Saturday, October 22, 2022

अंबिकादत्त व्यास : आधुनिक संस्कृताचार्य

उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्ध, भारत अंग्रेज़ी शासन की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, जनमानस का चित्त बिखरा हुआ था और पहला दशक पूरा होने में केवल दो वर्ष बाकी थे। जयपुर से लगभग ११ मील दूर बसे मानपुर गाँव में श्री दुर्गादत्त व्यास के घर एक बालक ने जन्म लिया। नवरात्रि अष्टमी के दिन जन्म लेने के कारण नाम दिया गया 'अंबिकादत्त'। सज्जन दुर्गादत्त व्यास एक कथावाचक थे और उनके पिता पंडित राजाराम एक शास्त्राचार्य। पराशर गोत्रीय इस ब्राह्मण परिवार ने विद्याध्ययन और आजीविका अर्जित करने के लिए काशी नगरी को चुना। हालाँकि पैतृक स्थान से संबंध बना रहा, किंतु पारिवारिक परंपरा के अनुसार बालक अंबिकादत्त भी काशी चले गए। 

जब ग्वाल कवि के शिष्य खंग कवि काशी पधारे और भारतेंदु के दरबार में "सूरज देखि सकै नहि घुग्घू" - यह समस्या पूर्ति के लिए दी गई तो वहाँ पिता के साथ उपस्थित बालक अंबिका ने तुरंत सुंदर तरीके से उसकी पूर्ति कर दी।

इस घटना ने वहाँ मौजूद कवि समुदाय को चौंकाया ज़रूर लेकिन उनके मन में एक संशय अभी भी बना रहा कि एक दस वर्ष का बालक भी कविता कर सकता है। माना जाता रहा कि ये रचनाएँ समकालीन कवि मंडल में दत्त उपनाम से काव्य रचना करने वाले उनके पिता दुर्गादत्त की हैं।

११ वर्ष की अवस्था में उनकी काव्य परीक्षा ली गई और "मूँदि गई आँखे तब लाखैं कौन काम की" समस्या पूर्ति के लिए दी गई। तब उन्होंने पुनः तत्काल ही एक सुंदर कवित्त बनाकर सुना दिया। भारतेंदु ने 'कविवचन सुधा' में इनकी कविता को इस संपादकीय टिपण्णी के साथ प्रकाशित किया, "इस विलक्षण बालक की बुद्धि विलक्षण ही है और अवस्था इसकी केवल तेरह वर्ष की है। हम इसके और समाचार भी लिखेंगे।" 

इस तरह सृजन क्षेत्र में प्रवेश करने वाले बालक अंबिकादत्त अपने पिता के सान्निध्य में संस्कृत व कविता का अभ्यास करते रहे। १२ वर्ष की आयु में ही उन्होंने सरस्वती मंत्र, अष्टावधान और अपने ज्ञान कौशल से काशी के रसिक मंडलों को विस्मित कर दिया। 

संस्कृत के गंभीर अध्ययन ने इन्हें २२ वर्ष की आयु में ही 'साहित्याचार्य' की उपाधि दिला दी।

भारतेंदु तो इनकी प्रतिभा पर ऐसे रिझे कि उन्होंने 'काशी कविता वर्धिनी सभा' में इन्हें 'सुकवि' की उपाधि से विभूषित किया। अंबिकादत्त भी भारतेंदु के कार्यों से विशेष प्रभावित थे। हिंदी साहित्य के ये जागृति पुरुष अंबिकादत्त के जीवन में एक अभिन्न मित्र, सहायक, पथप्रदर्शक और शुभचिंतक के स्थान पर विराजमान थे।

विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं का ज्ञान रखने वाले अंबिकादत्त ब्रजभाषा में सशक्त रचनाएँ करते थे। पुराने चले आ रहे काव्य छंदों द्वारा सहज अभिव्यक्ति के साथ ही वे नवीन शैलियों का भी प्रयोग कर रहे थे। उनके बारे में कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, कहा जाता है कि वे एक घंटे में सौ श्लोक लिख सकते थे। इस कारण उन्हें घटिकाशतक कहा गया। उनमें १०० प्रश्नों को एक साथ सुनकर उन सभी का उत्तर उसी क्रम में देने की अद्भुत क्षमता थी। इससे उन्हें शतावधान भी कहा गया। 

समसामयिक विषयों पर अभिव्यक्ति के माध्यम से उन्होंने गद्य क्षेत्र में प्रवेश किया। संस्कृत में लिखा गया उनका उपन्यास 'शिवराज विजय' वीररस प्रधान होने के साथ ही जातीय गौरव की भावना से अनुप्राणित है। यह उनकी सशक्त व ओजगुण संपन्न लेखनी का पूर्ण परिचय देता है। 

शिवराज विजय का प्रारंभ सूर्योदय दर्शन से हुआ है। यह दर्शाता है कि वीर शिवाजी को अपना आदर्श मानने वाले अंबिकादत्त देश, धर्म और जाति की रक्षा हेतु आशान्वित थे। महाराज शिवाजी की ऐतिहासिक कथा को लेकर रची गई इस कृति में रघुवीर-सौवर्णी की एक अन्य कथा भी सामानांतर चलती हैं, जो इसके काल्पनिक पक्ष को सुसज्जित करती है। 

यह उपन्यास सांस्कृतिक पुनर्जागरण के तत्त्वों को समाहित किए हुए है। स्पष्ट है कि सन सत्तावन की क्रांति के समय अंबिकादत्त अपनी माता के गर्भ में रहे होंगे। माना जाता है कि उनकी रचनाओं में प्रज्ज्वलित होती देशप्रेम और वीरता की ज्योति का पाठ उन्होंने भ्रूणावस्था में ही पढ़ लिया था। शिवराज विजय का सौष्ठव प्रमाण है कि उन्हें भगवती दुर्गा और देवी सरस्वती दोनों का ही आशीर्वाद प्राप्त था।

संस्कृत साहित्य में रची गई इस नवीन विधा 'उपन्यास' का शास्त्रीय विवेचन भी वे अपनी मौलिक कृति 'गद्य काव्य मीमांसा' में करते हैं। 

डॉ० कृष्ण कुमार कहते हैं, "व्यास जी की रचनाओं में एक ओर जहाँ जीवन के विविध पक्षों का उल्लास है, वहीं दूसरी ओर देश, जाति और धर्म की दुरावस्था के प्रति गहन पीड़ा की अभिव्यक्ति होकर स्वातंत्र्य की भावनाओं को उद्दीप्त करने का उद्बोधन भी है।"

संभवतः अंबिकादत्त आश्वस्त थे कि राजपुताना के क्षत्रीय वीरों की धमनियों में शौर्य से उद्दीप्त रुधिर का प्रवाह अभी भी है, जो इस देश को स्वतंत्र करवाकर विश्व का मुकुट बनाने का सामर्थ्य रखता है। 'शिवराज विजय' में उन्होंने शिवाजी के सहायकों के रूप में राजपूत क्षत्रिय वीरों के पात्र कल्पित किए हैं। इतिहास का सम्मान करते हुए कुछ मराठा वीर भी निहित किए हैं परंतु उनकी भूमिका कम ही है। इसका एक कारण अंबिकादत्त की वह मान्यता हो सकती है जो कहती है कि आर्य जाति और हिंदुओं के पतन व पराजय का एकमात्र कारण उनमें एकता का अभाव है। यदि सभी आर्यजन मिलकर रहते, शत्रुओं का मिलकर सामना करते तो इतिहास कुछ और ही होता।

वाराणसी नगरी में वे मानपुर मोहल्ले में गंगा के तट पर ही रहते थे। जहाँ से काशी-विश्वनाथ का मंदिर समीप ही है। वहाँ उन्होंने मंदिरों की मनोविदारक दशा का वास्तविक अनुभव किया, जिसका वर्णन वे अपनी रचनाओं में करते हैं। 

'गो संकट' नाटक में वे लिखते हैं, "मुसलमान केवल हिंदुओं को चिढ़ाने के लिए गोवध करते हैं। गौओं की अति उपयोगिता है। गौ का वध करना केवल उसी का प्राण लेना नहीं है, अपितु सब भारत वासियों के प्राण लेने का उपक्रम करना है।"

अंबिकादत्त मुगलों की धर्म के प्रति बर्बरतापूर्ण नीति के घोर विरोधी थे। अंग्रेज़ी हुकुमत की सुचारु व्यवस्था ने उनके मन में कुछ अनुरक्ति पैदा की और उन्होंने महारानी विक्टोरिया की जयंती के उपलक्ष्य में 'पुष्पवर्षा' की रचना की, जिसमें महारानी के संक्षिप्त जीवन वृतांत के साथ-साथ ब्रिटिश राज्य विस्तार का परिचय भी दिया।

हिंदी भाषा में लिखा गया उनका नाटक 'भारत सौभाग्य' इसी विषय पर एक अनुपम कृति है। यह एक भावात्मक रूपक है, जिसमें श्री कृष्ण मिश्र रचित प्रबोध-चंद्रोदय नाटक की भांति अमूर्त पात्र मूर्त रूप में चित्रित किए गए हैं। पुरुष पात्रों में भारत-सौभाग्य, विषय भोग, भारत दुर्भाग्य, प्रताप व उत्साह जैसे भाव हैं तो स्त्री पात्रों में मुर्खता, फूट, शिक्षा, एकता, दया, उदारता आदि भावनाएँ है।

यह नाटक भी विक्टोरिया जयंती के उपलक्ष्य में सन १८८६ में लिखा गया था। यह अंग्रेजी शासन की प्रशंसा करता हुआ पूर्व मुगल शासकों की निंदापरक व्यंजना प्रस्तुत करता है।

अंग्रेज़ों के प्रति प्रशंसा के भाव व्यक्त करने से अंबिकादत्त का तात्पर्य उनका अंधभक्त हो जाना कदापि नहीं था। उनके विचारों की गहनता ने स्पष्ट रूप से कहा कि हमारे वैदिक धर्म को जानबूझकर बाहर से आए आततायियों द्वारा नष्ट किया गया। ज्ञात हो कि कुछ समय पहले ही उनके मित्र भारतेंदु भी 'भारत दुर्दशा' की रचना कर रहे थे।

'आश्चर्य वृतांत' उनकी गद्य शैली का एक अन्य उत्कृष्ट नमूना है जिसकी भाषा में जीवंतता, जिज्ञासा, रोचकता और हास्य-व्यंग्य की छटा है। इस पुस्तक के बारे में बलदेव प्रसाद मिश्र लिखते हैं, "व्यासजी उस संस्कृत साहित्य के मार्मिक विद्वान थे जिसमें हास्य-रस का अभाव ही कहना चाहिए और जिसमें हास्य के आलंबन प्रायः पेटु मोदकप्रिय विदुषक ही पाए जाते हैं। लेकिन उन्होंने इस छोटी-सी पुस्तक में शिष्ट हास्य-व्यंग्य के अनेक प्रसंग उपस्थित किए हैं, जो पाठक को गुदगुदा देते हैं।"

अंबिकादत्त ने अपनी छोटी सी आयु में ८० से अधिक रचनाओं का सृजन किया जिनमें से केवल ५२ ही उपलब्ध हैं। उनकी काव्य रचना 'बिहारी बिहार' बिहारी सतसई पर एक कुंडलिमया ग्रंथ है। हिंदी भाषा की रचना 'चतुरंग चातुरी' उनका शतरंज प्रेम उद्घाटित करती है। शतरंज के प्राचीन नाम चतुरंग से वे इसके प्राचीन इतिहास का वर्णन करते हैं। यहाँ जो शतरंज फलक की बनावट, खेलने की विधियाँ, मात करने के तरीकों आदि का विस्तृत वर्णन है, वह अद्भुत है।

संस्कृत का 'द्रव्य स्तोत्र' और हिंदी का 'पड़े-पड़े पत्थर' अपूर्ण रचनाओं के शीर्षक भी हास्य और व्यंग्य से जुड़े हैं। 'तास कौतुक पचीसी' व 'महातास कौतुक पचासा' ताश के विभिन्न जादुई करतबों से जुड़ी हिंदी भाषा की रचनाएँ हैं।

संस्कृत के 'कुंडली दीपक' और 'समस्यापूर्ति सर्वस्व' अन्य व्यक्तियों को भी समस्यापूर्ति का व कविताओं की रचना का ज्ञान व अभ्यास करवाने हेतु लिखे गए। दोनों ही अनुपलब्ध है।

