे। उत्तर प्रदेश के छोटे-बड़े कस्बों में उनके तबादले होते रहे। इस घुमक्कड़ी ने गीतांजलि को अड्वेंचर और भाषा के संग खेल (वर्ड प्ले) करने का जज़्बा दिया। गीतांजलि अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़तीं, मगर रिश्तेदारों, मुशायरों, और अपने परिवेश से हिन्दी समेटती रहतीं। जब हॉस्टल में गईं तो माँ श्री कुमारी पांडेय अन्तर्देशीय-पत्र पर खचाखच सुन्दर मोतियों सी लिखावट में चिट्ठियाँ लिखतीं और गीतांजलि भी जवाब में लम्बे खत लिखतीं। शायद यहीं से लिखने की नींव पड़ी। गीतांजलि पांडेय ने जब लेखिका का किरदार अपनाया तो शायद इसलिए ही वह ‘गीतांजलि श्री’ बनीं। सोशल मीडिया से कटी हुई यह गंभीर लेखिका, भीड़ और नारों से हट कर मूल और ज़मीनी काम अनायास ही करती चलती हैं।
इतिहास विषय उनके जीवन की धुरी रहा। उनके बड़े भाई प्रोफ़ेसर ज्ञानेंद्र पांडेय जाने-माने इतिहासकार हैं। जब वे १९ साल की हुईं तो पिताजी ने जन्मदिन पर उन्हें १०० रुपए तोहफ़े में दिए और कहा कि तुम अपनी पसंद के किसी भी आदमी से शादी कर सकती हो बशर्ते वह आई. ए, एस. और ब्राह्मण हो। जवाब में गीतांजलि ने विवाह किया एक इतिहासकार प्रोफ़ेसर सुधीर चंद्र से। सुधीर एक प्रतिष्ठित प्रोफ़ेसर, आधुनिक इतिहास के विशेषज्ञ, गाँधीवादी, लेखक, अद्येता, और वक्ता हैं। उन्होंने कई नामचीन किताबें लिखीं हैं, जिसमें ‘गाँधी, एक असम्भव सम्भावना’ राजकमल प्रकाशन से आई है। वे मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखते हैं - गाँधी, अहिंसा, हिंसा, स्त्री अधिकार, सामाजिक तानेबाने उनके मूल विषय हैं! ऐसे चैतन्य जीवनसाथी, प्रबुद्ध परिवार और संजीदा मित्रों का होना गीतांजलि की विचारधारा में ठोस सामाजिक चिंतन और इतिहास के विविध पहलुओं का समावेश करता है। यही बात उनके प्रकाशक राजकमल के अशोक माहेश्वरी ने आज से तीन साल पहले कही थी- “गीतांजलि श्री एक प्रतिनिधि समकालीन लेखक हैं। इनकी सारी किताबें राजकमल प्रकाशन ने छापी हैं। ये जितनी मेहनत और एकाग्रता से लिखती हैं, उतना कम लोग करते हैं। ये कलात्मकता और यथार्थ को साथ लेकर चलती हैं।” चूँकि यह कथन बुकर की चकाचौंध के पहले का है तो हमारे लिए अधिक प्रासंगिक है।
लिखने के लिए शांति और एकांत की तलाश में वह अक्सर दूर चली जाती हैं - कभी केरल में रबर के बागानों में, तो कभी विदेशों में राईटर रेज़िडेंसीज़ में। वे रेज़िडेंसी और फ़ेलोशिप के लिए स्कॉटलैंड, स्विट्ज़रलैंड, जर्मनी, आइसलैंड, फ्रांस, कोरिया, जापान इत्यादि देशों में गई हैं। गीतांजलि थियेटर के लिए भी लिखती हैं और इनके द्वारा किए गए रूपांतरणों का मंचन देश-विदेश में हुआ है।
