यह क्या कहा कि दाग़ को पहचानते नहीं
वह एक ही तो शख़्स है, तुम जानते नहीं?
हर इश्क़ करने वाले की जुबाँ पर जिनके अशआर आज भी सजते हैं, उन दाग़ देहलवी को इश्क़ का मसीहा न कहें तो और क्या कहें? महफ़िलें जिनकी ग़ज़लों से आज भी गुलफ़ाम होती हैं, उन दाग़ देहलवी से लोग इश्क न करें, तो और क्या करें?
कोई नाम-ओ-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना
तख़ल्लुस 'दाग़' है वो आशिक़ों के दिल में रहते हैं
जी हाँ, आशिकों के दिल में बसने वाले दाग़ देहलवी हिंदुस्तान की वो पहचान हैं, जिनके शेरों के बिना हर प्रेम-कहानी अधूरी है। स्वर्गीय जगजीत सिंह ने उनके अशआर को अपनी आवाज़ देकर हर घर में पहुँचाया है। आज शायद ही कोई हो जिसने दाग़ के शेर न सुने हों, न गुनगुनाए हों। दाग़ साहब इस लिहाज़ से भी दिलचस्प हैं कि दुनिया के इतिहास में वे शायद पहले ऐसे शायर हुए, जिनके शागिर्दों की संख्या पाँच हज़ार तक पहुँची। उनके आधिकारिक शागिर्दों की सूची में भी दो हज़ार नाम शामिल हैं। तो क्यों न आज दाग़ के अशआर में डूबकर उन्हें क़रीब से जानने की कोशिश करें!
पैदाइश और बचपन
दाग़ मुग़ल काल के आख़िरी सालों की पैदाइश हैं जिन्होंने तख़्तापलट और उससे जुड़ी तबाही को बहुत नज़दीक से देखा और जिया है। उनका जन्म २५ मई १८३१ में दिल्ली के चाँदनी चौक की एक गली में हुआ था। आज वह गली कूचा-ए-उस्ताद दाग़ (दाग़ की गली) के नाम से मशहूर है। दाग़ का पैदाइशी नाम इब्राहिम था लेकिन लाल क़िले में उन्हें नवाब मिर्ज़ा ख़ान नाम मिला और अपनी शायराना शख़्सियत को उन्होंने ख़ुद दाग़ नाम दिया। ‘देहली’ से थे सो देहलवी जोड़ा और बन गए ‘दाग़ देहलवी’!
नवाब मिर्ज़ा ख़ान के वालिद (पिता) नवाब शम्सुद्दीन अहमद ख़ान ‘वाली-ए-फ़िरोज़पुर झिरका' (फ़िरोज़पुर झिरका के राजा) थे। उनकी वालिदा (माँ) मिर्ज़ा ख़ानम उर्फ़ छोटी बेग़म शम्सुद्दीन की ब्याहता नहीं थीं, मगर उनमें शम्सुद्दीन की जान बसती थी। धन-दौलत की कमी नहीं थी किंतु जब दाग़ चार साल के थे तब एक अँग्रेज़ अफ़सर विलियम फ़्रेज़र के क़त्ल के जुर्म में उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई और दाग़ के सर से पिता का साया उठ गया।मुग़ल शासक बहादुर शाह ज़फर के पुत्र मिर्ज़ा मोहम्मद फ़ख़रू का दिल मिर्ज़ा ख़ानम पर लट्टू हो गया और उन्होंने छोटी बेग़म से निक़ाह कर लिया। इस तरह तक़रीबन तेरह साल की उम्र में मिर्ज़ा ख़ान लाल क़िला आ गए और उनकी परवरिश एक शहज़ादे के समान होने लगी। क़िले के बेहतरीन माहौल में आला दर्ज़े की तालीम और अदब तो सीखी ही, साथ में पनपा शायरी का शौक़ जिसे इमाम बख़्श सहबाई, ग़ालिब और शेफ़्ता सहित तमाम विद्वानों की हौसला-अफ़ज़ाई ने भरपूर हवा दी। मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़ की शागिर्दी में दाग़ अपनी शायरी में एक नया बाँकपन लेकर आए जो बरबस ही सबको सम्मोहित कर जाता था। बाद में उन्होंने ग़ालिब से उर्दू साहित्य और अशआर की बारीकियों पर सलाह भी ली। साथ ही उन्हें सुलेख और घुड़सवारी का प्रशिक्षण भी मिला।
पंद्रह साल की उम्र में उन्होंने अपनी ख़ाला की बेटी फ़ातिमा बेग़म से शादी कर ली। लाल क़िले में गुज़रा वक़्त उनके जीवन का सबसे सुखद पहलु था। उस सामाजिक परिवेश में, जहाँ तवायफों से संबंध रखना समृद्धि की निशानी समझा जाता था, दाग़ किसी अफ़लातूनी इश्क़ के शिकार नहीं हुए; मगर ख़ूबसूरत चेहरों के जादू में डूब जाया करते थे और वही उनकी शायरी का सबब भी बनता था।
“बुत ही पत्थर के क्यों न हों ऐ ‘दाग़’
अच्छी सूरत को देखता हूँ मैं”
दिल्ली से पलायन
चौदह साल की शान-ओ-शौक़त मिर्ज़ा फ़ख़रू के इंतकाल के बाद जाती रही और दाग़ को लाल क़िला छोड़ना पड़ा। अगले ही साल १८५७ का ग़दर मचा और दाग़ दिल्ली छोड़ रामपुर, अपने ससुराल, जा बसे। उनकी ख़ाला और फ़ातिमा की अम्मी उम्दा ख़ानम नवाब रामपुर, यूसुफ़ अली खाँ, की सेवा में थीं। यहाँ शायर दाग़ को अनुकूल माहौल मिला, सरकारी ओहदा मिला और अच्छी तनख़्वाह नसीब हुई। ७० रुपये मासिक वेतन पर अस्तबल की दारोगागिरी से ज़िन्दगी ख़ुशनुमा गुज़रने लगी।
अभी कुछ ही अर्से बीते थे कि यहाँ के सालाना मेले में दाग़ की मुलाक़ात कलकत्ता से आई मुन्नीबाई हिजाब से हुई और वे उनपर इस कदर लट्टू हुए कि ताउम्र उनकी शायरी में मुन्नीबाई का ज़िक्र आता रहा।
ये तो नहीं कि तुम-सा जहाँ में हसीं नहीं
इस दिल को क्या करूँ ये बहलता कहीं नहीं
अब तक वे उम्र की आधी सदी पार कर चुके थे मगर आशिकों का दिल तो बस जवाँ रहना चाहता है। रामपुर में सुख-चैन का जीवन बीत रहा था कि नवाब साहब की मौत हो गई और नए नवाब को शेर-ओ-शायरी का शौक़ नहीं था, सो दाग़ अपना बोरिया-बिस्तर बाँध नए आशियाने की तलाश में निकल पड़े। कुछ बरस अलग-अलग शहरों की ख़ाक छानी और अंततः हैदराबाद के नवाब महबूब अली ख़ान के बुलावे पर मुशायरों के नए गढ़ हैदराबाद आ गए। इन सालों में वे जहाँ गए, शागिर्द बनाते गए। उनकी शायरी के क़िस्से तो पहले ही मशहूर थे, उसपर उनका अंदाज़े बयाँ नवाब साहब को भा गया। हैदराबाद में उन्हें इज़्ज़त के साथ-साथ, एक अदद नौकरी भी मिल गयी।उन्हें ४५० रुपये महीने की तनख्वाह पर बतौर उस्ताद रखा गया। देखते-ही-देखते उनकी तनख्वाह भी उनकी लोकप्रियता के साथ-साथ बढ़कर एक हज़ार हो गई। नवाब महबूब ख़ान उनसे इतने ख़ुश हुए कि उन्हें जागीर में एक गाँव भी सौंप डाली और उन्हें बुलबुल-ए-हिंद, जहान-ए-उस्ताद, दबीर-उद्दौला, नाज़िम-ए-जंग और नवाब फ़सीह-उल-मुल्क़ के खिताबों से नवाज़ा। नवाब साहब की दरियादिली ताउम्र दाग़ को नसीब हुई और यहीं रहते हुए १९०५ में लकवा के स्ट्रोक से ७४ वर्ष की उम्र में उनकी मौत हो गई। उन्हें हैदराबाद के दरगाह यूसुफ़ैन में राजसी सम्मान के साथ दफ़नाया गया।
फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं
जहाँ बजते हैं नक़्क़ारे वहाँ मातम भी होते हैं
साहित्यिक सफ़रनामा
नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो
कि आती है उर्दू ज़बाँ आते आते
दाग़ दबिस्तान-ए-देहली (Delhi school of thought) से संबंधित थे और उनकी रचनाएँ हमेशा पश्चिमी प्रभावों से दूर रहीं। उन्होंने दस साल की छोटी उम्र से ही शेर पढ़ना शुरू कर दिया था और वे हर वर्ग में एक-समान लोकप्रिय हुए।
जफ़ाए दाग़ पर करते हैं वो यह भी समझते हैं
कि ऐसा आदमी मुझको मयस्सर हो नहीं सकता
उस समय की प्रचलित क्लिष्ट भाषा-शैली के विपरीत उन्होंने सीधी-सरल आमजन की भाषा में अशआर गढ़े जो कानों से दिल में उतरते गए।
तुम्हारा दिल मेरे दिल के बराबर हो नहीं सकता
वो शीशा हो नहीं सकता, ये पत्थर हो नहीं सकता
उर्दू में होते हुए भी उनके अशआर हर उम्र, हर तबके और हर वर्ग के लोगों के बीच प्रचलित हुए। दाग़ शायद पहले ऐसे शायर हैं, जिन्होंने अपने जीते जी इतनी लोकप्रियता बटोरी।
उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं ‘दाग’
हिंदोस्तान में धूम हमारी जुबां की है
उनके शागिर्दों में फ़क़ीर से लेकर सुल्तान तक, जाहिल से लेकर विद्वान तक, बूढ़े से लेकर जवान तक, अभिजात्य से लेकर बदनाम तक हर तरह के लोग थे। पंजाब में अल्लामा इक़बाल, मौलाना ज़फ़र अली, मौलवी मुहम्मद्दीन फ़ौक़, उत्तर प्रदेश में सीमाब सिद्दीक़ी, अतहर हापुड़ी, बेख़ुद देहलवी, नूह नारवी और आग़ा शायर, मौलाना हसन रज़ा खान बरेली (१८५९-१९०८), जिगर मुरादाबादी (१८९० - १९६०), सीमाब अकबराबादी और अहसन मरहरवी वग़ैरा उनके शागिर्द थे।
हर वक़्त पढ़े जाते हैं ‘दाग़’ के अशआर
क्या तुमको कोई और सुखनवर नहीं मिलता
उनकी चयनित ग़ज़लें समकालीन ग़ज़ल गायकों जगजीत सिंह, नूरजहाँ, ग़ुलाम अली, आदित्य श्रीनिवासन, मलिका पुखराज, मेहदी हसन, आबिदा परवीन, पंकज उधास और फरीदा खानम द्वारा प्रस्तुत की जाती रही हैं।
मोहब्बत है तुमसे, कह दिया अब जवाब जो भी हो।
जवाब मुखालिफ़ हुआ तो जवाब से रंजीदा भी रहेंगे,
सिसकियाँ भी भरेंगे, तुम पर तंज़ भी कसेंगे।
‘दाग़’ आशिक हैं, जब तलक रहेंगे आशिक़ी ही करेंगे।
रोमांटिसिज़्म और आशिक़ाना शायरी में ‘दाग़’ का जवाब नहीं। बयान की शोख़ी, रूठने-मनाने का फ़न, भावनाओं का सैलाब, अनुभव और अवलोकन की भरमार - उनके ग़ज़लों में दिल को छूने वाले जज़्बात हैं और रूह में उतरने वाले ख़यालात। दिखावा और भौंडापन से परे आशिक़ाना जज़्बात और मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि उनकी ग़ज़लों को बेहद ख़ास बनाते हैं। शायद इसीलिए आज भी वे उसी तरह ज़ुबाँ पर आते हैं जैसे अपनी रचनाकाल में गुनगुनाए गए।
ये मज़ा था दिल-लगी का कि बराबर आग लगती
न तुझे क़रार होता न मुझे क़रार होता
हज़ार बार जो माँगा करो तो क्या हासिल
दुआ वही है जो दिल से कभी-कभी निकलती है
आओ मिल जाओ कि ये वक़्त न पाओगे कभी
मैं भी हम-राह ज़माने के बदल जाऊँगा
- https://www.jakhira.com/2010/08/daag-dehlavi-biography.html
- https://www.aajtak.in/literature/profile/story/daagh-dehlvi-life-and-profile-of-a-love-shayar-658699-2019-05-25
- https://poetistic.com/blog/dagh-dil-par-lagen-to-achhe-hain
