उड़िया भाषा को अपनी प्राचीनता, मौलिकता और समृद्ध साहित्य के लिए वर्ष २०१४ में भारत की छठी शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिला। क्या आपको मालूम है कि १९-वीं सदी के मध्य में यह भाषा मरणासन्न स्थिति में थी। ऐसे समय में समाज सुधारक और लेखक फ़क़ीर मोहन सेनापति इसके सरंक्षण के लिए ढाल बनकर खड़े हुए थे। यह वह समय था, जब पश्चिमी-उड़ीसा में हिंदी का और आंध्रप्रदेश के साथ सीमावर्ती इलाकों में तेलुगु का बड़ा असर था तथा बाकी उड़ीसा में बँगला का बोलबाला था। तत्कालीन प्रशासन-व्यवस्था ने मानो उड़िया भाषा को समाप्त करने की ठान ली थी। कोर्ट-कचहरी में सारे काम बँगला में (कुछ काग़ज़-पत्र फ़ारसी में), स्कूली किताबें बँगला में होती थी। इतना ही नहीं, सभी सरकारी पदों पर बंगाली अधिकारी होते थे। हर क्षेत्र में उड़िया भाषा की अवहेलना हो रही थी। बंगाली अधिकारी उड़िया को बँगला का विकृत-रूप बताकर तर्क रखते कि जब उड़िया में कोई छपी हुई किताब ही नहीं है तो उड़िया में पढ़ाई कैसे हो सकती है। यह फ़क़ीर मोहन के लिए एक चुनौती थी। तब प्राण देकर भी अपनी मातृभाषा के लिए कुछ करना उनके जीवन का एकमात्र ध्येय हो गया था। वे बंगाली में कोई नई किताब हाथ लगने पर उसे बहुत देर तक उलट-पुलट कर देखते और विशेष आकुलता से सोचते - उड़िया भाषा में कब ऐसी किताब छपेगी। इसके लिए कविवर राधानाथ राय, मधुसूदन दास तथा समाज-सेवा से जुड़े अन्य लोगों के साथ मिलकर उन्होंने एक समिति बनाई तथा उड़िया को एक प्रतिष्ठित भाषा का दर्जा दिलाने के लिए आंदोलन शुरू किया। इनकी समिति ने स्कूलों में उड़िया पढ़ाई जाने के लिए सरकार को अर्ज़ी लिखी। उसके जवाब में उड़ीसा के सभी स्कूलों से बँगला संपूर्ण-रूप से हटाने और उड़िया स्कूलों की स्थापना का हुक्म मिला। सेनापति ने बालेश्वर (बालासोर) में एक छापाख़ाना खोला, जो वहाँ के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। रथ-यात्रा की तरह ही उस प्रेस को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते थे।
फ़क़ीर मोहन का प्रारंभिक नाम ब्रजमोहन सेनापति था। ढाई वर्ष की आयु में बालक ब्रज के सिर से माता-पिता का साया उठ जाने पर उसके लालन-पालन की ज़िम्मेदारी उसकी दादी पर आ पड़ी। बालक ब्रजमोहन इतना अधिक बीमार रहता था कि कई बार तो मौत के मुँह में जाते-जाते बचा था। एक समय ऐसा आया कि बालक के जीवित रहने की आशा बहुत कम रह गई थी। तब दादी ने दो पीरों से बालक ब्रज के स्वस्थ हो जाने की मनौती माँगी, जिसके पूरी हो जाने के बाद उसका नाम ब्रज से 'फ़क़ीर' कर दिया। दादी हर वर्ष मुहर्रम के आठ दिन उससे फ़क़ीर के वेश में भिक्षा मँगवातीं और उसमें मिली दान-दक्षिणा पीरों को दे दिया करती थीं।
