Tuesday, June 7, 2022

गुलज़ार देहलवी - तहज़ीब का मुस्कुराता मुजस्सिमा


आदाब! यह दास्तान उस शख़्सियत से वाबस्ता है जो लगभग सौ साल तक दिल्ली की तहज़ीब की नुमाइंदगी करती रही। 

मज़्मूँ है गुहर, फ़िक्र जवाँ है मेरी 

कौसर में धुली तर्ज़े बयाँ है मेरी 

दिल्ली जिसे कहते हैं वतन है मेरा 

उर्दू जिसे कहते हैं ज़बाँ  है मेरी 

इस इंसान का हर शब्द हिन्दुस्तान की मुहब्बत में सराबोर है, यह केवल और केवल सौहार्द, आपसी मिलन, राष्ट्रीय एकता की हवाओं में साँस लेता है, इसने आज़ादी मिलने तक अंग्रेज़ों की मुख़ालिफ़त में अपनी आवाज़ बुलंद की और उसके बाद उर्दू की ख़िदमत में। आज़ादी की सुबह आने के बाद से ताज़िन्दगी यह विरासत में मिली उर्दू की नाव का केवट बना रहा। जैसा कि हम सब जानते हैं देश के बँटवारे के कारण हुई अफ़रातफ़री और दंगों ने वातावरण में द्वेष और साम्प्रदायिकता की आग लगा दी थी। गुलज़ार देहलवी ऐसे तूफ़ान भरे समुद्र में अपनी नाव पर पूरी उम्मीद और विश्वास के साथ सवार रहे, और लगभग एक सदी तक देश में आने वाले सभी राजनीतिक और सामाजिक ज्वार-भाटों को झेलते, उसे खेते रहे। वे अपने पथ से कभी विचलित न हुए, हालाँकि कई बार ऐसा समय आया, जिसने उन्हें तोड़ा, निराश किया; बाबरी मस्जिद का विध्वंस एक ऐसी घटना थी। बहरहाल वे हर दौर में अपने कामों और शब्दों से आपसी दोस्ती, हिन्दू-मुस्लिम एकता, साझा-विरासत को बनाए रखने के लिए लोगों को प्रेरित करते रहे। अमीर ख़ुसरो ने १३वीं-१४वीं सदी में भारत की तत्कालीन प्रचलित भाषाओं संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि में अरबी, फ़ारसी, तुर्की के अल्फ़ाज़ जोड़कर एक ऐसी मीठी और राबते की ज़बान अपनाई, जिसका नाम हिंदी, हिन्दवी, रेख़्ता, लश्कर, खड़ी बोली से होता हुआ उर्दू पड़ा। उर्दू अपने विकास और प्रसार-पथ पर भारत की तमाम बोलियों और भाषाओं के शब्दों का खुद में समावेश करती गयी और सामाजिक सद्भाव के ताने-बाने  को मज़बूत करने वाली भाषा, गंगा-जमुनी तहज़ीब की ध्वज-वाहक बन गयी। इसी ज़बान और उसके अदब का माहौल पंडित आनंद मोहन ज़ुत्शी उर्फ़ गुलज़ार देहलवी को विरासत में मिला। वे आजीवन उसके इज़ाफ़े और हिफाज़त में लगे रहे।

मीर-ओ-मिर्ज़ा, ज़ौक़-ओ-मोमिन ने जिसे बख़्शी जिला 

वो ज़बान नव्वाब मिर्ज़ा दाग़ की रखता हूँ मैं 

आठ सदियों तक जिसे पाला अवामो -उनास ने 

फ़ख़्र है मुझको ज़बाने ख़ुसरवी रखता हूँ मैं 

(उनास -जनसमूह)

आज अदब और तहज़ीब की इस काया की कहानी उसी की ज़बानी मिले मालूमात के ज़रिये आप तक पहुँच रही है। गुलज़ार देहलवी जब ९० वर्ष की उम्र में भी मंच पर इंटरव्यू देते या मुशायरे में शिरकत करते, तो वे किसी भी युवा से अधिक जवान और चुस्त-दिमाग़ लगते थे। उनकी बातें, कथ्य, शब्दों की रवानी, ख़यालात में तरतीब, याददाश्त, आँखों की चमक, बात करते समय उनकी भाव-भंगिमा किसी २० साल के युवा की-सी होतीं। 

ज़ुत्शी कश्मीरी पंडित होते हैं। यह पूछे जाने पर कि आप कहाँ से हैं, गुलज़ार साहब हमेशा फ़ख़्र से ख़ुद को दिल्लीवाला कहते थे। वे उस दिल्ली से खुद को वाबस्ता मानते, जहाँ तीज-त्योहार मिल कर मनाया जाता था, इफ़्तार का खाना हिन्दुओं के यहाँ पकता था, रामलीला में मुसलमान बच्चे भाग लेते थे, निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के उर्स हिंदू बालकों के बग़ैर पूरे नहीं होते थे।

