देवदत्त और कपिल में से किसे चुनें, पद्मिनी का यह द्वंद्व 'हयवदन' को गिरीश कर्नाड का नाटक बनाता है, जिसमें पद्मिनी की आलोचना नहीं की गई है बल्कि उसके अंतर्द्वंद्व को इस तरह से रखा गया है, जो पद्मिनी के प्रति संवेदनशीलता जगा देता है। यही 'तुगलक' नाटक के केंद्रीय पात्र तुगलक या 'ययाति' के केंद्रीय पात्र ययाति के साथ है। गिरीश कर्नाड के तमाम पात्र उस उलझाव को दिखाते हैं, जो कभी सुलझ नहीं सकते हैं या जिनका उलझाव ही उन पात्रों को चिरंजीवी बना देता है। उन्होंने जब 'ययाति' लिखा तो वे ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रहे थे और फिर महज़ २६ वर्ष की आयु में उन्होंने 'तुगलक' लिख डाला।
गणित का छात्र, अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र का अध्येता और ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से स्नातक पदवी लेने वाला युवा, दर्शन-शास्त्र की ओर प्रवृत्त होता है और भारतीय दर्शन को नए सिरे से देखता है। अपने पहले ही नाटक 'ययाति' में महाभारत की कथा से उस पात्र को लेते हैं, जिसे चिरवृद्ध हो जाने का शाप मिलता है और जो अपने पुत्रों से यौवन की याचना करता है। कर्नाड ने 'ययाति' के लेखन के दो दशक बाद इस संदर्भ में लिखा था, 'ययाति' को लिखते वक़्त मैंने इस नाटक को बस अपनी स्थितियों से पलायन करने की दृष्टि से देखा था, पर आज पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि 'ययाति' के इस मिथक ने कितने सूक्ष्म और सटीक तरीक़े से मेरे ख़ुद के अंतर्द्वंद्व और चिंताओं को व्यंजित किया था। ययाति के पुत्रों की तरह ही मुझसे भी अपने भविष्य की, अपने युवा स्वप्नों को बलि चढ़ा दिए जाने की अपेक्षाएँ की जा रही थीं, जिससे मेरे बुजुर्गों के मन की शांति बनी रहे।
अपने लिखे की दो दशक बाद कर्नाड समीक्षा करते हैं, ज़ाहिरन वे दो दशक पहले ही ऐसा कुछ लिख चुके होते हैं, जो समय से बहुत आगे है। विरासत की गूँज को प्रतिध्वनित करने वालों में कर्नाड जब अतीत लिखते हैं तो उसे नए विमर्श की तरह रखते हैं। यह भी विलक्षण है कि एक ही दौर में हिंदी में मोहन राकेश, मराठी में विजय तेंदुलकर, बांग्ला में बादल सरकार और कन्नड़ में गिरीश कर्नाड, रंगमंच को अपनी लेखनी से समृद्ध कर रहे थे, जो एकदम मौलिक भी थे और कहीं न कहीं समकालीन संदर्भों की पड़ताल करने में भी लगे थे। अपने समय की विडंबनाओं पर सीधे वार करने का साहस उनमें था। नाट्य लेखन के लिए क्षेत्रीय भाषा को चुनकर भी कर्नाड बड़े साहस का परिचय देते हैं। वे अँग्रेज़ी में संप्रभुत्व रखते थे, कोंकणी उनकी मायबोली थी लेकिन लेखन के लिए वे कन्नड़ भाषा चुनते हैं। उनकी शुरूआती पढ़ाई मराठी में हुई। उन्होंने कन्नड़ भाषा तब सीखी, जब परिवार कर्नाटक के धारवाड़ में रहने आ गया। उस वक़्त कर्नाड १४ वर्ष के थे, फिर कन्नड़ उनके दिल के क़रीब की भाषा हो गई। उनके नाटकों की ताकत है कि उनका सभी भाषाओं में अनुवाद होता है और अपने बूते पर वे विस्तार पा जाते हैं।
