Monday, June 13, 2022

निर्गुण संत दादू दयाल - राजस्थान के कबीर




संतप्रवर श्री दादू दयाल को मध्य कालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख निर्गुण संत कबीर व गुरु नानक के समकक्ष माना जाता है। दादू दोहे, शबद और साखी के माध्यम से गुरु भक्ति के महत्व, आध्यात्म के गूढ़ रहस्यों, जात-पात समभाव, हिन्दू-मुसलमानों की एकता आदि विषयों को सहज ही उजागर किया। इनके पद तर्क आधारित न होकर हृदय प्रेरित और प्रेम-भाव पूर्ण हैं। अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु का परोपकार के लिए सहज दान कर देने केे स्वभाव के कारण उनका नाम 'दादू' पड़ा। अत्यंत करुणामय स्वभाव, क्षमाशील व्यवहार और संतोषी मन होने के कारण 'दयाल' यानी 'दादू दयाल' कहलाये ।

दादू का जीवन वृतांत -
दादू के शिष्य रज्जब ने उल्लेख किया जिससे पता चलता कि दादू धुनिया जाति में जन्मे थे।
धुनी ग्रभे उत्पन्नो दादू योगन्द्रो महामुनिः।
उतृम जोग धारनं,तस्मात् क्यं न्यानि कारणम्।।

दादू दयाल के जीवन की जानकारी दादू पंथी राघोदास 'भक्तमाल' और दादू के शिष्य जनगोपाल द्वारा रचित 'श्री दादू जन्म लीला परची' में मिलता है। दादू के जन्म के विषय में दादू पंथी संप्रदाय के मतानुसार दादू छोटे बच्चे के रूप में साबरमती नदी में बहते हुए मिले थे और उनका पालन पोषण धुनिया परिवार में हुआ था। तत्कालीन इतिहासकारों, लेखकों और संग्रहकर्ताओं के अनुसार इनका जन्म राजघराने में हुआ। एक किवदंती के अनुसार उनका लालन-पालन ब्राह्मण लोदी राम और उनकी पत्नी बसी बाई ने किया। एक अन्य मतानुसार दादू भी कबीर की तरह कुँवारी ब्राह्मणी की अवैध संतान थे और बदनामी के भय से दादू को साबरमती नदी में प्रवाहित कर दिया था। लोदी राम ने बचा कर अहमदाबाद में उनकी देखभाल की। विक्रम संवत १६२० में १२ वर्ष की आयु में दादू गृह त्याग कर सत्संग के लिए निकल गए थे। निर्गुण संतों की तरह दादू का संबंध निम्न जाति से था। उस समय सामाजिक व्यवस्था में कट्टर जातिवाद प्रचलित था। कई बार जिज्ञासु लोग जाति के विषय में पूछते, उन्हें संबोधित करते हुए अपने पदों में लिखा है-

कुल हमारे केसवा, सगात सिरजनहार।
जाति हमारी जगतगुर, परमेश्वर परिवार।
मनसा बाचा क्रमनां, और न दूजा कोई ।
 
उन्होंने एक पद में उल्लेख किया है कि वे एक पिंजारा हैं और यही उनकी आजीविका का साधन था।
"कौण आदमी कमीण विचारा ,किसकौं पूजै ग़रीब पिंजारा।।"

कबीर के समान ही दादू ने वर्ण व्यवस्था का विरोध किया। चूँकि उस समय इस्लाम राज धर्म था उनको इस्लाम से जोड़ कर मुसलमान बताये जाने के अनुमान भी लगाए। आचार्य क्षिति मोहन के अनुसार दादू मुसलमान थे और उनका नाम दाऊद था। जो मान्य नहीं किया। दादू ग्रंथ के अनुसार गरीब दास और मिस्कीन दास को पुत्र बताया गया, जो उनके शिष्य भी थे। नानी बाई और माता बाई को उनकी पुत्रियों के रूप में बताया गया। दादू ने अपनी रचनाओं में अपने परिवार का जिक्र करते लिखा है -