बालक फ़क़ीर को नौ वर्ष की अवस्था में पहली बार स्कूल जाने का अवसर मिला। औपचारिक शिक्षा के नाम पर पढ़ाई, प्राथमिक शाला में शुरू होकर आर्थिक अभावों और घरेलू परिस्थितियों के कारण वहीं समाप्त हो गई थी, लेकिन स्वाध्याय से इन्होंने बहुत ज्ञान अर्जित किया। लेखन में फ़क़ीर मोहन की रुचि बचपन से ही थी। उन्होंने स्कूली पढ़ाई के दौरान उड़िया व्याकरण लिखा, जिसका इस्तेमाल बाद में पाठ्यपुस्तकों में किया गया। आपका उड़िया, बँगला और संस्कृत पर शुरू से ही अच्छा अधिकार था। बाद में अँग्रेज़ी में साहित्य पढ़ने के लिए अँग्रेज़ी भी सीखी। कभी जिस स्कूल से नाम काम कट गया था, उसी स्कूल के प्रशासन ने उनकी कुशाग्र बुद्धि और पढ़ने-लिखने में गहरी रुचि देखते हुए बाद में उन्हें अध्यापक के रूप में नियुक्त किया। वर्ष १८६४ में बालेश्वर मिशन स्कूल में प्रधानाध्यापक का कार्यभार संभाला। बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते स्वयं शिक्षक फ़क़ीर मोहन ने भी ख़ूब साहित्य पढ़ा।
लेखक के जीवन में ११ भाषाओं के जानकार ब्रिटिश भाषाविद जॉन बीम्स, जो उस समय बालेश्वर ज़िले के मजिस्ट्रेट थे, का बड़ा महत्त्व रहा। हुआ यह था कि उन दिनों जॉन बीम्स पंचभाषिक व्याकरण लिख रहे थे, जिसके लिए उन्हें संस्कृत, उड़िया और बँगला भाषा के एक पंडित की आवश्यकता थी। उस परियोजना के लिए फ़क़ीर मोहन का भाषायी-ज्ञान अच्छा काम आया। उनकी योग्यता और गुणों से प्रभावित होकर जॉन्स बीम्स ने स्त्री-शिक्षा के प्रचार, उड़िया भाषा के सरंक्षण तथा उनके अन्य कार्यों में हमेशा सहायता की। फ़क़ीर मोहन ने अपनी जीवनी 'आत्मजीवन चरित' में जॉन बीम्स को बड़े स्नेह और आदर से याद किया है।
यह बताना ज़रूरी है कि, उन दिनों भाषा संकट के अलावा उड़ीसा को एक और बड़े संकट का सामना करना पड़ा था। सन १८६६ में वहाँ पड़े 'नौ-अंक' अकाल से उड़ीसा की आर्थिक-सामाजिक स्थिति अव्यवस्थित और विकृत हो गई थी। तब फ़क़ीर मोहन ने जन-जागृति फैलाने के लिए 'बोधदायिनी' और 'बालेश्वर संवाद-वाहिका' पत्रिकाएँ निकालनी शुरू कीं। कविताएँ, लेख तथा अनेक पाठ्य-पुस्तकें लिखीं। उस दौरान 'लछमनियाँ' नाम से लिखी उनकी एक कहानी भी 'बोधदायिनी पत्रिका' में छपी थी, जो शायद उड़िया में छपी पहली कहानी थी, लेकिन अब उस कहानी का कुछ अता-पता नहीं है। फ़क़ीर मोहन ने इस कहानी का उल्लेख अपनी आत्मकथा में किया है।
इनकी योग्यता के कारण राजाओं ने इन्हें अपने यहाँ दीवान नियुक्त करना शुरू किया। इन्होंने वर्ष १८७९ से अगले १० वर्षों में क़रीब १० रियासतों में काम किया। सेनापति बहुत स्वाभिमानी थे। जब कोई राजा इनके दिए परामर्श नहीं मानता था तो वे उसकी नौकरी छोड़ देते थे। रियासतों में नौकरी के दौरान इन्होंने भले ही कुछ नहीं लिखा लेकिन रामायण का संस्कृत से उड़िया में अनुवाद जैसा एक कालजयी कार्य संपन्न किया। हुआ यह कि दूसरी पत्नी कृष्णाकुमारी से पैदा हुए बेटे की सातवें महीने में मृत्यु हो गई थी। तब शोक-संतप्त पत्नी को ग़म से उबारने के लिए आप दिन में रामायण का अनुवाद करते और शाम को उसे सुनाते। जल्द ही उनके घर में यह नियम-सा हो गया था। एक दिन कृष्णाकुमारी ने कहा, 'यह पुस्तक हमारा पुत्र है और सदा हमारा नाम जीवित रखेगी।' आगे चलकर सेनापति ने महाभारत और अन्य पौराणिक कृतियों का उड़िया में अनुवाद किया था। उड़ीसा के लोगों को उनके वे अनुवाद इतने पसंद आए कि वे उन्हें 'व्यास-कवि' कहकर बुलाने लगे।
