Sunday, June 26, 2022

समाज के सशक्त नाटककार : मुद्राराक्षस

 



एक चर्चित चेहरा, अनोखा व्यक्तित्त्व, जाना-पहचाना हस्ताक्षर, प्रसिद्ध दलित लेखक, शोषित वर्ग का स्वर, समाज में फैली बुराइयों को नाश करने के लिए तत्पर मनीषी, अपनी लीक पर अडिग रहकर चलने वाले नाटककार, ‘एकला चलो की प्रवृत्ति रखने वाले, वंचित समाज के महानतम पथ-प्रदर्शक, अलमबरदार और तेजस्वी, धर्मान्धता, विकारों और अंधविश्वासों को रगड़  का राख बना देने वाले, रूढ़ियों के विरुद्ध लड़ने वाले अपराजेय योद्धा, शूद्रों के चित्रकार थे- मुद्राराक्षस। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता सकता मुहावरे को गलत सिद्ध कर दिखाने वाले साहित्यकार थे मुद्राराक्षस!

भगवान द्वारा सृष्ट इस संसार में हरेक व्यक्ति अपने-आप में कुछ विशिष्टता लिए हुए होता है। परन्तु कुछ व्यक्ति अति विशष्ट होते हैं! वे जहाँ भी होते हैं अनूठे ढंग से कार्य करते हैं, सफल न भी हों तो भी परवाह नहीं करते; परन्तु कार्य को पूर्णता देने के लिए सदा तत्पर रहते हैं। इन्हें किसी पहचान, किसी सम्मान व किसी प्रशंसा की आवश्यकता नहीं होती। वे समाज में अपने आस-पास दिखने वाले, हर वह कार्य जिसे पूर्णता देनी हो, जिसके लिए सहायता की आवश्यकता है, उसे वे अपना कर्त्तव्य समझकर पूर्ण करने के लिए आगे आते हैं। समाज को किसी कारण क्षति पहुँच रही है तो उसके विरोध में खडे हो जाते हैं, ऐसे विरले व्यक्तित्त्व के धनी थे- सुभाष चंद्र आर्य। चलिए, आज मैं आपका परिचय उनसे करवाती हूँ; ये हैं आज के हमारे साहित्यकार, अपने उपनाम से जाने जाने वाले- मुद्राराक्षस’!

मुद्राराक्षस का जन्म २१ जून १९३३ को लखनऊ के बेहटा गाँव में हुआ था। बचपन वहीं गाँव के वातावरण में बीता, गाँव के प्राथमिक पाठशाला में चौथी कक्षा तक पढ़ाई की, वहाँ से पिता के साथ लखनऊ पहुँचे और डी ए वी कॉलेज में बारहवीं कक्षा तक शिक्षा अर्जित की। पिता शिवचरण लाल प्रेमउर्दू-फारसी के जानकार, शायर व उत्तर प्रदेश के लोक-नाट्य स्वांग और नौटंकीके लोकनायक, लोकनाट्य कलाकार और एक अच्छे तबला वादक थे। पिता के सान्निध्य का प्रभाव मुद्राराक्षस पर पड़ा। साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में रुचि रखने वाले किशोर सुभाष का मन महाविद्यालय के पुस्तकालय में हिंदी साहित्य के विपुल भंडार को देख जिज्ञासा से भर गया; वे उसका पूरा-पूरा लाभ उठाने लगे और सतत अध्ययनरत रहते थे। विद्यार्थी जीवन में ही उन्हे दोहरा लाभ होने लगा। एक ओर साहित्य आत्मसात करना और दूसरी ओर पिता जी के साथ रहते नौटंकी की बारीकियों को समझना, अभिनय में प्रयोग करना। उन्हें नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से निराला, महादेवी वर्मा, पंत को पढ़कर प्रेरणा मिली। कुलभूषण खरबंदा, ओम शिवपुरी, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, गुलशन कपूर, चमन बग्गा जैसे पात्रों को उन्होंने करीब से देखा, जिनसे नाटक के अनेक पैमानों को समझने का मौका मिला।