मैं वो हिन्दू हूँ कि नाज़ाँ हैं मुसलमान जिस पर

दिल में काबा है मेरे, दिल है सनमख़ानों में 

जोश का क़ौल है और अपना अक़ीदा गुलज़ार 

हम सा काफ़िर न उठा कोई मुसलमानों में  

दिल्ली से अपने रिश्ते की कहानी वे कुछ यूँ बयान करते हैं - शाहजहाँबाद जब बना यानी मुग़ल राजधानी जब आगरे से दिल्ली आयी, यहाँ लालक़िला और जामामस्जिद बने, बाज़ारों में चहल-पहल बढ़ी, तो आम-ओ-ख़ास के बीच राब्ते की एक ज़बान की ज़रूरत महसूस हुई। क़िले के भीतर रहने वाले भी मुख़्तलिफ़ ज़बाने (अरबी, फ़ारसी, तुर्की आदि) बोलते थे और आमजन  हिंदी और उसकी कई बोलियों में बातचीत किया करता था। ऐसे समय में बादशाह ने ज़बानों के माहिरीन को दरबार में शहज़ादों की तालीम-ओ-तर्बियत के लिए जगह-जगह से आमंत्रित किया। ज़ुत्शी परिवार भाषाओं में पंडिताई के लिए प्रसिद्ध था। उसे भी निमंत्रण मिला। उन्हें दिल्ली, लाहौर, आगरा, मेरठ और पटियाला में जागीरें दी गयीं। यानी गुलज़ार साहब के ख़ानदान का दिल्ली से नाता लगभग साढ़े तीन सौ साल का है, दिल्ली उनमें रची-बसी है, उनकी ३३ पुश्तों ने अपनी ज़िन्दगी इस शहर के हवाले की है। 


दिल्ली में इनकी रिहाइश पुरानी दिल्ली की गली कश्मीरियान में थी। दाग़ देहलवी को ख़ालिस टकसाली उर्दू के सबसे बड़े जानकार के रूप में जाना जाता है और कहते हैं उनके शागिर्दों की तादाद हज़ारों में थी। आनंद जब बालक था, वह साइल देहलवी, बेख़ुद देहलवी, वालिद ज़ार देहलवी की सोहबत में उठता बैठता था। ये तीनों ही दाग़ के पहले शागिर्दों में थे और इनको दाग़ की बनाई हुई लफ्ज़-ओ-मानी की रिवायत को बरतने का हुनर मिल गया था। ऐसी छाँव में पल-बढ़ रहे बच्चे की ज़बान को शफ़्फ़ाक़ तो होना ही था। इनके वालिद उर्दू, अरबी, फ़ारसी के विद्वान होने के साथ-साथ इस्लामियात, वेदांत और गणित की भी गहरी जानकारी रखते थे। लाहौर विश्वविद्यालय से बतौर फ़ारसी  प्रोफ़ेसर रिटायर होने के बाद ९० साल की उम्र तक दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ कॉलेज में ये पढ़ाते रहे।  इनके शागिर्दों में चर्चित फिक्शन-राइटर कुर्रतुलऐन हैदर और मशहूर शायरा अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा भी थीं। वे जब गलियों से गुज़रा करते थे तो रईस, मौलवी, पंडित, बड़े ओहदों वाले सब झुक कर सलाम करते, कहते पंडित ज़ार साहब जा रहे हैं, मौलवी साहब जा रहे हैं। यह नमूना है उस समय के हमारे समाज के ताने-बाने का।  


