वैसे तो एक शरीफ इंसान हूँ,
आप ही की तरह श्रीमान हूँ,
मगर अपनी बाईं आँख से,
बहुत परेशान हूँ,
अपने आप चलती है,
लोग यूँ समझते हैं कि चलाई गई है,
जान-बूझ कर मिलाई गई है।
एक बार बचपन में,
शायद सन पचपन में,
क्लास में,
एक लड़की बैठी थी पास में,
नाम था सुरेखा,
उसने हमें देखा,
और हमारी आँख बाईं चल गई,
लड़की क्लास छोड़कर
बाहर निकल गई।
जब-जब उपर्युक्त पंक्तियाँ पढ़ी जाती हैं या कानों पर पड़ती हैं, तो चेहरा अपने आप हँसी के द्वार खोल देता है, मुस्कराहट की फुहार से मन भीग जाता है, यादों की गलियों में बालक सा लोट-पोट हो जाता है। आाँखों के सामने, मस्तिष्क में एक गोल-मटोल, हँसमुख व्यक्ति की छवि बन जाती है; जिसको देखते ही हास्य की बौछार शुरू हो जाती है, और मुँह से तारीफ़ के बोल निकल पड़ते हैं- वाह! वाह, शैल जी क्या बात है! उनकी ठहाकों भरी गगन-भेदी हास्य रचनाएँ स्वयं उन्हें भी अपने मसखरा स्वभाव से अलग नहीं कर पाती थी। मंचीय जादू और अनूठे अंदाज़ से वह हर सम्मेलन के छोटे-बड़े स्त्री-पुरुष का मन मोह लेते तथा सम्मेलन ख़त्म होने तक बस्स हँसी के फौव्वारे लुटाते रहते!
हिंदी साहित्य में कविता के अनेक रूप पढ़ने और सुनने को मिलते हैं। कविता कभी प्रेम और श्रृंगार का वर्षाव-छिड़काव करती हैं, तो कभी वेदना और विरह से विकल होकर हृदय के सम्बल को सम्भालती हैं। प्रकृति की नयनाभिराम छवि का वर्णन करती मस्तिष्क को स्फूर्ति और मोहित कर ऊर्जा से भी भर देती हैं। वीरों की गाथा और बलिदान से समूचे इतिहास को अजर-अमर करने की क्षमता भी रखती हैं, परंतु हास्य कविता वह साहित्यिक रचना है जो ‘क्षणिक मनोविनोद’ से निकल कर स्वयं में गहन मर्म समेटे हुए सभी के चेहरों पर मुस्कान लाती हैं। ऐसे ही हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक महान बहुमुखी प्रतिभा के धनी शैलेंद्र कुमार चौबे (शैल चतुर्वेदी) हास्य कवि और उत्कृष्ट अभिनेता हुए जिनके बारे में आज हम कुछ और जानने की कोशिश करेंगे।
‘शैलेंद्र कुमार चतुर्वेदी’ का जन्म २९ जून १९३६ को महाराष्ट्र के अमरावती जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री प्रेमनारायण चतुर्वेदी और माता का नाम श्रीमती शकुंतला चतुर्वेदी था। आप भाई-बहनों में सबसे बड़े और लाडले थे। परिजन उन्हें घर में लाड से बाबू बुलाया करते थे, परंतु जान-पहचान और आस-पड़ोस के लोग उन्हें भैया कहकर पुकारते थे। उनमें बचपन से ही नाटकीयता और हास्यप्रियता का स्वाभाविक गुण था। फूल से कोमल, पर धारदार विचारधारा के और लड्डू जैसे गोल-मटोल शक्ल वाले शैलजी ज्ञानवान, ईमानदार, बेबाक, समय के पाबंद, उदार एवं मित्रवत व्यवहार रखने वाले मनमौजी बालक हुआ करते थे। उन्हें संगीत में रुचि थी, जिसके चलते वह बांसुरी और हारमोनियम भी ख़ूब अच्छा बजाते थे। अपने खाली समय में वह फाइन आर्ट भी करते और उन्होंने कुछ ख़ूबसूरत तस्वीरें भी बनायी थी। फुटबॉल उनका पसंदीदा खेल था। कॉलेज के दिनों में कई मैच भी खेल चुके थे। जिस तरह हर माँ-बाप का सपना होता है कि उनका बेटा डॉक्टर या इंजीनियर बने, वैसा ही कुछ माहौल इनके घर में भी था। परन्तु अपने भीतर पल रहे एक कलाकार को वे कभी मार न