वर्ष १९५२ में जब उनका नामांकन लखनऊ विश्वविद्यालय में हुआ, तब हिंदी साहित्य की ओर उनका रुझान काफी बढ़ गया, वे साहित्यिक गोष्ठियों में भी भाग लेने लगे थे। उनका लेखन कार्य १९५१ से आरम्भ हो गया था, और १९५३ तक आते-आते वे एक चर्चित लेखक हो गए थे।युगचेतनाप्रसिद्ध पत्रिका में मुद्राराक्षसके छद्मनाम से छपे एक विवादास्पद लेख ने साहित्य जगत में हंगामा मचा दिया। तभी से वे इस नाम से इतने मशहूर हो गये कि यही नाम स्थायी बन गया; उनका असली नाम विस्मरित होता गया। युगचेतना के संपादक ने यह नाम विशाखदत्त रचित ऐतिहासिक नाटक मुद्राराक्षससे लिया था, मुद्रा – मोहर और राक्षस – अडिग, अविचल। जीवन पर्यंत वंचित-शोषितों के पक्ष में संघर्ष करते रहे और अपने नाम को पूरी तरह चरितार्थ करते रहे।

समय के प्रवाह में समाज में हो रहे विपरीत परिवर्तनों के प्रति उनका मन विद्रोह करने लगा। नेताओं के भ्रष्टाचार, पद लोलुपता, धन लोलुपता, शोषण, दल-बदल नीति, अमानवीयता, यांत्रिकता, नौकरशाही, यौन विकृतियाँ उनके नाटक के विषय बन गए। अपनी रीति से उन्होंने उनका विरोध किया। मानवीय त्रासद स्थिति, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक क्षेत्र में बढ रही अराजकता, तानाशाही जैसी स्थितियाँ उनके मन को अशान्त कर देतीं थीं। इसके लिए उनको एक ही विकल्प सूझ रहा था, और वह था सीधा चोट करना। अपनी भाषा और शैली से उन्होंने इन प्रवृतियों पर प्रहार करना शुरू किया।

हर्बर्ट मार्क्यूज, फ्रांट्ज फैनन जैसे दार्शनिकों, लेखकों का उन पर बड़ा प्रभाव था। वे आरम्भ से ही मार्क्सवाद से भी प्रभावित थे, लेनिन के विचारों का आदर करते थे, अम्बेडकर के विचारों से भी सहमत थे, राम मनोहर लोहिया से बहुत दिनों तक प्रभावित रहे, बौद्ध दर्शन का भी उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। 

 नाट्य-सृजन और नाट्य-प्रदर्शन, नाट्य-कला के दो पूरक तथ्य हैं। बिना रंगमंच के नाटक की कल्पना और बिना नाटक के रंगमंच की कल्पना नहीं की जा सकती है। देश को स्वतंत्रता दिलाने में, सोए हुए राष्ट्र को जगाने के लिए जहाँ अनेक साहित्यकारों ने अपना योगदान दिया; वहाँ नाटककारों ने भी अपने सशक्त नाटकों की रचना और उनका मंचन किया। स्वतंत्रता के बाद भी साहित्यकार और नाटककार विविध आयामों को लेकर अपनी वाणी मुखरित करने का प्रयास कर रहे थे। दिग्भ्रमित होता जा रहा समाज, पतनोन्मुखी राजनीति, सरकारी कामकाज की अराजकता, भ्रष्टाचार, सत्ताधिकारियों की मनमानी और नैतिक पतन की ओर बढ़ रहे मनुष्य इसका कारण बने।

चाक्षुष रूप पाकर ही नाटक सफल होता है। मुद्राराक्षस उस समय के सशक्त नाटककार सिद्ध हुए। स्वतंत्रता के बाद के नाटकों का विषय, विचार, शैली, कथ्य, शिल्प, मंचन में अनेक परिवर्तन आए। उन्होंने मानव के अंत:-बाह्य पहलुओं को नाटक के साथ जो। नई दृष्टि, नए भाव-बोध, नए परिप्रेक्ष्य में नाटक विकसित होने लगा। पाश्चात्य रंग में नाटक भी ढलने लगे और समय के साथ उनमें निरंतर विकास होता गया। एक जगह पर उन्होंने स्वयं स्वीकारा कि- मेरे लिए शिल्प फैशन नहीं, एक आवश्यकता है माना जाता है कि मुद्राराक्षस के नाटकों के कारण हिंदी नाटक और रंगमंच के इतिहास में एक बड़ा परिवर्तन आया और उनका योगदान अतुलनीय रहा। फ्लैशबैक पद्धति का नवीन प्रयोग करने वाले ये विरले नाटककार हुए। इनकी मंच-सज्जा, रूप-सज्जा, अभिनेयता, प्रकाश योजना, ध्वनि-संगीत योजना बेमिसाल थी; जिसके कारण उनके पात्र सजीव हो उठते थे। मंच पर सहज-स्वाभाविक दृश्य, उनकी एक और विशेषता थी, गरीबों के बस्ती का आँगन हो या गाँव, शहर, डाकुओं का इलाका सभी उनके मंच पर सजीव हो उठते थे। हाथ में तलवार लिए डाकू, सड़क पर लोगों का नारे लगाना, तालियों की गड़गड़ाहट, दफ्तर का दृश्य, घर का दृश्य, घर में स्त्री के चीखने की आवाज, लकड़ियाँ तोड़ने की आवाज, रोटियाँ सेंकने का दृश्य, डकारने की आवाज, जेल आदि सभी दृश्य मंच का हिस्सा बन गए। जहाँ दृश्य नहीं दिखाए जा सकते थे, वहाँ नेपथ्य से वर्णन करवा देना, सूचना रूप में प्रकट कर देना, उनके नाटकों की विशिष्टता बन गयी। युग, परिवेश, वातावरण, सभ्यता, संस्कृति के अनुरूप इनके पात्रों की प्रतिष्ठा भी हुई। वेश-भूषा और रूप-विन्यास पात्रों के चरित्र पर आधारित होता था। इनके हाव-भाव, क्रिया-व्यापार से वे और उभर कर आते थे। गीत-संगीत के प्रयोग से, ध्वनि-संगीत योजना, लोकगीतों, छंदयुक्त गीतों, हिंदी एवं अंग्रेजी के राइम्स, कबीर के दोहों, चौबोला, दोबोला, दादरा, बहरतवील, मांड, कव्वाली, फिल्मी गानों का यथोचित प्रयोग किया एवं अपने नाटकों को और प्रभावशाली बना दिया।

