"भाषा, साहित्य और संस्कृति के अंतरसंपर्क में हिंदी क्षेत्र और वहाँ के जन-समुदाय की संवेदना कैसे विकसित होती है और साहित्य उसे किस रूप में प्रतिफलित करता है, यह इस समूचे अध्ययन की अंतर्वस्तु है। संसार को समझना दर्शन का काम है, उसे बदलना राजनीति का, और उसकी पुनर्रचना साहित्य का दायित्व है।"
उपर्युक्त कथन हिंदी साहित्य के महत्त्वपूर्ण आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी का है। कोई भी कार्य पूर्णतः दोषहीन नहीं होता। जब हिंदी में आचार्य शुक्ल के इतिहास पर तरह-तरह के अंतर्विरोधी वाद जन्म ले रहे थे किंतु कोई भी समाधान प्रस्तुत करने को उपस्थित नहीं हो रहा था, तब रामस्वरूप चतुर्वेदी ने इसे एक दायित्व रूप में स्वीकार किया और इतिहास में विकास की परिकल्पना जोड़ते हुए एक पुस्तक प्रस्तुत की। यह सत्य है कि काल-विशेष के इतिवृत्त को इतिहास रेखांकित करता है। परंतु चतुर्वेदी जी ने इतिहास की प्रक्रिया को स्पष्ट करने हेतु साहित्य में युग-विशेष की संवेदना का भी विश्लेषण करना आवश्यक समझा। इसका कारण है कि संवेदना में बदलाव का अध्ययन साहित्यिक युगों की परिकल्पना और उनके बीच के महत्त्वपूर्ण अंतरालों को समझा देता है, जो साधारण दृष्टि के लिए ओझल बने रहते है। साहित्य और संवेदना को एक साथ देखने-परखने का प्रयत्न है, 'हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास'। यह ग्रंथ हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में अपनी उपादेयता स्वंय ही सिद्ध करता है। प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह अपने छात्रों को इसे पढ़ने की विशेष रूप से सलाह दिया करते थे। अब तक इसके २८ संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, जो इसकी लोकप्रियता को प्रमाणित करते हैं। वर्ष १९९६ में इस पुस्तक के लिए चतुर्वेदी जी को व्यास सम्मान से अलंकृत किया गया था।
साहित्य के पृष्ठ पर इलाहाबाद को अगर एक अलंकार माना जाए तो इलाहाबाद के साहित्यिक पृष्ठ पर रामस्वरूप चतुर्वेदी भी एक अलंकार सदृश्य ही माने जा सकते है। यहाँ हिंदी शिक्षक के रूप में उन्होंने अपार स्नेह और यश प्राप्त किया। १९ वर्ष की उम्र में उच्च शिक्षा के उद्देश्य से इस नगरी में पधारने वाले चतुर्वेदी जी ने निज-जीवन के लगभग ५३ वर्ष यहाँ व्यतीत किए। उनका जन्म तो आगरा ज़िले के कछपुरा गाँव में हुआ था, जहाँ से उनका जुड़ाव जीवनपर्यंत अक्षुण्ण रहा। परंपरा का प्रतिनिधित्व करने वाले चतुर्वेदी जी के पितामह पुरुषोत्तम दास चतुर्वेदी अपने ग्रामीण अंचल के पहले विधिवत शिक्षित व्यक्ति थे। न केवल पुस्तकों, बल्कि पत्रिकाओं के संग्रह में भी उनकी विशेष रुचि थी। इसी रुचि के चलते उन्होंने अपना घरेलू पुस्तकालय निर्मित किया था। इसे अगली पीढ़ियों ने अपने-अपने प्रिय लेखकों की कृतियों से संवर्धित किया। समकालीन कथाकारों की रचनाएँ, खत्री के तिलिस्मी उपन्यास, बँगला और अँग्रेज़ी के अनूदित उपन्यास, नाटक, जीवनियाँ तथा सामयिक विषयों पर लिखी पुस्तकें सभी इस संग्रह में उपस्थित थे। इस पुस्तकालय की देखभाल करना रामस्वरूप, उनके छोटे भाई ब्रह्मानंद और बहन सत्यवती के लिए एक मनोरंजन का विषय था और इसके चलते रामस्वरूप के हृदय में साहित्य के अनुराग की मिठास घुलती चली गई। चतुर्वेदी जी के प्रिय कवि अज्ञेय रहे और रामचंद्र शुक्ल उनके प्रिय आलोचक। प्रतीत होता है कि उन्होंने आलोचना के जो प्रतिमान गढ़े, उनमें अज्ञेय के साहित्य से बहुत सहायता ली गई हैं। इसके अतिरिक्त उनकी संगीत में भी विशेष रुचि थी। चतुर्वेदी जी संस्कृत और अंग्रेज़ी के भी अच्छे विद्वान थे।