सके और उसके चलते किसी तरह उन्होंने स्नातक स्तर की पढ़ाई पूरी की। संयुक्त परिवार के ज़ोर पर उनके चाचा-ताऊ ने उन्हें मध्यप्रदेश, बैतूल में पंचायत पर्यवेक्षक की नौकरी दिला दी और S.E.O के रूप में तृतीय श्रेणी के अधिकारी के हवाले कर दिया। पंचायत विभाग में कला-संस्कृति के माध्यम से 'कला पथक' नाम का एक संस्थान था, जो गाँव-गाँव जाकर कला के माध्यम से लोगों को सरकारी योजनाओं की जानकारी देता था; जो शैलजी के लिए एक वरदान साबित हुआ। अपनी कला को और अपने अंदर दबे हुए कलाकार को जागृत करने का यह बहुत अच्छा मौका था, अतः उन्होंने इस कला पथक में अपनी कला को प्रदर्शित करना शुरू किया। उनके कला की नाँव जीवन-रूपी समुद्र में तैरने लगी और छोटी तनख्वाह होने के बावजूद भी बेहद संतुष्ट और कलात्मक जीवन जीने का उन्हें अवसर प्राप्त हुआ। उसी कला पथक के दौरान उन्हें नर्तन का भी ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने कई नवयुवक-युवतियों को नृत्य का अभ्यास कराया। वह एक अच्छे नर्तक भी साबित हुए। गाँव-गाँव जाकर खेले नाटक-नौटंकियों से उन्हें प्रसिद्धि और कीर्ति प्राप्त होने लगी। एक उत्कृष्ट कलाकार के रूप में वह पहचाने जाने लगे। कलाकार की भूमिका निभाने के पश्चात उन्होंने अपना रुख़ निर्देशन की तरफ़ मोड़ लिया, जहाँ उन्हें और उपलब्धियाँ प्राप्त हुईं। वह ख़ुद के नाटक और खेलों के लिए हास्य पंक्तियाँ लिखने लगे। उनके जीवन में हास्य कविता का रंग अकस्मात ही उमड़ पड़ा था।
सन १९६४ में मध्यप्रदेश के जबलपुर में एक कवि सम्मेलन होने जा रहा था। उस समय के कविता संसार के धूमकेतु नीरजजी और काका हाथरसी इस सम्मेलन के मुख्य आकर्षण थे, और उस कवि सम्मेलन को एक और हास्य कवि की ज़रूरत थी; परंतु इस योजना के अंतर्गत कोई कवि उपलब्ध नहीं हो पा रहे थे। उस सम्मेलन के संयोजक शैलजी की कला और हास्य कविता के प्रशंसक थे, इसलिए उन्होंने ज़बरदस्ती शैलजी को उन दिग्गजों के सामने इस सम्मेलन में खड़ा कर दिया। यह शैलजी का पहला काव्य-सम्मेलन था, जिसमें इन्हें उन महान ठहाकों के बादशाहों के सामने अपनी कुशलता का प्रमाण देना था। यहीं से उनकी भाग्य-रेखा का उदय हुआ। मंच पर खड़े रहने के पश्चात उन महारथियों के सामने अति उत्साहित जनता को देखकर तो पहले उन्हें कुछ समझ ही नहीं आया कि कहाँ से शुरुआत की जाए; परंतु अपने अंदर के कलाकार और हास्य कवि को जागृत कर उन्होने अपनी ही काया पर एक हास्य-ग़ज़ल (जिसे वे ग़ज़ला कहते थे) पेश की जिसे सुनकर लोग हँस-हँस कर लोट-पोट हो गये। उनकी इस अभिनयपूर्ण प्रस्तुति से श्रोता मंत्रमुग्ध थे और समूचा सभागार तालियों कि गड़गड़ाहट के साथ-साथ ‘वन्स मोर! वन्स मोर!!’ की आवाज़ से गूंज उठा। काफ़ी देर तक यह सिलसिला चलता रहा और वहीं से शैलेंद्र का जन्म शैल के नाम से हुआ । अगले तीन सालों में शैलजी हास्य रस के नए अवतार में विराट रूप लेकर उभरते रहे और वे जग प्रसिद्ध हो गए।
अद्भुत एवं सम्पूर्ण कलाकार और अनगिनत गुणों से भरपूर शैलजी हास्य रस के उन कवियों में से थे, जिनकी प्रतिभा बहुआयामी थी। बहुत अच्छे कवि के साथ-साथ वह कुशल व्यंग्यकार भी साबित हुए।
क्या कहा-चुनाव आ रहा है?