तुगलक को इतिहास सनकी मानता है लेकिन उसके द्वारा उपजी त्रासदी को कर्नाड जैसे सामने लाते हैं और वह रेखांकित हो जाता है। यह ऐतिहासिक पात्र है लेकिन कर्नाड उसे लिखते हुए ऐतिहासिक दस्तावेज़ से अधिक अभिशप्त पात्र की तरह उकेरने में कामयाब होते हैं। अति आदर्शवादी महत्वाकांक्षा और अति असफल शासक, एक ही किरदार में फिर एक द्वंद्व दिखता है। आदर्शवाद की असफलता और उससे उपजी निराशा - नाटक एक साथ कई स्तरों पर चलता है। स्वयं कर्नाड कहते हैं, "जो बात मुझे तुगलक के संदर्भ में सबसे प्रभावशाली लगी वह यह थी कि कैसे आज के संदर्भों की उसके वृत्तांत से अद्भुत समानताएँ देखने को मिलती हैं। मुझे यह महसूस हुआ कि आज़ादी के बीस वर्षों के बाद अर्थात वर्ष १९६० आते-आते, हम भी कहीं-न-कहीं उसी रास्ते पर बढ़ते हुए आ रहे हैं। बीते हुए २० साल तुगलक के २० वर्षों के ही समानांतर लगते हैं।"
उनके नाटक 'तलेदंड' का राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (रानावि) के पूर्व निर्देशक रामगोपाल बजाज ने हिंदी अनुवाद 'रक्त कल्याण' नाम से किया। रानावि के लिए इब्राहीम अलकाजी और फिर अस्मिता नाट्य संस्था द्वारा अरविंद गौड़ के निर्देशन में वर्ष १९९५ से २००९ तक इसके १५० से ज्यादा मंचन हुए। कर्नाड अपने समय के सवालों से दो-चार होने के लिए मिथक, लोक-कथा और इतिहास का आधार लेते हैं। 'कथासरितसागर' की कथा से प्रेरित उनका नाटक 'हयवदन' भी उस स्त्री की मनोदशा और कश्मकश को दिखाता है जो बुद्धि और ताक़त में से किसका चुनाव करे, तय नहीं कर पाती है। 'बेताल पच्चीसी' से सिरों और धड़ों की अदला-बदली की कथा और थॉमस मान की 'ट्रांसपोज़्ड हैड्स' की आधुनिक कहानी पर खड़ा यह नाटक देवदत्त, पद्मिनी और कपिल का प्रेम त्रिकोण भर नहीं है बल्कि स्त्री मुक्ति, जाति विमर्श को भी लेकर चलता है। 'हयवदन' के उपाख्यान को गणेश वंदना, भागवत, नट, अर्धपटी, अभिनटन, मुखौटे, गुड्डे-गुड़ियों और गीत-संगीत के साथ जिस रोमांचक तरीके से रखा गया है वह कन्नड़ भाषा में ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारतीय रंगमंच के लिए भी नया था। ख़ास बात यह भी रही कि इन नाटकों को इब्राहीम अलकाजी, प्रसन्ना, अरविंद गौड़ और बी०वी० कारंत जैसे कसे हुए निर्देशक भी मिले। 'हयवदन' की ही बात कर लें तो नाटक में मुखौटों आदि का अनूठा प्रयोग उसे लाउड भी बना सकता था और अतिरंजित हो जाने से उसका मर्म कहीं खो सकता था। उसके न खोने की वजह निर्देशकीय कमाल है, जिससे कर्नाड स्त्री के व्यक्तित्व को जिस तरह से रखना चाहते हैं, रंगमंच पर वह उसी तरीक़े से दिखता भी है। उनके नाटकों में पुरुष-प्रधान परिवेश में स्त्री पात्रों का प्रवेश वैचारिक क्रांति के सूत्रपात की तरह होता है। संपूर्णता की तलाश में निकली स्त्री, देह और बुद्धि में उलझती है और जीत बुद्धि की होती है, क्योंकि मनुष्य का विवेक ही उसे मनुष्य बनाता है। ब्राह्मण देवदत्त की बुद्धि पद्मिनी को शांत नहीं कर पाती और उसका आकर्षण लगातार फ़ौलाद-सी काया और पौरुष से लबरेज़ कपिल के प्रति बना रहता है। यह आकर्षण केवल 