मुद्राराक्षस स्वयं एक सजग नाटककार होने के साथ-साथ एक अभिजात अभिनेता तथा कुशल निर्देशक भी थे। मुद्राराक्षस कहते ही हमें आजीवन समाज के लिए मुखरित आवाज की याद आ जाती है। भावुक हृदय, साधारण लिबास, फ्रेंचकट दाढी, चौड़ा ललाट, छोटी-सी कद-काठी, हल्के-फुल्के गात, छोटी–छोटी आँखें, मुट्ठी भींच कर समाज के लिए सदा आगे रहने वाले, चाल में गजब की फुर्ती, तीखे तेवर युक्त थे मुद्राराक्षस। युगचेतना में छपे लेख के बाद मुद्राराक्षस हिंदी-साहित्य जगत में प्रसिद्ध हो गये। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उन्हें काम करने के लिए निमंत्रण प्राप्त हुए। कलकत्ता से छपने वाली प्रसिद्ध पत्रिका ज्ञानोदयमें सहायक संपादक, अनुव्रत के संपादक, आकाशवाणी के ड्रामा प्रोडक्शन विभाग में बतौर इन्सट्रक्टर, स्क्रिप्ट एडिटर, निर्देशक आदि पदों पर उन्होंने कार्य किया।

अनेक साहित्यकारों के बीच उनका उठना-बैठना होता था। घनिष्ठ मित्रता होने पर भी यदि विचारों में किसी प्रकार का टकराव होता या भिन्न अभिप्राय व्यक्त होते थे, तो वहां से चल देते थे और उनसे इस प्रकार मुँह मोड़ लेते थे कि फिर उन की परछाई तक को देखना नहीं चाहते थे। वे राजेन्द्र यादव, यशपाल, अज्ञेय, गिरिजा कुमार माथुर, रामधारी सिंह दिनकर, भगवतीचरण वर्मा, प्रेमचंद, धर्मवीर भारती, अमृतलाल नागर के विचारों का भी विरोध करने से नहीं चूके।

कलम तलवार से ताकतवर होती है; उनके उपन्यास, कहानी, कविता, आलोचना, नाटक लेखन से यह सिद्ध हो गया इतिहास, संस्कृति, पत्रकारिता, समाजशास्त्र, शासकीय सत्ता की अवसरवादिता, अर्थतंत्र, भ्रष्टाचार, लूट की वृत्ति की ओर भी ध्यान देकर, निर्भीक रूप से अपनी कलम चलायी। मरजीवा, योर्स फेथफुली, तेंदुआ, तिलचट्टा, गुफाएँ, आला अफसर और डाकू सहित कुल तेरह नाटक लिखे और तीस के करीब नाटकों का सफल मंचीय निर्देशन किया; जिनमें आम आदमी की पीड़ा हमेशा केन्द्र में रही है। उन्होंने १५ से अधिक नाटक लिखे जो नए रंग भाषा के साथ जीवन्त, तीक्ष्ण और संगीतमय थे, १२ उपन्यास, ५ कहानी संग्रह, ३ व्यंग्य संग्रह और ५ आलोचनात्मक किताबें छपीं। शास्त्र-कुपाठ और स्त्री, अशोक के राष्ट्रीय चिह्नों पर सवाल, बौद्धों की अयोध्या का प्रश्न, ज्ञान-विज्ञान और सवर्ण, भारत और पेरियार, बुद्ध के पुनर्पाठ का समय आदि निबंध भी लिखे। उनकी विराटता और बहु आयामी प्रतिभा के लिए उनको राष्ट्रीय संगीत नाटक अकादमी अवार्ड, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी अवार्ड, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण सम्मान, अम्बेडकर महासभा का दलित रत्न सम्मान, शूद्र महासभा का शूद्राचार्य सम्मान, कुछ जन संगठनों ने सिक्कों से तौलकर उनका सम्मान किया था।  