आइए, हम गीतांजलि की ३५ सालों की अनवरत लेखकीय यात्रा पर नज़र डालते हैं। इतिहास से हिन्दी की तरफ जाने के लिए गीतांजलि ने प्रेमचंद को समझना शुरु किया और उनपर अंग्रेज़ी में एक किताब लिखी ‘Between Two Worlds- An Intellectual Biography of Premchand'. १९८७ में ‘हंस’ पत्रिका में उनकी एक कहानी छपी ‘बेल पत्र’ जो एक ऐसी लड़की की कथा है जिसने मजहब की दीवार तोड़कर विवाह तो किया परन्तु बाद में महसूस किया कि ‘बेलपत्र’ की तरह उसका जीवन पहले - ‘पेड़ के पत्तों, श्रीयुक्त शिवपत्र, और फिर विसर्जित निर्माल’ सा हो गया है। प्रसारभारती ने कहानी का नाटकीय रूपांतरण भी किया।
इसके बाद गीतांजलि ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। न ही वे किसी लीक पर चलीं, न किसी विचारधारा को ओढ़ा, न ही कोई झंडा उठाया। वे गंभीरता और दृढ़ता से लिखती रहीं, उन सब बातों पर, जिन पर उन्हें विश्वास है। कभी विनोद तो कभी गंभीरता से वे समाज के मुखौटे उतारती रहीं। यह सलाहियत उनको अपने चारों तरफ़ के परिष्कृत साहित्यिक वातावरण से मिली। गंभीर लेखन के लिए उन्होंने कॉलेज के अध्यापन को छोड़ा। उनकी लेखकीय पोटली में अभी पाँच उपन्यास, पाँच कहानी संग्रह और प्रेमचंद की जीवनी है। १९९३ में ३६ साल की उम्र के आसपास उनका पहला उपन्यास ‘माई’ प्रकाशित हुआ। यह तीन पीढ़ियों की औरतों और उनके जीवन के पुरुषों की कहानी है। इस किताब ने भी खासी हलचल मचाई और इसका उर्दू, जर्मन, फ्रेंच, अंग्रेज़ी, कोरियाई और सर्बियाई में अनुवाद हुआ। ‘माई’ के अंग्रेज़ी अनुवाद के लिए अनुवादक नीता कुमार को २००२ में साहित्य अकादमी अनुवाद सम्मान मिला।
वैसे गीतांजलि कोई मुद्दा या एजेंडा लेकर नहीं लिखती पर उनका मन था कि साम्प्रदायिकता पर एक किताब लिखें। इसका नतीजा हुआ २००७ में प्रकाशित उपन्यास - ‘हमारा शहर उस बरस’। किताब सांप्रदायिक दंगों की शिनाख़्त करती है। दो लड़कियों के प्रेम पर लिखा उनका उपन्यास ‘तिरोहित’ दिखाता है कि कोई कितना भी दमित क्यों न हो अपने रास्ते बना ही लेता है। २०१६ में उनका चौथा उपन्यास ‘खाली जगह’ आया। इस किताब के मूल में रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में व्याप्त हिंसा है। यह गीतांजलि के लेखन की कुशलता को स्थापित करता उपन्यास है। वह कल्पना और यथार्थ को गूंथ कर ऐसी कहानी बुनती हैं जो पाठकों के मन में घर कर जाती है।
२०१८ में जब कृष्णा सोबती को समर्पित ‘रेत समाधि’ पूरी हुई तो गीतांजलि ने ‘माई’ की फ्रेंच अनुवादक एनी मोंतो को यह किताब भेजी। पढ़ते ही उन्होंने अनुवाद करने को हाँ कहा। वह अनुवाद '२०२१ एमिली गिमे पुरस्कार' के लिए शॉर्टलिस्ट हुआ। दोनों एनी और डेज़ी ने अनुवाद की प्रक्रिया में गीतांजलि से इतने विस्तृत प्रश्न किए जिनके उत्तर खोजने के लिए गीतांजलि ने कई बार पुस्तक को और कई बार स्वयं को टटोला।