तो खड़े हो जाइए
देश थोड़ा बहुत बचा है
उसे आप खाइए।
देखिये न,
लोग किस तरह खा रहे हैं
सड़कें, पुल और फैक्ट्रियों तक को पचा रहे हैं
जब भी डकार लेते हैं
चुनाव हो जाता है
और बेचारा आदमी
नेताओ की भीड़ में खो जाता है।
अपनी जुबानी राजनीतिक टिप्पणियों के साथ शैल जी १९७० से १९८० तक काका हाथरसी, ओमप्रकाश आदित्य, गोपालदास व्यास, निर्भय हाथरसी, माणिक वर्मा, हुल्लड़ मुरादाबादी के समकालीन रहे; सुरेन्द्र शर्मा, प्रदीप चौबे और अशोक चक्रधर जैसे शीर्ष नामों के बीच उन्होंने अपनी उत्तम और प्रतिष्ठित जगह बनायी।
अब बारी थी अपने अंदर पनप रहे रंगमंच के कलाकार को फिर से जागृत करने की, तो उन्होंने होली के वार्षिक कवि-सम्मेलन के दौरान दूरदर्शन पर राज्य सरकार द्वारा संचालित टी.वी. चैनल पर अपना हास्य रंग बिखेरना शुरू किया। जैसे-जैसे टी.वी. चैनल पर लोकप्रियता बढ़ने लगी, उन्हें हिन्दी फ़िल्मों में भी अपना अभिनय प्रस्तुत करने का अवसर मिला। सन १९७१ में उन्होंने फ़िल्म उपहार में एक बुज़ुर्ग शंकरलाल के रूप में अपनी भूमिका निभायी। १९७२ में फ़िल्म भैया में प्रकाशक के रूप में दिखायी दिए। सन १९७६ में चितचोर नामक फ़िल्म में उनका पसंदीदा किरदार श्री चौबेजी के रूप में ख़ूब ख्याति बटोर रहा था। फ़िल्म पायल की झंकार १९८० में प्रदर्शित होने के पश्चात सन १९८५ में फ़िल्म जज़्बात में हवलदार पांडे की भूमिका निभाकर ख़ूबसूरत अभिनय प्रस्तुत किया। इसी वर्ष फ़िल्म हम दो हमारे दो में भी वह नज़र आये। बहुचर्चित फ़िल्म चमेली की शादी जो १९८६ में परदे पर आयी, उसमें लच्छूराम कपाची (माखन के पिता) का किरदार निभाकर अपने अभिनय का जोरदार प्रदर्शन किया, जो काफ़ी सराहनीय रहा। उसके पश्चात १९९१ में नरसिम्हा और १९९३ में धनवान, १९९८ में करीब तथा तिरछी टोपीवाले जैसे नामांकित फ़िल्मों में भी उन्होंने अपनी अदाकारी की अच्छी छाप छोड़ी।
देखते कहीं हो
और चलते कहीं हो
कई बार कहा
इधर-उधर मत ताको
बुढ़ापे की खिड़की से
जवानी को मत झाँको
कोई मुझ जैसी मिल गई
तो सब भूल जाओगे
वैसे ही फूले हो
और फूल जाओगे
शैलजी की योग्यता पर कोई भी प्रश्न चिह्न नहीं लगा सकता, वह व्यावहारिक और क्षमतावान व्यक्ति में पहचाने जाते थे। अपनी कुशल प्रतिभा के चलते उन्होने टी.वी. शृंखला में भी महत्त्वपूर्ण किरदार निभाकर कला संस्कृति में योगदान दिया है। उन्होने ज़बान सम्भाल के धारावाहिक (सन १९९३) में स्कूल इंस्पेक्टर के अभिनय द्वारा लोगों को बहुत प्रभावित किया। उनका यह अति लोकप्रिय किरदार घर-घर में पारिवारिक रूप से देखा जाने वाला पसंदीदा किरदार बना। सन १९९५ में टी.वी. धारावाहिक श्रीमान श्रीमती में धर्मेद्र शर्मा के रूप में एक हास्य रूपी बॉस की भूमिका निभायी थी। १९९६ में भोंडी बाबा के नाटकीय कला को प्रस्तुत कर कुछ भी हो सकता है जैसे धारावाहिक में दिखायी दिए। हास्य के साथ-साथ कुछ संदिग्ध किरदार भी रामेश्वर रॉय के अंदाज़ में व्योमकेश बख्शी जैसे मियादी धारावाहिक में निभाया। अति विख्यात नाटकीय धारावाहिक कक्काजी कहिन में तो नेता बन कर उन्होने देश की राजनीतिज्ञ संदर्भो को हास्य में प्रस्तुत कर अपने अच्छे कलाकार होने का प्रमाण भी दिया है।