मुद्राराक्षस के लिए शूद्र वैसे ही थे जैसे तुलसी के लिए राम। तुलसी ने न जाने राम कथा को कितने रूपों में, कितनी विधाओं में, कितने तरीकों से लिखा; कवित्त, सवैया, बरवै, दोहा, चौपाई आदि। वैसे ही मुद्राराक्षस ने शूद्रों की कथा को कभी नाटकों में, कभी उपन्यासों में, कभी संस्मरणों में, कभी कहानियों में, कई-कई कोणों से कई-कई चित्र बनाए।

वेदों से लेकर शंकराचार्य तक के ग्रंथों का तेज-तर्रार विश्लेषण, नेहरू से लेकर मोदी मॉडल तक वे सबके आलोचक थे। वे तर्काश्रित मुहावरे और तथ्यों के प्रति बेबाक दृष्टिकोण, प्रस्तुत कर देते थे। अपने जीवन के अंत समय तक कभी किसी का सहारा नहीं लिया, अपने मजबूत इरादों के अडिग व्यक्ति थे, आखिरी बार जब वे लखनऊ पुस्तक मेले में आए तो कमजोर लग रहे थे, स्टेज पर लोगों ने सहारा देकर चढ़ाया तो स्वयं अपनी कमजोरी पर हैरान हुए। शरीर से वे भले ही दुर्बल हो गए थे, लेकिन मस्तिष्क की प्रखरता बरकरार थी। वे हिंदी के दिग्गज साहित्यकार बन के उभरे और अपनी चमक से विविध रचनात्मक विधाओं से अपनी प्रतिभा की अमिट छाप छोड गए। एक कलाकार के रूप में अपना सामाजिक उत्तरदायित्व निभाया। कौशल किशोर, बेबाक, बेलौस शख्सियत, तीखी असहमतियों, आलोचनाओं को पचाने की क्षमता रखने वाले, अपने आलोचक को सर्वाधिक प्रिय मानने वाले, अपनी उपस्थिति से सबको ऊर्जस्वित करने की क्षमता रखने वाले मुद्राराक्षस आज हमारे बीच नहीं हैं; फिर भी हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत और संगीत पर अद्भुत पकड़  रखने वाले साहित्यकार के रूप में वे अनेक वर्षों तक हमारे मानस पटल पर चिरस्थायी रहेंगे।

मैं एक अदृश्य आदमी हूँ, पदार्थों से बना एक आदमी, हाँड-माँस, रेशों और द्रव का – और यहाँ तक संभव है, कहा जाये कि, मैं एक दिमाग भी रखता होऊँ, मैं अदृश्य हूँ समझिए, केवल इसलिए, क्योंकि लोगों ने मुझे देखने से इंकार कर दिया है


मुद्राराक्षस : जीवन परिचय

मूल नाम

   सुभाष चंद्र आर्य

उपनाम

   मुद्राराक्षस

जन्म

   २१ जून, १९३३

जन्म स्थान

   बेहटा गाँव, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

मृत्यु

   १३ जून, २०१६

माता-पिता

   श्रीमती विद्यावती- श्री शिवचरण लाल वर्मा

भाई-बहन

   प्रकाशचंद्र, तीन बहनें

पत्नी

   इंदिरा

शिक्षा व कार्य-क्षेत्र

एम.ए.

