हिंदी से प्यार है समूह के पटल पर अँग्रेज़ी के लोकप्रिय लेखक पर आलेख देखकर स्वाभाविक है कि पाठकों के मन में प्रश्न उभर आए - यह चुनाव क्यों?... तो बात दरअसल इतनी सी है कि हिंदी सिर्फ एक भाषा नहीं है...हिंदी एक संस्कृति है, हिंदी हिंद है। आज जिस लेखक की बात हम कर रहे हैं, उन्होंने हिंद को जिया है, हिंद से भरपूर प्रेम किया है, उसे अपना घर बनाया है और अपनी लेखनी से काग़ज़ पर उकेर कर दुनिया भर में पहुँचाया है। अपने जीवन के दूसरे दशक में वे इंग्लैंड जाकर भारत इसलिए लौट आए क्योंकि उससे दूर जाकर ही उन्होंने यह अनुभव किया कि वे अपने इस घर से दूर नहीं रह पाएँगे। इस मिट्टी की पुकार सदा उनके मन में गूँजती रही और जब लौटे तो फिर सदा के लिए यहीं के होकर रह गए। पर्वत-नगरी मसूरी से ऐसे बँधे कि आज भी वहीं लंडौर के आईवी कॉटेज में उनका बसेरा है। शहरी चकाचौंध से दूर वे शांत वादियों में रहना पसंद करते हैं। उन्हें भारतीय 'वर्ड्सवर्थ' कहा जाता है, लेकिन वे स्वयं को वर्डस्वर्थ कहलाने के पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि उन्हें लगता है, इससे बच्चे उन्हें ऐसी दृष्टि से देखने लगेंगे, जिन्हें स्कूल में पढ़ना अनिवार्य हो। वे चाहते हैं उन्हें सिर्फ आनंद के लिए पढ़ा जाए।
अपनी कहानियों में वे एक उज्ज्वल कल के स्वप्न देखते हैं, जहाँ बच्चे जीवन के साधारण सुखों का आनंद ले सकें, लंबी छायादार सड़कों पर घूम सकें, झरनों के नीचे उन्मुक्त किलोल कर सकें और पहाड़ी की चोटी तक की राहों पर बिखरे लाल, नीले और पीले फूल चुन सकें। उनका मानना है कि स्वर्ग पृथ्वी पर ही एक जगह है। इस स्वर्ग को वे उकेरते हैं, बच्चों के लिए अपनी कहानियों में। वे दर्शन कराते हैं एक निश्छल दुनिया का जहाँ सरल, सौम्य व मुस्कुराते चेहरे बहुतायत में हैं, जहाँ जीवन की वास्तविक कठोरताएँ भी हैं, किंतु इतनी सहजता व सरलता से बुनी हुईं कि अधिक देर विचलित नहीं करतीं। उनकी कहानियों के भूत भी मैत्री का भाव लिए हैं। वे रहस्य व रोमांच की भी ऐसी दुनिया गढ़ते हैं कि बच्चे तो क्या बड़े भी उसमें आकंठ उतर जाते हैं।
स्वतंत्रता पूर्व भारत के कसौली में १९ मई, १९३४ को एक ब्रिटिश दंपति ऑब्रे अलेक्जेंडर बॉन्ड और एडिथ क्लार्के के यहाँ जन्मे रस्किन बॉन्ड के पिता भारत में तैनात रॉयल एयर फ़ोर्स के अधिकारी थे। उनके प्रारंभिक वर्ष जामनगर और शिमला में व्यतीत हुए। रस्किन का अपने पिता से गहरा जुड़ाव था। वे उन्हें पुस्तकें पढ़ने और लेखन के लिए प्रोत्साहित करते थे। उस समय लुइस कैरल की 'एलिस इन वंडरलैंड' उनकी पसंदीदा पुस्तक रही। बाद में रुडयर्ड किपलिंग, चार्ल्स डिकेंस और रवींद्रनाथ टैगोर उनके प्रिय लेखक रहे। माता-पिता के अलगाव और दस वर्ष की कोमल आयु में पिता की मृत्यु से मिले गहरे आघात ने उन्हें अकेलेपन और अवसाद की ओर धकेल दिया, किंतु दादी के स्नेहभरे साथ ने उन्हें काफी संबल दिया। देहरादून में हर साल अपनी दादी के घर में बिताई गई गर्मी की छुट्टियों के दिन भी रस्किन की कई कहानियों में हमें तरोताज़ा करते हैं। रस्किन लिखते हैं कि उनकी दादी बहुत बढ़िया खाना बनाती थीं। शिमला के बिशप कॉटन स्कूल में अध्ययन करते हुए उन्होंने 'हैली' साहित्य पुरस्कार और 'इरविन डिविनिटी' पुरस्कार सहित कई लेखन प्रतियोगिताएँ जीतीं। स्कूली शिक्षा पूरी कर माता की इच्छानुसार वे वर्ष १९५१ में इंग्लैंड चले गए थे, किंतु भारत की आत्मीय पुकार ने उन्हें वापिस बुला लिया। उनकी माता चाहती थीं कि वे सेना में भरती हों, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। पिता से मिले लेखन संस्कार ने उन्हें प्रेरित किया। उनका कहना है कि वे स्वयं, लेखक के अतिरिक्त कुछ नहीं होना चाहते थे, क्योंकि उनके लिए लेखन का सबसे बड़ा आकर्षण है कि आप अपनी दुनिया स्वयं गढ़ सकते हैं, आप दो जीवन जी सकते हैं, वास्तविक और अपने लेखन संसार का। विश्व प्रसिद्ध बाल साहित्यकार श्रीमान रस्किन बॉन्ड ने बालपन में ही किसी परीक्षा में लिख दिया था कि परीक्षाएँ बकवास होती हैं….वे आज भी यही मानते हैं कि रट कर दी गई परीक्षाएँ कुछ नहीं सिखातीं।
सचमुच उनकी गढ़ी दुनिया में पाठक इस प्रकार खो जाते हैं कि वे उसी का हिस्सा बन जाते हैं, उनके पात्रों में स्वयं को देखने लगते हैं। उनका आत्मकथात्मक पात्र 'रस्टी' न जाने कितने बालकों व युवाओं के दिल के क़रीब रहा है और कहीं ना कहीं हर किसी ने उसमें अपनी एक छवि देखी है। इस कहानी पर बने सीरियल 'रस्टी' को स्क्रीन पर देख हम पहाड़ों की सहज-सरल दुनिया में खो जाते हैं। इन्हीं पहाड़ों में है, रस्किन का जीवन और इसीलिए वे ख़ुद को 'पहाड़ी वाला लेखक' कहलाना पसंद करते हैं। १७ वर्ष की आयु में लंदन में बिताए अल्पकाल में, भारत के जीवन को याद करते हुए, उन यादों को समेटते हुए लिखा पहला उपन्यास 'ए रूम ऑन द रूफ़' और उसके प्रकाशन के लिए मिले ५० पाउंड के भुगतान से वे वापस भारत आ गए। उस समय जहाज़ का किराया ४० पाउंड हुआ करता था। इस उपन्यास को प्रतिष्ठित जॉन लेवेलिन राइस मेमोरियल अवार्ड मिला, जो ३० वर्ष से कम आयु के राष्ट्रमंडल लेखकों को दिया जाता है, लेकिन तब तक वे वापस भारत आ चुके थे। अगर इस पुरस्कार के बाद वे लंदन में ही रहते तो उनका लेखकीय कैरियर बहुत पहले ऊंचाइयाँ छू सकता था, लेकिन उन्हें कभी इसका रंज नहीं हुआ। वापस लौटकर उन्होंने कुछ वर्षों तक दिल्ली और देहरादून में स्वतंत्र रूप से काम किया। समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं के लिए लघु-कथाएँ तथा कविताएँ लिखकर ख़ुद को आर्थिक रूप से संभाला। चार साल तक एक पत्रिका का संपादन किया। आप ३० वर्ष की आयु में नौकरी छोड़ संपूर्ण रूप से लेखन को समर्पित हो गए।