२६ मई २०२२ को उनके उपन्यास 'रेत समाधि' के अनुवाद ‘टूम ऑफ सैंड’ को अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला और अचानक अंतर्राष्ट्रीय साहित्य की फ़्लडलाइट्स उन पर केन्द्रित हो गईं! यों तो बुकर की प्रक्रिया में लॉन्ग-लिस्ट और शॉर्ट-लिस्ट के समय भी हिन्दी तबकों में ख़ासी हलचल थी, पर किसी ने यह नहीं सोचा था कि वाकई एक भारतीय भाषा में लिखे उपन्यास का तर्जुमा विदेशी निर्णायक मंडली के दिलो-दिमाग़ पर छा जाएगा।
‘रेत समाधि’ के शॉर्टलिस्ट होने पर राजकमल के एक कार्यक्रम में अशोक वाजपेयी ने कहा- "हिन्दी उपन्यास प्रयोगशीलता के मामले में थोड़ा मन्दगति रहा है। उसपे यथार्थवादी ढाँचे का इतना आतंक रहा है, कि उससे अलग जाने की कोशिश को अलक्षित किया गया या लगभग प्रोत्साहित नहीं किया गया। गीतांजलि श्री ने यथार्थ की आम धारणाओं को ध्वस्त भी किया है और एक औपन्यासिक यथार्थ भी रचा है।”
प्रतिष्ठित लेखिका और गीतांजलि की मित्र प्रत्यक्षा सिन्हा कहती हैं, “मैं किताब की पठनीयता के बारे में कहना चाहती हूँ कि २०१८ में जब मैंने किताब को पढ़ कर इस पर कुछ लिखा था तो लगा था कि मैं इसे दो बार और पढ़ सकती हूँ। उन्होंने उस समय गीतांजलि को यह भी कहा था, “यह बड़ी किताब है, कोई बड़ा अवार्ड ले कर आएगी!”
स्पष्ट तार्किक क्रम और कल्पना, अन्तर्विरोध और सामंजस्य, ऑब्जेक्टिविटी और सब्जेक्टिविटी के बीच गीतांजलि श्री जो तालमेल बिठाती हैं वह उनकी अनूठी शैली को जन्म देता है। वैसे भी सोबती को समर्पित किसी किताब से लकीर के फ़क़ीर होने की आशा करना ज्यादती है। कोई आश्चर्य नहीं कि रेत समाधि पढ़ते हुए कभी ऐसा लगता है कि शब्दों के खेल, अर्थों की उलटबाँसियों से खुद ही खुद में मुस्कुराती एक एलिस अपने चित्त और मस्तिष्क के वन्डरलैन्ड में हमें ले जा रही है - जीवन की विसंगतियों को बेरहमी से देखती, तुक बना कर कविता जैसे पैराग्राफ़ लिखती, एक मतवाले पेन्टर की तरह हल्के से स्ट्रोकस को तरल सा छोड़ देती! इटैलिक्स में लिखे लेखकीय वक्तव्यों से वे विचरण करती कल्पना को हँस के कहानी के प्लॉट की तरफ लौटा लाती हैं। एक शो-मैन की तरह विनोदी सूत्रधार बनती गीतांजलि आपको कभी सरहदों के पार ले जाती है, और कभी अपने ही भीतर झाँकने को मजबूर करती है। उनके चिन्तन की प्यालियों में बहुत कुछ खुदबुदाता है। मुझे किताब पढ़ते हुए लग रहा है कि मैं एक साथ लुई केरोल, कृष्णा सोबती, मार्केव्ज और मुराकामी को पढ़ रही हूँ। सच तो यह है कि मैं गीतांजलि श्री को पढ़ रही हूँ!
श्री अपने छठे उपन्यास को आखिरी शक्ल दे ही रही थीं कि यह बुकर का कमाल हो गया! अब देखें कब और कहाँ से आता है उनका छठा उपन्यास! बहरहाल, हिन्दी लेखन में अचम्भे, ऊर्जा और आशा की जो लहर सी दौड़ गई है, वह गहरी हो, संवेदनशील हो, गतिमान हो, सब की लेखनी में बहे! अनुवाद का जो महत्त्व प्रकाशवान हुआ है, वह उम्दा अनुवादकों को ऊर्जावान करता रहे! “कार्यदेवी झााँकें और खिसक न जाएँ!”