माँ बेज़ार देहलवी भी बड़ी शायरा थीं, दिल्ली और आसपास के इलाक़ों में होने वाले मुशायरों में सदारत करती थीं। घर में चूँकि दाग़ देहलवी की ज़बाँ और उन्हीं के मज़ामीन का बोलबाला था, बेटों को हुस्नो-इश्क़ और तग़ज़्ज़ुल की शायरी से आगे निकालने के लिए वे इक़बाल, चकबस्त, जोश मलीहाबादी, हसरत मोहानी जैसे क़ौमी शायरों की बुकलेट्स लाकर उन्हें देतीं ताकि वे समाजी मुद्दों पर शायरी पढ़ें, क़ौमी शायरी लिखें। साथ ही वे सभी धर्मों पर भी किताबें लाकर बेटों को पढ़ने के लिए देतीं। सिर्फ किताबें देतीं ही नहीं, समय-समय पर उनका इम्तिहान भी लिया करती थीं। गुलज़ार साहब के बड़े भाई ख़ार देहलवी के नाम से शायरी करते थे। माँ ने उस्तादों का चयन भी बड़ी समझदारी से किया, गुलज़ार देहलवी अपनी नज़्में पंडित बृजमोहन दत्तात्रेय ‘कैफ़ी’ और ग़ज़लें पंडित अमरनाथ मदन ‘साहिर’ को दिखाते थे, दोनों उस्तादों ने उनके लेखन को ख़ूब तराशा। कश्मीरी होने के कारण उनकी तुलना बरबस चकबस्त से हो जाती थी और उन्हें भी चकबस्त की बयानी और क़ौमी शायरी बहुत प्रभावित करती थी। देश के माहौल, तालीम-ओ-तर्बियत के साथ-साथ ख़ुद के ख़यालात का कुछ ऐसा असर रहा कि आनंद ज़ुत्शी ने ६-७ बरस की उम्र से ही शेर कहने शुरू कर दिए। कुछ माहिरीन का ध्यान उसके हुनर की तरफ गया और बाक़ायदा उसका तख़ल्लुस रखने के लिए शायरी के नामवरों की नशिस्त बुलाई गयी।  सबकी राय से आनंद ज़ुत्शी को ‘गुल-ओ-गुलज़ार’ का उपनाम देना तय हुआ, जो बाद में बदलकर ‘गुलज़ार देहलवी’ हो गया। 

तख़ल्लुस मिला, जल्दी ही सयानापन भी आया, आज़ादी की मुहिम हर-सू बरपा थी, इन सबका असर यूँ हुआ कि ९-१० साल का लड़का हुब्बुल-वतनी (देशभक्ति) की कविता करने लगा और उसके चर्चे शहर में होने लगे। उस उम्र की शायरी की बानगी देखिए-

चमन जो क़ौम का सूखा पड़ा है इक मुद्दत से 

उसे अपने लहू से सींच कर गुलशन बना दूँगा  

यह चर्चा अरुणा आसिफ़ अली से होते-होते जवाहरलाल नेहरू और मौलाना आज़ाद तक पहुँची। उसके बाद गुलज़ार देहलवी दिल्ली और हिंदुस्तान में होने वाले कांग्रेस के सभी कार्यक्रमों में बतौर शायर बुलाए जाने लगे। आज़ादी मिलने तक सभी जलसों वग़ैरह में उन्होंने हुब्बुल-वतनी के जज़्बात की आग को जलाए रखा। १५ अगस्त, १९४७ को दिल्ली में हुए आज़ादी के जश्न के अपने सम्बोधन में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गुलज़ार देहलवी की यह नज़्म पढ़ी थी-

ज़रूरत है उन नौजवानों की हमको 

जो आगोश में बिजलियों के पले हों

क़यामत के सांचे में अक्सर ढले हों 

जो आतिश फ़िज़ा की तरह भड़कें  

जो लें साँस भी तो बरपा जलजले हों 

उठाएँ  नज़र तो बरस जाए बिजली…. 

आज़ादी मिली, दुनिया ने द्वितीय विश्व-युद्ध के काले साये से छुटकारा पाया। साल १९५२ में विश्व शांति और विश्व-मैत्री को मज़बूत करने के उद्देश्य से बर्लिन में विश्व नौजवान काव्य-प्रतियोगिता आयोजित की गयी, जिसमें दुनिया के १०४ मुल्कों के ३५ बरस की उम्र से कम के ९५० शायरों ने हिस्सा लिया। भारत से गुलज़ार देहलवी का भी चयन हुआ। उन्होंने इस मौक़े के लिए कुछ डेढ़ हज़ार अशआर की लम्बी नज़्म लिखी थी। दिल्ली के माहिरीन ने तो उस पर अपने आशीर्वाद का ठप्पा पहले ही लगा दिया था। गुलज़ार साहिब के अँग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर ने नज़्म का अँग्रेज़ी तर्जुमा कर उन्हें बर्लिन जाते समय दिया था। २४ सदस्यीय जूरी ने उनकी नज़्म को दूसरा स्थान दिया और उन्हें वर्ल्ड यूथ लॉरिएट के ख़िताब से नवाज़ा। इस प्रतियोगिता के बाद उन्हें पाब्लो नेरुदा और नाज़िम हिकमत जैसे शायरों की सोहबत में दुनिया के कई मुल्कों के सफ़र का भी मौक़ा मिला। बर्लिन और दुनिया की सैर ने उनको नए तजुर्बात दिए, नज़रिये को और वसीअ (विस्तृत) किया। 