५७ वर्ष की उम्र तक रजवाड़ों में नौकरी के बाद सेनापति ने कुछ वर्ष कटक में और जीवन के अंतिम १३ वर्ष बालेश्वर में रहकर अपना अधिकांश साहित्य रचा। रजवाड़ों में सेवा के दौरान वहाँ तत्कालीन ज़मींदारी व्यवस्था और ग्रामीण जीवन क़रीबी से देखा-समझा और वह अनुभव उनकी रचनाओं की सामग्री बना।
सेनापति ने एक साहित्यकार के रूप में लेखन ५० वर्ष से भी अधिक की उम्र में शुरू किया था। रजवाड़ों में सेवा के बाद लेखक-मित्र मधुसूदन राव द्वारा सुझाए उपनाम 'धूर्जटी' से उन्होंने 'उत्कल साहित्य' पत्रिका में लिखना प्रारंभ किया था। इन्होंने मुख्य रूप से पाँच उपन्यास, क़रीब दो दर्जन कहानियाँ, कई कविताएँ और अपनी जीवनी लिखी है। इनका हर एक उपन्यास एक मील का पत्थर है। वर्ष १८९६ में लिखा उपन्यास 'छमाण आठ गुंठ' (छह बीघा ज़मीन) उनकी कालजयी कृति है। धारावाहिक के रूप में शुरू हुई 'छह बीघा ज़मीन' कहानी पाठक इतने शौक से पढ़ते थे कि वह बढ़ते-बढ़ते उपन्यास बन गई। यह उपन्यास भारतीय साहित्य में सामंती प्रथा में पिस रहे किसान के जीवन पर केंद्रित पहला यथार्थवादी उपन्यास है। भारतीय उपन्यास में किसान-जीवन के यथार्थवादी चित्रण की परंपरा को विकसित करने वाले प्रेमचंद का समय इनके बाद आता है। फ़क़ीर मोहन सेनापति ने भारतीय ग्रामीण समाज में सामंतों द्वारा किए जाने वाले शोषण और किसानों की दयनीय स्थिति की वास्तविकता हमारे सामने रखी है। बड़े ज़मींदार शेख दिलदार मियाँ के यहाँ मंगराज लगान वसूली का काम करता है। ऊपर से अत्यंत कृपालु दिखने वाला कपटी, चालाक मंगराज किसानों से और बड़े ज़मींदार शेख दिलदार से पैसे ऐंठ-ऐंठकर ख़ुद बड़ा ज़मींदार हो जाता है। मंगराज की आँख भोले-भाले बुनकर परिवार भगिया की छह बीघा उपजाऊ ज़मीन पर लगती है, जिसे वह हड़प लेता है। यह कहानी लंबी और रोचक है। प्रकृति के न्याय के फलस्वरूप अंत में ख़ुद मंगराज भी नष्ट हो जाता है। उपन्यास में फ़क़ीर मोहन सेनापति की लेखनी में इतना जादू और इतना यथार्थ है कि जब इसके पात्र मंगराज के मुक़दमे का विवरण 'उत्कल साहित्य' में प्रकाशित होने लगा, तब गाँवों से लोग मुक़दमे की पैरवी देखने-सुनने की ख़ातिर कटक आने लगे थे। लेखक ने दिखाया है, कैसे पैसे का धूर्तता से एक हाथ से दूसरे में जाने का कुचक्र चलता रहता है। यह उपन्यास उड़िया समाज के माध्यम से समग्र भारतीय ग्रामीण समाज को समझने की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण रचना है।
साल १८९५ में उनकी पहली कहानी 'रेवती' उड़िया भाषा में छपी पहली कहानी भी है। इसी से आधुनिक उड़िया कहानी की शुरूआत होती है। यह माता-पिता और दादी के साथ रह रही एक लड़की रेवती की कहानी है, जिसके पिता श्यामबंधु बेटी को पढ़ाना चाहते हैं, पर दादी इसका विरोध करती है। इस विरोध के बावजूद युवा शिक्षक वासुदेव रेवती को पढ़ाने घर आने लगता है। हैजे से रेवती के माता-पिता और बाद में वासुदेव की भी मृत्यु हो जाती है। वासुदेव की ख़बर से आहत रेवती और रेवती के बाद दादी भी परलोक चली जाती है। इस कहानी के माध्यम से सेनापति ने परंपरा और आधुनिकता के मिश्रण (दादी और रेवती), ज़मींदारी (श्यामबंधु के मरने के बाद ज़मींदार द्वारा उनकी गाय ले लेना), नारी शिक्षा, नारी जागरण, शिक्षा की भूमिका, प्यार (रेवती और वासुदेव के बीच), अंधविश्वास-रूढ़िवाद (दादी का रेवती की शिक्षा को सारी परेशानियों का कारण मानना), महामारी और ब्रिटिश सरकार की आलोचना जैसे कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे उजागर किए हैं। जिस समय यह कहानी लिखी गई थी, तब नारी शिक्षा के बारे में उस समाज में कोई सोचता भी नहीं था।
उस दौर के अधिकांश उड़िया लेखक संस्कृतनिष्ठ उड़िया में लिखा करते थे। लेकिन फ़क़ीर मोहन ने अपनी बात जनसाधारण तक पहुँचाने के उद्देश्य से संस्कृतनिष्ठ उड़िया में न लिखकर, ठेठ उड़िया जनभाषा में लिखा था। लोग आसानी से इनकी बात समझे सकें, उसके लिए इन्होंने लोकसाहित्य के तत्वों का इस्तेमाल किया। इनकी लेखन-शैली सहज, उपदेशात्मक और हास्य-व्यंग्य युक्त है।
हास्य-व्यंग्य का अच्छा उदाहरण है इनकी कहानी 'पेटेंट मेडिसिन'। इसमें नायिका अपने शराब और नशे के आदी पति को सही मार्ग पर लाने के लिए झाड़ू का इस्तेमाल करती है। झाड़ू का वह प्रयोग पेटेंट मेडिसिन हो जाता है।
सेनापति राजनीति में कभी सक्रिय नहीं दिखे, लेकिन एक बार वर्ष १८९८ में कॉन्ग्रेस के चौदहवें अधिवेशन में वे मद्रास गए थे, जहाँ उनकी बाल गंगाधर तिलक से मुलाक़ात हुई थी।
जीवन के अंतिम वर्षों में फ़क़ीर मोहन ने अपने कुछ प्रशंसकों और मित्रों के बार-बार अनुरोध करने पर अपनी आत्मकथा 'आत्मजीवन चरित' लिखी, जिससे उड़िया साहित्य में आत्मकथा लेखन का श्रीगणेश हुआ। यह किताब एक रोचक उपन्यास जैसी है। इससे हमें उनके जीवन और कार्यों के बारे में तो जानकारी मिलती ही है, साथ ही यह जीवनी अध्ययन और ऐतिहासिक शोध के लिए आधार-सामग्री भी है।
उड़िया 'व्यास-कवि' का जीवन बहुत संघर्षमय और कष्टदायक था। जन्म से अंतिम-साँस तक कोई न कोई पीड़ा लगी ही रही। कई बार लंबे-लंबे समय तक बीमार रहे। इन्होंने अपनी जीवनी में साँप के काटने, नाव पलटने, पागल हाथी और जंगली भैंसों के झुंड का सामना होने और अन्य दुर्घटनाओं की वजह से मरते-मरते बच जाने का उल्लेख किया है। एक बार तो उनको दवाई के नाम पर गंधक पिला दी गई थी। सेनापति ने अपनी जीवनी में लिखा है - बीमारी तो मेरी जीवन-संगिनी है। जीवन के पहले पड़ाव में जीविकोपार्जन के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा था। सेनापति ने दो शादियाँ की थी, लेकिन दूसरी पत्नी की भी असमय मृत्यु के कारण अंतिम २४ वर्ष अकेले ही रहना पड़ा। तब समाज अलग था। पारिवारिक विच्छिन्नता भी दुखी करती थी। आपने कठिन से कठिन परिस्थिति में भी कभी हिम्मत नहीं हारी और अपने ध्येय की पूर्ति में लगे रहे। आप सच्चे अर्थ में उड़िया भाषा और साहित्य के सेनापति हैं।
फ़क़ीर मोहन का उपन्यास 'छह बीघा ज़मीन' और कुछ अन्य कृतियाँ देश विदेश की कई भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। इनकी रचनाएँ स्कूल और विश्व विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं, उनके जीवन और कृतियों पर कई शोध-प्रबंध प्रकाशित हो चुके हैं। उल्लेखनीय है कि लंदन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर जे० वी० बैल्टन ने वर्ष १९६७ में लंदन के एक कॉलेज से 'फ़क़ीर मोहन सेनापति, उनका काव्य और कहानियाँ' विषय पर पीएचडी की थी। बालेश्वर में फ़कीर मोहन के नाम पर मेडिकल-कॉलेज, हॉस्पिटल और विश्वविद्यालय हैं। वहाँ स्थित उनका गृह-उद्यान आज भी साहित्य-प्रेमियों के लिए पवित्र स्थान है।
हिंदी में जो स्थान मुंशी प्रेमचंद का और बँगला में रवींद्रनाथ टैगोर का है, उड़िया साहित्य में वही स्थान फ़क़ीर मोहन सेनापति का है।
फ़क़ीर मोहन का जीवन उड़िया भाषा और साहित्य में पुनरुत्थान की अद्भुत कहानी है। आज उड़िया भाषा भारत की छठी शास्त्रीय-भाषा है, जिसका इनके योगदान के बिना वर्तमान रूप न होता और वह आस-पास की स्थानीय भाषाओं के हमलों से नहीं बच पाती।
फ़क़ीर मोहन सेनापति : जीवन परिचय |
जन्म | १३ जनवरी १८४३, गाँव-मल्लिकासपुर, ज़िला बालेश्वर (ब्रिटिश भारत में बंगाल प्रेसीडेंसी), उड़ीसा, भारत |
निधन | १४ जून, १९१८ |
माता | तुलसी देवी |
पिता | लक्ष्मण चरण सेनापति |
ताऊ | पुरुषोत्तम सेनापति (फ़क़ीर मोहन के प्रति बड़े निष्ठुर थे) |
भाई | चैतन्यचरण (फ़क़ीर मोहन के जन्म से पहले मृत्यु हो गई थी) |
दादी | कुचीलादेई |
पत्नियाँ | लीलावती, कृष्णकुमारी देई |
संतान | दो बेटियाँ तथा एक बेटा, जो बालेश्वर का सब-डिप्टी बना |
भाषा | उड़िया |
कर्मक्षेत्र | शिक्षक, प्रकाशक, दीवान, लेखक, अनुवादक |
कर्मभूमि | बालेश्वर, कटक, नीलगिरी, डोमपड़ा, दशपल्ला, पाललहड़ा, केंद्रपाड़ा |
शिक्षा | आरंभिक पाठशाला |
साहित्यिक रचनाएँ |
उपन्यास | |
कविता-संग्रह | उत्कल-भ्रमण (१८९२) पुष्पमाला (१८९४) उपहार (१८९५) अवसर के लिए (१९०८) प्रार्थना (१९१२ ) पूजा फूल (१९१२) धूलि (१९१२)
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काव्य-संग्रह | |
कहानियाँ | |
जीवनी | |
ऐतिहासिक कृतियाँ | |
बाल साहित्य | |
कुछ अनूदित कृतियाँ | संस्कृत से रामायण, महाभारत, श्रीमद्भगवद गीता उपनिषद, पुराण बँगला से ईश्वर चंद्र विद्यसागर की एक पुस्तक का उड़िया में ‘जीवनचरित’ नाम से (१८६६) खील हरिवंश (१९०२) सहकारी ऋण-समिति प्रसंग (१९१६)
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अन्य कृतियाँ | |
पुरस्कार और सम्मान |
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संदर्भ
लेखक परिचय
डॉ. सरोज शर्मा
भाषा विज्ञान (रूसी भाषा) में एमए, पीएचडी;
रूसी भाषा पढ़ाने और रूसी से हिंदी में अनुवाद का अनुभव;
वर्तमान में हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर कार्यरत पाँच सदस्यों की एक टीम का हिस्सा।
Language has evolved as the most important medium of communication of human civilization. Various smaller groups of people developed their own language and in course of time literature became a mirror of their culture, thoughts and beliefs. Expansionist character of various kings and emperors posed not only a threat to the boundaries of of each other but also to the cultural and religious practices reflected through language and literature.
ReplyDeleteThe role of Fakir Mohan Senapati as protector of Odia language is unknown or less known to today's generation. Ma'a, your research on his role as savior of Odia language is praiseworthy. Equally praiseworthy is your nice skill of depicting his life and literature.
When life has become materialistic devoid of emotions and values, your this peace of work will certainly move millions of minds of today's minds who are in the competition of being competitive in English.
Eagerly waiting for your next piece of research and work.
This comment is from Seshadeb Pradhan, SBI. He copied me.
Deleteप्रधान सर, नमस्ते। आलेख पढ़ने और उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए आपका आभार। कोशिश रहेगी कुछ और लिखने की
DeleteWell written Saroj di 💐we are proud of you 💕
ReplyDeleteCongratulations Saroj ji for your new publication.. Very well rearched and very impressive writings... Loved it 💐
ReplyDeleteCongratulations sarojji... Excellent work.... wel researched...Carry on....
ReplyDeleteA very concise narration of Fakir Mohan Senapati's contribution to save Odia language at a time when it was on the verge of being extinct. It has been rightly said that but for his efforts, Odia language would have been totally wiped out.
ReplyDeleteWriting this essay in Hindi is the contribution of Saroj to let the non-Odia community know about the less known fact of Fakirmohan's contribution is praiseworthy. Keep up the spirit.
Some suggestions for reference and consideration:
1. The name of the language is Odia (ଓଡିଆ), not Udiya (ଉଡିୟା). Similarly, the name of the state is Odisha (ଓଡିଶା), not Udisha (ଉଡିଶା). A name remains unchanged in all languages and script.
2. Government of India has recognized Odia as a Classical language. Incidentally, it comes as the 6th language in the chronological order, not in order of merit. So, to say that it is the 6th classical language is misleading. Better to say that it has been recognized as one of the classical languages of India.
3. To explain the meaning of "Chha Maana Aatha Guntha", it can be said "Chha Bigha Jamin" but the name of the work is Chha Maana Aatha Guntha.
This comment is from Biranchi Mishra who is connected to Odisha Tourism.
