बहुआयामी व्यक्तित्त्व के सम्राट मेहता लज्जाराम शर्मा का जन्म चैत्र कृष्ण द्वितीया को सन् १८६३ में बून्दी, राजस्थान में हुआ था। उनके पिता का नाम पं. गोपाल राम मेहता एवम् माता का नाम श्रीमती गोमती कँवर था। अनेक भाई-बहनों की मृत्यु के कारण वंश-वृद्धि की अंतिम आशा में उनका जन्म हुआ और उन्होंने वंश की लाज रखी; इसलिए उनका नाम लज्जाराम रखा गया। अपने जन्म के बारे में वह अपनी आत्मकथा ‘आपबीती’ में लिखते हैं- “मैं नौ महीने के स्थान पर ८ महीने अपनी माता के गर्भ में रहा और जीवन-भर के लिए रोगों को साथ लेकर पैदा हुआ हूं।” सात वर्ष की उम्र में उनको प्रारम्भिक शिक्षा के लिये गुरु श्री गंगासहाय के पास भेजा गया। हालांकि स्कूल के अभाव में उनको विधिवत स्कूली शिक्षा नहीं मिली, स्वाध्याय और अपनी लगन से ही उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी और गुजराती आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। पं. गंगासहाय को वह हमेशा अपना गुरु मानते रहे। गुरु गंगासहाय जी की छत्रछाया में वह एक सफल पत्रकार और साहित्यकार बन सके। उन्होंने कुल २३ पुस्तकें लिखी; इनमें १३ उपन्यास हैं। उपन्यासों के साथ ही उन्होंने कहानी, जीवन चरित, इतिहास आदि भी लिखा। उन्होंने स्कूल में अध्यापन का काम भी किया। हिंदी की सेवा करते हुए २९ जून सन् १९३१ को उनका निधन हो गया।
लज्जाराम जी को हिन्दी साहित्य के महत्त्वपूर्ण स्तंभ के रूप में देखा जाता है। उन्होंने उपन्यास के क्षेत्र में सामाजिक समस्याओं पर बल दिया। उन्होंने एक अलग विषय-वस्तु को आधार बना कर हिंदी उपन्यास की नयी इमारत खड़ी कर दी, जबकि तत्कालीन उपन्यासकार जासूसी उपन्यास लिखने में व्यस्त थे। उनके उपन्यास मौलिक थे, जिनमे मानव-मूल्यों को सुन्दरता से दर्शाया गया है। उन्होंने हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के साथ-साथ मध्यम वर्ग की समस्याओं का बखूबी चित्रण किया है। उन्होंने तत्कालीन समाज की जकड़ी हुई अनेक सामाजिक बुराईयों को अपने उपन्यासों के माध्यम से नष्ट करते हुए सामाजिक जागरण को पोषित करने का उपयोगी कार्य किया। उनके सभी उपन्यासों में स्त्री पात्रों का सरल विभाजन तथा एक विशेष दर्जा प्राप्त है। इसके अलावा उनके उपन्यास समाज को सामन्ती जकड़न से बाहर निकालकर मध्यवर्गीय परिवारों की ओर केन्द्रित करने का कार्य बखूबी करते हैं। अपनी आत्मकथा ‘आपबीती’ में वह लिखते हैं कि- “नाटक या उपन्यास जिस समय लिखा जाए, उसमें तत्कालीन समाज का वास्तविक चित्रण होना चाहिए। इनमें पाठकों का मनोरंजन अवश्य हो, लेकिन उसके साथ पात्रों को समाज का सच्चा मित्र भी बताया जाए। सामाजिक भलाई की वृद्धि और बुराई की कमी वाला कथानक विकसित किया जाए।” उनके उपन्यास इसी विचार पर केंद्रित होते थे, चाहे उनका पहला उपन्यास ‘धूर्त रसिकलाल’ हो या फिर अन्तिम ‘विपत्ति की कसौटी’। हालांकि उनके उपन्यासों में मनोरंजन की कमी महसूस होती है। स्वयं लज्जाराम जी यह मानते थे कि उनके उपन्यासों में मनोरंजन का अभाव तथा उपदेशों की अधिकता ही रही है। विपत्ति की कसौटी, आदर्श हिन्दू और जुझार तेजा लिखते समय उन्होंने इस कमी को दूर करने और पाठकों के मनोरंजन का भरपूर खयाल रखा। धूर्त रसिकलाल सामाजिक जागरण की दृष्टि, सुधारवादी