सन्दर्भ:
https://artsandculture.google.com/entity/geetanjali-shree/m02qzkn1?hl=en
Youtube पर उपलब्ध गीतांजलि श्री के साक्षात्कार, किताब विमोचन, और literary festivals के विडिओ
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#ECSP NEWS--लेखिका गीतांजलि श्री के उपन्यास रेत-समाधि का हुआ विमोचन
लेखक परिचय:
शार्दुला नोगजा सुपरिचित हिंदी कवयित्री हैं और हिंदी के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। वे तेल एवं ऊर्जा सलाहकार के रूप में २००५ से सिंगापुर में कार्यरत हैं। उनकी संस्था ‘कविताई-सिंगापुर’, भारत और सिंगापुर के काव्य स्वरों को जोड़ती है। शार्दुला ‘हिंदी से प्यार है’ की कोर टीम से ‘साहित्यकार-तिथिवार’ परियोजना का नेतृत्व और प्रबंधन कर रही हैं। shardula.nogaja@gmail.com
गीतांजलि श्री पर यह महत्वपूर्ण आलेख है, उनके सृजन, सृजन प्रक्रिया और जीवन क्रम को समेटता ! प्रकाशन वर्ष से बुकर पुरस्कार तक रेत समाधि की अनूठी यात्रा को बहुत सुंदर रूप से उद्घाटित किया आपने, हार्दिक बधाई और शुभकानाएं !
ReplyDeleteवाह शार्दुला ! बड़ा प्रवाहमय आलेख लिखा है तुमने। एक सांस में पढ़ा गया। मज़ा आ गया। गीतांजलि श्री, ‘रेत समाधि’, उनकी लेखन प्रक्रिया समेत अन्य कृतियों का भी बढ़िया संक्षिप परिचय देकर तुमने उन्हें अधिक से अधिक और तुरंत पढ़ने की चाह दिल में जगा दी। इस दमदार और शानदार आलेख के लिए तुम्हें बधाई और धन्यवाद।
ReplyDeleteगीतांजली श्री जी पर लिखना भी एक चुनौतीपूर्ण कार्य था, शार्दुला जी, आपने बहुत संपर्क प्रामाणिक संतुलित लेख लिखा है। बुकर पुरस्कार के बाद चर्चा, वाद विवाद की आंधी में एक सम्यक मार्ग मिला है।हार्दिक बधाई।💐🎉👏 साहित्य किसी एक फॉर्म में हमेशा प्रस्तुत करना भी गलत होगा। भाषा गंगा अनेक भूभाग से प्रवाहित होनी चाहिए। साधुवाद ।
ReplyDeleteगीतांजलि श्री ने आज पटल पर पधार कर उसे और उज्जवल कर दिया। आज के लेख के ज़रिए हमने मिलकर इस उपलब्धि का जश्न मनाया।
ReplyDeleteशार्दुला, क्या शिद्दत से लिखा है आलेख। बुकर्स तक की लम्बी और गौरवमयी यात्रा का सीढ़ी दर सीढ़ी परिचय मिला। गीतांजलि जी के सधे और सटीक विचार भी जानने को मिले और विश्व के साहित्यिक पंडितों के उनके और उनकी कृति के बारे में विचार भी। कुल मिलाकर यह आलेख दिन आनंदमयी बना गया। तहे दिल से बधाई और शुक्रिया।
किसी ऐसे पर लिखना जो हालिया बहुत चर्चित रहा हो, काफी चुनौतीपूर्ण होता है, पर शार्दुला जी आपने जैसे हंसते हंसते बड़ी सहजता से इसे निभा लिया। आपकी लेखनी में भी यह सहजता दृश्यमान हुई। बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteबहुत सुंदर तरीके से आपने काफ़ी कुछ समेटा है इस आलेख में। गीतांजलि श्री के साथ - साथ आपको भी बहुत बधाई शार्दुला जी।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteअद्भुत लेखन, गीतांजलि श्री और शार्दुला दी दोनों के सुंदरतम लेखन का संगम आलेख बेजोड़ बन गया। दोनों को बधाई, नमस्कार
ReplyDeleteआपने अदभुत लिखा है शार्दूला जी. बहुत बहुत बधाई.
