अपनी नज़्में और ग़ज़लें उस्ताद को दिखाने और उनकी रहनुमाई में सुख़न को सँवारने की रस्म को मीर, ग़ालिब से लेकर आज तक के सभी मक़बूल शायरों ने बदस्तूर निभाया है। इसका एक फ़ायदा यह भी होता है कि नई कलमों को अपने उस्ताद की बदौलत भी शायरी की दुनिया में जगह मिल जाती है। हर नियम का अपवाद भी होता है और उसको अपनाने वाले पगडंडियों की लीक पर चलने की बजाय अपनी राहें ख़ुद बनाते हैं। उन्नीसवीं सदी के आख़िर में फैज़ाबाद में जन्मे और लखनऊ की सरज़मीं पर जल्दी ही अपनी ठोस जगह और नाम बना लेने वाले ब्रज नारायण चकबस्त उर्दू शायरी में कई अपवादों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने बिना किसी दिग्गज का शागिर्द बने उर्दू के कूचे में अपना अलग आशियाना बनाया और अपनी छाप या पहचान छोड़ने के लिए तख़ल्लुस तक को नहीं पकड़ा।
यह शायर जब तक रहा, एक ऐसा सितारा बन कर चमका कि उसकी रौशनी से शायद ही कोई अछूता रह सका। उम्र उसे कम मिली, जल्दी ही ज़िन्दगी के आसमान से वह टूट कर गिर गया। लेकिन उर्दू शायरी के फ़लक़ पर वह एक रौशन सितारे की तरह आज भी चमक रहा है। उसके वतनी जज़्बे से हज़ारों ‘चकबस्त’ पैदा हुए, लेकिन लखनऊ स्कूल में वह जगह आज तक ख़ाली है जो उसकी थी। वतन से मोहब्बत में लबरेज़ शायरी में इक़बाल के शाना-ब-शाना रहे इस शायर की मुख़्तसर सी ज़िन्दगी से हम आज रूबरू होंगे। चकबस्त की नज़्म ख़ाके-वतन का स्तर इक़बाल की तराना-ए-हिन्द से किसी मायने में कम नहीं।
‘चकबस्त’ का जन्म लिखने-पढ़ने का शौक़ रखने वाले कश्मीरी ब्राह्मणों के ख़ानदान में हुआ, जो ठेठ लखनवी हो चुका था। उनके पिता एक छोटे अरसे के लिए फ़ैज़ाबाद गए थे, वहीं पर चकबस्त का जन्म हुआ। उनके पिता भी शायरी किया करते थे; वे ‘यक़ीन’ के तख़ल्लुस से लिखते थे। इनकी रचनाओं का शुमार भी कुल्लियाते चकबस्त में है। उन दिनों के रिवाज के मुताबिक़ चकबस्त ने शुरूआती उर्दू-फ़ारसी की तालीम घर पर हासिल की। आगे की तालीम अँग्रेज़ी स्कूल में हुई, बी.ए. और वकालत की पढ़ाई उन्होंने लखनऊ के कैनिंग कॉलेज से की। मेहनती, समझदार और धुन के पक्के होने के चलते उनका शुमार जल्दी ही लखनऊ के बड़े वकीलों में होने लगा। वकालत में शोहरत मिली, काम भी ख़ूब बढ़ा; नतीजतन लेखन के लिए समय बहुत कम मिला। इसके बावजूद शायरी, साहित्यिक विषयों पर लेख, आलोचना - जिस पर भी इस अदीब ने अपनी कलम चलाई, वह पुरअसर चली। उन्होंने अपने दोस्त और लेखक लाला श्रीराम को एक पत्र में लिखा था, “दोस्तों का दिल बहलाने के लिए कभी-कभी शेर कह लेता हूँ। पुराने रंग की शायरी यानी ग़ज़लगोई से नाआशना हूँ। लेकिन इसके साथ मेरा अक़ीदा है कि महज़ ख़यालात को तोड़-मरोड़ कर नज़्म कर देना शायरी नहीं है। मेरे ख़याल के मुताबिक़ ख़यालात की ताज़गी के साथ ज़ुबान में शायराना लताफ़त और अलफ़ाज़ में तासीर का जौहर होना ज़रूरी है।”
चकबस्त ने शायरी के हुनर को ‘मीर’, ‘आतिश’, ‘ग़ालिब’, ‘अनीस’, ‘दबीर’ की रचनाओं का गहन अध्ययन करके सीखा था। उस्ताद के न रहने के कारण उन्हें कभी किसी बने-बनाए ढर्रे पर नहीं चलना पड़ा और वे अपना निराला ढंग अपना पाए। शिष्टता के नियमों के साथ बंधे रहकर अपनी शायरी के नए रंग उन्होंने ख़ूब बिखेरे -