इलाहाबाद के बैंक रोड पर रहने वाले शांत और सौम्य रामस्वरूप वर्ष १९५५ में सुषमा चतुर्वेदी के साथ परिणय सूत्र में बँधे। संतान संपत्ति के रूप में उन्हें तीन पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई। वैवाहिक यात्रा की तरह ही चतुर्वेदी जी की आलोचना यात्रा भी वर्ष १९५५ में शुरू हुई। यह शुक्लोत्तर आलोचना का दौर था। नई कविता और नवलेखन की रचना प्रक्रिया चरम वेग पर थी। इस समय उन्होंने आधुनिक साहित्य के आरंभिक इतिवृत्त और अध्ययन 'हिंदी नवलेखन' तथा 'हिंदी साहित्य की अधुनातन प्रवृत्तियाँ' जैसी पुस्तकों की रचना की।
काल को सबसे बड़ा आलोचक बताते हुए चतुर्वेदी जी कहते हैं, "अपने समवर्ती साहित्य के बारे में कुछ लिखना खतरे से खाली नहीं होता, यह जानते हुए भी मैंने इस जोखिम को स्वीकार किया है, विशेष रूप से इसलिए कि मैं इस जनश्रुति को नहीं मानना चाहता, जिसके अनुसार समकालीन रचनात्मक उन्मेष को ठीक-ठीक नहीं परखा जा सकता। 'हिंदी नवलेखन' के माध्यम से मैंने आधुनिक साहित्य को उसकी संपूर्णता में देखने की चेष्टा की है। समग्र नए साहित्य के लिए एक संयुक्त और तदनुकूल नई दृष्टि का प्रयोग प्रथम बार इस कृति में देखने को मिलेगा। व्यावहारिक समीक्षा के अंश मेरे साहित्य चिंतन के सिद्धांतों को स्पष्ट और पुष्ट कर सकें, ऐसा यत्न मैंने किया है। हिंदी के व्यापक साहित्य के आधार पर उसका एक अपना व्यवस्थित समीक्षा-शास्त्र विकसित हो सके, इसके लिए किसी ऐसे ही प्रारंभ की आवश्यकता थी।"
विश्व कथा साहित्य में शरतचंद्र चटोपाध्याय के नारी पात्र अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। नारी जीवन के विभिन्न पहलुओं को अत्यंत मार्मिक रूप से अभिव्यक्त करते इन पात्रों की आलोचना करते हुए चतुर्वेदी जी ने ३ वर्ष के लंबे अंतराल में समय-समय पर कुछ निबंधों की रचना की, जो धारावाहिक रूप से मासिक 'सुमित्रा' में प्रकाशित हुए। स्वतंत्र रूप से लिखे जाने पर भी ये निबंध एक निश्चित योजना के अंतर्गत लिखे गए। जुलाई १९५१ में इन्हें पुस्तक रूप में प्रकाशित करने की योजना बनी और प्रकाशित होते समय इनमें कुछ सामग्री बढ़ाई गई। समयानुक्रमणिका के आधार पर शरतचंद्र के नारी पात्रों का यह प्रथम विस्तृत तथा वैज्ञानिक अध्ययन है। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में इस दृष्टिकोण से इसे अपने ढंग का प्रथम प्रयास कहा जा सकता है। इस प्रकार के अध्ययन हिंदी में थीसिस के अतिरिक्त साधारणतः देखने को न मिलते थे। विभिन्न विषयों पर अपनी कलम द्वारा अद्भुत आलोचनात्मक स्याही छिड़कने वाले चतुर्वेदी जी ने अपनी पुस्तक 'शरत के नारी पात्र' द्वारा शरतचंद्र के नारी-समाज की एक विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।