   हिंदी (लखनऊ विश्वविद्यालय)

कार्य-क्षेत्र

   नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, इन्सट्रक्टर, स्क्रिप्ट एडिटर

सम्प्रति

·        अध्यक्ष, अखिल भारतीय आकाशवाणी कर्मचारी महासंघ

·        अध्यक्ष, सोसाइटी ऑफ सेल्यूलाइड आर्ट्स, लखनऊ

·        अध्यक्ष, संस्कृति मंडली

विशेष शौक

   रंगीन मंछलियाँ, कुत्ते, बिल्लियाँ पालना

भाषा

   हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी

शैली

   असंगत, लोकधर्मी, हास्य व्यंग्य, प्लैशबैक, मुहावरेदार

कर्म-क्षेत्र

   कलकत्ता, दिल्ली और लखनऊ

साहित्यिक रचनाएँ

उपन्यास

 

·        मकबरे

·        मैडेलिन

·        अचला : एक मन:स्थिति

·        भगोड़ा 

·        हम सब मनसाराम

·        शोक संवाद

·        मेरा नाम तेरा नाम

·        शांति भंग

·        प्रपंचतंत्र

·        एक और प्रपंचतंत्र

·        दण्ड विधान

·        अर्धवृत्त

कहानी संग्रह

·        शब्ददंश

·        प्रतिहिंसा तथा अन्य कहानियाँ

·        मेरी कहानियाँ

नाटक

·        तिलचट्टा

·        मरजीवा

·        युअर्स फेथफुली

·        तेन्दुआ

·        सन्तोला

·        गुफाएँ

·        मालविकाग्निमित्र और हम

·        घोटाला

·        कोई तो कहेगा

·        सीढियाँ

·        आला अफसर

·        डाकू

रेडियो नाटक

·        काला आदमी

·        उसका अजनबी

·        लाइहरोबा

·        संतोला : एक छिपकली

·        उसकी जुराब

·        काले सूरज की शवयात्रा

·        विद्रूप

·        अनुत्तरित प्रश्न

बाल साहित्य

·        चींटीपुरम के भूरेलाल

·        भारतेन्दु

·        सरला

·        बिल्लू और जाला

हास्य व्यंग्य

·        सुनो भाई साधो

·        मथुरादास की डायरी

आलोचना

·        साहित्य समीक्षा : परिभाषाएँ और समस्याएँ- १९६३

·        आलोचना का समाजशास्त्र- २००४

संपादन

·        नयी सदी की पहचान (श्रेष्ठ दलित कहानियाँ)

·        ज्ञानोदय (पत्रिका)

·        अनुव्रत (पत्रिका)

सम्मान व पुरस्कार

·        राष्ट्रीय संगीत नाटक अकादमी अवार्ड- २००८

·        उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी अवार्ड

·        उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण सम्मान

·        अम्बेडकर महासभा का दलित रत्न सम्मान

·        शूद्र महासभा का शूद्राचार्य सम्मान

·        जन संगठनों द्वारा सिक्कों से तौलकर सम्मान

·        कैफी आजमी पुरस्कार

·        सर्वोदय साहित्य पुरस्कार


शोध सहयोग: लतिका बत्रा 

लेखक परिचय

डॉ. चुंडुरी कामेश्वरी

शिक्षा- एम.ए, एम.फिल एवं पी.एच-डी (हिंदी), हैदराबाद विश्वविद्यालय

सम्प्रति- सहायक प्राध्यापक (हिंदी) सेवानिवृत्त

भारतीय विद्या भवन, भवंस विवेकानंद महाविद्यालय, सैनिकपुरी, सिकंदराबाद

प्रकाशन- अंतरराष्ट्रीय–राष्ट्रीय स्तर पर शोधालेख प्रकाशित

पुरस्कार-  बी.एन.शास्त्री मेमोरियल अवार्ड, `उत्तम अध्यापक पुरस्कार, उत्कृष्ट महिला पुरस्कार

सम्पर्क-  दूरभाष : +९१ ९३९११३६६०८  

ई-मेल : kameswari.sahitya@gmail.com

5 comments:

  1. वाह, कामेश्वरी जी। सुंदर आलेख है मुद्रा राक्षस पर। आपने एक ही आलेख में सब कुछ समेटते हुए उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का सुंदर रोचक वर्णन किया है ।बधाई। 💐💐

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    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद हरप्रीत जी ।

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  2. चुंडुरी जी, आपने बहुत सुंदर चित्र प्रस्तुत किया है मुद्राराक्षस जी का। गाँव के शुरुआती दिनों से लेकर लखनऊ पुस्तक मेले में उनकी शिरकत तक के जीवन और कर्मक्षेत्र के सभी आयामों की एक अच्छी झाँकी है यह आलेख। आपको इस लेख के लिए बधाई और आभार।

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  3. डॉ. कामेश्वरी जी नमस्ते। आपने मुद्राराक्षस जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। आपके लेख से मुद्राराक्षस जी के बारे में विस्तृत जानकारी मिली। आपको इस शोधपरक लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  4. अनेकता को शब्दो में समेटे सुंदर आलेख। छोटे कद के पर ऊर्जा से भरे व्यक्ति का जीवन अच्छे से उभारा है, बधाई

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