Deleteबिरंची सर नमस्कार, आलेख को पढ़कर सारगर्भित टिप्पणी हेतु आपका हार्दिक आभार। आपकी टिप्पणी ने इस आलेख को समृद्ध किया है। आपके सुझावों को ध्यान में रखते हुए आलेख में सुधार करने की कोशिश करुँगी। हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर है फ़क़ीर मोहन सेनापति।
DeleteGreat work Bhabhi ji .Superbly written many unknown facts .Thanks a lot 🙏
Deleteमहान उड़िया व्यक्तित्व के बारे में हिंदी पाठकों को जागरूक करने के लिए धन्यवाद। आपने तथ्यों से भरा एक व्यापक और साथ ही अच्छी तरह से शोधित लेख संकलित किया है। एक उड़िया होने के बाद भी, मुझे कई तथ्यों की जानकारी नहीं थी जो मुझे इस लेख से मालूम चलीं। आपने अच्छा प्रवाह बनाए रखा है और इसे पढ़ना आसान है। एक बार शुरू करने के बाद मैं इसे अंत तक एक ही साँस में पढ़ गया।
ReplyDeleteगंगाधर मेहर के बाद उड़िया साहित्य में एक और सफल योगदान के लिए बधाई।
Great work Saroj ji hope your effort will push Odisha and Odia into global scenario .
ReplyDeleteJay Jagannatha
सरोज जी, अद्भुत लेख,उड़िया भाषा के सेनापति,उड़िया के प्रेमचंद फकीर मोहन जी का कार्य और जीवन प्रेरणास्पद है। उड़िया भाषा के सेनापति को विनम्र अभिवादन 🙏💐
ReplyDeleteएनिमा के वाक्य,
ReplyDeleteनीचे लिखे हुए
वाक्यों को पढ़कर शायद आपको पता चल जाए कि हिंदी मेरी मातृभाषा नहीं है ,तो गलतियां माफ करें।
हमारे उड़ीसा में कहा जाता है कि जिन्हें अपनी मातृभाषा से प्यार नहीं है , उन्हें गुनी जनों में परिचित परिचित करेंगे तो अज्ञान कौन कहलाएगा। यह एक विकल्प मात्र है की सरोज जी
जीने में अपना बड़ी दीदी मानती हूं, उड़ीसा ,नाही उनका जन्म स्थान है ,ना ही उनकी मातृभाषा ओड़िया है। फिर भी उन्होंने बहुत ही खूबसूरती ,से पूरे लगाओ से उड़ीसा के इतिहास और साहित्य को हमारे सामने उपस्थित किया है ।एक महान व्यक्तित्व फकीर मोहन जी के बहुत ही अच्छी तथ्यों को सामने लाए हैं। उन्होंने स्वयं ही अपनी गुणवत्ता का परिचय देते हुए गुणी व्यक्तियों में अपना स्थान बना लिया है। इतनी ज्ञानवर्धक और शिक्षणीय ब्लॉक यू पास थापना के लिए बहुत धन्यवाद 🙏🏼🙏🏼🙏🏼
सरोज, तुमने फ़क़ीर मोहन जी के संघर्षपूर्ण और कर्तव्यनिष्ठ जीवन की अद्भुत गाथा पिरोई है शब्दों में। उनकी संवेदलशीलता और लेखनी का कमाल यह क़िस्सा बयान करता है कि भोले-भाले ग्रामीण काग़ज़ पर उतरी बातों को सच मानकर कटक तक का मीलों लम्बा सफ़र करते थे। उनके व्यक्तित्व का हर पहलू असर छोड़ता है, प्रेरित करता है। अनुपम लेखन के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteजिसमें फ़क़ीरी की चेतना हो और सेनापति सा अदम्य ओज वे ही जल की बूँद को गुहर कर सकते हैं। हर पंक्ति प्रेरणादायी और इन्हें पढ़ने की उत्कंठा जगाने वाली! मुबारक इस मील के पत्थर आलेख पर!