१९८० के दशक में, भारत में पेंगुइन प्रकाशन संस्था की स्थापना के बाद इस प्रकाशन ने कुछ किताबें लिखने के लिए रस्किन से संपर्क किया। तब 'ए रूम ऑन द रूफ़' की अगली कड़ी के रूप में साल १९५६ में 'वैग्रांट्स इन द वैली' लिखी गई। ये दो उपन्यास १९९३ में पेंगुइन इंडिया द्वारा एक खंड में प्रकाशित किए गए। इसके अगले वर्ष उनके ग़ैर-काल्पनिक लेखन, 'द बेस्ट ऑफ रस्किन बॉन्ड' का एक संग्रह पेंगुइन इंडिया ने प्रकाशित किया। अलौकिक कथाओं में उनकी रुचि ने उन्हें 'घोस्ट स्टोरीज़ फ्रॉम द राज', 'ए सीज़न ऑफ़ घोस्ट्स' और 'ए फ़ेस इन द डार्क' लिखने के लिए प्रेरित किया। तब से उन्होंने पाँच सौ से अधिक लघु कहानियाँ, निबंध और उपन्यास लिखे हैं, जिनमें 'द ब्लू अम्ब्रेला', 'फ़नी साइड अप', 'अ फ़्लाइट ऑफ पिजन्स' और बच्चों के लिए ५० से अधिक किताबें शामिल हैं। 'द लैंप इज़ लिट' पत्रिकाओं में छपे उनके निबंधों का संग्रह है। इस समृद्ध लेखक को 'आवर ट्रीज़ स्टिल ग्रो इन देहरा' के लिए वर्ष १९९२ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। बाल साहित्य में योगदान के लिए साल १९९९ में उन्हें पद्मश्री और २०१४ में पद्म भूषण से नवाज़ा गया था। उनकी कहानियों को फ़िल्मों के लिए भी चुना गया। सबसे पहले शशि कपूर ने उनके उपन्यास 'अ फ़्लाइट ऑफ पिजन्स' पर जुनून नामक फ़िल्म का निर्माण किया। यह उपन्यास रूथ लबादूर नाम की एक लड़की की सच्ची कहानी पर आधारित है, जो १८५० के दशक में शाहजहाँपुर में रहती थी और एक चर्च में हुए नरसंहार की प्रत्यक्षदर्शी थी। यह कहानी उन्होंने अपने पिता से सुनी, जिन्हें उनके पिता ने सुनाई थी। रस्किन कहते हैं - "कहानी शायद मेरे साथ रह गई थी, क्योंकि मैंने इसे संघर्ष के समय आम लोगों की मानवता की कहानी के रूप में आत्मसात किया था। मैंने इसका शोध करने का फ़ैसला किया। लगभग सारी पुस्तक विद्रोह के वास्तविक तथ्यों और ऐतिहासिक वृतांतों के आधार पर लिखी है। मैंने अपनी कल्पना का उपयोग केवल संवाद लिखने के लिए किया है। "
'एंग्री रिवर' नामक उपन्यास भी फ़िल्म का रूप ले चुका है। 'द ब्लू अम्ब्रेला' उपन्यास पर इसी नाम से निर्मित हिंदी फ़िल्म को २००७ में सर्वश्रेष्ठ बाल फ़िल्म का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला। 'सुज़ाना'स सेवन हस्बैंड्स' पर बनी सात ख़ून माफ़ में स्वयं बॉन्ड पर्दे पर नज़र आए।
रस्किन बच्चों के लेखक के रूप में मशहूर हैं, लेकिन मूल रूप से वे मानवीय रिश्तों और प्रकृति के लेखक हैं। औपनिवेशिक ब्रिटिश पृष्ठभूमि के बावजूद, वे भारत के बारे में यूरोप केंद्रित दृष्टिकोण से नहीं लिखते। वे भारतीय संस्कृति को आत्मसात कर चुके हैं। उनके विचार में "हिंदू धर्म प्रकृति से सबसे निकटता से जुड़ा है। नदियाँ, चट्टानें, पेड़, पौधे, जानवर और पक्षी सभी पौराणिक कथाओं और रोज़मर्रा की पूजा दोनों में अपनी भूमिका निभाते हैं। यह सामंजस्य इस तरह के दूरस्थ स्थानों में सबसे अधिक स्पष्ट है और मुझे आशा है कि यह निर्मम शहरी विकास में अपने अद्वितीय चरित्र को नहीं खोएगा।" – (रेन इन द माउन्टेन्स - नोट्स फ्रॉम द हिमालयाज़ )
वे अँग्रेज़ी में लिखते हैं, लेकिन कमोबेश सभी महत्त्वपूर्ण भाषाओं में उनकी किताबों का अनुवाद हो चुका है और बच्चे-बड़े सभी बहुत शौक से पढ़ते हैं। देहरादून के एक पुस्तक-विक्रेता ताराचंद उनकी लोकप्रियता के बारे में बताते हुए कहते हैं, "उनकी किताबों की बहुत माँग है और जो भी आता है उनके बारे में पूछता है, कहाँ रहते हैं? कैसे दिखते हैं? और यहाँ तक कि लोग उनसे मिलने मसूरी तक चले जाते हैं"। वास्तव में यह उनकी मानवीय संवेदना ही है, जो पाठकों को उनके क़रीब ले जाती है, उनसे मिलने को लालायित करती है। इसी संवेदना की अभिव्यक्ति में रस्किन कहते हैं, "और जब सभी युद्ध हो जाएँगे, तब भी एक तितली सुंदर होगी।" (द बेस्ट ऑफ़ रस्किन बॉन्ड)
१९८० के दशक में, भारत में पेंगुइन प्रकाशन संस्था की स्थापना के बाद इस प्रकाशन ने कुछ किताबें लिखने के लिए रस्किन से संपर्क किया। तब 'ए रूम ऑन द रूफ़' की अगली कड़ी के रूप में साल १९५६ में 'वैग्रांट्स इन द वैली' लिखी गई। ये दो उपन्यास १९९३ में पेंगुइन इंडिया द्वारा एक खंड में प्रकाशित किए गए। इसके अगले वर्ष उनके ग़ैर-काल्पनिक लेखन, 'द बेस्ट ऑफ रस्किन बॉन्ड' का एक संग्रह पेंगुइन इंडिया ने प्रकाशित किया। अलौकिक कथाओं में उनकी रुचि ने उन्हें 'घोस्ट स्टोरीज़ फ्रॉम द राज', 'ए सीज़न ऑफ़ घोस्ट्स' और 'ए फ़ेस इन द डार्क' लिखने के लिए प्रेरित किया। तब से उन्होंने पाँच सौ से अधिक लघु कहानियाँ, निबंध और उपन्यास लिखे हैं, जिनमें 'द ब्लू अम्ब्रेला', 'फ़नी साइड अप', 'अ फ़्लाइट ऑफ पिजन्स' और बच्चों के लिए ५० से अधिक किताबें शामिल हैं। 'द लैंप इज़ लिट' पत्रिकाओं में छपे उनके निबंधों का संग्रह है। इस समृद्ध लेखक को 'आवर ट्रीज़ स्टिल ग्रो इन देहरा' के लिए वर्ष १९९२ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। बाल साहित्य में योगदान के लिए साल १९९९ में उन्हें पद्मश्री और २०१४ में पद्म भूषण से नवाज़ा गया था। उनकी कहानियों को फ़िल्मों के लिए भी चुना गया। सबसे पहले शशि कपूर ने उनके उपन्यास 'अ फ़्लाइट ऑफ पिजन्स' पर जुनून नामक फ़िल्म का निर्माण किया। यह उपन्यास रूथ लबादूर नाम की एक लड़की की सच्ची कहानी पर आधारित है, जो १८५० के दशक में शाहजहाँपुर में रहती थी और एक चर्च में हुए नरसंहार की प्रत्यक्षदर्शी थी। यह कहानी उन्होंने अपने पिता से सुनी, जिन्हें उनके पिता ने सुनाई थी। रस्किन कहते हैं - "कहानी शायद मेरे साथ रह गई थी, क्योंकि मैंने इसे संघर्ष के समय आम लोगों की मानवता की कहानी के रूप में आत्मसात किया था। मैंने इसका शोध करने का फ़ैसला किया। लगभग सारी पुस्तक विद्रोह के वास्तविक तथ्यों और ऐतिहासिक वृतांतों के आधार पर लिखी है। मैंने अपनी कल्पना का उपयोग केवल संवाद लिखने के लिए किया है। "
'एंग्री रिवर' नामक उपन्यास भी फ़िल्म का रूप ले चुका है। 'द ब्लू अम्ब्रेला' उपन्यास पर इसी नाम से निर्मित हिंदी फ़िल्म को २००७ में सर्वश्रेष्ठ बाल फ़िल्म का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला। 'सुज़ाना'स सेवन हस्बैंड्स' पर बनी सात ख़ून माफ़ में स्वयं बॉन्ड पर्दे पर नज़र आए।
रस्किन बच्चों के लेखक के रूप में मशहूर हैं, लेकिन मूल रूप से वे मानवीय रिश्तों और प्रकृति के लेखक हैं। औपनिवेशिक ब्रिटिश पृष्ठभूमि के बावजूद, वे भारत के बारे में यूरोप केंद्रित दृष्टिकोण से नहीं लिखते। वे भारतीय संस्कृति को आत्मसात कर चुके हैं। उनके विचार में "हिंदू धर्म प्रकृति से सबसे निकटता से जुड़ा है। नदियाँ, चट्टानें, पेड़, पौधे, जानवर और पक्षी सभी पौराणिक कथाओं और रोज़मर्रा की पूजा दोनों में अपनी भूमिका निभाते हैं। यह सामंजस्य इस तरह के दूरस्थ स्थानों में सबसे अधिक स्पष्ट है और मुझे आशा है कि यह निर्मम शहरी विकास में अपने अद्वितीय चरित्र को नहीं खोएगा।" – (रेन इन द माउन्टेन्स - नोट्स फ्रॉम द हिमालयाज़ )
'दिल्ली इज़ नॉट फार' में वे लिखते हैं, "हमारा देश विभिन्न लोगों, जातियों का देश है, इनकी विविधताएँ इसे रंग और इसका विशेष चरित्र प्रदान करती हैं, इनसे एक जैसा होने की अपेक्षा करने का अर्थ है इनकी जीवंतता को समाप्त कर देना।" उनकी कविताओं में जलवायु परिवर्तन के प्रति चिंतन परिलक्षित है। मसूरी में अपने ५७ साल के जीवन-काल में पर्यावरण के बदलते प्रभाव को महसूस करते हुए उन्होंने लिखा है,
मेरी आँखों के सामने इतनी जल्दी ये क्या बदल गया?
लाखों मक्खियाँ, ये कूड़ा कचरा पल गया।
क्या यही वो मुक़ाम है, जिसका है गुणगान?
गपशप में तुमने किया इसका बड़ा बखान!
