Friday, May 13, 2022

विराट व्यक्तित्व के विशाल महासागर - गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर



गुरुदेव का जीवन केवल साहित्य तक सिमित होता तो शायद शब्दसीमा में बाँधना आसान होता, किन्तु जीवन के हर क्षेत्र में उनकी पकड़ और सृजन उन्हें पूजनीय बनाती है। अतः लेख का दूसरा और अंतिम भाग आपके समक्ष उनके जीवन को गहराई से प्रस्तुत करने का एक छोटा प्रयास है।

व्यक्तिगत जीवन की उहापोह के बीच अंगेज़ी हुकूमत की तानाशाही एक परिपक्व हो चुके भारतीय रवीन्द्रनाथ के लिए नागवार गुजरी। १९०५ में गोरी सरकार के बंग-भंग के फैसले से रवीन्द्रनाथ आग-बबूला हो उठे और उनकी कलम अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आग उगलने लगी। उन्होंने जन-सभाओं और रैलियों की झड़ी लगा दी। अंग्रेज़ों की दमनकारी नीतियों के खिलाफ़ खुलकर लिखते और उनके गीत बच्चे-बच्चे के मुख पर सज रहे थे। उनके गाये गीत सरकार-विरोधी थे, सो उनपर पाबन्दी लगा दी गयी। इतना ही नहीं, बच्चों और नौजवानों को स्कूलों और कॉलेजों से निकाला जाने लगा। लेकिन इस संकट का सामना भी रवीन्द्रनाथ ने बड़ी सूझ-बुझ से किया और महर्षि अरविंदो घोष के साथ मिलकर शिक्षण संस्थानों की स्थापना के लिए एक कमिटी बनाई। अंग्रेज़ों से चल रही वैचारिक लड़ाई जब हिंसक रूप लेने लगी तब रवीन्द्र ने इससे किनारा कर लिया जिसके कारण उनकी आलोचना भी हुई। किन्तु, जिस बात की गवाही उनका मन न देता, कोई भी दबाव उनसे वह कार्य नहीं करवा सकता था।देशप्रेम का भाव ‘जन-गण-मन गीत बनकर हृदय से फूट पड़ा। १९११ में लिखी गयी यह रचना आगे चलकर देश का राष्ट्रगीत बनी। सम्पूर्ण संसार में रवीन्द्रनाथ टैगोर एकलौते ऐसे कवि हैं जिनके गीत दो देशों, भारत और बांग्लादेश, के राष्ट्रगान बनाए गए 

१९१९ में हुए जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड के विरोध में उन्होंने ‘नाईटहुड की उपाधि लौटाते हुए अंग्रेज़ वायसराय को लिखा था – मैं अपने उन लाखों करोड़ों देशवासियों के साथ खड़ा हूँ जो इस काबिल भी नहीं हैं कि उन्हें इंसान समझा जाये  देशप्रेम का उनका जज़्बा अब देशवासियों के सामने था और उन नोबेल पुरस्कृत रवीन्द्र की बातों का बहुत संजीदगी से लिया जाने लगा था

इसी दौरान उन्होंने अपना बहु-चर्चित उपन्यास ‘गोरा लिखी जिसपर १९३८ में फ़िल्म भी बनाई गयी थी। इस उपन्यास के विषय में वरिष्ठ लेखिका मृदुला गर्ग कहती हैं, यह औपनिवेशिक काल का सबसे अन्तर्भेदी उपन्यास है, सबसे बहुआयामी उपन्यास है।

गोरा के बाद आई उनकी नोबेल पुरस्कृत कृति ‘गीतांजलि जिसे पूरा करने में उन्हें लगभग चार वर्षों का समय लगा। गीतांजलि की एक-एक कविता बेमिसाल है। बांग्ला में लिखी इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद उन्होंने स्वयं किया जिसपर उन्हें वर्ष १९१३ का साहित्य नोबेल पुरस्कार सौंपा गया। साहित्य के क्षेत्र में यह पुरस्कार पाने वाले वे प्रथम एशियाई थे। उनकी पुस्तक गीतांजलि के विषय में मशहूर कवि डब्ल्यू. बी. यीट्स लिखते हैं, मैं गीतांजलि को कई दिनों तक लगातार पढता रहा। रेल में रहूँ या बस की छत पर, रस्तराओं में बैठूं या घर पर – गीतांजलि मुझपर सवार रहती। मैं गीतांजलि का दीवाना हो गया था।" गीतांजलि के अंग्रेज़ी अनुवाद ने ब्रिटेन में अप्रतिम वाहवाही लूटी जो अबतक स्वयं अंग्रेज़ साहित्यकारों को भी नसीब नहीं हुई थी। गुरुदेव को जाननेवाले कहते हैं कि गुरुदेव की प्रतिभा के सामने नोबेल भी छोटा है। उनके कर्मों को किसी भी पुरस्कार से नहीं आँका जा सकता है। उनका व्यक्तित्व इतना विराट है कि उन्हें सिर्फ गीतांजलि से आँकना संभव नहीं है। दर्शन, साहित्य, उपन्यास, कला, काव्य, गान, संगीत आदि उनके व्यक्तित्व के अभिन्न अंग हैं। इन सबके ज़रिए उन्होंने विश्व को अपना परिचय दिया। - सुप्रिय टैगोर, रवीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रपौत्र  

नोबेल पुरस्कार पाने के बाद अचानक मिली प्रसिद्धि से वे घबरा गए थे। खतों के अम्बार, ट्रेन भरकर लोगों का उनसे मिलने आना उन्हें खलने लगा था। अपने एक अंग्रेज़ मित्र को यह हाल उन्होंने कुछ इस तरह लिखा, यहाँ लोगों में उन्माद और उत्तेजना का जैसा बवंडर है, उससे मैं सचमुच परेशान हूँ। पिछले दिनों मिले तारों-पत्रों से मैं पूरी तरह अट गया हूँ । जिनका मेरे प्रति कभी दोस्ताना नहीं रहा या जिन्होंने कभी मेरी लिखी एक पंक्ति भी नहीं पढ़ी, वे लोग तक आनंद के अतिरेक में चिल्लाने लगे हैं। मैं बता नहीं सकता कि इन हंगामों से मैं कितना थक गया हूँ। यह झूठा दिखावा हैरानी में डालने वाला है। सच्चाई तो यही है मेरे दोस्त कि ये लोग किसी सम्मान का सम्मान कर रहे हैं, मेरा नहीं!

दुनिया की रीत समझते हुए रवीन्द्रनाथ ‘गुरुदेव’ कहलाने लगे थे। और गुरुदेव के विराट व्यक्तित्व में साहित्य के आलावा शिक्षा, कला और संगीत की धरोहर कुछ इस तरह सिमटता जा रहा था मानो उनके छूने की प्रतीक्षा में हो।

गुरुदेव और शान्तिनिकेतन

पश्चिम बंगाल के बीरभूम ज़िले में स्थित शान्तिनिकेतन की प्राकृतिक सुन्दरता ने पिता देवेन्द्रनाथ को इतना आकर्षित किया था कि उन्होंने १८६८ में ही वहाँ आठ एकड़ की ज़मीन खरीद ली थी। यही संपत्ति रवीन्द्रनाथ के समाजसेवी महत्वाकांक्षाओं का गढ़ बना। कलकत्ता की चकाचौंध से दूर इस सुरम्य स्थान को उन्होंने देश के उज्ज्वल भविष्य को सँवारने और निखारने के लिए उपयुक्त पाया और धीरे-धीरे यहाँ आश्रम, विद्यालय और विश्वविद्यालय तक की स्थापना की। पाँच छात्र और पाँच शिक्षकों के साथ उन्होंने सबसे पहले २२ दिसम्बर १९०१ में बह्मचर्य आश्रम के नाम से एक अद्भुत विद्यालय की स्थापना की। प्रकृति को गुरु मानते हुए पेड़ों के नीचे कक्षाएँ लगती थीं और भारतीय परम्पराओं के अनुसार शिक्षण-व्यवस्था की गयी। गुरुदेव ने स्वयं छात्रों के लिए प्रार्थना लिखी थी जिसका भाव था – मेरे हाथ से कभी कुछ गलत न हो, मैं किसी का शोक न मनाऊँ। मुझे किसी का भय न हो, मंगल काज के लिए सबकुछ दान दे दूँ। मृत्यु से डरूँ नहीं, आनंद में मेरा विसर्जन हो। सत्य की हमेशा जय हो।

गायत्री मन्त्र में उनकी गहरी आस्था थी। पाठ्यक्रम की पुस्तकें भी उन्होंने स्वयं ही लिखी थीं। अध्यापकों को प्रोत्साहन देने में सदैव तत्पर रहते थे। वे कहते थे, अध्यापक दीपक की तरह होता है। उसके ज्ञान के प्रकाश में बच्चे सीखते हैं। आप बच्चों से कुछ पाने की उम्मीद मत रखिये।

देखते ही देखते शान्तिनिकेतन दुनिया के बेहतरीन शिक्षकों से लैस एक अद्भुत विद्यामंदिर बन गया। यहाँ चीन, जापान तथा अन्य एशियाई देशों से शिक्षक आकर बस गए। कलाकार, चित्रकार, मूर्तिकार जैसे तमाम विधाओं की शिक्षा यहाँ उपलब्ध थीं। शान्तिनिकेतन के विस्तार और विकास के लिए उन्होंने जगन्नाथपुरी का अपना निवास बेच डाला और छात्रों के लिए छात्रावास, पुस्तकालय तथा अन्य आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की। आश्रम के खर्चों को चलाने के लिए क़र्ज़ भी लिए जिसका ब्याज़ पिताजी से प्रतिमाह मिल रहे जेबखर्च दो सौ रुपये से चुकाते थे। खर्च ज़्यादा और नियमित आमदनी नहीं होने के कारण उन्हें अपनी पत्नी के विवाह के ज़ेवरात, सोने की घड़ी और मृणालिनी के लिए बनवाया घर तक बेचना पड़ा। आश्रम का खर्च अब भी वहन करना कठिन हो रहा था तो अंततः विद्यार्थियों से तेरह रुपये महीने की फ़ीस लेने का निर्णय लिया गया। शान्तिनिकेतन की चर्चाएँ दूर-दूर तक होने लगी और देशभर से विद्यार्थी यहाँ आकर पढ़ने को आतुर हो रहे थे। किन्तु आर्थिक अभाव का संकट अबतक बना हुआ था जिससे गुरुदेव संकोच में थे। संयोगवश १९१८ में गुजरात के कुछ प्रबुद्ध व्यापारियों ने शान्तिनिकेतन में कुछ दिन बिताये और इस परिवेश से ऐसे मोहित हुए कि यहाँ निवेश को तैयार हो गए और पहली बार गुजराती छात्रों को यहाँ प्रवेश मिला। धीरे-धीरे यहाँ समूचे भारत से विद्यार्थियों को प्रवेश मिलने लगा और १९२१ में इसे ‘विश्वभारती’ नाम दिया गया। पत्नी मृणालिनी, बेटे रथीन्द्रनाथ और मित्र दीनबन्धु एंड्रूज़ की मदद से विश्वभारती समूचे संसार के लिए खोल दिया गया। मातृभाषा पर विशेष बल देते हुए गुरुदेव के विद्यालय में विभिन्न भारतीय भाषाओँ के आलावा अनेक विदेशी भाषाओँ की शिक्षा सुलभ कराई गयी। विश्वभारती को १९५१ में एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय की मान्यता मिली और यह विश्वविद्यालय आज भी भारत के मस्तक पर गर्व का टीका है।

गुरुदेव और उनके यादगार व्याख्यान

अपनी कलम और वैचारिक स्पष्टता ने गुरुदेव को सदैव श्रद्धेय और पूजनीय बनाया। शान्तिनिकेतन की कीर्ति विश्व भर में फैल चुकी थी। उनके भाषणों और व्याख्यानों की श्रृंखला चीन, जापान, रूस, इटली, फ्रांस, जर्मनी, रोम, आदि देशों में बहुत आदर-सत्कार व सम्मान के साथ आयोजित किये जाने लगे। हर देश उनके स्वागत में पलकें बिछाए उन्हें सुनने को लालायित रहता था। उनके लिखे नाटकों को मँच पर प्रस्तुत किया जाता और उन्हीं के गीतों से अगुवाई की जाती। ग्रीक के एथेंस शहर में तो बाकायदा उन्हें ‘आर्डर ऑफ़ द रिडीमर’ सम्मान दिया गया। ‘विश्वभारती’ के अनुपम व अद्वितीय शिक्षण पद्धति ने गुरुदेव को लगभग सभी देशों में सम्मानित गणमान्य बना दिया था।

रवीन्द्रनाथ: गुरु से शिष्य बनने की दास्तान

कहते हैं सीखने की कोई उम्र नहीं होती है। इस कहावत को चरितार्थ करते हुए उनहत्तर साल की उम्र में गुरुदेव ने चित्रकारी सीखी और इस कला को ऐसा साधा कि तेरह सालों में तीन हज़ार से अधिक चित्र बना डालीं। उनके बनाए चित्रों की प्रदर्शनी आज भी शान्तिनिकेतन में मौजूद है।

रवीन्द्र संगीत की उत्पत्ति

शिक्षा, कला और दर्शन को सर्वसुलभ करने वाले रवीन्द्रनाथ संगीत के ऐसे प्रेमी थे कि उनके नाम से संगीत की एक अलग शाखा निकल गयी जो ‘रवीन्द्र संगीत के नाम से विख्यात हुई। रवीन्द्र संगीत बचपन से मिले सगितमय वातावरण, पिता का कलाप्रेम, बड़े भाईयों का विभिन्न वाद्ययंत्रों पर पकड़ और उनकी अपनी रूचि के कारण संभव हो सका। उन्हें दुनियाभर के विभिन्न रागों, लोक-संगीत एवँ लोक-राग तथा पश्चिम-यूरोपीय संगीतों से बचपन से जुड़ाव रहा। संगीत की इतनी गहन जानकारी और स्वयं उसका साधक होना उन्हें अपनी एक अलग विधा बनाने में मददगार साबित हुई। अपने लिखे गीतों को वे स्वयं स्वरबद्ध करते और उसकी मिठास में खोये बिना रह पाना नामुमकिन हो जाता। रवीन्द्रनाथ ने प्रकृति, प्रेम और भक्ति पर सैकड़ों गीत लिखे जिन्हें आज बंगाल के हर घर में गाया-गुनगुनाया जाता है। रवीन्द्र संगीत के बिना बंगाल का कोई भी तीज-त्योहार अधूरा है।

अंतिम यात्रा

अपने जीवन के अंतिम क्षण तक गुरुदेव शान्तिनिकेतन के लिए कार्यशील रहे। एक लम्बी बीमारी के बाद ७ अगस्त १९४१ में उन्होंने अपने जीवन की अंतिम साँस ली और अपने पीछे सृजनात्मकता का ऐसा संसार छोड़ गए जिसकी छत्र-छाया में आज भी संभावनाएँ पनपती हैं, आशाएँ जन्म लेती हैं और उम्मीद का आकाश दिखता है। अस्सी साल के लघु जीवन में रवीन्द्रनाथ टैगोर ऐसे कार्य कर गए जिसे करने में आमजन को न जाने कितने जन्म लग जाते! इस विराट व्यक्तित्व की विशालता को मेरा शत शत नमन्! 

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर: एक संक्षिप्त परिचय

पूरा नाम

रवीन्द्रनाथ ठाकुर/टैगोर, गुरुदेव

छद्मनाम

भानुसिंह/भानुसिम्हा

जन्म

७ मई १८६१, बैशाख का २५वाँ दिन, १२६८ (बांग्ला कैलंडर)

जन्मस्थान

जोरासांको (पैतृक निवास), कोलकाता (तत्कालीन बंगाल प्रेसिडेंसी)

मृत्यु

७ अगस्त १९४१ (८० वर्ष), कोलकाता ((तत्कालीन बंगाल प्रेसिडेंसी)

माता

शारदा देवी

पिता

महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर

सहोदर

द्विजेन्द्रनाथ टैगोर (कवि और दार्शनिक), सत्येन्द्रनाथ टैगोर (सिविल सेवा में जाने वाले पहले भारतीय व ग़ैर यूरोपीय व्यक्ति), ज्योतिंद्रनाथ टैगोर (संगीतकार और नाटककार), स्वर्णकुमारी (बहन, उपन्यास लेखिका), हरेन्द्रनाथ टैगोर

पत्नी

मृणालिनी देवी (१ मार्च १८७४–२३ नवंबर १९०२)

संतान

५ (इनमें से दो की मृत्यु बाल्यावस्था में ही हो गयी थी)

शिक्षा

प्रारम्भिक शिक्षा

घर

प्रथम विद्यालय

द ओरिएण्टल सेमिनरी स्कूल, कलकत्ता

द्वितीय विद्यालय

द बंगाल अकेडमी, कलकत्ता

वकालत

लन्दन विश्वविद्यालय (१८८० में पढाई अधूरी छोड़कर वापस आ गए)

घर की शिक्षा

भाई हरेन्द्रनाथ की देखरेख में कुश्ती, कला, भूगोल, इतिहास, साहित्य, गणित, संस्कृत, अंग्रेज़ी आदि

पिता के प्रोत्साहन से वेद, उपनिषद, संगीत एवं कला सीखा

रूचि के अनुसार पाश्चात्य संगीत, अंग्रेज़ी साहित्य, बांग्ला/अंग्रेज़ी का गहन अध्ययन

साहित्यिक योगदान

काव्य संग्रह

भानुसिम्हा ठाकुरेर पदावली (१८८४), मानसी (१८९०), सोनार तारी (१८९४), गीतांजलि (१९०२), गीतिमाल्या (१९१४), बालका (१९१६)

उपन्यास

नष्टनीड़ (१९०१), गोरा (१९१०), घरे-बाहिरे (१९१६), योगायोग (१९२९)

गीत-नाट्य

वाल्मीकि प्रतिभा (१८८१), काल-मृगया (१८८२), मायार खेला (१८८८), विसर्जन (१८९०), चित्रांगदा (१८९२), राजा (१९१०), डाकघर (१९१२), अचलयतन (१९१२), मुक्तधारा (१९२२), रक्तकरभि (१९२६), चंडालिका (१९३३)

अकाल्पनिक लेखन

जीवन-स्मृति (१९१२), छेला-बेला (१९४०)

मूल अंगेज़ी लेखन

थॉट रेलिक्स (Thought Relics) १९२१

अंग्रेज़ी अनुवाद

चित्रा (१९१४), क्रिएटिव यूनिटी (१९२२), द क्रेस्सेंट मून (१९१३), द साइकल ऑफ़ स्प्रिंग (१९१७), फायरफ्लाइज़ (१९२८), फ्रूट गैदरिंग (१९१६),  द फ्युजिटिव (१९१६), द गार्डनर (१९१३), गीतांजलि:सॉंग ऑफ़रिंग्स (१९१२), ग्लिम्पस ऑफ़ बंगाल (१९२०), द होम एंड द वर्ल्ड (१९२१), द हंगरी स्टोन्स (१९१६), आई वोंट लेट यू गो: सलेक्टेड पोम्स (१९९१), द किंग ऑफ़ द डार्क चैम्बर (१९१४), लेटर्स फ्रॉम एन एक्सपैट्रिएट इन यूरोप (२०१२), माशी (१९१८), माय बॉयहुड डेज़ (१९४३), माय रेमिनिसेंसेज़ (१९१७), नेशनलिज्म (१९१७), द पोस्ट ऑफिस (१९१४), साधना: द रियालाइज़ेशन ऑफ़ लाइफ (१९१३), सॉंग्स ऑफ़ कबीर (१९१५), द स्पिरिट ऑफ़ जापान (१९१६), स्टोरीज फ्रॉम टैगोर (१९१८), स्ट्रे बर्ड्स (१९१६), वेकेशन (१९१३), द रेक (१९२१)

बंगाली फ़िल्में (उनकी पुस्तकों पर आधारित)

नातिर पूजा (१९३२, रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा निर्देशित), गोरा (१९३८), काबुलीवाला (१९५७), क्षुधिता पाषण (१९६०), तीन कन्या (१९६१), चारुलता (१९६४), मेघ -ओ- रौद्र (१९६९), बाउ ठाकुरेर हाट (१९५३), घरे-बाहिरे (१९८५), चोखेरबाली (२००३), षष्टि (२००४), शुवा (२००६), चतुरंगा (२००८), नौकादुबी (२०११), एलार चार अध्याय (२०१२)

हिन्दी फ़िल्में (उनकी पुस्तकों पर आधारित)

बलिदान (१९२७), मिलन (१९४५), डाकघर (१९६५), काबुलीवाला (१९६१), उपहार (१९७१), लेकिन (१९९१), चार अध्याय (१९९७), कश्मकश (२०११), बायोस्कोपवाला (२०१७), स्टोरीज़ बाइ रवीन्द्रनाथ टैगोर (२०१५, टीवी सिरीज़)

अन्य महत्वपूर्ण योगदान

२२ दिसम्बर १९०१

शान्तिनिकेतन में ब्रह्मचर्य आश्रम की स्थापना

१९२१

विश्वभारती की स्थापना

१९५१

विश्वभारती को केन्द्रीय विश्वविद्यालय की मान्यता

पुरस्कार

साहित्य का नोबल पुरस्कार, गीतांजलि – सॉंग ऑफ़रिंग्स, १९१३

सन्दर्भ:  

  • प्रथम भाग: https://hindisepyarhai.blogspot.com/2022/05/blog-post_07.html
  • गुरुदेव, दिनकर जोशी
  • विरासत – रवीन्द्रनाथ टैगोर; राज्यसभा टीवी
  • https://www.bbc.com/news/av/entertainment-arts-33543786
  • विकिपीडिया
  • https://www.hindigyyan.com/rabindranath-tagore-biography-in-hindi


लेखक परिचय:

दीपा लाभ
भारतीय संस्कृति की अध्येता
हिन्दी से प्यार है
हिन्दी सेवा में समर्पित लेखिका 
प्रबंध संपादक, साहित्यकार तिथिवार
             

9 comments:

  1. दीपा जी,
    आपके द्वारा लिखित आदरणीय टैगोर जी पर दोनों लेख इतने जबरदस्त शब्दसंकल्पना और संयमता के साथ लिखा गया है कि सराहना के लिए शब्द कम पढ़ रहे है। अत्यंत खोजबीन के बाद लिखा गया यह लेख शब्दसिमित होते हुए भी निखर कर आ रहा है। *“सिर्फ किनारे पर खड़े रहकर समुंदर पार नहीं किया जा सकता"* टैगोर जी के इस कथन को साक्ष्य करता हुआ यह लेख रचा गया है कि अपनी रचनाओं को अमर बनाना है तो पढ़ना और टिका या प्रतिक्रिया देने से कुछ नही होगा उसके लिए कड़ी मेहनत, सुपरिचित, सुप्रचलित, सुभावार्थ, सुंदर शब्दश्रंखला और लेखन के प्रति रुचि होना बहुत जरूरी है। आपकी लेखनी और ज्ञानवर्धक आलेख को सलाम। आभार आपका। अनगिनत शुभकामनाएं। प्रणाम।

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  2. स्वयं गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद किया,यह रवींद्रनाथ जी की भाषा प्रभुत्व की मिसाल है,जिस रचना को नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके बहु आयामी व्यक्तित्व को शब्दबद्ध करने हेतु दीपा जी,आपका हार्दिक अभिनंदन 💐👏

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  3. आपने गुरुदेव के जीवन की यात्रा करा दी । आपके शब्द बोल रहे थे, हम चलचित्र देख रहे थे । एक एक शब्द नगीना सा जड गया । हार्दिक शुभकामनाएं।

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  4. दीपा, प्रकांड विद्वान रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बहु-आयामी व्यक्तित्व और कृतित्व पर शोधपरक, सुगठित, पठनीय और दिलचस्प आलेख के लिए आपको बधाई। इसी प्रकार रचनात्मक बनी रहें। हिंदी के प्रति आपका समर्पण बहुत प्रशंसनीय है। आपको हिंदी की सेवा से जुड़े सभी कार्यों के लिए बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।

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  5. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जी की जीवन यात्रा में, दीपा जी आपने अपने इस लेख के माध्यम से हम सभी को कुछ यों शामिल किया है कि लग रहा इस यात्रा में हम साथ चल रहें हैं। आपको इस शोधपरक, सधे हुए और पठनीय आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई और धन्यवाद।

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  6. दीपा जी नमस्ते। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर पर आपका यह लेख बहुत समृद्ध एवं जानकारी भरा है। आपके सभी लेख उम्दा रहते हैं। लेख पर आई टिप्पणियों ने लेख को और विस्तार दे दिया है। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिये हार्दिक बधाई।

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  7. दीपा जी , आलेख का दूसरा भाग भी प्रभावशाली है। सुनियोजित और जानकारी पूर्ण है। बधाई।
    रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जीवन बहुत प्रेरक है। उनके जीवन से सीखने वाली तीन मुख्य बातें हैं :
    १. मनुष्य की आत्मा स्वभावत: मुक्त है। उसका स्वतंत्र, निर्भीक कल्याणमयी स्वरूप इस विश्व को सौंदर्य भी देता है और लाभ भी।
    २. हमें ज्ञान को रटी-रटाई परिपाटी में विभक्त नहीं करना चाहिये।एक अभियंता अच्छा संगीतकार या चित्रकार हो सकता है। सो , रुचि अनुसार जहाँ से विद्या मिले ग्रहण करें और उसे दूसरों के लिए भी उपलब्ध कराएँ।
    ३. सीखने की कोई आयु नहीं होती। हमारा आजीवन ज्ञान - पिपासु रहना,नया सीखते रहना ही हमें जीवंत और उपयोगी बनाता है।

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  8. दीपा, रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे लोगों के समीप जाने पर ही हम यह समझ पाते हैं कि कर्म से बड़ा धर्म नहीं और मनुष्य के विकास की कोई सीमा नहीं। ऐसे लोगों का हर काम और उनको करने का ढंग एक क़िस्म का विश्विद्यालय होता है, जानकारी से हमारे जीवनों को परिपूर्ण तो करता ही है, साथ ही उदारता, निस्स्वार्थ काम करने की लालसा, अहंकार से अनभिज्ञ रहने जैसे गुणों से साक्षात्कार करवा देता है। यह आलेख पढ़ने तक कविवर के सृजन-संसार की थोड़ी जानकारी तो थी, लेकिन उनके विराट व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम ज्ञात नहीं थे। इस सुन्दर परिचय के लिए आभार और शोधपूर्ण एवं सुन्दर लेखन के लिए बधाई।

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