'हयवदन' की पद्मिनी को ही नहीं, उनके अगले नाटक 'नागमंडल' की रानी और 'बलि' नाटक की जैन राजकुमारी को भी खींचता है। वे कुछ भी कर गुज़रने को तैयार हो जाती हैं और कर्नाड का लेखन उन महिला पात्रों को कटघरे में खड़ा न करते हुए उनके प्रति सहानुभूति जगा जाता है। महिलाओं के प्रति लिखते हुए संवेदनशीलता की वजह उनका अपनी माँ से लगाव भी रहा होगा। बाल-विवाह और बाल-विधवा होने से माँ पर जो गुज़री वे समझ पाएँ होंगे। उनकी माँ नर्स थीं और नर्सिंग की ट्रेनिंग के दौरान डॉक्टर रघुनाथ कर्नाड से उन्हें प्यार हुआ था। बाद में उन्होंने आर्य-समाज मंदिर में शादी की थी।
जाति विमर्श कर्नाड के नाटकों में ऐसे दिखता है कि आकर्षित करने वाले पुरुष-पात्र निम्न वर्ग या ग़ैर-ब्राह्मण होते हैं। स्त्री-पुरुष भेद के साथ जाति भेद भी इन नाटकों में अंतर्निहित दिखता है, जिसे वे तिलिस्म के रूप में रचते हैं। कर्नाड को जादुई दुनिया पसंद आती है, क्योंकि कल्पना में सुंदर और अद्भुत दुनिया का निर्माण किया जा सकता है। जादुई दुनिया के प्रति आकर्षण के चलते गिरीश कर्नाड न केवल लेखन करते हैं बल्कि फ़िल्मों में अभिनय और उनका निर्देशन भी करते हैं, छोटे परदे पर भी अपनी पहचान बनाते हैं।
कन्नड़ फ़िल्म 'वंशवृक्ष' से वे निर्देशन की दुनिया में उतरते हैं और हिंदी फ़िल्म 'उत्सव' के निर्देशन से चर्चित हो जाते हैं। आर. के. नारायण की किताब पर आधारित टीवी सीरियल 'मालगुड़ी डेज़' में उन्होंने स्वामी के पिता की भूमिका निभाई। उसके बाद सन १९९० में विज्ञान पर आधारित एक टीवी कार्यक्रम 'टर्निंग पॉइंट' में उन्होंने होस्ट की भूमिका निभाई जो तब का बेहद लोकप्रिय विज्ञान कार्यक्रम था। उनकी आख़िरी फ़िल्म कन्नड़ भाषा में बनी 'अपना देश' थी। बॉलीवुड की उनकी आख़िरी फ़िल्म 'टाइगर ज़िंदा है' (२०१७) थी, जिसमें उन्होंने डॉ० शेनॉय का किरदार निभाया था। उनकी मशहूर कन्नड़ फ़िल्मों में से 'तब्बालियू मगाने', 'ओंदानोंदु कलादाली', 'चेलुवी', 'कादु' और 'कन्नुड़ु हेगादिती' हैं।
राजनीतिक-सामाजिक आंदोलनों में उनकी सक्रियता अच्छे-बुरे, हर समय में बनी रही। वे नाक में ऑक्सीज़न पाइप लगाकर भी इस काम में जुटे रहे। उनकी वह तस्वीर मीडिया में बहुत आई थी। छोटा-बड़ा परदा, कविता, आंदोलन वे हर विधा में सक्रिय रहे लेकिन नाटक उनके दिल के अधिक क़रीब था। इसकी वजह वे बताते हैं, "नाटक की असली मूल्यवत्ता इस तथ्य में छुपी है कि किस प्रकार से यह किसी-न-किसी स्तर पर अपने समाज के केंद्र में निहित विडंबनाओं और विरोधाभासों को उभार कर लाता है और इसके विषय में बात करता है।" उनके नाटक जैसे इसकी गवाही देते हैं।संदर्भ
नाटक हयवदन, तुगलक
विकीपीडिया
लेखक परिचय
दैनिक भास्कर की पूर्व कला/नगर संवाददाता, वेबदुनिया, जनसत्ता (नईदिल्ली) के लिए लगातार स्तंभ लेखन
जन्म ग्वालियर में, शिक्षा इंदौर में और कार्यक्षेत्र पुणे।
बहुत सुंदर लेख । ऐतिहासिक पात्रों के बारे में और पढ़ने की ललक पैदा हुई है ।
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ आपकी...