भारत वापसी पर प्रधानमंत्री ने उनके सम्मान में प्रधानमंत्री-भवन में दावत की थी और उसी साल ख़ुसरो अकादमी की नशिस्त में नेहरू और मौलाना आज़ाद ने उन्हें ‘शायर-ए-क़ौम’ और ‘फ़िदा-ए-उर्दू’ के ख़िताबात से नवाज़ा। यहीं से उनकी पहचान उर्दू के पर्याय के रूप में बनने लगी। 


आज़ादी मिलने के बाद उर्दू अदब, ज़बान और तहज़ीब को बढ़ावा देना, उसे यकजिहति (एकता) का ज़रिया बनाना ही गुलज़ार साहिब का मक़सद बन गया। इस काम के लिए साल १९४५ में उन्होंने अंजुमन तामीर-ए-उर्दू क़ाइम की। उनकी यह संस्था साल १९४७ से १९७४ तक हफ़्तावार, साल १९७४ से १९८५ तक १५ रोज़ा और १९८५ से १९९२ तक माहाना तौर पर बिला-नाग़ा नशिस्तें और मुशायरे करती रही।  इसके अलावा यह बड़े पैमाने पर उर्दू के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन करती थी। गुलज़ार साहिब के आखिरी दिनों तक यह अंजुमन त्योहारों और विभिन्न अवसरों पर मुशायरे, नशिस्तें करती रही; नई नस्लों को पुरानी तहज़ीब से मिलवाती रही, अदब की रिवायतें सिखाती रही। गुलज़ार देहलवी नाज़ से कहा करते थे कि दिल्ली की चार नस्लों की इल्मी और अदबी तर्बियत में इस अंजुमन का बड़ा योगदान रहा है। साल १९९२ के बाद अपनी मसरूफ़ियत, सेहत और तमाम दीगर कामों की वजह से वे अंजुमन को उतना वक़्त और ताक़त नहीं दे पाए। उनकी कारगुज़ारी उन्हीं के शब्दों में हमेशा “vivid, varied और versatile” रही। अपने आख़िरी दिनों तक वे दरगाह निज़ामुद्दीन और दिल्ली रामलीला कमेटी के ट्रस्टी और उप-प्रमुख रहे। इसके आलावा वे सिखों के सावन कृपाल आश्रम से भी सक्रियता से जुड़े रहे; JNU के एजुकेशनल ट्रस्ट का हिस्सा रहे। 

दर्से  उर्दू ज़बाँ देता हूँ 

अहले इमान पे जाँ देता हूँ 

मैं अजब हूँ इमाम उर्दू का 

बुतक़दों में अज़ाँ देता हूँ 

उनका मानना था कि उर्दू ही देश के लोगों को एकजुट कर सकती है, इसने देश की सभी बोलियों, भाषाओं के लिए अपना दरीचा हमेशा खुला रखा है,  

गीता की न तौरेत न गुरु साहिब की 

इंजील न कुरान की ज़बाँ है उर्दू 

मज़हब की न सूबों की न फ़िरक़ों की 

फ़क़त वल्लाह कि हर दिल की ज़बाँ है उर्दू 

उनका दायरा केवल शायरी तक ही सीमित नहीं रहा। आज़ादी के बाद जब सरकार ने विज्ञान की अपनी पत्रिकाएँ सिर्फ़ अँग्रेज़ी और हिंदी में ‘Science Reporter’ और ‘विज्ञान प्रगति’ के नाम से शुरू कीं, तो गुलज़ार देहलवी ने अपने १२ साल लम्बे प्रयासों से उर्दू में भी उसे ‘साइंस की दुनिया’ के नाम से शुरू करवाया। बाद में वे इस रिसाले के साल १९७५-१९८५ तक संपादक रहे। इस पत्रिका को लेकर उनकी मुहिम लम्बी और कठिन थी; सरकार का रवैया उदासीन था और अवाम में उर्दू के प्रति उपेक्षात्मक भाव थे। 

उर्दू और आपसी भाईचारे को बनाए रखने का एक सरल और कारगर नुस्ख़ा गुलज़ार साहिब बताया करते थे, जिस पर उन्होंने ताज़िन्दगी अमल भी किया। उर्दू ज़बान को जानने वाले अपने आस-पास के जमात छठी -सातवीं तक के बच्चों को दूसरे विषयों के साथ-साथ सिर्फ़ उर्दू और उसका रस्मुल-ख़त (लिपि) सिखा दें, आगे का निर्णय उन पर छोड़ दें। एक अतिरिक्त ज़बान सीखने से बच्चों का विकास और बेहतर होगा तथा यह उनके नज़रिये को नए आयाम देगा। वे ३०-३५ साल तक दिल्ली के विभिन्न  स्कूलों में जाकर बच्चों के बीच आपसी प्रेम, दोस्ती, सद्भावना के विचार रखते रहे, उन्हें एक-दूसरे के त्योहारों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने को प्रेरित करते रहे। उनकी पहल पर ५०० से ज़्यादा मुसलमान बच्चे ११ दिन की रामलीला में हिस्सा लेते हैं, हिन्दू बच्चे दरगाह निज़ामुद्दीन के सालाना उर्स में भाग लेते हैं।  