- https://en.wikipedia.org/wiki/Daagh_Dehlvi
- https://web.archive.org/web/20170607190456/http://www.jakhira.com/search/label/daag-dehlavi
- https://www.youtube.com/watch?v=ghSikWeaGJk
- https://www.youtube.com/watch?v=MN9bqRvL33g
- https://www.hmoob.in/wiki/Dagh_Dehlvi
मास्टर ऑफ़ जर्नलिज़्म में स्वर्ण पदक प्राप्त दीपा लाभ विभिन्न मिडिया संस्थानों के अनुभवों के साथ पिछले १२ वर्षों से अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं। आप हिंदी व अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में समान रूप से सहज हैं तथा दोनों भाषाओं में लेख व संवाद प्रकाशित करती रहती हैं। हिंदी व अंग्रेज़ी भाषा में क्रियात्मकता से जुड़े कुछ लोकप्रिय पाठ्यक्रम चला रही हैं। इन दिनों ‘हिंदी से प्यार है’ की सक्रिय सदस्या हैं और ‘साहित्यकार तिथिवार’ का परिचालन कर रही हैं। ईमेल - journalistdeepa@gmail.com; व्हाट्सएप - +91 8095809095
दीपा, मज़ा आ गया दाग़ देहलवी की ज़िन्दगी और शायरी पर तुम्हारी क़लम का बयान पढ़कर। आशिक़ जिन पर हमेशा आशिक़ रहते हैं, अपनी मुहब्बत जिनकी ज़बाँ कहते हैं, उन दाग़ को क़रीब से जानकर बहुत अच्छा लगा। क्या कह गए हैं दाग़ किसी भी चीज़ को सीखने के बारे में - "नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो, कि आती है उर्दू ज़बाँ आते आते।" आज की इस मुलाक़ात के लिए शुक्रिया और मुबारकबाद।
ReplyDeleteबहुत शानदार और रुचिकर आलेख. एक लम्हे के लिए भी कहीं बोझिल नहीं हुआ है आलेख बल्कि जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं पढ़ने का आनंद बढ़ता चला जाता है. इसी तरह लिखती रहो, जल्द ही एक किताब का Material इकट्ठा हो जाएगा.
ReplyDeleteदीपा जी नमस्ते। मशहूर कलमकार दाग़ देहलवी पर आपका बहुत अच्छा लेख पढ़ने को मिला। आपने लेख में दाग़ साहब के जीवन के दिलचस्प किस्सों एवं अशआर को शामिल कर लेख को रोचक बना दिया है। आपको इस उम्दा लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteवाह ! दीपा जी आपने दाग़ देहलवी पर बेहद ख़ूबसूरत, प्रवाहमान आलेख लिखा है । पढ़ते हुए लगा की सामने चलचित्र हो कोई। आपके इस लेख के माध्यम से दाग़ साहब के जीवन के तमाम पहलुओं को जानने का अवसर मिला। उनके चुनिंदा अशआर भी बेहद सिलसिलेवार आपने कोट किये हैं,। इस सारगर्भित और रोचक आलेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteएक और खूबसूरत लेख जिसके प्रवाह में बहती चली गई। बधाई।
ReplyDeleteदीपा मेम, बहुत बधाई। धारा प्रवाह आलेख पढ़ मजा आगया। दाग की शायरी
ReplyDeleteका सफ़र ..वाह । सुंदर आलेख
दाग़ भी याद आए और उनके अश्आर भी।सुंदर आलेख है, दीपा जी। बधाई।💐
ReplyDeleteखूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे है
ReplyDeleteसाफ छुपते भी नहीं , सामने आते भी नहीं
दाग़ देहलवी को फिर से याद दिला दिया तुमने,दीपा |सच ,बहुुत ही अच्छा आलेख है|