दादू रोजी राम है,राजिक रिजक हमार।
दादू उस परसाद सौं,पोष्या सब परिवार।।
दादू साहिब मेरे कपड़े,साहिब मेरा पाण।
साहिब सिर का नाज़ है,साहिब प्यंड परांण।।

चंद्रिका प्रसाद त्रिपाठी के अनुसार अठारह वर्ष तक अहमदाबाद में रहे, छह वर्ष तक मध्य प्रदेश में घूमते रहे और बाद में राजस्थान आये। जन गोपाल के 'परची' के अनुसार ३० वर्ष की आयु में दादू सांभर (राजस्थान) आ गये थे। उसके दो वर्ष बाद पुत्र गरीब दास का जन्म हुआ था। 'श्री दादू जन्म लीला परची' में बताया गया कि ग्यारह वर्ष की आयु में वृद्ध बाबा के रूप में एक बुड्ढे बाबा मिले जिनको उन्होंने गुरु रूप में मान लिया। साखियों व पदों में उन्होंने परमात्मा को भी कबीर नाम से संबोधित किया है। सांभर से दादू ने अपनी भक्ति यात्रा शुरू की। उन्होंने जीवन का अधिकांश समय आमेर और सांभर में बिताया। फिर आमेर से फतेहपुर सीकरी गए जहाँ अकबर बादशाह ने पूर्ण श्रद्धा से उनका सत्कार किया और उनसे चालीस दिनों तक उपदेश ग्रहण किये। दादू के सत्संग से प्रभावित होकर अकबर ने पूरे साम्राज्य में गो-हत्या पर पाबंदी लगाई।
 
तत्पश्चात दादू नराणा (जयपुर) पधारे। इस नगर को उन्होंने विश्राम और साधना स्थल के लिए चुना। यहाँ खेजड़े के वृक्ष के नीचे लंबे समय तक साधना की। यहाँ आज भी लोग अपनी मनोकामनाएँ पूर्ण होने की प्रार्थना करने जाते है।
दादू ने आध्यात्मिक ज्ञान और सहज भक्ति के प्रचार के लिए देश भ्रमण किया था। विशेष कर उत्तर भारत, काशी, बिहार, बंगाल, राजस्थान के भीतरी भागों में लंबी यात्राएँ कीं। अंत में नराणा में बस गए।

दादू पंथ 
दादू ने अपने शिष्यों को एक सूत्र में बाँधने के विचार से सांभर में 'परम् ब्रह्म सम्प्रदाय' की स्थापना की थी। इनके एक सौ बावन शिष्य थे, जिनमें से एक सौ शिष्य भगवत भजन में ही लगे रहे और बावन शिष्यों ने भगवत चिन्तन के साथ समाज में ज्ञान के प्रचार-प्रसार का कार्य करना भी ज़रूरी समझा। इन बावन शिष्यों के स्तंभ प्रचलित हुए जो आज भी पंजाब, राजस्थान और हरियाणा में हैं। इन क्षेत्रों में दादू-द्वारों की स्थापना की। उनके प्रमुख शिष्यों में गरीब दास, बधना, रज्जब, सुंदर दास, जनगोपाल, लाखा जी, नवहरिदास, जगन्नाथ दास, माधोदास आदि प्रसिद्ध हुए। इन्होंने गुरु-भक्ति के साथ निर्गुण ज्ञान का प्रचार किया और दादू की रचनाओं को लिपिबद्ध किया। दादू के बाद उनका संप्रदाय  'दादू पंथ' कहलाया। इस पंथ के अनुयायी अपने साथ सुमरनी रखते थे। सत् राम कह आपस में अभिवादन करते थे। दादू पंथ का उद्देश्य पंथ स्थापना नहीं था बल्कि विभिन्न सम्प्रदायों के बीच सहिष्णुता व समन्वय की भावना स्थापित करना, सामाजिक व आध्यात्मिक उन्नति, गुरु भक्ति के महत्व, सामाजिक सद्भावना और समाज के लिए उच्च जीवन पद्धति का निर्माण करना था। सुंदरदास ने 'गुरु सम्प्रदाय' नामक अपने ग्रन्थ में इसे 'परम ब्रम्ह सम्प्रदाय' कहा है। परशुराम चतुर्वेदी इस सम्प्रदाय का स्थापना काल १५७३ में सांभर में मानते हैं। परब्रह्म सम्प्रदाय का पूर्व नाम ब्रह्म सम्प्रदाय भी है , लेकिन सर्वाधिक लोकप्रिय नाम दादू पंथ ही है ।