Deleteस्वरांगी जी, गिरीश कर्नाड जी पर बहुत रोचक लेख। अहमदनगर में आयोजित मराठी सम्मेलन में उनका मराठी भाषण सुना था। उनकी चर्चित फिल्म स्वामी में बेहतरीन अभिनय देखा है। महाराष्ट्र से उनका विशेष स्नेह साहित्य, नाटक,इतिहास के कारण रहा है। हार्दिक बधाई 💐
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका, मराठी की बोली भाषा उनकी मातृभाषा होने से भी यह लगाव रहा होगा...आपने उन्हें सुना कितने भाग्यशाली हैं आप...
Deleteवाह ! जिन नाटकों के बारे में सिर्फ सुना भर था, उनकी विस्तृत जानकारी इस लेख में मिली और स्व. गिरीश कर्नाड के प्रति आदर भाव द्विगुणित हो गया।
ReplyDeleteधन्यवाद माँ...आपके दिए संस्कारों से ही पढ़ने का भी संस्कार मिला, विरासत मिली...
Deleteस्वरांगी जी, गिरीश कर्नाड जी के विषय में इतनी विस्तृत जानकारी प्रदान करने के लिए आपका धन्यवाद और जिस प्रकार से लिखा गया है वो प्रशंसनीय है।
ReplyDeleteआभारी हूँ आपकी...उनके लिखे के आगे यह सूरज को रोशनी दिखाने जैसा है...
Deleteस्वरांगी जी, खुश कर दिया आपके आलेख ने। नाट्य लेखन पर इतने विस्तार से लिखने के लिए रंगमंच के विद्यार्थियों की ओर से साधुवाद। 💐💐
ReplyDeleteगिरीश कर्नाड बेहद प्रतिभावान व्यक्तित्व थे। बहुत प्रभावशाली भी। हयवदन और तुग़लक़ जैसे नाटकों के अलावा उन्होंने फ़िल्मों और दूरदर्शन पर भी अभिनय और निर्देशन के नायाब जौहर दिखाए। मुझे तो उनका अभिनय और पर्दे पर उनका व्यक्तित्व बहुत अच्छा लगता है। साहित्य, रंगमंच और फ़िल्मों से प्यार करने वाले उन्हें लंबे अरसे तक नहीं भुला पाएँगे। वह जहाँ भी हैं, वहाँ तक यह विचार तरंगें पहुँचें, ऐसी शुभकामना है।
🌹
बहुत धन्यवाद हरप्रीत जी, बहुत आश्चर्य भी होता है कितनी कम उम्र में उन्होंने इतना अच्छा लिखा था...रंगमंच के सभी छात्रों का अभिवादन, रंग देवता को प्रणाम
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteस्वरांगी, गिरीश कर्नाड की कहानी, तुम्हारी क़लम की ज़बानी ख़ूब निखर कर आयी है। भावों की रवानी, कथ्यों की बयानी लाजवाब है। उम्दा जानकारी दस्तयाब कराई तुमने। बहुत बधाई और आभार।
ReplyDeleteवाह प्रगति जी, आपने किस उम्दा भाषा शैली का प्रयोग किया है, आपकी भाषा की मिठास ने आपकी प्रतिक्रिया को आपकी तरह ही सरस बना दिया...धन्यवाद आपका
Deleteस्वरांगी जी नमस्ते। प्रसिद्ध रंगकर्मी गिरीश कर्नाड जी पर आपका लेख बहुत जानकारी भरा है। आपने लेख में उनके जीवन एवं कर्म यात्रा को सुंदर ढँग से समेटा है। आपको इस रोचक लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteबहुत आभारी हूँ दीपक जी...थोड़ी बहुत कोशिश की है बस...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteस्वरांगी जी अत्युत्तम लेख। आपने प्रस्तुत लेख में, गिरीश कर्नाड जी के रंगमंच और फिल्मों से जुड़े व्यक्तित्व और उनके जीवन वृत्तांत को बहुत समग्रता के साथ रेखांकित किया है। उनके नाटकों के बारे में विस्तार से जानने का अवसर मिला। इस प्रवाहमय, जानकारीपूर्ण और रोचक लेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDelete