कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जो हमें अवाक् छोड़ देती हैं। ऐसा ही मेरे साथ कहानी 'खोल दो' पढ़ने पर हुआ। उसके पहले यूँ तो विभाजन की त्रासदी के सैकड़ों ब्योरे पढ़े थे, फ़िल्में देखी थीं और क़िस्से भी सुने थे, लेकिन कहानी 'खोल दो' ने जैसे कोई पर्दा उठाकर बँटवारे के सभी मनाज़िर और आसार से फ़ौरन रू-ब-रू करा दिया और मिलवाया एक ऐसे लेखक से, जिसकी क़लम इंसानियत के ख़ून और आँसुओं में डूब कर लिखती थी। अपनी मिट्टी छोड़ने का दर्द, अपनों को गँवाने का ग़म, किसी लापता के इंतज़ार की ख़लिश, मसीहा बन कर घूम रहे लोगों में ज़हरीले साँपों का होना, कल तक दोस्त रहे लोगों के बीच अनसुनी दुश्मनी का पनपना, वीरान पड़े घरों पर क़ब्ज़ा, अपनों के हाथों छल और लूट के बर्ताव की पराकाष्ठा - ये कुछ पहलू हैं जो इंसान को इंसानियत का प्रतिद्वंदी बनाते हैं और इन्हीं जज़्बातों के जीवंत चित्रण से यह कहानी ओत-प्रोत है। समाज के दिखावे के सभी लबादों को उतार फेंकने के बाद उसे बिलकुल नंगे रूप में दिखाती यह कहानी है एक बाप की, जो बँटवारे के बाद अपनी बीवी और बेटी के साथ अमृतसर से पाकिस्तान को निकलता है। रास्ते में बलवाई उसकी बीवी का क़त्ल कर देते हैं और दहशतनाक अफ़रातफ़री में उसकी जवान बेटी कहीं गुम हो जाती है। बूढ़ा और भोला बाप स्वयंसेवकों पर पूरा भरोसा कर इस आस में रहता है कि वे उसे ढूँढ़ निकालेंगे लेकिन इस बात से शायद वह आख़िर तक नावाक़िफ़ ही रहता है कि बचाव के वे मसीहे ही उसकी बेटी का यौन-शोषण करते रहे थे और उसे झूठा ढाढ़स बँधाते रहे थे। कहानी का अंत किसी को भी निढाल कर सकता है। लाश-सी हालत में स्ट्रेचर पर लड़की पड़ी है, डॉक्टर उसकी नब्ज़ देखता है, कमरे के अँधेरे को दूर करने के लिए बाप से खिड़की खोलने को कहता है। लगभग मर चुकी लड़की जब शब्द 'खोल दो' सुनती है तो अपनी सलवार का इज़ारबंद खोल कर सलवार नीचे सरका देती है। जिस्म की हरकत से बाप ख़ुश हो जाता है कि बेटी ज़िंदा है और डॉक्टर सिर से पैर तक पसीने से ग़र्क़ हो जाता है।
क्या आप जानते हैं कि कहानियों 'धुआँ', 'बू' और 'काली शलवार' के लिए ब्रिटिश-भारत और 'खोल दो', 'ठंडा गोश्त' और 'ऊपर नीचे दरमियान' के लिए पाकिस्तान की अदालतों में लेखक पर मुक़दमे चलाए गए थे और जुर्म यह लगाया गया था कि उसकी कहानियाँ अश्लीलता-प्रधान हैं? यह दूसरी बात है कि हर बार वह बाइज़्ज़त बरी हुआ, सिवाय पाकिस्तान में चले एक मुक़दमे के, जब उसे कुछ रुपयों का जुर्माना भरना पड़ा था। लेकिन उसी पाकिस्तान ने उसके मरने के बाद उसे मुल्क के सबसे बड़े नागरिक सम्मान 'निशान-ए-इम्तियाज़' से नवाज़ा था। उसने ४२ बरस की मुख़्तसर सी ज़िंदगी पाई; इसी में २०-२५ साल कहानियों के नाम कर दिए और ताउम्र अपनी कहानियों के मौज़ूँ और उन्हें पेश करने के तरीक़ों की वजह से चर्चा में रहा। आज बात हो रही है, क़लम से समाज की धज्जियाँ बेधड़क उधेड़नेवाले लेखक सआदत हसन मंटो की। जी हाँ, उसी मंटो की, जिसके बारे में कहते हैं कि वह पागल होने या बेहद शराब पीने की लत की वजह से मर गया।
मंटो के ऐसे अंजाम का दारोमदार कुछ तो ज़िंदगी पर रहा होगा। होश संभलने तक उसके वालिद जो पेशे से जज रहे थे, रिटायर हो चुके थे। सौतेले बड़े भाई पढ़ाई के लिए विलायत जा चुके थे। मंटो की माँ जज साहब की दूसरी बीवी थीं। मंटो अपनी माँ को बीबीजान कहा करता था और उन पर जान छिड़कता था। बहन नासिरा इक़बाल भाई मंटो का बहुत ख्याल रखती थी, उससे बेपनाह मुहब्बत करती थी। लेकिन बहनोई से मंटो के संबंध अच्छे न थे। इसलिए मंटो को दूल्हा बना देखने और आशीर्वाद देने बहन को बाहर सड़क पर आना पड़ा था। आँखों में आँसू भर और मुहब्बत से सर पर हाथ फेर उसने मंटो को दुआएँ और शादी की मुबारकबाद दी थी। वालिद परवरिश के मामले में बहुत कठोर थे। यानी मंटो का बचपन सरपस्ती से ज़्यादा जकड़बंदी में गुज़रा। इस कठोरता ने मंटो में बग़ावत भर दी थी। पढ़ाई और हर तरह के अनुशासन की वह मुख़ालफ़त करता था। अपनी बग़ावत के इज़हार में उसने तालीम को ख़ूब नज़रअंदाज़ किया और गलियों-सड़कों के हर तरह के लोगों से दोस्ती की। उनसे वह घंटों बातें किया करता था। समाज के हर तबक़े के लोगों से मंटो का जुड़ाव कच्ची उम्र से ही हो गया। लोगों के साथ भिन्न विषयों पर चर्चा, समाज की तथाकथित गंदी गलियों से गुज़रना, वहाँ उठना-बैठना ही मंटो के असली शिक्षा संस्थान थे; तभी वह ज़माने के खोखलेपन और विसंगतियों को बख़ूबी पहचानता था और कहता था, "ज़माने के जिस दौर से हम इस वक़्त गुज़र रहे हैं, अगर आप उनसे नावाक़िफ़ हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िए। अगर आप इन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब यह है कि यह ज़माना नाकाबिले-बर्दाश्त है। मुझमें जो बुराइयाँ हैं, वो इस अहद की बुराइयाँ हैं। मेरी तहरीर में कोई नुक़्स नहीं… मैं तहज़ीबो-तमद्दुन की और सोसाइटी की चोली क्या उतारूँगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए कि यह मेरा काम नहीं।"
मंटो ने अपने पात्र कल्पना से नहीं गढ़े, बल्कि समाज के हर समूह और हर तरह के इंसानों की रंगारंग ज़िंदगियों को ग़ौर से समझते हुए, उनके मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक धरातल पर उतरकर अपनी क़लम से उन्हें अफ़सानों की शक्ल दी और समाज के घृणित चेहरों को बेनक़ाब किया।
साल १९३३ में मंटो की बेफ़िक्री और आवारागर्दी भरी ज़िंदगी में बदलाव आया और अमृतसर के अख़बार 'मसावात' के संपादक बारी साहब (अब्दुल बारी अलीग) एक मुलाक़ात के दौरान मंटो की प्रतिभा और संवेदनशीलता को पहचान गए। उन्होंने उसे पत्रकारिता के साथ-साथ रूसी और फ़्रांसीसी लेखकों के उपन्यास पढ़ने की राह दिखाई। मंटो और उर्दू अदब के लिए बारी साहब निश्चित तौर पर मसीहा साबित हुए, क्योंकि मंटो ने ख़ुद यह स्वीकार किया था कि अगर उसे बारी साहब की सरपरस्ती न मिली होती तो वह चोरी या डाके के जुर्म में किसी जेल में गुमनामी की मौत मर जाता। बारी साहब से मिलने के बाद मंटो ने विश्व-साहित्य का ख़ूब अनुवाद किया और अफ़सानानिगारी के फ़न को समझा। बारी साहब के कहने पर ही उसने अलीगढ़ विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया था, लेकिन तपेदिक़ (टीबी) की बीमारी का हवाला देकर उसे वहाँ से निकाल दिया गया। बारी साहब के साल १९३४ में 'ख़ुल्क़' पत्रिका से जुड़ने के बाद उसके पहले अंक में मंटो का अफ़साना 'तमाशा' प्रकशित हुआ था। यही मंटो का पहला मुद्रित अफ़साना है, जो जलियाँवाला बाग़ के हादिसे पर आधारित है। वैसे मंटो की पहली कहानी 'सरगुज़श्त-ए-असीर' थी, जो विक्टर ह्यूगो की कहानी 'The Last Day of a Condemned Man' का उर्दू तर्जुमा है। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ते समय मंटो 'भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ' के क़रीब आया और उन्हीं दिनों उसने दूसरी कहानी 'इन्क़िलाब पसंद' लिखी जो अलीगढ़ मैगज़ीन में मार्च १९३५ में प्रकाशित हुई थी।
कुछ इस तरह एक ऐसे लेखक की साहित्यिक यात्रा शुरु हुई, जिसने अपने मुख़्तसर से साहित्यिक-जीवन में २७० अफ़साने, १०० से ज़्यादा ड्रामे, 'शिकारी', 'आठ दिन', 'मिर्ज़ा ग़ालिब', 'चल-चल रे नौजवान' जैसी दर्जनों फिल्मों की कहानियाँ और संवाद तथा ढेरों नामवर और गुमनाम शख़्सियात के रेखाचित्र लिखे।
साल १९३५ तक मंटो को साहित्यिक जगत बतौर अफ़सानानिगार जान चुका था और बंबई पहुँचने पर उन्हें पहले 'पारस', 'मुसव्विर', 'हुमायूँ', और 'आलमगीर' जैसी पत्रिकाओं तथा बाद में 'इम्पीरियल', 'सरोज' और 'सिने-टोन' जैसी फ़िल्म कंपनियों में काम मिला। 'सिने-टोन' में जब उन्हें तनख़्वाह १०० रूपए महीना मिलने लगी, तो माँ के साथ एक मीठी नोक-झोंक में यह तय हुआ कि उसकी शादी हो जानी चाहिए। मंटो ने बीवी सफ़िया के घर वालों को पहली मुलाक़ात में ही शराब पीने की आदत समेत अपनी दूसरी बुराइयों के बारे में बता दिया था और उसे पूरा यक़ीन था कि वे लोग उससे अपनी बेटी का निकाह नहीं करेंगे। बहरहाल शादी हो गई और उन दोनों के संबंध हमेशा दोस्ताना और ख़ुशगवार बने रहे।
मुंबई में रहते हुए ही मंटो ने रेडियो के लिए लिखना शुरू कर दिया था और साल १९४० में ऑल इंडिया रेडियो के उर्दू इदारे में नौकरी भी मिल गई। कृश्नचंदर, नून मीम राशिद, उपेंद्रनाथ अश्क भी वहीं काम कर रहे थे। मंटो अपने बराबर वालों को ख़ातिर में नहीं लेता था और छोटी-छोटी बातों पर भी नुक़्स निकाला करता था। उसके समकालीन साथी उसके हुनर की इज़्ज़त करते थे, लेकिन नुक़्ताचीनी और तंज़ करने की उसकी आदत की वजह से हमेशा हिसाब चुकाने की फ़िराक़ में रहते थे। उपेंद्रनाथ अश्क ने मंटो की मौत के बाद उस पर रेखाचित्र 'मंटो-मेरा दुश्मन' लिखा था, जिसमें उन्होंने अपने और मंटो के बीच के संबंधों को विस्तार से बताया है। वे मंटो और उसकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित थे, लेकिन उसके स्वभाव के चलते उन दोनों के बीच हमेशा तनातनी बनी रहती थी। अश्क लिखते हैं, "मंटो अपने काम के प्रति पूरी तरह से समर्पित था, वह ज़िंदगी और उसके सभी गोशों में सफ़ाई पसंद करता था; यहाँ तक कि हर सुबह काम पर आने के बाद अपने टाइप-राइटर को बहुत ठीक से पोंछता और काम के लिए तैयार करता था। मंटो काम पर आता, कृष्णचन्द्र से पूछता कि आज किस विषय पर ड्रामा चाहिए, कुर्सी पर उकड़ूँ बैठ जाता, टाइप-राइटर पर काग़ज़ लगाता, उस पर ७८६ लिखता (यह उसका दस्तूर था, हालाँकि वह मज़हबी बिलकुल न था), और ड्रामा काग़ज़ पर उतरना शुरू हो जाता।"
मंटो ताउम्र मज़हबी कट्टरता और बँटवारे के सख़्त खिलाफ़ था। उसका इरादा पाकिस्तान जाने का बिल्कुल न था लेकिन उस दौर के वक़्ती हालात ने उसके मन को इतना छिन्न-भिन्न और व्यथित कर दिया कि वह जनवरी १९४८ में लाहौर चला गया। उसके लिए मज़हब से कहीं ज़्यादा क़ीमती इंसानियत थी, मज़हबी दंगे के बारे में उसने कहा था, "मत कहिए कि हज़ारों हिंदू मारे गए या फिर हज़ारों मुसलमान मारे गए। सिर्फ़ यह कहिए कि हज़ारों इंसान मारे गए और यह भी इतनी बड़ी त्रासदी नहीं है कि हज़ारों लोग मारे गए। सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि हज़ारों लोग बेवजह मारे गए।"
मंटो पर उसके जीते जी और मौत के बाद कई ख़ाके लिखे गए। उसके बारे में अपने रेखाचित्र 'ख़ाली बोतल भरा हुआ दिल' में कृष्णचंद्र लिखते हैं, "अलीगढ़, लाहौर, अमृतसर, बंबई, दिल्ली - इन स्थानों ने मंटो की ज़िंदगी को कई रंगों में देखा है। रूसी साहित्य का पुजारी मंटो, चीनी साहित्य का प्रेमी मंटो, कटुता और निराशा का शिकार मंटो, गुमनाम मंटो, बदनाम मंटो, भटियार-ख़ानों, शराबख़ानों, चकलों में जानेवाला मंटो और फिर घरेलू मंटो, मुहब्बत करनेवाला मंटो, दोस्तों की मदद करनेवाला मंटो, तुर्शी और तल्ख़ी को मिठास में समोनेवाला मंटो, उर्दू का सुविख्यात लेखक मंटो - इन स्थानों ने मंटो को हर रंग में देखा है और मंटो ने भी इन स्थानों को ख़ूब देखा है। मंटो ने जीवन के निरीक्षण में अपने आपको एक मोमी शमा की तरह पिघलाया है। वह उर्दू साहित्य का अकेला शंकर है, जिसने ज़िंदगी के ज़हर को ख़ुद घोलकर पिया है और फिर उसके स्वाद को, उसके रंग को खोल-खोलकर बयां किया है। लोग बिदकते हैं, डरते हैं, पर उसके निरीक्षण की वास्तविकता और उसके अन्वेषण की सच्चाई से इनकार नहीं कर सकते।"
मंटो ज्वलंत विषयों को अपने मज़ामीन के ज़रिए भी पाठकों के सामने लाता है। उसके लिखे रेखाचित्र भी उन दिनों के समाज के दस्तावेज़ हैं। इस्मत चुग़ताई के अलावा बाक़ी सभी रेखाचित्र उसने बँटवारे के बाद लिखे। ये रेखाचित्र शायद उसे बंबई के ख़ुशगवार और ख़ुशहाल लम्हों से जोड़ते थे। इसी दौर में उसने अशोक कुमार, नवाब कश्मीरी, नर्गिस आदि के रेखाचित्र लिखे। उसकी ज़िंदगी के आख़िरी दिन मुफ़लिसी, शराब और भारत तथा वहाँ छूट गए दोस्तों से दूर होने के ग़म में बीते। कहते हैं कि एक वक़्त ऐसा था कि शराब की बोतल के लिए मंटो रोज़ पत्र-पत्रिकाओं के लिए कहानी लिख देता था। कहानी लिखने और साफ़-बयानी का हुनर नशे की लत भी उससे छीन नहीं पाई। उसने 'चचा साम के नाम' शीर्षक के तहत ख़तनुमा निबंध भी लिखे हैं, जिनमें उसने पाकिस्तान के भविष्य और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर चर्चा की है।
मंटो की मौत के समय तीनों बेटियाँ बहुत छोटी थीं, लेकिन उन्हें यह बखूबी याद है कि अब्बाजान उनका बहुत ख़्याल रखते थे, कहानियाँ सुनाते थे, उनके साथ खेलते थे, खाना पकाने से कपड़े इस्त्री करने तक के घर के सभी काम करते थे। इन्हीं घरेलू कामों के बीच, आने-जाने वालों से मुलाक़ात के दौरान अफ़साने लिख लेते थे। मंटो ने अपने मज़मून 'मैं अफ़साना क्योंकर लिखता हूँ' में लिखा है कि लिखना उसके लिए उतना ही ज़रूरी है जैसे खाना खाना, साँस लेना या ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी दूसरे काम करना। अपनी मौत से कुछ वक़्त पहले अपनी क़ब्र के लिए उसने ये पंक्तियाँ लिखी थी, "यहाँ सआदत हसन मंटो दफ़न है, उसके सीने में फ़न और अफ़सानानिगारी के सारे इसरार-ओ-रमूज़ (रहस्य और कौशल) दफ़न हैं। वो अब भी मानो मिटटी के नीचे सोच रहा है कि वो बड़ा अफ़सानानिगार है या खुदा।" परंतु कोई तो कारण रहा होगा जो, इन पंक्तियों को उसकी क़ब्र पर न लिखा गया।
मंटो की मौत पर कृष्णचन्द्र ने लिखा था, "ग़म मंटो की मौत का नहीं - मौत नागुज़ीर (अनिवार्य) है, ग़म उन अनलिखी उच्चकोटि रचनाओं का है, जो सिर्फ़ मंटो लिख सकता था।"
मंटो ऐसा अफ़सानानिगार है जो कल भी चर्चा में था, आज भी है और कल भी रहेगा, क्योंकि वह इतने पुर-हयात अफ़साने जो लिख गया है। और एक अफ़साना जो वह ख़ुद था, उसे अभी बहुत पढ़ा और समझा जाना है।
सआदत हसन मंटो : जीवन परिचय |
जन्म | ११ मई १९१२, समराला, लुधियाना, पंजाब, भारत |
निधन | १८ जनवरी, १९५५, लाहौर, पकिस्तान |
पिता | ग़ुलाम हसन मंटो |
माँ | सरदार बेगम |
पत्नी | सफ़िया मंटो (सफ़िया दीन) |
बेटा | आरिफ़ मंटो (पहली औलाद, जिसकी मृत्यु शैशवास्था में हो गई थी) |
बेटियाँ | निकहत (निघत) मंटो, नुज़हत मंटो, नुसरत मंटो |
कर्मभूमि | अमृतसर, बंबई, दिल्ली, लाहौर |
कार्यक्षेत्र |
लेखन - अफसाना, निबंध, रेखाचित्र, रेडियो ड्रामा फिल्म - कथा, पटकथा और संवाद
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साहित्यिक रचनाएँ |
उर्दू अफ़साने | सभ्यता और मनुष्य की पाश्विक प्रवृत्तियों के बीच के द्वन्द्व को सामने लाते, दलालों, वेश्याओं, नेताओं, पाखंडियों, प्रगतिशील लेखकों, स्वयंसेवकों, यहाँ तक कि पागल-घोषित लोगों के माध्यम से समाज की अँधेरी और गुमनाम गलियों की सैर कराते तक़रीबन २७० अफ़साने। उनमें से किसी को भी प्रमुख की श्रेणी में रखना बहुत मुश्किल काम है। ठंडा गोश्त, टोबा टेक सिंह, बू, खोल दो, काली शलवार, स्वराज्य के लिए, मोज़ेल, हतक, खुशिया वग़ैरह कुछ ऐसे अफ़साने हैं, जिन्होंने लेखक को शोहरत और बदनामी दोनों दिलाईं। |
उर्दू मज़ामीन | हिंदी और उर्दू, हिंदुस्तान को लीडरों से बचाओ, इस्मत फ़रोशी, मुझे शिकायत है, मक्सिम गोर्की, शरीफ औरतें और फ़िल्मी दुनिया के अलावा दर्जनों ऐसे निबंध हैं, जो कुछ अप्रत्यक्ष रूप से व्यंग्यात्मक तरीके से समाज के ज्वलंत प्रश्नों पर रोशनी डालते हैं। |
चचा साम के नाम ख़त | पाकिस्तान के तत्कालीन हालात पर लिखे ख़तों की एक शृंखला |
मंटो द्वारा लिखे गए रेखाचित्र | उर्दू में ये दो किताबों गंजे फ़रिश्ते और लाउडस्पीकर में संकलित हैं। ये दोस्तों, फ़िल्मी दुनिया की हस्तियों, क़द्रदानों के ख़ाके हैं, और इनमें शख़्सियत के तानेबाने मंटो ने बुने हैं, खुद ही उन्हें बयान किया है। सिर्फ एक ख़ाका 'मेरा साहब' ऐसा है जहाँ मंटो ने मुहम्मद अली जिन्ना की शख़्सियत उनके शोफ़र की ज़बानी बयान की है। |
मंटो पर लिखे गए कुछ संस्मरण | इस्मत चुग़ताई - मेरा दोस्त मेरा दुश्मन, सआदत हसन मंटो उपेन्द्रनाथ अश्क - मंटो मेरा दुश्मन अहमद नदीम कासिमी - मंटो मेरा यार नरेंद्र मोहन - मंटो ज़िंदा है कृष्णचन्द्र - ख़ाली बोतल भरा हुआ दिल सआदत हसन मंटो - मंटो
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तंज़-ओ-मिज़ाह | मिर्ज़ा नौशा और चौदहवीं |
कुछ मुख्य ड्रामा | आओ अख़बार पढ़ें, आओ ख़त सुनो, आओ झूठ बोलें, तीन ख़ामोश औरतें, क्लिओपात्रा की मौत, नेपोलियन की मौत, अकेली, कार्ल मार्क्स, साड़ी, ख़ुदकुशी |
कुछ उर्दू किताबें | आओ, १९४०, १९८७; आप का सआदत हसन मंटो (मंटो के ख़ुतूत ), २०१२; आतिश पारे और स्याह हाशिए, १९८४; अफ़साने और ड्रामे, १९४३, १९९३ |
कुछ हिंदी संकलन | - संस्मरण, लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क
- मंटो की राजनीतिक कहानियाँ, संकलन - देवेंद्र इस्सर
- मंटों की कहानियों, संस्मरणों, मुक़दमों की किताबें - संकलन नरेंद्र मोहन
- दस्तावेज़ ( पांच खण्डों में) कहानियां, रेडिओ ड्रामें, संस्मरण, ख़ुतूत, मज़ामीन, कहानियों पर प्रतिक्रियाएं- चयन, संयोजन एवं परिचय - बलराज मेनरा और शरद दत्त, दस्तावेज़ के लोकार्पण पर बीबीसी की रिपोर्ट -शरद दत्त, लेखक और 'दस्तावेज़' के संपादकों में से एक
- मीना बाज़ार (सिनेमाई संस्मरण)
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कुछ पुरस्कार और सम्मान |
निशान-ए-इम्तियाज़, १४ अगस्त २०१२, पाकिस्तान सरकार १०० वीं जयंती पर मंटो को नए संदर्श में दर्शाते दानिश इक़बाल के नाटक ‘एक कुत्ते की कहानी’ का मंचन
पाकिस्तानी फ़िल्म मंटो, निदेशक सरमद सुल्तान खूसत, २०१५ भारतीय फिल्म मंटो, निदेशक नंदिता दास, २०१८, नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी मंटो के किरदार में भारत में दास्तानगोई को पुनर्जीवित करने के प्रयास में लगे महमूद फ़ारूक़ी व उनकी टीम ने मंटो के जीवन पर आधारित एक पेशकश तैयार की जो बेहद लोकप्रिय है। शीर्षक है- मंटोइयत। ५० वीं पुण्यतिथि पर जनवरी २००५ में पाकिस्तान सरकार द्वारा डाक-टिकट जारी
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पंसदीदा चीज़ें | |
रोचक तथ्य | उर्दू का यह महान अफ़सानानिगार उर्दू का इम्तिहान पास न करने की वजह से मैट्रिक में दो बार फ़ेल हुआ था आमतौर पर इसे दिन भर सोचने और माथा-पच्ची करने पर भी कहानी का शुरुआती सिरा न मिलता था और शर्त लगने पर दिए गए पहले जुमले से शुरू करके उसे फ़ौरन लिख देता था अपने से बड़ों और बराबरीवालों को ख़ातिर में न लेता था, पर राह में मिलनेवाले हर शख़्स को समझने और उसका दर्द बाँटने में माहिर था बहुत बुरी लतों में फँसा, पर सबसे जल्दी ही मन उचट जाता था, सिवाय शराब की लत के जो आखिरी साँस तक न छूटी अपनी रचनाओं में तनिक भी फेर-बदल बरदाश्त नहीं कर सकता था
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संदर्भ
मंटो - मेरा दुश्मन, उपेन्द्रनाथ अश्क
सआदत हसन मंटो, दस्तावेज़, चयन, संयोजन एवं परिचय -बलराज मेनरा, शरद दत्त
Rekhta.org
मीना बाज़ार (सिनेमाई संस्मरण)
मेरा दोस्त, मेरा दुश्मन-सआदत हसन मंटो, इस्मत चुग़ताई
लेखक परिचय
पिछले तीन दशकों से मास्को, रूस में रह रही हैं। इन्होंने अभियांत्रिकी में शिक्षा प्राप्त की है। ये रूसी भाषा से हिंदी और अंग्रेज़ी में अनुवाद करती हैं। आजकल एक पाँच सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं। हिंदी से प्यार करती हैं और मास्को में यथा संभव हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं।
मंटो के बारे में सिलसिलेवार इतनी बेहतरीन जानकारी देने के लिए लेखिका को बहुत-बहुत बधाई ~ भाषा का प्रवाह काबिले तारीफ है। ऐसा लगता है कि लेखिका मंटो पर कुछ और अधिक लिखना चाहतीं थीं, किन्हीं वजहों से नहीं लिखा होगा।
ReplyDeleteप्रगति, मंटो पर शानदार, जानदार और रोचक कहानी लिखी है तुमने। उसे पूरा खोलकर हमारे सामने रख दिया है। शब्द चयन से लेकर, भाषा प्रवाह, आलेख का अंत सब बहुत अच्छा लगा। पूरा आलेख एक साँस में पढ़ा गया। मंटो की कहानियाँ पाठक को अंदर से झकझोरकर रख देती हैं। “और एक अफ़साना जो वह ख़ुद था, उसे अभी बहुत पढ़ा और समझा जाना चाहिए।” इस पंक्ति से आलेख समाप्त करके तुमने मंटो को ख़ूब पढ़ने और समझने के लिए पाठकों को प्रेरित भी किया है। आलेख पढ़कर मुझे सहज आनंद मिला। इसके लिए तुम्हें बधाई और धन्यवाद।
ReplyDeleteप्रगति जी, मंटो पर आपने उतने ही खुलूस से लिखा जितने खुलूस से मंटो लिखा करते थे। “खोल दो” का वर्णन झकझोर देने वाला है। आप ऐसे ही प्रभावशाली लेखन देती रहें , ऐसी शुभकामना।
ReplyDeleteहमें बचपन से अदब - तहज़ीब के तरीक़े सिखाए जाते हैं जो ठीक भी है। “अंधे” को अंधा नहीं कहते, सूरदास कहना चाहिये। मंटो की मुश्किल यह थी कि वह अंधे को अंधा कहते थे और आस- पास के मुहल्ले सुन लें, ऐसा ठोक कर कहते थे। यही वजह थी कि उनके लेखन को चाहने वाले भी उन्हें “मेरा दुश्मन” कहते थे। ऐसे व्यक्ति का जीवन सुखद हो, इसकी संभावना बहुत कम रह जाती है। पर मंटो ठहरे मंटो , उन्हें कौन बदलता ? 😊💐
वाह... बहुत ही खूबसूरत शब्दसंकल्पना और कलात्मक विशेषता से मंटो जी पर यह लेख आदरणीया प्रगति जी द्वारा लिखा गया है। जिंदगी को एक बाजी की तरह खेलकर हारने पर भी जीतने वाले एक महान साहित्यकार की कहानी पढ़कर खूब आनंद मिला। 20 वर्षीय साहित्यिक जीवन मे मंटो ने अनगिनत अफ़साने लिखे जो उनकी अदबी दुनिया में तहलका मचा देते थे। आपके आलेखक जरिये मंटो जी के विशेष कृतित्व की विस्तृत जानकारी मिली है। किस तरह उन्होंने साहित्यिक जीवन में अपने सिद्धांतों को जिया इसका खूबसूरत चित्र प्रस्तुत किया है। एक हक़ीक़त निगार लेखक के बारे में जानकर अच्छा लगा। बहुत बहुत आभार आपका प्रगति जी हमेशा की तरह आज का भी आलेख अत्यंत प्रशंशनीय और रोचक है।
ReplyDeleteवाह प्रगति जी आपका एक और शानदार और सधा हुआ आलेख। एक बार फिर आपकी लेखन शैली और भाषा के प्रवाह ने चमत्कृत किया। मंटो तो फिर मंटो हैं ही। सबसे ज्यादा विवाद में रहने वाले और सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक। मंटो के जीवन-वृतांत और रचना संसार पर आपके इस शोधपरक लेख को पढ़ कर आनंद आया। बहुत बहुत बधाई आपको।
ReplyDeleteप्रगति जी नमस्ते। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिये बहुत बहुत बधाई। आपके सभी लेख बहुत व्यवस्थित होते हैं। अन्य लेखों पर आपकी नियमित टिप्पणी भी लेखकों को उत्साह एवं प्रसन्नता देती है। आपको साधुवाद।
ReplyDeleteबहुत बधाई सार गर्भित और शोध परक लेखन के लिए।
ReplyDeleteExcellent write up. I am in love with MANTO after reading your narration. Shall definitely try to find his stories and read. The way you have presented it keeps binding once started to read. Great work.
ReplyDeleteमंटो पर इतना सार्थक और सच्चा लेख मैंने आज तक नहीं पढ़ा। प्रगति जी को बहुत बहुत बधाई।
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