अंबिकादत्त की पत्रकारिता उनके संस्कृति, धर्म, भाषा और भाव संबंधी विचारों का उपदेश देती है। उनके निबंधों में अभिव्यक्ति की निजता है, भारतीय हितों को साधते वाण हैं, कहीं विषय प्रधान तो कहीं विषयी प्रधान घटक हैं। मानव जीवन के सभी पक्षों को स्पर्श करती उनकी लेखनी से उपजा गद्य एक ऐसा मार्ग अपनाता है जो सहज है, आत्मीय है, जीवंत है। वहाँ चित्रात्मकता है लेकिन जटिलता नहीं। काव्यात्मकता है लेकिन अलंकारों का भटकाव नहीं। संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग है लेकिन अभिव्यक्ति की उलझनें नहीं।

डॉ० शिवसागर त्रिपाठी कहते हैं, "प्राचीन समीक्षकों ने कवियों में जो स्थान कालिदास को प्रदान किया है, वही स्थान आधुनिक साहित्य के प्रणेताओं में पंडित अंबिकादत्त व्यास का है।"

संस्कृत के अनन्य विद्वान अंबिकादत्त, बच्चों को संस्कृत कैसे सिखाई जाए, इस हेतु भी सृजन का श्रम करते हैं। अंग्रेज़ी भाषा से संस्कृत का अभ्यास कराने के लिए अंग्रेज़ी कंपोज़िशन बुक्स के तरीकों पर वे दो भागों में 'संस्कृत अभ्यास पुस्तकम्रत्नाष्टक' की सृष्टि करते हैं। संस्कृत व्याकरण का प्रारंभिक ज्ञान करवाने हेतु वे 'बाल व्याकरण' रचते हैं। 'कथा-कुसुमम्' के नाम से उन्होंने पच्चीस छोटी-छोटी शिक्षाप्रद कहानियों का संकलन तैयार किया है। 'संस्कृत संजीवन पुस्तक' में संस्कृत भाषा की आवश्यकता और उपयोगिता के लिए दिए गए उनके व्याख्यान संकलित हैं। संस्कृत भाषा में अशुद्धियों का परिमार्जन कैसे हो, इसका प्रौढ़ निदर्शन उनकी कृति 'गुप्ताशुद्धिप्रदर्शनम्' में है।

इन सबके अतिरिक्त वे अभिज्ञानशाकुंतलम्, वेणीसंहार, तर्क संग्रह व सांख्यकारिका जैसे ग्रंथों का अनुवाद कर एक सफल अनुवादक की श्रेणी में भी अपना स्थान सुरक्षित कर लेते हैं। इस प्रकार उन्होंने गुणात्मक और संख्यात्मक दोनों दृष्टियों से प्रचुर साहित्य रचना की है।

अंबिकादत्त मानते थे कि व्यक्ति केवल दृश्यमान भौतिक शरीर या वेशभूषा आदि का ही द्योतक नहीं होता, उसके निर्माण में अनेक आंतरिक तत्वों की भी विशेष भूमिका होती है। उसके विचार, कार्यकलाप, व्यवहार, सृजन आदि उसके व्यक्तित्व को पूर्णता देते हैं। अस्थायी बाह्य व्यक्तित्व को आत्मवृत्त के रूप में सुरक्षित रखने की परंपरा भी हमारी न थी। संस्कृत रचनाकारों ने इसके प्रति अनास्था रखी और इसे आत्मश्लाघा मानकर अपने जन्मस्थान, काल आदि के विषय में संकेत नहीं दिया। परंतु व्यास जी इस दृष्टि से अपवाद हैं। उनके व्यक्तित्व का पक्ष विस्तृत रूप में उनकी कृति 'निजवृतांत' में सुरक्षित है।

घुड़सवारी में रुचि रखने वाले अंबिकादत्त साहित्य की रचना के साथ ही शारीरिक बल के विकास और शस्त्रों के संचालन की दक्षता को भी विशेष महत्त्व देते थे।

आधुनिक संस्कृत साहित्य के प्रवर्तक अंबिकादत्त ज्योतिष, संगीत, वैद्य विद्या, गणित, इतिहास, सांगवेद, पुराण, सांख्य, तर्क, दर्शन, व्याकरण, रत्नविज्ञान आदि के विस्तृत अध्येता थे। उन्होंने हिंदी-उर्दू विवाद में हिदी का डटकर समर्थन किया। उनका हिंदी प्रेमी मन उर्दु शब्दों को कभी अपना न सका। अपनी रचनाओं में उन्होंने देशी भाषा और देशी ज़मीन से उपजे मुहावरों को प्रवेश दिया। स्वस्थ चित्त के सृजनधर्मी अंबिकादत्त ने साहित्य में अधुनातन प्रवृत्ति की ओर अंधी दौड़ नहीं लगाई।

वर्ष १९०० में मार्गशीर्ष कृष्ण त्रयोदशी के दिन ९ वर्ष के पुत्र और एक कन्या को पीछे छोड़ उन्होंने परम गति प्राप्त की।

अंबिकादत्त व्यास : जीवन परिचय

जन्म

चैत्र शुक्ल अष्टमी, १८५८

निधन

१९ नवंबर १९००

पिता

पंडित दुर्गादत्त व्यास

कार्यक्षेत्र

अध्यापन

  • मधुबनी, दरभंगा संस्कृत पाठशाला 

  • १८८६ में मुज्जफरपुर संस्कृत विद्यालय

  • १८८७ में भागलपुर जिला स्कूल

  • १८९६ में छपरा जिला स्कूल

  • जीवन के अंतिम वर्ष १८९९ में पटना कॉलेज में प्रोफेसर

साहित्यिक रचनाएँ

काव्य

  • शतावधानी

  • पावस पचासा

  • सुकवि सतसई

  • श्रीकृष्ण की बाललीला पर सात सौ दोहे

  • आनंद मंजरी

  • गणेश शतक

  • ताश कौतुक पचीसी

  • समस्यापूर्ति सर्वस्व

  • महाताशकौतुक पचासा

  • बिहारी बिहार

  • रसीली कजरी

  • चतुरंग चातुरी

  • हो-हो होली

  • झूलन झूमका

  • सहस्रनाम रामायण

नाटक

  • गो संकट

  • ललिता नाटक

  • समवेत नाटक (संस्कृत)

गद्य

व्याकरण धर्म आख्यान संबंधी

  • अवतार मीमांसा

  • धर्म की धूम

  • मूर्तिपूजा

  • विभक्ति विलास

  • भाषा ऋतु पाठ

  • गद्य काव्य मीमांसा

  • छंद प्रबंध

  • सांख्य तरंगिणी

  • तर्क संग्रह

व्यंग्य और कला की दृष्टि से चर्चित 

  • अति सर्वत्र वर्जयेत

  • तारों की सजावट

  • ग्राम निवास और नगर निवास

भाषाशास्त्रीय दृष्टि से प्रसिद्ध 

  • औ और और

कहानी

  • आश्चर्य-वृतांत

संपादन

  • पीयूष प्रवाह (पत्र)

  • वैष्णव पत्रिका

  • सारन सरोज मासिक पत्रिका

संदर्भ

  • पंडित अंबिकादत्त व्यास : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
  • बिहारी बिहार : अंबिकादत्त व्यास

लेखक परिचय

सृष्टि भार्गव

हिंदी विद्यार्थी

ईमेल - kavyasrishtibhargava@gmail.com


3 comments:

  1. सृष्टि, अपनी विद्वत्ता से बचपन से ही सबको रिझाने और हतप्रभ कर देने वाले प्रकांड विद्वान् अम्बिकादत्त व्यास पर एक सुंदर और ज्ञानवर्धक आलेख पटल पर लाने के लिए तुम्हें बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद। हिंदी के प्रति तुम्हारा समर्पण बहुत प्रशंसनीय है।

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  2. सृष्टि जी नमस्ते। वाह! एक के बाद एक बेहतरीन लेख आप लिख रही हैं। हार्दिक बधाई एवं साधुवाद आपको। आपने छंद प्रबंध, अवतार मीमांसा, सहस्रनाम रामायण जैसी कृतियों के रचयिता अंबिकादत्त व्यास जी पर बहुत अच्छा एवं विस्तृत लेख लिखा है। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  3. इस आलेख में अंबिकादत्त व्यास जी के कामों और सोच के बारे में पढ़कर उनकी विलक्षणता और साहित्य-प्रेम के बारे में अच्छी जानकारी मिली।
    सृष्टि, साथ ही कम समय में उत्तम आलेख लिखने की तुम्हारी विलक्षण प्रतिभा और हिंदी के प्रति तुम्हारे समर्पण के तथ्य की एक बार और पुष्टि हुई।
    इस सुंदर आलेख के लिए सधन्यवाद बधाई।

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