लेकिन... जब तक मैं यह सब जान पाया,
यही हो चुका था नसीब का सामान।
(अँग्रेज़ी कविता से अनूदित )
वे अँग्रेज़ी में लिखते हैं, लेकिन कमोबेश सभी महत्त्वपूर्ण भाषाओं में उनकी किताबों का अनुवाद हो चुका है और बच्चे-बड़े सभी बहुत शौक से पढ़ते हैं। देहरादून के एक पुस्तक-विक्रेता ताराचंद उनकी लोकप्रियता के बारे में बताते हुए कहते हैं, "उनकी किताबों की बहुत माँग है और जो भी आता है उनके बारे में पूछता है, कहाँ रहते हैं? कैसे दिखते हैं? और यहाँ तक कि लोग उनसे मिलने मसूरी तक चले जाते हैं"। वास्तव में यह उनकी मानवीय संवेदना ही है, जो पाठकों को उनके क़रीब ले जाती है, उनसे मिलने को लालायित करती है। इसी संवेदना की अभिव्यक्ति में रस्किन कहते हैं, "और जब सभी युद्ध हो जाएँगे, तब भी एक तितली सुंदर होगी।" (द बेस्ट ऑफ़ रस्किन बॉन्ड)
आज ८७ वर्ष की आयु में भी रस्किन सतत साहित्य सृजन में लगे हुए हैं, कहानियाँ लिखना और सुनाना ही उनके प्रिय शग़ल हैं। पाठकों से मिले स्नेह को जीवन की पूँजी बताते हुए वे कहते हैं कि मैंने १७ साल की उम्र में लिखना शुरू किया था; आज ८७ साल की उम्र में भी हाथ से लिख रहा हूँ और जब तक शरीर साथ देगा लिखता रहूँगा। प्रकृति से उन्हें इतना प्रेम है कि वे कहते हैं, "अगले जन्म में मैं तोता बनकर किसी पेड़ पर रहना चाहूँगा।"
संदर्भ
The Life and Works of Ruskin Bond By Meena Khorana
लेखक परिचय
भावना सक्सैना
२८ वर्ष से शिक्षण, अनुवाद और लेखन से जुड़ी हैं। चार पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें एक पुस्तक सूरीनाम में हिंदुस्तानी दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम है। एक कहानी संग्रह नीली तितली व एक हाइकु संग्रह काँच-सा मन है। हाल ही में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से सरनामी हिंदी-हिंदी का विश्व फलक प्रकाशित। कई पुस्तकों का सम्पादन भी किया है व अनेक संस्थाओं से सम्मानित हैं। नवंबर २००८ से जून २०१२ तक भारत के राजदूतावास, पारामारिबो, सूरीनाम में अताशे पद पर रहकर हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। संप्रति - भारत सरकार के राजभाषा विभाग में कार्यरत हैं।
ईमेल - bhawnasaxena@hotmail.com
ईमेल - bhawnasaxena@hotmail.com
I love ruskin bond
ReplyDeleteभावना जी, महान व्यक्तित्व के धनी रस्किन बॉन्ड पर आपका आलेख बहुत पसंद आया। जितने संवेदनशील ख़ुद रस्किन बॉन्ड हैं, आपने वैसी ही आत्मीयता से उन पर लिखा है। इसके लिए आपको बधाई और धन्यवाद। आलेख की ये पंक्तियाँ “अगले जन्म में मैं तोता बनकर किसी पेड़ पर रहना चाहूँगा।”, "और जब सभी युद्ध हो जाएँगे, तब भी एक तितली सुंदर होगी।" बहुत पसंद आईं। संर्घषमय जीवन और साहित्य का अनूठा संगम है रस्किन बॉन्ड। वे बहुत अनुशासन में रहते हैं, हर दिन दो-चार पन्ने ज़रूर लिखते हैं। उनसे सीखने के लिए बहुत कुछ है। आपके इस आलेख से हम सब उनको जन्मदिन की बधाई दे रहे हैं तथा उनकी रचनात्मक सक्रियता हमेशा बनी रहने की कामना करते हैं।
ReplyDeleteभावना जी, रस्किन बॉन्ड जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को उल्लेखित करता आपका यह आलेख पढ़ कर अच्छा लगा। इस लेख के माध्यम से उनकी सृजन यात्रा को करीब से जानने का अवसर मिला। बहुत बधाई आपको। 🙏🏻💐
ReplyDeleteभावना जी नमस्ते। आपने रस्किन बॉन्ड जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा। उनका प्रकृति से जुड़ाव उनके साहित्य में भी सम्मिलित है। वो सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं।बहुत वर्षों पूर्व उनसे एक बार मिलना हुआ था। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिये हार्दिक बधाई।
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