वे अपने सांस्कृतिक, सामाजिक, अदबी कार्यक्रम के लिए सब मज़हबों के बच्चों को न्योता देते थे ताकि बच्चे बुज़ुर्ग नस्लों के साथ मिलकर क़ौमी एकता और आपसी दोस्ती की अहमियत को समझे, इन विचारों को हक़ीक़त में ढालें। 

सरदार अली जाफरी, मजाज़, फैज़ अहमद फैज़, जाँ निसार अख्तर, शकील बदायुनी और उस ज़माने के कई अदीबों के साथ उनका उठना-बैठना था। गुलज़ार साहिब अदब के फ़िरोग़ के लिए अमीर ख़ुसरो से लेकर मुहम्मद इक़बाल तक सभी नामचीन शायरों को समर्पित दिवस का भी आयोजन किया करते थे। तहज़ीब और अदब की फ़िज़ा के अलावा उनकी ज़िन्दगी में किसी दूसरे के लिए जगह न थी। उनका मानना था इस कायनात की बुनियाद मुहब्बत, ख़िदमत और एकता पर है। सृष्टि का रचयिता एक है, सब उसके बन्दे हैं फिर बैर किस बात का, दुश्मनी क्योंकर है! गुलज़ार साहिब का  रहन-सहन, व्यवहार, विचार, ज्ञान सभी उनके सिर्फ़ एक इंसान होने की तस्वीर पेश करते थे, लोग तो आख़िर तक इस पहेली को सुलझाते ही रह जाते थे कि वे हिन्दू हैं या मुसलमान! इंसानियत और भारतीयता की यह जीती-जागती मिसाल दिल्ली की गलियों-कूचों को १२ जून २०२० को अलविदा कह गयी। गुलज़ार देहलवी जैसा विराट वृक्ष तो शायद ही दिल्ली को दोबारा कभी नसीब हो, लेकिन उसकी छाया में पनपा सौहार्द पुरवाई बन के हमेशा चमन-ए-दिल्ली में बहता रहेगा। 

मिटती  हुई दिल्ली का निशाँ हैं हम लोग 

ढूँढ़ोगे कोई दिन में कहाँ हैं हम लोग 

जलती हुई शम्मओं के सहर के आँसू 

बुझती हुई लकड़ी का धुआँ हैं हम लोग 


जीवन परिचय : गुलज़ार देहलवी (पंडित आनंद मोहन ज़ुत्शी)

जन्म 

७ जुलाई, १९२६, गली कश्मीिरियान, पुरानी दिल्ली, भारत 

मृत्यु 

१२ जून, २०२०,  नॉएडा, भारत 

पत्नी 

कविता ज़ुत्शी 

पिता 

पंडित त्रिभुवन नाथ ज़ुत्शी उर्फ़ ज़ार देहलवी 

माँ 

ब्रजरानी ज़ुत्शी उर्फ़ बेज़ार देहलवी  

बेटा 

अनूप ज़ुत्शी,( रिहाइश पुणे) 

बेटी 

मीना (ज़ुत्शी) उग्रा, (रिहाइश यूएसए) 

भाई 

दीनानाथ ज़ुत्शी (गर्म हवा में बलराज साहनी के साथ मुख्य भूमिका में दिखाई दिए, टीवी, रेडियो के चर्चित कलाकार रहे); मोहननाथ ज़ुत्शी; रतननाथ ज़ुत्शी (ख़ार देहलवी); सोहननाथ ज़ुत्शी, गुलज़ार साहिब सबसे छोटे थे 

बहनें 

दो (नाम मिल न सके)

उस्ताद 

बेख़ुद देहलवी, ज़ार देहलवी, साइल देहलवी, पंडित बृजमोहन दत्तात्रेय ‘कैफ़ी’, पंडित अमरनाथ मदन ‘साहिर’

साइल की ज़बान, ज़ार की बोली मेरी 

साइल ने सिखाए हैं अदब के उस्लूब 

कैफ़ी से तलम्मुज़ का शरफ़  रखता हूँ 

उर्दू के सिवाय कुछ नहीं मुझको मतलूब 

शिक्षा 

स्कूल - रामजस स्कूल, बीवीजे संस्कृत स्कूल 

 एम ए - हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय 

 एलएलबी - लॉ कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय 

 अदीब फ़ाज़िल, मुंशी फ़ाज़िल इम्तिहान- अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू       पंजाब विश्वविद्यालय 

कर्मभूमि

दिल्ली 

कार्यक्षेत्र 

शायर, सामाजिक कार्यकर्त्ता, शिक्षक 

कुछ साहित्यिक रचनाएँ

शायरी 

गुलज़ार-ए-ग़ज़ल, २००० 

कुल्लियत-ए-गुलज़ार देहलवी, २०१०    

उन पर पुस्तकें 

चहर-सू, २०१७ 

कुछ पुरस्कार और सम्मान 

  • मीर तक़ी ‘मीर’ पुरस्कार, २००९ 

गुलज़ार साहिब के बेटे अनूप ज़ुत्शी से हुई बातचीत से पता लगा:

  • जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में एक कोना गुलज़ार देहलवी को समर्पित है;

  • रेख़्ता फाउंडेशन पुस्तकालय में गुलज़ार देहलवी को समर्पित एक संग्रहालय  है;

  • देश के बँटवारे  के समय दिल्ली में सद्भावना बनाए रखने के उद्देश्य से गुलज़ार साहिब को कुछ समय के लिए नेहरू जी की पहल पर दिल्ली पुलिस का चीफ़  कंपनी कमांडर बनाया गया था;

  • गुलज़ार साहिब को कई बार पद्मश्री के लिए नामित किया गया, परन्तु वे हमेशा किसी दूसरे के हक़ में उससे इंकार कर देते थे;

  • उन्हें हज़ार के आसपास पुरस्कार और सम्मान मिले थे; उनके लिए सबसे बड़ा सम्मान उर्दू की सेवा करना और लोगों में पनपती सद्भावना देखना था;

रोचक तथ्य:

  • उनकी शेरवानी में मोतियों की एक ख़ास लड़ी होती थी जिसके लॉकेट में गीता का श्लोक और क़ुरान की आयतें दर्ज थीं। .

  • दिल्ली की तहज़ीब गुलज़ार साहब के लालन-पालन का हिस्सा थी।  वो तमाम धर्मों से परिचित थे।  गीता, बाइबिल क़ुरान और अन्य धार्मिक ग्रन्थों  की उन्हें अच्छी जानकारी थी। 

  • साल 2000 में आयोजित संयुक्त राष्ट्र के 36 देशों के शायरों की कॉन्फ्रेंस में भारत का प्रतिनिधित्व और उसकी अध्यक्षता भी की। 

  • ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ उनके नज़्मों की पहली किताब ‘ललकार’ ज़ब्त कर ली गई थी। जिसको उर्दू दैनिक ‘तेज’ के मालिक लाला देशबंधु गुप्ता ने छापा था। 

  • कांग्रेस के साप्ताहिक ‘स्टूडेंट्स कॉल’ और हिंदू कॉलेज मैगज़ीन के संपादक रहे। 

  • गुलज़ार साहिब फ़ख़रुद्दीन अली अहमद तक किसी भी राष्ट्रपति या  मिलने बिना किसी पूर्व सूचना के जा सकते थे; 

  • भारत सरकार के वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की तरफ़ से 1975 में शुरू की गई विज्ञान और प्रौद्योगिकी को समर्पित पहली उर्दू पत्रिका ‘साइंस की दुनिया’ के संस्थापक संपादक हुए और यहीं से डायरेक्टर के पद से सेवानिवृत्त हुए।

  • होली के अवसर पर गंगा जमुनी तहज़ीब को समर्पित एक बड़ी काव्य गोष्ठी करते थे, जिसमें हिंदू और मुसलमान शायर इकट्ठा होकर अपनी कविताओं का पाठ करते थे ,पारिवारिक गोष्ठी में गुलज़ार साहब हर कवि  को सुनते और सराहते थे, कोई भी मेहमान बिना खाना खाये निकल नहीं पाता था।  


सन्दर्भ:

लेखक परिचय


प्रगति टिपणीस

पिछले तीन दशकों से मास्को, रूस में रह रही हैं। इन्होंने अभियांत्रिकी में शिक्षा प्राप्त की है। ये रूसी भाषा से हिंदी और अंग्रेज़ी में अनुवाद करती हैं। आजकल एक पाँच सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं। हिंदी से प्यार करती हैं और मास्को में यथा संभव हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं।

19 comments:

  1. बेहद उम्दा जानकारी भरा लेख । आपकी उर्दू जुवान पर पूरी पकड़ है यह परिलक्षित है। साधुवाद।

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    1. सुरेश जी, नमस्ते। आपने आलेख को सबसे पहले अपना आशीष दिया, यह मेरे लिए बड़ी बात है। आप का हृदयतल से आभार।

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  2. रोचक जानकारी ही रोचक भर नहीं है, पूरा लेख रोचक है...शानदार

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    1. सखी, शुक्रिया! दिलचस्पी पैदा कर सके गुलज़ार साहिब, यानी लिखना सार्थक हुआ।

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  3. वाह, प्रगति जी। बेहद रोचक आलेख। क़िस्सागोई की स्क्रिप्ट लगती है। किसी अच्छे क़िस्सागो को दें तो चटखारे ले लेकर सब दुनिया को सुनाएगा। आप ऐसा ही रोचक लिखती रहें, यह दुआ है।
    गुलज़ार देहलवी की ज़िंदगी बताती है कि कोई शख़्स अपनी ज़मीन और ज़ुबान की मुहब्बत में ज़िंदगी कैसे जीता है। लाजवाब।
    बहुत अच्छा लगा पढ़कर।
    💐💐

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    1. हरप्रीत जी, बहुत शुक्रिया। आलेख लिखने के लिए उन्हें काफ़ी सुना, और दिल किया कि उनकी एक झलक पेश करूँ, उनकी ही तरह कर्णप्रिय और ज़िंदादिल। आपने उस कोशिश को सराहा, मुझे बहुत अच्छा लगा।

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  4. इंसानियत और भारतीयता की जीती-जागती मशाल गुलज़ार देहलवी पर उम्दा आलेख लिखा है प्रगति तुमने। बहुत प्रेरणादायक हैं वे ख़ुद और उनकी ज़िंदगी। यह आलेख एक खुली किताब जैसा है। इसे पढ़ते-पढ़ते बीच-बीच में लगता है प्रगति, जैसे तुम स्टेज पर खड़ी हो, वे तुम्हारे पास बैठे हैं और तुम उनके बारे में दर्शकों को बता रही हो। शानदार और जानदार आलेख के लिए तुम्हें बधाई।

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  5.  
     
    वाह! वाह! वाह!
    उर्दू के तरहदार शायर, गंगा-जमुनी तहज़ीब के असरदार लेखक और जंग-ए-आज़ादी के धर्म युद्धक पंडित आनंद मोहन ज़ुत्शी *गुलज़ार देहलवी* पर प्रगति जी ने बहुत ही शानदार आलेख जड़ा है। गुलज़ार देहलवी साहब रमज़ान के महीने में हर साल एक रोज़ा रखते थे जिसे ख़ुद उन्होंने "रोज़ा रवादारी" का नाम दिया था। आम-तौर पर रमज़ान के महीने के आख़िरी जुम' ए को वह ये रोज़ा रखते थे। उनके मित्रगण बा-क़ाएदा चंदा निकाल कर खुबसुरत और शानदार इफ़्तार की दावत का आयोजन करते थे। वे शायरी के साथ-साथ वह उर्दू के पहले उर्दू साइंस मैगज़ीन "साइंस की दुनिया" के बरसों एडिटर भी रहे।
    उन्होनें लिखा था-
    *दर्स-ए-उर्दू-ज़बान देता हूँ*
    *अहल-ए-ईमाँ पर जान देता हूँ*
    *मैं अजब हूँ इमाम उर्दू का*
    *बुत-कदे में अज़ान देता हूँ*

    आलेख की शब्दावली ने इतना प्रभावित किया कि एक सांस में लेख को पढ़े बिना नहीं रहा गया। गुलजार देहलवी साहब की शायरी में कमाल की गहराई और रुहानी तड़प का असर होता था जो प्रगति जी के लेखन में भी अजीब कसक दिखाई दे रही है। बड़े शोध के साथ लिखा गया यह लेख गुलजार साहब की ज़िन्दगी के छोटे-छोटे पहलुओं से भली-भाँति परिचित करा रहा है। इस अप्रतिम और रोचक आलेख लेखन के लिए आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ।

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    1. सूर्या, बहुत शुक्रिया। मुझे ख़ुशी हुई यह जानकर कि आलेख आपको अच्छा लगा। ऐसी प्रतिक्रियाओं से मनोबल बढ़ता है, लेखन में सुधार आता है।
      गुलज़ार साहिब बेशक बेमिसाल थे। उन्होंने इंसानियत के धर्म को ताज़िन्दगी निभाया, हर त्यौहार को पुरजोश मनाया

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  6. वाह,बहुत ख़ूब,प्रगति जी, गुलजार देहलवी का उर्दू प्रेम और उनकी शायरी से परिचय हुआ। भारतीय भाषा उर्दू की सेवा किसी मजहबी नहीं बल्कि भाषा प्रेमी का मामला है। आपकी वाणी में लखनवी अंदाज है।लेख हेतु हार्दिक बधाई 🙏💐

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    1. विजय जी, आपका बहुत आभार आलेख को पढ़ने, सराहने और गुलज़ार साहिब की आत्मा को समझने के लिए।
      लखनवी अन्दाज़ की संज्ञा पाकर मैं धन्य हो गयी।

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  7. विनोद पाण्डेयJune 7, 2022 at 4:40 PM

    प्रगति जी का आलेख हमेशा बहुत ही शानदार होता है l व्यक्तित्व की सम्पूर्णता को प्रस्तुत करने की कला आपकी लेखनी में है ,इस लेख में भी आपकी मेहनत और शोध साफ़-साफ़ झलक रही है l

    गुलज़ार देहलवी एक नामचीन शायर के रूप में विख्यात हैं लेकिन कुछ और बातें हैं जो उन्हें बेहद ख़ास बनाती थीं,जीवन भर उन्होंने अपने भीतर के हिन्दुस्तानियत को ज़रा सा भी कम नहीं होने दिया l सही मायने में क़ौमी एकता के मिशाल थे l जितनी पकड़ रामायण और गीता पर थी ,उतनी पकड़ क़ुरान पर थी,गुरु ग्रंथ साहब और बाइबिल से भी लगाव कमतर न था l शायर तो बड़े थे ही परंतु वो इंसानियत के बड़े पक्षधर थे और जीवन पर्यंत रहे l नमन है l


    गुलज़ार जी जैसे महान व्यक्तित्व से जुड़े सटीक,सार्थक,ज्ञानवर्धक बातों
    को समेटते हुए आपने एक सुंदर आलेख प्रस्तुत किया l शाब्दिक चमत्कार के साथ गुलज़ार जी के ऊपर लिखा लेख जैसे-जैसे आगे बढ़ता है पाठक खोता चला जाता है l बढ़िया लिखा आपने ,बहुत बढ़िया l हार्दिक बधाई आपको ।

    ~विनोद पाण्डेय

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    1. विनोद जी, आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। गुलज़ार देहलवी पर आलेख लिखने के लिए आपने पटल पर मदद की खुली पेशकश की, और मेरा उनपर लिखने का मन कर गया। आपके द्वारा उपलब्ध कराई गयी सामग्री से लेखन आसान हुआ। आप से ही उनके परिवार का सम्पर्क भी मिला। आप ख़ुशनसीब हैं कि उनकी सोहबत में रहे हैं।
      गुलज़ार देहलवी पर लिखकर मैं निश्चित तौर पर समृद्ध हुई हूँ।

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  8. प्रगति जी नमस्ते। आपने गुलज़ार देहलवी जी पर बेहद उम्दा लेख लिखा है। जिस तरह गुलज़ार साहब का अंदाज़ दिल को छू जाता था था उसी तरह आप का यह लेख भी मन-भीतर गहरे तक उतरता है। आपको इस जानकारी भरे शायराना लेख के लिए बधाई।

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    1. दीपक जी, आपकी टिप्पणी के बिना लेखन को संपूर्णता नहीं मिलती। आपने आलेख पसंद किया, मेरा प्रोत्साहन किया, इस के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।

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  10. After reading your rich write up I got an impression that many people like me may not be aware of the evolution of Language and contribution of other languages and dedicated people like Gulzar Dehlvi. Also well researched articles like yours make language richer. I am sure this effort of your will definitely encourage and motivate many people to know more and arouse love for Hindi. The other aspect is love and friendship between people of different confessions which is being ruined these days. Admire you Pragati.
    Santosh Mishra

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    1. संतोष, तुमने आलेख पढ़ा, पसंद किया, गुलज़ार देहलवी से तुम मुत्तासिर हुए, ये सब बातें काफ़ी हैं लेखन करते रहने के लिए। शायद इन्हीं छोटे क़दमों से हम किसी मंज़िल तक पहुँच ही जाएँ। गुलज़ार साहिब से इतना तो सीख ही सकते हैं कि पुरउम्मीद होकर अपना काम करते रहना चाहिए। बहुत शुक्रिया

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  11. प्रगति जी गुलज़ार देहलवी जी पर लिखे आपके इस लेख को पढ़ते हुए मुझे अपने सामने बैठी प्रगति, ( जो अपने शहर से जुड़े साहित्यकार को जानने की उत्कण्ठा से भरी थी) और चकबस्त जी के लिए जानकारी जुटाने की जद्दोज़हद करती प्रगति याद आ रही थी। आपकी यही उत्कण्ठा, यही जद्दोज़हद का हासिल है यह लेख। इस लेख के माध्यम से कड़ी-दर-कड़ी आपने गुलज़ार देहलवी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित कराया। इस रवानगी से भरे, रोचक लेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई। 💐💐😊

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कलेंडर जनवरी

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"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...