दादू पंथ की शाखाएँ 
कालांतर में दादू संप्रदाय की पाँच उप-शाखाएँ हुई : 

१. खालसा - गरीब दास के आचार्य परंपरा से संबंधित साधु
२. विरक्त तपस्वी - रमते फिरते साधु जो गृहस्थियों को धर्म के उपदेश देते थे।
३.उत्तराधे व धारक - जो राजस्थान से बाहर के राज्यों में धर्म उपदेश देते थे।
४.ख़ाकी - जो शरीर पर भस्म लगाते और जटा रखते थे।
५.नागा पंथ - ये विरक्त साधु थे जो शस्त्र भी रखते थे। सामंतों के दमन और बाह्य आक्रमणों से रक्षा के लिए इन्होंने शस्त्र भी उठाये। नागा पंथियों का सत्संग स्थल अलख दरीबा नाम से प्रसिद्ध है।

दादू की शिक्षाएँ दादु वाणी में संग्रहित हैं। इनके अनुसार
*ब्रह्मा से ओंकार की उत्पति हुईऔर ओंकार से पाँच तत्वों की उत्पति हुई।
*माया के कारण ही आत्मा और परमात्मा के मध्य भेद होता है।
*दादू दयाल ने ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु को अत्यंत आवश्यक बताया।
*गुरु संगति, ईश्वर का स्मरण, अहंकार का त्याग - संयम एवं निर्भीक उपासना ही सच्चे साधन हैं।


दादू आधारित साहित्य
दादू के संदेशों को उनके शिष्य रज्जब ने 'दादू अनुभव वाणी' के रूप में संग्रहित किये जिसमें ५००० दोहें शामिल हैं। यह भी सर्व-स्वीकृत तथ्य है कि दादू की रचनाओं का संग्रह उनके शिष्यों ने किया, स्वयं उन्होंने नहीं। दादू के दोहे, साखी और पदों का संग्रह उनके दो शिष्यों संत दास और जगन दास ने हरडे वाणी नाम से किया था। रज्जब ने दादू वाणी का संपादन 'अंगवधू' के नाम से किया। दादू ने राजस्थानी, पंजाबी,  गुजराती और कई मिश्रित भाषाओं के मिलेजुले रूप में सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया। 

दादू संबंधित साहित्य
दादू संप्रदाय के दादू जन्म लीला पर्ची, सन्त गुण सागर, नाम माला और भक्त माल प्रमुख ग्रंथ हैं। दादू दयाल की वाणी 'अंगवधू' आचार्य चंद्रिका त्रिपाटी द्वारा संपादित है। यह कई हस्त लिपियों के अनुकरण आधार पर संपादित की गई है। रज्जब ने इनकी वाणी को ३७ भागों में विभाजित करके 'अंगवधू' के नाम से संकलित किया। दादू वाणी ग्रंथ पर लिखने वाले लेखक चंद्रिका प्रसाद, बाबू बलेश्वरी, स्वामी नारायण दास, स्वामी जीवानंद, भारत भिक्षु आदि प्रमुख हैं। १९०७ में सुधाकर द्विवेदी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा से 'दादू दयाल की वाणी' नाम से प्रकाशित करवाया।