इलाहाबाद में अध्ययन काल के दौरान उन्होंने समर्पित अध्यवसाय एवं विद्वता का परिचय देते हुए, हिंदी भाषा के क्रमिक विकास को समझाने की दृष्टि से एक भाषा वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया। जिसके आधार पर प्रो० धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में प्रयाग विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डी० फिल की उपाधि दी गई। इस प्रबंध को हिंदुस्तानी अकादमी ने वर्ष १९६१ में 'आगरा ज़िले की बोली' नाम से प्रकाशित किया। यह हिंदी की किसी बोली के एक सीमित प्रदेश का भाषाविज्ञान की पद्धति से संभवतः पहला वर्णनात्मक अध्ययन है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के चर्चित अध्यापक रामस्वरूप चतुर्वेदी साहित्य में स्वायत्तता, वैयक्तिक अस्मिता और वैचारिक स्वतंत्रता के पक्षधर थे। उन्होंने एक सक्षम आलोचक की भूमिका का निर्वाह करते हुए पुस्तक 'मध्यकालीन हिंदी काव्य भाषा' में काव्य भाषा के स्वरूप, बिंब प्रक्रिया, इसके अध्ययन की समस्या, मध्यकालीन व रीतिकालीन काव्य भाषा जैसे विषयों पर विचार किया है। उनकी लेखनी ने संस्कृति, सभ्यता, दर्शन, शिक्षा, राजनीति जैसे साहित्य के इतर विषयों पर भी अपने रंग बिखेरे हैं। इसी क्रम में वर्ष १९४१ में साहित्य से इतर विषय पर आई उनकी पुस्तक 'ब्रह्मांड और पृथ्वी' इस ब्रह्मांड और पृथ्वी के संबंध की आधुनिक जानकारियों का संग्रह है। इसका अगला हिस्सा 'चैतन्य का विश्वास' भी उनकी सरल लेखनी और परिश्रम का सुंदर उदाहरण है।
चतुर्वेदी जी संयम, संतुलन और काल-प्रबंधन के अप्रतिम उदाहरण माने जाते हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य की तीन धाराओं - पाठालोचन, भाषा विज्ञान और आलोचना के अद्भुत समन्वय का सच्चा प्रतिनिधित्व किया।
जब-जब प्रगतिशील लेखक संघ की बात होती है, तो आवश्यक रूप से साहित्यिक संस्था 'परिमल' की बात होती है। इलाहाबाद की साहित्यिक संस्था परिमल के कवि लेखकों - जगदीश गुप्त, रामस्वरूप चतुर्वेदी और विजयदेव नारायण साही के संपादन में वर्ष १९५४ में 'नई कविता' पत्रिका प्रकाशित हुई। इसी पत्रिका से नई कविता आंदोलन का प्रारंभ माना जाता है। यह हिंदी कविता की एक नवीन धारा है, जो प्रयोगवाद के बाद विकसित हुई। जैसे हर इच्छुक लेखक सृजन का श्रीगणेश कविता से करता है, वैसे ही चतुर्वेदी जी ने भी काव्य लेखन से शुरुआत की। उनकी अनेक कविताएँ 'सुमित्रा' (कानपुर) आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं। परन्तु उन्होंने कभी यह वहम नहीं पाला कि वे एक बड़े उपन्यासकार या कहानीकार भी हो सकते हैं, बल्कि हिंदी नई कविता के प्रमुख कवियों में से एक रामस्वरूप चतुर्वेदी ने अपने अध्ययन और लेखन की यात्रा के लिए आलोचना जैसे दुसाध्य समझे जाने वाले मार्ग का चयन किया। उनकी रुचियाँ प्रगतिशील और मार्क्सवादी आलोचकों से भिन्न रहीं। बहुत लोगों के असहमत होते हुए भी अपने तर्कों पर अविचलित रहना उनके व्यक्तित्व का अनिवार्य हिस्सा रहा।
उनकी अंतिम प्रकाशित पुस्तक 'आलोचकथा' उनकी आत्मकथात्मक कृति है, जिसका प्रकाशन उनकी मृत्यु के बाद हुआ। पाठक को इस पुस्तक में कुछ सूत्र मिलते हैं, जिसके द्वारा यह समझा जा सकता है कि एक आलोचक का व्यक्तित्व किस तरह निर्मित होता है। सुनने की क्षमता चतुर्वेदी जी की अन्यतम विशेषता थी। उन्होंने न तो कभी किसी को प्रभावित करने की चेष्टा की और न ही अपने भीतर किसी से प्रभावित होने की ललक पैदा की। आजीवन सहजता की पोशाक पहनने वाले हिंदी के इस विरले आलोचक ने २४ जुलाई २००३ को ७२ वर्ष की आयु में परलोक गमन किया।
संदर्भ
हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास - रामस्वरूप चतुर्वेदी