ReplyDeleteकल सुरेश जी ने ब्लॉग पर एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी। कि तिरुवल्लुवर तो कबीर से पहले के और बड़े रचयिता थे तो उन्हें दक्षिण का कबीर क्यों कहा गया! मुझे भी इसका औचित्य कम लगा था तो नेति-नेति कर के मैंने यह लिखा था। कुल मिलाकर बात यह कि हमें दूसरी भाषाओं को पूरा मान देना आना चाहिए। प्रेमचंद को हिन्दी का फ़क़ीर सेनापति कहने में शर्म नहीं करनी चाहिए। जब हम अपना आधा रास्ता तय कर लेंगे तो भारतीय भाषाएँ भी हमारी तरफ हाथ खोल कर आगे बढ़ेंगी!
सरोज अन्य भारतीय भाषाओं को हौले-हौले इस परियोजना से जोड़ने के हमारे प्रयास को बल देने के लिए हार्दिक आभार! ये लेख हिन्दी साहित्यकारों के लेख से अधिक मुश्किल होते हैं, इस बार भी आपने असमिया लेखक उठाए। हम कृतज्ञ हैं!
ReplyDeleteसरोज घर लौट रही हूँ, ट्रेन बदलनी है पर एक क्षणको तुम्हारे लेख पर से आँखें हटाने का मन नहीं है! क्या लिखा है, और क्या कर्मठ रहे सेनापति जी! अतिसुन्दर अतिसुन्दर ❤️ जियो!
ReplyDeleteसरोज जी नमस्ते। आपने एक और बेहतरीन लेख हम सभी पाठकों को उपलब्ध कराया। आदरणीय सेनापति जी के जीवन से जुड़ीं बातों को जानकर बहुत अच्छा लगा। आप प्रबुद्ध लेखकों की मेहनत के परिणामस्वरूप हमें भी हिंदी एवं अन्य भाषाओं के मूर्द्धन्य साहित्यकारों को जानने का अवसर मिलता है। आपको इस रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई हो सरोज मेम। सारगर्भित और शोध परक आलेख लेखन के लिए। नमस्कार
ReplyDeleteFakir Mohan Senapati,the father of Odia nationalism and modern Odia literature played a leading role in establishing the distinct identity of Odia language .Bhabhiji,you have done a commendable job in compiling such a great person.A few suggestions: on 23 september 2011 Parliament by enacting an Act changed orissa to Odisha(ଓଡିଶା) and the language is Odia(ଓଡିଆ ). So it would be better to use the present form.
ReplyDeleteAnyway,salute to the brave heart.
धन्यवाद जी आलेख पढ़ने और उस पर टिप्पणी करने के लिए। ऊपर बिरंची सर ने भी इस बात पर ध्यान दिलाया है। मैं कोशिश करुँगी नाम बदलने की
DeleteThe Odiya language movement had an indelible imprint on the socio-political and cultural history of Odisha in which Fakir Mohan played a pivotal role.
ReplyDeleteReally great effort Bada Maa. Waiting for your next publication.
सरोज जी, नमस्ते।उड़िया भाषा के रक्षक फ़क़ीर मोहन सेनापति पर आपने बड़ा सुंदर और जानकारीपूर्ण लेख दिया है। न केवल उनके जीवन अपितु उनकी रचनाओं का भी सुंदर वर्णन है। इस लेख से बहुत जानने को मिला। आपको बधाई, धन्यवाद। 💐💐
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रयास है। एक उड़िया लेखक के बारे में बताकर उनके लेखन को हम तक पहुँचाने के लिए आभार...!
ReplyDeleteWell Done Saroj! Good to Know about the Maharathi of Udiya Bhasha Fakir Mohon !
ReplyDeleteKeep it up ! All the Best!🌹
अत्युत्तम लेख। आज फ़क़ीर मोहन जी के महाप्रयाण दिवस, १४ जून पर अमर आत्मा को श्रद्धांजलि ।
ReplyDeleteSchool me kisi samye pe Fakir Mohan Senapati ji ki jibani padhi thi lekin aaj ye Blog padhkar bahut kuch janne ko mila ..aise hi or Blog likhte rahiye 😊
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