विकसित तथा अनुशासित व्यवस्था पसंद करने वाले शैलजी जीवन में बहुत-सी उपलब्धियाँ प्राप्त नहीं कर पाये; परंतु संवेदनशील और सहृदय शैलजी के सामने अगर कोई अत्यंत पीड़ा या दु:खवाला किस्सा लेकर आ जाए तो शैलजी तुरंत उसकी सहायता हेतु तत्पर रहते थे। उनमें इतनी ऊर्जा भरी होती थी कि बिना किसी हिचकिचाहट के अपने लक्ष्य पर पहुँचने में सारा ज़ोर लगा देते, पर कई बार अपनी काल्पनिक सीमाओं के बारे में सोचकर सफलता हाथ से निकल जाती थी। शैलजी की वास्तविक और व्यावहारिक सोच के कारण वस्तु और व्यक्ति के आर-पार देखने की अद्भुत दृष्टि रखते थे, उनसे कुछ भी छुपा पाना असम्भव था। उनमें अंदर की परिस्थितियों को तुरंत समझने एवं समस्याओं के त्वरित निराकरण करने की विशिष्ट क्षमता थी, जो किसी के दबाव में न आकर अपने लक्ष्य पर नियंत्रित रहती थी।
हास्य व्यंग्य के लिए पहचाने जाने वाले शैलजी प्रतिष्ठित लोगों के द्वारा मार्गदर्शन प्राप्त करते थे तथा अपनी शिक्षा, ज्ञान और साहित्य में परिणाम स्वरूप उन्नत बनाने की कोशिश में लगे रहते थे। कभी-कभी अति स्वतंत्रता के शिकार शैलजी ज्ञान और साहित्य के प्रति अजीब भूख रखते थे। हास्य रंग में हर रंग की कविताओं के लेखन के साथ उन्होने गजलें भी लिखी हैं। उनका व्यक्तित्त्व ऐसा था कि वह कभी किसी चीज से हार नहीं मानते थे। वह मधुमेह के मरीज़ थे और उनके पैर में जख़्म भी हो गये थे, जिसकी वज़ह से उन्हें बहुत पीड़ा होती थी; ठीक से चल भी नहीं पाते थे, परंतु पीड़ा को अपने हृदय तक रखते और श्रोताओं एवं पाठको मन में मुस्कान भरते थे। उन्होंने हमेशा अपने लिए सारे दु:ख रखे और बाक़ी सभी में खुशियाँ बाँटी हैं। जब कोई पीड़ा या दर्द असहनीय होता और कोई उनसे पूछ लेता कि क्या परेशानी है? तो बड़ी हास्य मुद्रा में कहते- “इस जन्म में तो मैंने सबको हँसाया है; पिछले जन्म की ही कोई कमी रही होगी, लेकिन इस बार मैं इस पीड़ा को भी हँसी में बदल दूँगा।”
दोस्ती या यारबाजी में शैलजी हमेशा अव्वल रहे। दोस्ती करके उसे निभाने में उन्हें तो जैसे महारत हासिल हुई हो। कई बार तो कलकत्ता में मित्र-गण के लिए कवि सम्मेलन में बिना पारिश्रमिक ही पहुँच जाते और अपनी कविता पाठ से दोस्तों के साथ-साथ श्रोताओं का मन भी आनंदित और उल्लासित कर देते थे। कई जगह पर तो आठ-आठ दिन रुक कर कविताएँ सुनाते रहते। उनकी एक बात हमेशा याद रहेगी। वह कहते थे कि- “कविता के जरिए अपने पाँव पर खड़े होने में उन्हें अगर २० साल लगे हैं, तो उस सफ़र को ख़त्म होने में ४० साल लगेंगे। इसका संदर्भ यह था कि जो अपने पैरो पर ख़ुद खड़ा हो वह लम्बे समय तक याद रखा जायेगा, सराहा जायेगा; जैसे अनुभवीय लोग बच्चों से कहते हैं, किसी भी स्थिति में नम्बर वन की दौड़ में शामिल न हो, वरना तनावग्रस्त हो जाओगे। हमेशा काम पर ध्यान दो और पूरी लगन और शिद्दत के साथ उस काम को पूरा करो, तुम्हारे लिए दूसरे लोग अपने आप नम्बर लगाना शुरू कर देंगे और एक दिन वही एक नम्बर आपको समर्पित होगा।”