ReplyDeleteअभिनंदन
ReplyDeleteशार्दुला जी नमस्ते। आपने बहुत जानकारी भरा लेख लिखा है। आपको इस लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteशार्दूला जी आपकी उत्कृष्ट लेखनी ने एक बार फिर चमत्कृत किया। आपने गीतांजलि श्री जी के व्यक्तिव और कृतित्व पर सहज और रोचक अंदाज़ में बहुत ही संतुलित , तथ्यपरक और सम्पूर्ण जानकारी उपलब्ध कराता लेख लिखा है। जिसे पढ़कर आनंद आया। सोशल मीडिया सहित लखनऊ में हुए रेत समाधि पर कार्यक्रम में इस उपन्यास पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ ही पढ़ने-सुनने को मिलीं। सराहे जाने या बिदकाये जाने से इतर रेत-समाधि उपन्यास सफलता की यात्रा तय करता हुआ अपने मक़ाम तक पहुँच गया। प्रस्तुत लेख के ब्लर्ब में दर्ज गीतांजलि श्री जी की बात मुझे बहुत सच्ची लगती है। उनके कथन से सहमत होते हुए उन्हें बहुत बहुत बधाई देती हूँ । आपको इस सुन्दर लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteस्तब्ध हूँ ! अंतराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार सम्मानित आदरणीया गीतांजलि श्री की रेत-समाधि उपन्यास पर आदरणीया शार्दूला जी के द्वारा लिखित आलेख पढ़कर। आलेख की शुरुवात ही इतने रोचक ढंग से हुई है कि एक नजर भी ओझल करने की इच्छा नही हुई। आलेख की शब्दरचना इतनी प्रखरता से इस्तेमाल हुई है कि गीतांजलि श्री जी की रचनाधर्मिता का बड़ी बारीकी से ज्ञान प्राप्त हो रहा है। बड़े ही सहज और प्रभावी ढंग से रचे हुए आलेख के लिए आपका बहुत बहुत आभार और अनंत शुभकामनाए।
ReplyDeleteबढ़िया, शार्दुला जी। आपने गीतांजलि श्री की लेखकीय यात्रा और उस यात्रा के मार्ग का सुंदर, प्रवाहमय चित्रण किया है। बधाई।
ReplyDeleteजितनी “रेत समाधि “ अब तक पढ़ी है, उससे यह तो तय है कि उनकी लेखन शैली असाधारण है। शब्द पर शब्द। शब्दों का रेला। शब्द कहानी कह रहे हैं या कहानी शब्द दे रही है? बेहद रोचक। चले आओ शब्दों, छा जाओ मुझ पर! लेकिन आगे कहो ना। कहानी बहुत अच्छी है। और सुनाओ ना।मुझे सलमान रशदी की मिडनाइट्स चिल्ड्रन याद आ गई। ढेर सारे शब्दों का हल्ला। लेकिन बुरा नहीं लगता।दूर नहीं धकेलता। होली के रंगों जैसा छा जाता है। और खेलने को उत्साहित करता है।
लेखक वही जो मन का लिखे। झरने सा प्रस्फुटित हो , अभिव्यक्त करे। जो है, सो है। पाठक, प्रकाशक, पुरस्कार , आएँ तो उत्तम , ना आएँ तो क्या!
जिएँ गीतांजलि श्री,जिए उनका लेखन और जिए मानवीय अभिव्यक्ति! 💐💐