और तत्कालीन समाज के प्रति यथार्थवादी उपन्यास है। धूर्त रसिकलाल के मुख्य पात्र सोहनलाल के सुधरने के साथ-साथ बहुत-सी सामाजिक बुराइयाँ समाप्त हो जाती हैं। समाज में शिक्षा और संस्कृति के प्रति एक नयी रुचि पैदा होती है। हिन्दू आदर्शवाद की यह मजबूत पकड़ अन्य किसी हिन्दी उपन्यासकार की पहली रचना में नहीं मिलता है। धूर्त रसिकलाल और उसके बाद के सात उपन्यासों को सनातन धर्म के भीतर सामाजिक जागृति आंदोलन के महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों के रूप में देखा जा सकता है। इन उपन्यासों का उद्देश्य लोगों को सनातन धर्म की शास्त्रीय मान्यताओं के प्रति जागृत करना है। लज्जाराम शर्मा सनातन धर्म के प्रबल समर्थक और सामाजिक चेतना को बढ़ावा देने वाले साहित्यकार भी थे। उनका साहित्य आर्यसमाज का विरोध करता था, लेकिन साथ ही साथ ब्रिटिश हुकूमत के अन्याय के प्रति तीव्र आक्रोश भी व्यक्त करता था। उनका मानना था क़ि समाज में जीवन-मूल्यों को सुधारने का तरीका पारिवारिक मूल्यों को स्थापित करने से मिलेगा। उनके उपन्यासों में परिवार, समाज और अपने परिवार की संरचना के बारे में उदाहरण मिलते हैं।
महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ के जुलाई १९०६ के अंक ७ में लज्जाराम जी के उपन्यास ‘आदर्श दम्पत्ति’ के विषय में लिखा- ‘‘उपन्यास समाज का चित्र है... पाठकों के चरित्र सुधरे और वे दुराचारों से छूटकर सदाचार में प्रवृत्त हों।’’ यद्यपि वे दृढ सनातनी रहते हुए आर्यसमाज के सुधार कार्यक्रमों को अपने उपन्यासों के माध्यम से विरोध करते प्रतीत होते हैं, किन्तु सामाजिक जागरण के अनेक आयाम उनके उपन्यास-साहित्य में मुखरित हुए हैं। ‘सुशीला विधवा’ उपन्यास नारी-शिक्षा विषयक उपदेशपूर्ण सामाजिक उपन्यास है। यह विधवा अपने पुनर्विवाह का विरोध करती हुई, अपना वैधव्य नहीं छोडती है; और ब्रह्मचर्य का पालन करके सद्गति प्राप्त करती है। ‘बिगड़े का सुधार’ उपन्यास में एक दुराचारी पति को पत्नी के माध्यम से सदाचारी बनाने का चित्रण किया गया है, जो उनका स्त्री के प्रति सम्मान भी दर्शाता है। लज्जाराम जी को एक निडर और स्पष्टवादी रूप में देखा जा सकता है। वह अनुभवों को एक अमूल्य निधि मानते थे। उन्होंने लिखा है- “लाखों-करोड़ों का खजाना नष्ट-भ्रष्ट होकर राजा से रंक हो सकता है, किन्तु अनुभव की धरोहर अगर लिपिबद्ध कर ली जाये तो वह अटल, अविचल और वर्द्धमान संपत्ति है।” हालांकि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल; लज्जाराम शर्मा जी को उपन्यासकार के रूप में कम तथा पत्रकार के रूप में ज्यादा स्वीकार करते थे।
लज्जाराम शर्मा जी को आधुनिक राजस्थान का प्रथम पत्रकार भी कहा जाता है। उन्होंने बून्दी से ‘सर्वहित’ नामक पत्र का प्रकाशन किया, जो राजस्थान और तत्कालीन राजपूताना से प्रकाशित होने वाला पहला हिंदी साहित्यिक पत्र था। अपनी सम्पादकीय टिप्पणियों, देश-विदेश के समाचार, कविताएँ, उपन्यास, विज्ञापन, पुस्तक समीक्षाएँ और तत्कालीन समस्याओं के विश्लेषण से उन्होंने ‘सर्वहित’ पत्रिका को एक सम्पूर्ण पत्र का दर्जा दिलाया, जो बाद में हाडौती क्षेत्र की पत्र-पत्रिकाओं का पथ-प्रदर्शक बना। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘आपबीती’ में सर्वहित के प्रकाशन एवम् सम्पादन की चर्चा इस प्रकार की है- बात यह हुई कि मुझे हिन्दी समाचार पत्रों को पढने का शौक था। कभी-कभी जिन लेखों को मैं अच्छा समझता, उन्हें पण्डितजी महाराज को सुनाया करता था। सुनते-सुनते उनकी इच्छा हुई कि बून्दी से भी कोई पत्र प्रकाशित किया जाय, ताकि अच्छे-अच्छे चुने हुए लेखों के साथ दुनिया भर के संक्षिप्त समाचार पढने को एक ही पत्र में बून्दीवालों को मिल जाए और इस तरह अनायास यहाँ की जनता की रुचि हिन्दी पढने की ओर प्रवृत्त हो। मुझे भी इतना लोभ था कि हिन्दी लिखने का अभ्यास बढेगा और बदले में आने वाले पत्र मुफ्त में पढने को मिलेंगे। मैंने यह बात गुरुजी को सुनायी। उन्होंने श्रीमान् से निवेदन किया और पाठशाला के खर्च में से गुंजाइश निकालकर ‘सर्वहित’ नाम का पाक्षिक पत्र जारी किया गया। आरम्भ के तो अंकों का सम्पादन पण्डितजी महाराज के ज्येष्ठ पुत्र और मेरे मित्र पण्डित रामप्रताप जी ने किया। लज्जाराम जी बिना किसी अतिरिक्त मानदेय के पत्र का सम्पादन करते रहे, जबकि तत्कालीन दीवान बोहरा मेघवाहन जी ने पांच रुपये की वेतन वृद्धि का वादा किया था। ‘सर्वहित’ में राजनीतिक और बूँदी की भली-बुरी ख़बरों के लिए कोई जगह नहीं थी। पत्र के ग्राहक बढ़ने लगे और पत्र का मूल्य राज्य में दस आना तथा डाक द्वारा मँगवाने पर १ रुपया था। उन्होंने चार वर्षों तक ‘सर्वहित’ का सम्पादन किया, किन्तु राज्य के दीवान से मन-मुटाव होने के कारण और अपने स्वाभिमान को सर्वोपरि रखते हुए उन्होंने सन १८९५ में पत्र के संपादक पद से और अपनी सोलह वर्षो की राजकीय नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। ‘आपबीती’ में इस घटनाक्रम का उल्लेख करते हुए वह लिखते हैं- “उस समय की तंगहाली में स्वतन्त्र पत्रकारिता तो सम्भव नहीं थी, लेकिन वैचारिक आजादी और आत्म-स्वाभिमान गवाये बिना यदि कहीं काम चल सकता था तो मुझे कोई आपत्ति नहीं थी।” दीवान से बहस करते वक्त उनकी जेब में त्यागपत्र था। अन्ततः त्यागपत्र देकर कुछ दिनों तक उन्होंने एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य किया और अंततः पत्रकारिता के क्षेत्र में नये आयाम स्थापित करने मुम्बई चले गये। नवम्बर १८९६ में उनको चूरू, मुंबई के सेठ खेमराज जी के ‘श्री वैंकटेश्वर समाचार’ में सह-सम्पादक का काम मिल गया। यहाँ उन्होंने कठोर परिश्रम किया और ‘श्री वैंकटेश्वर समाचार’ को ऊचाइयों तक पहुंचाया। लज्जाराम शर्मा जी के सम्पादकत्व में समाचार पत्र की प्रतिष्ठा में बड़ी वृद्धि हुई। मराठी और गुजराती के पत्र इसकी रचनाओं का अनुवाद अपने पत्रों में प्रकाशित करते थे। उनकी पारखी सम्पादकीय दृष्टि के कारण समाचार पत्र की प्रसार संख्या में भी वृद्धि हुई, जो कि हिंदी के तत्कालीन लोकप्रिय समाचार पत्रों ‘हिन्दी बंगवासी’ और ‘भारत मित्र’ से कहीं अधिक थी। पत्र के प्रधान सम्पादक का कार्य सम्भालते समय वे नारू रोग से पीडित थे। ‘आपबीती’ में अपनी दिनचर्या के बारे में वह लिखते हैं- “मैं अकेला आदमी, हाथ से रोटी बनाना और एक ओर पैर में नहरुए पर दवा बन्धवाकर गर्म ईंट का घण्टों तक सेक करवाना और दूसरी तरफ समाचार पत्र के लिए निरन्तर लिखते रहना, यही उस समय मेरी दिनचर्या थी।” प्रेस में काम करते हुए उन्होंने कई उपन्यास लिखे, उनके उपन्यास इतने प्रख्यात हुए कि नागरी प्रचारणी सभा के श्यामसुंदर दास को उनके उपन्यास को वहाँ से बनारस मँगवाना पड़ा।
पत्रकारिता में उन्होंने नैतिक-मूल्यों के साथ कभी समझौता नहीं किया, साथ ही बहु-सम्प्रेषणीयता का आयाम स्थापित किया; जो वर्तमान पत्रकारिता के लिए एक उदहारण है। उन्होंने उस समय के दो उपन्यास ‘अश्रुमती’ और ‘एक था चित्तौड़ चाँद’ (जिसमें इतिहास पर अश्लील टिप्पणियां लिखी गयी थी) के विरोध में एक आंदोलन छेड़ा, जिसके फलस्वरूप उन उपन्यासों की सभी प्रतियों को बनारस में गंगा में बहाना पड़ा। लज्जाराम एक प्रबुद्ध पत्रकार के साथ-साथ एक महान इतिहासकार भी थे। अपने बून्दी प्रवास के समय उन्होंने बून्दी के इतिहास लेखन में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
हिन्दी की प्रतिष्ठा और लोकप्रियता की लड़ाई में भारतेन्दु के अधूरे काम में लज्जाराम शर्मा जी सरीखे लेखकों के चलते तेजी आयी। उन्होंने न केवल हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए पुरजोर आन्दोलन चलाया, बल्कि हिन्दी गद्य को सरल, सुबोध एवम् वर्णनात्मक बनाने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ऋतुराज जी लिखते हैं- “वे विषय के अनुसार अपने हिन्दी गद्य को आसानी से ढाल लेते हैं। उपदेश देंगे तो आर्यसमाजी वक्तृता को धूल चटा देंगे, पाठक से सीधे बात करेंगे तो जैसे परिवार का कोई निकटस्थ बुजुर्ग बोल रहा हो, भावात्मकता में बहेंगे तो लगेगा खुद रोने लगे हैं, दाम्पत्य-सुख का चित्रण करेंगे तो मर्यादा कभी नहीं छोड़ेंगे, व्यंग्य में लक्षणा, व्यंजना का भरपूर प्रयोग करेंगे और परिवेश का चित्रण करने लगेंगे तो जैसे कोई जन्मजात घुमक्कड़ हों।” उनका मानना था कि परभाषा में उच्चकोटि का विद्वान होने पर भी जो मातृभाषा में अपने हृदयगत भावों को प्रकाशित करने में असमर्थ है, उसका जीवन ही वृथा है। एक अन्य लेख में मेहता जी लिखते हैं कि बड़े परिश्रम से उपार्जित परभाषा का पाण्डित्य अभ्यास के अभाव से सहज में ही नष्ट हो जाता है, किन्तु मातृभाषा का नहीं। गुजराती भाषी होने के बावजूद वह जीवन-पर्यन्त हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में लगे रहे। उनका हिंदी के प्रति समर्पण और विश्वास अटल था। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए उन्होंने मुंबई में कई सभाएँ की और लेख लिखे। उनका मानना था कि- “एक-न-एक दिन पूरे भारत में हिंदी का डंका बजेगा, प्रांतीय भाषाएँ हिंदी की आरती उतारेंगी, बहन उर्दू इसकी बलैया लेगी तथा अंग्रेजी हतप्रभ होकर हिंदी के गले में फूलों की माला पहनाएगी।”
संदर्भ:-
मेहता लज्जा राम शर्मा भारतकोश
हिंदी साहित्य के परम पुरुष बून्दी निवासी श्री लज्जाराम शर्मा (१८६३-१९३१)
लेखक परिचय
डॉ. नीरू जी नमस्ते। 'एक-न-एक दिन पूरे भारत में हिंदी का डंका बजेगा' इस विश्वास के साथ जीने वाले साहित्यकार एवं पत्रकार लज्जाराम शर्मा जी पर आपने बहुत अच्छा लेख लिखा है। आपके लेख के माध्यम से उनके हिंदी प्रेम एवं हिंदी के लिए योगदान को विस्तृत रूप में जाना जा सकता है। आपको इस जानकारी भरे रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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