एक महान साहित्यकार, कवि और चरित्र अभिनेता शैलजी ने अपनी और आने वाली पीढ़ी को प्रभावित कर अपने कला के द्वारा एक अमिट छाप छोड़ी है। उतरती उमर के साथ वह अनेक बीमारियों से जूझ रहे थे। रंगीन टी.वी. युग की शुरुआत में व्यंग्य हास्य कविता के माध्यम से हर वर्ष दूरदर्शन के कार्यक्रमों में नज़र आने वाले शैलजी ने मंचों और फ़िल्मों से सन्यास ले लिया था; परंतु उनकी क़लम चलती रही। अपने गुर्दे की बीमारी के चलते वह एकांत में रहने लगे थे और जीवन की सक्रियता भी कम होने लगी थी। अपने आखिरी दिनों में मुंबई के मलाड स्थित आवास में कुछ गजलें भी लिखी। आखिरकार उनके जीवन-चक्र की गति धीमी होती गयी और बीमारियों का संवेग बढ़ता ही चला गया। अंतत: ७१ वर्ष की आयु में २९ अक्टूबर २००७ में सभी में खुशियाँ बाँटने वाला एक महान कवि और रंगमंच का किरदार अपनी खिलखिलाती हँसी के साथ गुम हो गया और वह अनंत में विलीन हो गये। जहाँ उनके बारे में सुनकर हँसी के ठाहके लगते थे, वही उनकी मृत्यु की ख़बर सुनकर दु:ख का सन्नाटा छा गया था।
आज भी यही कहा जा सकता है- “जब भी 'शैल' रूपी पर्वत का नाम मंच पर लिया जायेगा, अपने आप चेहरे पर हँसी का रंग चढ़ता जाएगा। जब कभी हास्य कवि सम्मेलन का इतिहास लिखा जाएगा; कोई हास्य रस-कथा काव्य सुनाया जाएगा, तो वहाँ शैलजी का ज़िक्र ख़ासतौर पर किया जाएगा।”
संदर्भ:-
https://www.amarujala.com/kavya/hasya/hasya-kavi-shail-chaturvedi-best-hasya-poetry
https://legendnews.in/today-came-to-the-world-comedy-poet-and-songwriter-shail-chaturvedi/
श्री शैल चतुर्वेदी जी के सुपुत्र विशाल चतुर्वेदी से सम्वाद
लेखक परिचय :
सूर्यकांत सुतार 'सूर्या'
दार-ए-सलाम, तंजानिया
साहित्य से बरसों से जुड़े होने के साथ-साथ कई समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में लेख, कविताएँ, गजलें व कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
चलभाष: +२५५ ७१२ ४९१ ७७७
ईमेल: surya.४६७५@gmail.com
सूर्या जी, बधाई हो! बहुत अच्छा आलेख बन पड़ा है। शैल जी के हास्य-फ़व्वारों की बौछारें हैं, ज़ाती ज़िंदगी के दिलचस्प वाक़्ये हैं, ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव के नमूने हैं। आपको इस आलेख के लिए तहे दिल से आभार।
ReplyDeleteसूर्या जी नमस्ते। आपने शैल चतुर्वेदी जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। उनको टी वी के कार्यक्रमों में सुना-देखा। पर आपके लेख के माध्यम से उनके सृजन को विस्तार से जानने का अवसर मिला। आपने शैल जी के बारे में बहुत सारी जानकारी सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत की। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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