‘चकबस्त’ की अनुभूतियों का रुख़ वक़्त के तक़ाज़ों के अनुसार वैयक्तिक समस्याओं से हटकर सामाजिक विषमताओं की तरफ हो गया था। ‘चकबस्त’ की रचनाओं में उनके दौर के समाज के कई पहलू झलकते हैं।
महामना मदनमोहन मालवीय अपने समर्थकों के साथ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए चंदा माँगने ३ सितम्बर १९११ को लखनऊ आये थे, उनके अधिवेशन में चकबस्त ने अपनी नज़्म ‘क़ौमी मुसद्दस’ से सबका दिल जीता और वह मुद्दे के लिए कामगर सिद्ध हुई -
उनकी साहित्यिक यात्रा ९ साल की उम्र में ग़ज़ल लिखने से शुरू हुई और सामाजिक उतार-चढावों से होती हुई उनके आख़िरी दिनों तक चली। लखनऊ की रिहाइश और कश्मीरी ब्राह्मणों के ख़ानदानी विद्या-प्रेम के कारण वे लखनवी रंग में रँगे बिना न रह सके। वे ‘आतिश’ की साहित्यिक शैली से बहुत प्रभावित रहे और अपनी मुख़्तलिफ़ राह बनाने तक उनकी ग़ज़लों में ‘आतिश’ का असर साफ़ दिखाई देता है। यानी अपनी प्रारंभिक रचनाओं में उन्होंने ‘आतिश’ की तरह अनुभूति की तीव्रता, काव्य के प्रवाह और शब्दों के उचित चयन और प्रयोग को महत्त्व दिया, ग़ज़ल में करुणा का पुट ‘मीर’ से और दार्शनिकता तथा स्वतन्त्र चिंतन ‘ग़ालिब’ से लिए। ‘मर्सिये के उस्ताद’- ’अनीस’ का असर चकबस्त पर सबसे अधिक पड़ा। चकबस्त की कविता को अक्सर ‘अनीस’ की मानवतावादी परंपरा का विकास कहा जाता है। ‘अनीस’ अपनी टकसाली ज़बान, मुहावरों के इस्तेमाल, बंदिश की चुस्ती, शब्दों के उचित चयन और कविता में प्रवाह पैदा करने के हुनर के साथ-साथ सभी बेहतरीन इंसानी जज़बात - त्याग, शौर्य, पवित्रता, करुणा को उभारने का कमाल रखते थे। ‘अनीस’ अपनी यह क़ाबिलियत मरसियों में दिखाते थे, चकबस्त के यहाँ ये जज़बात वतन से मोहब्बत की शायरी में ढल गए। चकबस्त ने अपनी आज़ाद-मिज़ाजी से जिसके यहाँ जो चीज़ अच्छी दिखाई दी उसे खुले दिल से अपनाया। अपने भावुक हृदय, सत्यप्रियता और विचारशील मस्तिष्क में घोलकर उन्होंने इन चीज़ों को जिस शायरी में ढाला, उससे उन्हें साहित्य जगत में एक अलग और ऊँची जगह हासिल हुई। चकबस्त हमेशा इंसान होने को ज़िन्दगी का अहम मक़सद मानते रहे -
अपनी जाति में हुए पहले विधवा-विवाह से उनका अंतर्मन खिल उठता है और शायर कह पड़ता है-
चकबस्त हिन्दू धर्म को उसकी पूरी प्रतिष्ठा के साथ मानते थे लेकिन उसका आधार भी उनके यहाँ मानव-प्रेम था -
उन्होंने दार्शनिक शेर भी कहे, लेकिन वे ऐसे नहीं हैं कि उनकी व्याख्या के बगैर उन्हें समझा न जा सके। वे तो दिल से निकली सीधी-सादी बातों की मानिंद सीधे दिल पर न भुलाए जा सकने वाला असर डालते हैं। जीवन और मृत्यु चक्र पर चकबस्त की बयानी यह है -
‘शरर-चकबस्त’ विवाद ने आलोचना क्षेत्र में उनकी विद्वता की धाक ज़माने में उत्प्रेरक का काम किया। वर्ष १९०५ में तत्कालीन प्रख्यात विद्वान मौलाना अब्दुलहलीम ‘शरर’ ने पंडित दयाशंकर ‘नसीम’ की मसनवी ‘गुलज़ारे-नसीम’ पर शायरी के तर्जे-अमल से जुड़ी कुछ आपत्तियाँ उठाईं। चकबस्त ने अपनी समझ अनुसार उन्हें जवाब देने शुरू किये। यह चर्चा उस वक़्त की अदबी दुनिया में दिलचस्पी का सबब बन गयी, उसे ‘शरर’ और ‘चकबस्त’ की क़लमी लड़ाई का नाम मिला। यह साहित्यिक नोक-झोंक ‘मार्का-ए-शरर चकबस्त’ में बतौर दस्तावेज़ महफूज़ है। ‘हसरत’ मोहानी सहित उस समय के लगभग सभी उर्दू पंडितों ने इस विवाद में चकबस्त के हक़ में ही फैसला दिया था और उसके बाद ‘मसनवी गुलज़ारे-नसीम’ पर किसी ने कोई आपत्ति नहीं उठाई। उर्दू अदब की दुनिया में अपने पाँव जमाने के दौर में ही किसी शोहरतमंद आलिम के दावे के ख़िलाफ़ अपनी बात साफ़गोई और दो टूक तरीके से रखकर ‘चकबस्त’ ने अपने इल्म का नमूना पेश किया था। उस वक़्त चकबस्त की उम्र महज़ २३ बरस थी। चकबस्त के साहित्यिक विचार लेखों के रूप में ‘कश्मीर-दर्पण’, ‘ख़दंगे-नज़र’, ‘अदीब’, ‘ज़माना’ आदि रिसालों में छपते रहते थे, ख़ूब पढ़े, पसंद किये जाते थे। इनके संपादन में प्रकाशित पत्रिका सुबहे-उम्मीद में प्रेमचंद के पत्र छपा करते थे। वैसे ज़माने के सभी अदीबों के साथ उनका उठना-बैठना था, पर प्रेमचंद और इक़बाल के साथ गहरी दोस्ती होने का ज़िक्र मिलता है।
चकबस्त ने भगवान राम की कहानी का अपना उर्दू संस्करण पेश किया। एक ऐसे समय में जब समाज में धर्म और ज़बान की ओट में हिन्दू और मुसलमान तबक़ों को अलग-अलग नज़रों से देखा जाता था, चकबस्त ने हिन्दू-धर्म के आदर्श पुरुष की कहानी उर्दू अदब के मुहावरों का इस्तेमाल कर के लिखी। वह इस बात को पुनः एक बार रेखांकित कर रहे थे कि भाषाओं का सम्बन्ध धर्म से तो बिलकुल नहीं है। उन्होंने भगवान राम की कहानी के तीन भाग इन शीर्षकों के तहत लिखे हैं: ‘रामायण का एक सीन’, ‘माँ का जवाब’ और ‘बनवास होने पर अयोध्या नगर की हालत’। ये तीनों भाग लम्बी नज़्मों के रूप में लिखे गए हैं। पहली नज़्म में राम माँ को राज्य छोड़कर वन जाने के अपने फ़ैसले के बारे में बताते हैं, जिसपर वे एतराज़ करती हैं। राम माँ के सामने अपने विचार तर्क के रूप में रखकर उन्हें थोड़ा आश्वस्त कर पाते हैं।
अगली नज़्म में माँ अपनी बात जारी रखती हैं, नज़्म का अंत राम की बयानी से होता है। ये दोनों ही नज़्में माँ-बेटे का संवाद प्रस्तुत करती हैं। तीसरी नज़्म वनवास की घड़ी समीप आने के समय सीता और अयोध्या की अवस्था बयान करती है।
वकालत और लेखन के साथ-साथ चकबस्त सामजिक मुद्दों के समाधान की कार्रवाइयों में भी सक्रिय भूमिका निभाते रहे। कश्मीरी पंडित भी तब की परम्पराओं के अनुसार अपनी बिरादरी के उन सदस्यों का बहिष्कार कर देते थे, जो विदेश जाया करते थे। जब साल १८८४ में पंडित बिशन नारायण दर की इंग्लैंड से भारत वापसी पर उनके बहिष्कार की तैयारियाँ शुरू की गईं, तो पूरे उत्तर भारत में बिरादरी में बड़े बदलावों की सख़्त ज़रूरत महसूस की जाने लगी। कश्मीरी मोहल्ला, लखनऊ का वह मोहल्ला था जहाँ चकबस्त सहित अधिकतर कश्मीरी परिवार साल १७७५ से रहा करते थे। इसी मोहल्ले में बदलाव और सामाजिक जागरूकता जगाने की सरगर्मियाँ १८७२ में रिसाले ‘मुरसला-ए-कश्मीर’ के प्रकाशन से शुरू हुई थीं। इस पत्रिका के सम्पादकीय श्री शिव नारायण बहर लिखा करते थे और वही बिरादरी में सामाजिक बदलाव लाने के काम की पहली कतार में थे। उनकी मृत्यु के बाद चकबस्त ने इस मुहिम को बख़ूबी बढ़ाया। उन्होंने इसके लिए मोहल्ले में उर्दू और फ़ारसी की ग़ैरमामूली किताबों का कुतुबख़ाना भी शुरू किया था। चकबस्त नौजवानों को सामजिक महत्त्व के विभिन्न विषयों पर शिक्षा भी दिया करते थे, ताकि वे देश के ज़िम्मेदार नागरिक बनें। शब्दों से ज़्यादा काम उनके लिए अहमियत रखता था।
वे ताज़िन्दगी लगभग हर साल अपने मोहल्ले में अखिल-भारतीय मुशायरे का आयोजन करते रहे। चकबस्त ने अपने क्रन्तिकारी विचारों को परवाज़ देने और उन्हें युवाओं तक पहुँचाने के लिए कश्मीरी युवा संस्था भी शुरू की थी। वे समाज को कुरीतियों की बेड़ियों से छुड़ाने और देश को आज़ाद कराने के काम में हर मुमकिन तरीके से हमेशा जुटे रहे।
उनके काम और सोच की विरासत को उनके दोस्तों और चाहनेवालों ने बरक़रार रखने के लिए चकबस्त यादगार कोष का गठन किया। यह कोष ज़रूरतमंद कश्मीरी छात्रों को वज़ीफा मुहैय्या कराता है और आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर कश्मीरी विधवाओं की सहायता करता है, और इस तरह से इस शायर की इंसानियत की परिभाषा को ज़िंदा रखता है-
रायबरेली में एक मुक़दमे की पैरवी करके लखनऊ लौटने के लिए जब वे स्टेशन पर आये तो उन्हें फ़ालिज का दौरा पड़ा, लेकिन दो घंटे तक इलाज मिलते रहने के बावजूद प्लेटफार्म पर ही उन्होंने दम तोड़ दिया। उनका शव रात ग्यारह बजे मोटर से लखनऊ पहुँचा। यह मनहूस ख़बर आग की तरह पूरे शहर में फैल गयी। इस ख़बर ने लखनऊ समेत समूची अदबी-दुनिया को ग़म के अँधेरे में डुबो दिया। उनकी क़लम ने ही शायद ज़िन्दगी और मौत की सबसे अच्छी काव्यात्मक परिभाषा दी है -
इस शायर और इंसानियत की मिसाल के हिस्से में दिन तो थोड़े आये पर काम वह बड़े कर गया। बस यह बात कचोटती है कि उसके अजज़ा में परेशानी इतनी जल्दी क्योंकर आ गयी।
सन्दर्भ:
१. चकबस्त लखनवी और उनकी शायरी, सरस्वती सरन ‘कैफ़’
२. हिन्दुस्तान हमारा, संपादन एवं संकलन - जाँ निसार अख्तर
३. The Urdu Ghazal: A gift of India’s composite culture, Gopi Chand Narang
४. https://lucknowobserver.com/pandit-brij-narayan-chakbast/
५. https://www.opinionpost.in/long-shadows-of-luminaries-till-lohia-21211-2
६. http://wwjmrd.com/upload/political-consciousness-of-kashmiri-pandits-in-british-india.pdf
७. Rekhta.org
लेखक परिचय
प्रगति टिपणीस पिछले तीन दशकों से मास्को, रूस में रह रही हैं। शिक्षा इन्होने अभियांत्रिकी में प्राप्त की है। ये रूसी भाषा से हिंदी और अंग्रेज़ी में अनुवाद करती हैं। आजकल एक पाँच सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं। हिंदी से प्यार करती हैं और मास्को में यथा संभव हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं।
जैसा कि उम्मीद थी प्रगति जी की लेखनी से निकल आलेख अद्भुत,जानकारी से भरा होगा ही। आपका भाषा प्रवाह फेखने लायक होता है एक बार आरम्भ करो तो रुकता नहीं । बहुत सुंदर , साधुवाद।
ReplyDeleteएक सुंदर खोजपूर्ण सामायिक सार्थक आलेख के लिए अत्यंत आभार प्रगति !
ReplyDeleteपंडित उदित नारायण शिव पुरी चकबस्त के बेटे पंडित ब्रज नारायण चकबस्त पर खुबसुरत व्यवस्थित प्रणाली में आदरणीया प्रगति जी ने आज का लेख अक्षर योजनाकृत किया है। चकबस्त के लेखन और जीवनी के साथ साहित्यिक प्रस्तुति सुयोग्य रुप से व्यक्त हो रही है। अपने उत्कृष्ट शब्दों की पोटली में से रचा हुआ आलेख सीधा आदरणीय चकबस्त जी के व्यक्तित्व को पाठक मन में उन्हें और जानने की मुस्तैदी पैदा कर रहा है। अपनी जिंदगी के उतार-चढाव को संतुलित बनाए रखने के उद्देश्य से उन्होने यह शेर लिखा था -
ReplyDelete*ज़िंदगी क्या है अनासिर में ज़ुहूर-ए-तरतीब*
*मौत क्या है इन्हीं अज्ज़ा का परेशाँ होना*
मनुष्य के शरीर में कुछ महत्वपूर्ण तत्व होते है और जब इन तत्वों में विभ्रान्ति पैदा होती है तो हमारा शरीर संतुलन खोने लगता है और चकबस्त इसी तथ्य की तरफ़ इशारा करते हैं कि जब मानव शरीर में यह क्रमिक तत्व परेशान होते है तब उनमें संतुलन और सामंजस्य नहीं रहता है और मृत्यु हो जाती है।
प्रगति जी आपके उत्कृष्ट लेख के लिए हार्दिक मंगलकामनाएं। बहुत खूब।
वाह प्रगिति जी, हमेशा की तरह आपके उत्कृष्ट लेखन से रूबरू करता अत्युत्तम आलेख। पंडित बृज नारायण चकबस्त जी की जीवन यात्रा और उनके समस्त लेखन से परिचित करात यह लेख बहुत सुरुचिपूर्ण और रोचक लगा। इस जानकारीपूर्ण लेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई।
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ReplyDeleteप्रगति, चकबस्त पर मँजे हुए शोधपूर्ण आलेख के लिए तुम्हें बधाई। मुंशी दयानारायण निगम पर लिखते समय इनके बारे में थोड़ा सा पढ़ा था। दोनों अच्छे दोस्त थे, इनके लेख ‘ज़माना’ पत्रिका में छपा करते थे। तुमने भी इसका उल्लेख किया है। तुमने चकबस्त और उनके कार्यों की विस्तृत जानकारी देकर अब उनसे क़रीब से मिलवा दिया। इसके लिए तुम्हें धन्यवाद।
I had never heard above such a jewel of personality. Thanks Pragati for publishing such a rich write up and introducing us to Chakbast. More I read you more I love Hindi and you. Keep enlightening us. 🙏
ReplyDeleteSantosh Mishra
प्रगति जी नमस्ते।
ReplyDeleteउर्दू अदब के चमकते सितारे श्री ब्रज नारायण चकबस्त जी पर आपका लेख उम्दा दर्जे का है। लेख पढ़कर आनन्द आ गया आपने लिखा ही इतना सरस है। लेख में दिए गए अशआर लेख को चार चाँद लगा रहे हैं। जैसे:
क़फ़स में बंद हैं जो आशियाँ के थे आदि
उड़ी है हर एक बाग़ से बू होके रंग आज़ादी
उनके कुछ और शे'र मुझे बेहद पसंद हैं:
वो ज़मीं पे जिन का था दबदबा कि बुलंद अर्श पे नाम था
उन्हें यूँ फ़लक ने मिटा दिया कि मज़ार तक का निशाँ नहीं
अदब ता'लीम का जौहर है ज़ेवर है जवानी का
वही शागिर्द हैं जो ख़िदमत-ए-उस्ताद करते हैं
आपको इस बेहतरीन लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
उत्कृष्ट लेखन और शानदार आलेख के लिए बधाई हो मेम, नमस्कार
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