दादू के उपदेश
भक्तिकाल के संत सांसारिक थे इसलिए उन्होंने संसार के त्याग के बजाय मोह - माया त्यागने पर ज़ोर दिया। उन्होंने तीर्थ यात्रा, भगवा धारण करना, मंदिर मस्जिद जाना आदि बाह्य आडंबरों को व्यर्थ बता अपने अंतः करण की शुद्धि और अपने घट में ईश्वर को ढूँढने का उपदेश दिया। वे निर्गुण ब्रम्ह की भक्ति के समर्थक थे। उन्होंने गुरु को भव सागर पार करने में सतगुरु का होना अनिवार्य बताया। जीव, जगत, माया, ब्रम्ह, मोक्ष सरल भाषा में विचार व्यक्त किये। उनके अनुसार जो आत्म दर्शन कराये वो ही सच्चा गुरु होता है।

दादू सतगुरु ऐसा कीजिये, रामरस माता।
पार उतारे पलक में, दरसन का दाता।।

दादू ने अपने पूर्ववर्ती निर्गुण संतों विशेष रूप से नामदेव, कबीर और रैदास के प्रति श्रद्धा भक्ति व्यक्त की। कबीर तो दादू के आदर्श थे। उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहा है -
अंमृत रांम रसाइण पीया, ताथै अमर कबीरा कीया।।
रांम रांम कहि रांम समांनां, जन रैदास मिले भगवाना।।


दादू के जीवन काल के अंतिम दिन
दादू नराणा में अपनी समाधि लेने से पूर्व देह त्याग करने का निर्धारित समय अपने शिष्यों को बता दिया था। उन्होंने ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी संवत १६६० में नियत समय पर ध्यान मग्न होकर 'सत्य राम' शब्द का उच्चारण करके अपना देह त्यागा। दादू के इच्छानुसार उनके शरीर को भैराना की पहाड़ी पर स्थित एक गुफा में रखा गया जहाँ इनको समाधि दी गयी। इस पहाड़ी को 'दादू खोल' कहते है। 'दादू पीठ' व 'दादू पंथ' आज भी मानव सेवा के कार्य करने में संलग्न है। दादू के उपदेश आज भी समाज का व आध्यात्म प्रेमियों का मार्ग प्रशस्त करते हैं। हर वर्ष दादू धाम में मेले का आयोजन होता है तब एक माह के लिए भारत सरकार के आदेश अनुसार वहाँ से गुजरने वाली हर रेलगाड़ी का ठहराव नराणा स्टेशन पर होता है। इसी से उनकी महिमा का अनुमान लगाया जा सकता है कि दादू कितने महान संत रहे होंगे। ऐसी दिव्य विभूति को कोटिशः नमन्।


दादू दयाल का परिचय

जन्म -             संवत् 1601
जन्म स्थान-     अहमदाबाद
अभिभावक-    लोदी राम और बसी बाई
मृत्यु -              संवत् 1660
संतान -            पुत्र - ग़रीब दास और मिस्कीन दास
पुत्रियाँ -           नानी बाई और माता बाई
धर्म -               हिन्दू
दर्शन -            निर्गुण भक्ति
भाषा -             सधुक्कड़ी
कर्म भूमि -       गुजरात और राजस्थान
मुख्य रचनाएँ -  साखी, दोहे, पद, हरडे वाणी, अंगवधू


लेखक परिचय: 

मीनाक्षी कुमावत मीरा,  
रोहिडा, सिरोही (राजस्थान)
शिक्षा - एम. ए., बी.एड., नेट (हिंदी साहित्य)
राजकीय विद्यालय में अध्यापन कार्य
कृतियाँ - गुरु आराधना वली (भजन संग्रह), हाइकु कोश, आगाज़ (ग़ज़ल संग्रह) व १५ अन्य साझा संकलन, देश के कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
साहित्यकार तिथिवार समूह व कविता की पाठ शाला में लेखन कार्य में साझेदारी, अन्य साहित्यिक समूहों में लेखन कार्य