शरत के नारी पात्र - रामस्वरूप चतुर्वेदी
ब्रह्मांड और पृथ्वी - रामस्वरूप चतुर्वेदी
आगरा ज़िले की बोली - रामस्वरूप चतुर्वेदी
लेखक परिचय
सृष्टि भार्गव
ख्वाबों की फसल बोई है आसमाँ में
ज़मीं के किनारों से देख रही हूँ
कोई मेरी बात पूछे तो कहना-
मेरा ख्याल परिंदे रखते हैं।
हिंदी विद्यार्थी
ईमेल : kavyasrishtibhargava@gmail.com
बहुत ही प्रभावी आलेख
ReplyDeleteचतुर्वेदी जी बहुत सहज व सरल स्वभाव के थे
आप ने इतने सुंदर ढंग से प्रस्तुतीकरण किया
हार्दिक बधाई और आभार 🙏🙏
सृष्टि, रामस्वरूप चतुर्वेदी जी पर यह आलेख बहुत बढ़िया है। पिता द्वारा शुरू किए गये पुस्तकालय की देखरेख से साहित्य-प्रेम के जो बीज चतुर्वेदी जी को प्राप्त हुए, उससे लेकर आलोचकथा तक उनकी साहित्य-यात्रा की सुंदर तस्वीर पेश करता है यह आलेख। ऐसे ही लिखते रहने के लिए शुभकामनाएँ और इस आलेख के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteआलोचना जैसे निरे बौद्धिक और 'निरानंद' विषय पर लिखना किसी चुनौती से कम नहीं। अतः बहुत से मेधावी और सूक्ष्म दृष्टि रखने वाले आलोचकों का काम केवल अकादमिक क्षेत्रों तक सीमित रह जाना स्वाभाविक है। जब आलोचना पढ़ने-पढ़ाने वालों की संख्या ही सीमित है तो आलोचकों पर लिखाना-पढ़ाना तो बहुत टेढ़ी खीर है। 'साहित्यकार तिथिवार' के सदस्य जिस उत्साह से इस चुनौती को लेते हैं, वह काबिले तारीफ है।
ReplyDeleteरामस्वरूप चतुर्वेदी जीवन भर, अनवरत् साहित्यिक-आलोचना के क्षेत्र को उर्वर करते रहे। उनकी पुस्तकों की विशाल संख्या चकित करती है। फिर भी विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों से बाहर पता नहीं कितने पाठक उनकी कृतियों से परिचित होंगे। 'साहित्यकार तिथिवार' एवं सृष्टि भार्गव जैसे रचनाकारों का प्रयास बहुत स्वागत योग्य है। शुभकामनाएँ!
स्वतंत्रता के बाद हिन्दी काव्यालोचन में रामस्वरूप चतुर्वेदी की भूमिका प्रतिनिध आलोचक के रूप में रहीं है उनकी आलोचना में विफलता वैविध्य और कर्म कौशल तीनों चरितार्थ हुए हैं। रामस्वरूप चतुर्वेदी के लिए स्वाधीनता एक ऐसा मूल्य रहा है कि जिसे उन्होंने हर कीमत पर चाहे वह मध्यकालीन काव्य संवदेना हो या आधुनिक काव्य संवदेना जिसका परिणाम यह हुआ कि उनकी आलोचना न केवल सार्वजनिक है बल्कि गहरे अर्थ में समाजिक सांस्कृतिक समीक्षा भी है। वास्तव में रामस्वरूप चतुर्वेदी अपनी आलोचना में सामाजिक सांस्कृतिक लेखन को महत्ता प्रदान की है इस तरह के लेखन को वे बड़ा रचना कर्म मानते हैं। आदरणीया सृष्टि जी का रामस्वरूप जी पर आलेख इन्हीं सभी बातो को विस्तृत कर बडी सरल और सहज जानकारी प्रदान कर रहा है। उनके जीवन यात्रा के साथ साथा साहित्यवृतांत भी संक्षिप्त लेखन कुशलता से प्रदर्शित हो रहा है। अतिप्रभावित आलेख के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteसुंदर लेखिका परिचय, आलेख के लिए बधाई
ReplyDeleteसृष्टि जी नमस्ते। आपके लेख के माध्यम से हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी जी के बारे में विस्तार से जानने का अवसर मिला। आपने बहुत ही सुव्यवस्थित रूप में विस्तृत सामग्री को लेख में प्रस्तुत किया है। आपको इस शोधपरक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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