18 comments:

  1. मीनाक्षी, दादू दयाल पर तुम्हारा आलेख बहुत अच्छा लगा। क्षितिमोहन सेन पर जब से आलेख लिखा, दादू के प्रति श्रद्धाभाव मन में थे। आज जाना कि उनके पदों और साखियों की खोज में क्षिति बाबू ने क्यों इतनी लम्बी कठिन यात्राएँ कीं। निश्चित ही दादू जैसे संतों ने हमारी संस्कृति को बहुत समृद्ध किया है। इस जानकारीपूर्ण और रोचक लेख के लिए बधाई और आभार।

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    1. बहुत आभार मेम, आपकी उत्साह वर्धक टिप्पणी हमेशा प्रेरित करती है। नमस्कार

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  2. सुंदर आलेख मीनाक्षी जी। आपको साधुवाद

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  3. बहुत अच्छी जानकारी बधाई

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  4. मीनाक्षी, आज के तुम्हारे आलेख से राजस्थान के कबीर दादू दयाल के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त हुई। तुम्हें इस सारगर्भित आलेख के लिए हार्दिक बधाई और भावी लेखन के लिए शुभकामनाएँ।

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    1. बहुत बहुत आभार मेम, आपका मार्गदर्शन मिलता रहे। नमस्कार

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  5. मीनाक्षी जी नमस्ते। आपने श्री दादू दयाल जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। मेरे लिए तो बिल्कुल नई जानकारी थी। आपको इस बढ़िया लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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    1. बहुत आभार सर, उत्साह वर्धक टिप्पणी से बहुत खुशी हुई🙏🏻नमस्कार सर

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  6. मीरा जी का आलेख हम सबका संबल बढ़ाने वाला है।मुझे हैरानी है की मीताजी पेशे से कालेज में प्रवक्ता होते हुए भी इतना सब कुछ कर लेती हैं।आज दादू दयाल जी का मीरा जी आलेख इस बात का जीता जागता प्रमाण है उन्हे इस आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई।मैं उनकी लेखनी को नमन करता हूं।
    चंद्रभान मैनवाल।

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    1. प्रणाम सर, बहुत आभार। इसी पटल पर आलेख विधा पर लिखने की शुरुआत की, इसके लिए साहित्यकार तिथि वार समूह को आभार

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  7. मीनाक्षी, दादू दयाल जी के जीवन वृत्तांत और रचना संसार को, आपके इस लेख के माध्यम से ही जान पायी हूँ। बहुत अच्छा लेख लिखा है। सरल सहज भाषा और प्रवाह ने लेख को अंत तक रोचक और पठनीय बनाये रखा। सुन्दर पंक्तियाँ उद्धृत की हैं। जानकारी से भरे इस बढ़िया लेख के लिए प्रिय मीनाक्षी आपको हार्दिक बधाई। शुभकामनाएँ।

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    1. प्रणाम दीदी, आपका स्नेह व मार्गदर्शन मेरे लिए प्रेरणादायी। बहुत आभार कि आपको लेख पसंद आया। प्रणाम

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  8. विद्या चौहानJune 14, 2022 at 1:48 PM

    दादू दयाल जी पर बहुत ही शोधपूर्ण और ज्ञानवर्धक आलेख मीनाक्षी। उनका जीवन परिचय और साहित्य सामग्री को पहली बार जानने का अवसर प्राप्त हुआ। आपको साधुवाद और बहुत बहुत बधाई मीनाक्षी💐💐

    ~विद्या चौहान

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया दीदी आपकी उत्साह वर्धक समीक्षा के लिए

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  9. दादू पर बहुत ही खूबसूरत लेख । बहुत सारे पक्षों को उजागर किया है ... बधाई आपको ...

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  10. बहुत बहुत आभार सर आपको लेख पसंद आया और उसकी समीक्षा के लिए।

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