कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' की गाथा "करे तो कोई कमाल पैदा" की धुन में रमे एक उत्कृष्ट आदर्शवादी लेखक और राष्ट्रसेवक की कहानी है। उन्हें हिंदी का खलील जिब्रान कहा गया, सहारनपुर का बाणभट्ट भी, और 'शैलियों का शैलीकार' भी! हिंदी के श्रेष्ठ संस्मरण लेखकों और निबंधकारों में अग्रणी प्रभाकरजी के लिए साहित्य शौक-व्यापार नहीं, जीवन का अंग था! जैसे लेखन एक धर्म या जीने के संविधान हो! आजीवन वे साहित्य का शंख बजा कर मानव को नीरव निराशा की निद्रा से जागते रहे; घोषित करते रहे कि मानव-जीवन गुणों, चरित्र, और व्यक्तित्व के उत्थान के लिए बना है! उन्होंने संस्मरण, रेखाचित्र, यात्रा-वृत्तांत, रिपोर्ताज आदि लिखकर साहित्य-संवर्द्धन किया। स्वतंत्रता आंदोलन के समय उन्होंने सेनानियों पर आधारित अनेक मार्मिक संस्मरण लिखे जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास तथा तत्कालीन परिस्थितियों के दस्तावेज़ बन गए।
कन्हैयालाल का जन्म २९ मई १९०६ को उत्तरप्रदेश के सहारनपुर जनपद के देवबंद कस्बे में हुआ। उनके पिताजी पंडित रामदत्त मिश्र पूजा-पाठ और पुरोहिताई करने वाले संतोषी और सहिष्णु ब्राह्मण थे। उनकी माता मिश्रीदेवी बड़े उग्र स्वभाव की थीं। अपनी किताब 'दीप जले, शंख बजे' के संस्मरण 'मेरे पिताजी' में कन्हैयालालजी लिखते हैं, "पिताजी दूध-मिश्री, तो माँ लाल-मिर्च! . . . पर वे इतने मीठे कि संसार की कोई भी कड़वाहट, उन तक पहुँचते-पहुँचते स्वयं मीठी हो जाती थी!" जीवन-पर्यंत वे पिताजी के सात्विक गुणों से प्रभावित रहे! उसी संस्मरण में वे याद करते हैं कि जब उन्होंने अपनी पत्नी को परदे से बाहर रहने को कहा और सारा गाँव उनके विरुद्ध हो गया, तो उनके पिताजी ने उनका साथ दिया!
बचपन में घर की प्रतिकूल आर्थिक परिस्थितियों के कारण कन्हैयालालजी की प्रारंभिक शिक्षा अस्त-व्यस्त रही। उन्होंने स्वाध्याय से हिंदी, संस्कृत तथा अँग्रेजी का अध्ययन किया। किशोरावस्था में जब व्यक्तित्व-गठन के लिए विद्यालय की आवश्यकता होती है, तब उन्होंने स्वयं को स्वतंत्रता संग्राम में झोंक दिया। खुर्जा के संस्कृत विद्यालय में उन्होंने प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता मौलाना आसिफ अली का भाषण सुना, जिससे प्रभावित हो वे परीक्षा त्यागकर देश-सेवा को तत्पर हो गए।
उनके लेखनयात्रा की प्रेरणा उनके भाई ब्रह्मदत्त शर्मा ‘शिशु’ रहे, जो कवि और गायक थे। उनको देखकर कन्हैया के मन में लिखने की लगन लगी। एक कॉपी में वे शिशुजीकी कविताएँ लिख कर, उन्हें बार-बार पढ़कर झूम उठते और कुछ वैसा ही लिखना चाहते! सन् १९२४, सर्दियों की रात, देवीकुण्ड का जंगल, और संस्कृत की मध्यमा परीक्षा का समय। ऐसे में स्वतः ही गुनगुनाते हुए उन्होंने ग़ज़ल की लय पर एक प्रार्थना लिख डाली। भाई ने कविता पढ़कर उन्हें निर्मल, सरस, और सरल बनने की सलाह दी। कन्हैया को कविता की लत यूँ लगी कि उन्होंने अपना उपनाम 'प्रभाकर' रख लिया!
बरसों बाद उन्होंने अपनी किताब के आमुख में यह किस्सा इस व्यंगात्मकता से दर्ज किया कि बरबस उनकी अपरिपक्वता पर हँसी आ जाती है! कविताओं से तो कुछ ख़ास नहीं हुआ, हाँ कविता-प्रेम ने उनका पढ़ाई-प्रेम कम कर दिया और जीवन में पहली बार वह फ़ेल हो गए! इन्हीं कविताओं की भूमिका लिखते-लिखते उन्हें यह भान हुआ कि उनका गद्य तो उनके पद्य से बढ़िया है। यह उनकी लेखन यात्रा का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था, अब वे पद्य के साथ-साथ गद्य भी लिखने लगे। उसी समय चंडीप्रसाद हृदयेश जी की किताब ‘नंदन निकुंज’ उनके हाथ लगी। किताब की भाषा का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। धीरे-धीरे उनके गद्य की भाषा सँवरने लगी और वे पत्रिकाओं में लेख भेजने लगे।
मध्यमा के चतुर्थ खंड की परीक्षा के बाद की बात है, कि लंबी असफलता के बाद आयुर्वेद पर कन्हैयालालजी का एक लेख गणेशशंकर विद्यार्थी जी ने ठीक करके अपने पत्र 'प्रताप' में छापा तथा उन्हें पोस्टकार्ड लिखा कि "मैं भविष्यवाणी करता हूँ कि तुम शीघ्र ही एक प्रसिद्ध लेखक हो जाओगे।"
परंतु कई दिनों तक उनका लिखा पुनः कहीं और नहीं छपा। उन्हीं दिनों उनके साहित्यिक जीवन का दिशानिर्देश उन्हें एक शेर की मार्फ़त मिला। हुआ यह कि 'माधुरी' में महाकवि अकबर पर एक लेख छपा जिसमें यह शेर भी था (लेखिका को यह मिसरा 'हुजूमे बुलबुल हुआ चमन में, किया जो गुल ने जमाल पैदा' याद है) -
"लगी चहकने जहाँ भी बुलबुल, हुआ वहीं पर जमाल पैदा,
कमी नहीं क़द्रदाँ की "अकबर", करे तो कोई कमाल पैदा !"
फिर क्या था 'कमाल' पैदा करने की चाह मिश्रजी पर हावी हो गई। उन दिनों को याद करते हुए वे लिखते हैं, "इन पंक्तियों ने मुझे बिजली के सैकड़ों धक्कों से झनझना दिया, और उस दिन मैंने अपनी जाने कितनी कविताएँ और लेख फाड़ डाले। … इन रचनाओं को फाड़कर मैंने नए लेखक के जीवन का जो महामंत्र सीखा वह यह है - रचनाओं को छपाकर नहीं, फाड़कर ही नया लेखक आगे बढ़ता है!" उसके बाद वे छपाने के लिए नहीं, लिखने के लिए लिखने लगे! एक दिन खेतों की अजब हरियाली से प्रेरणा लेकर उन्होंने हृदयेश जी की शैली में एक लंबा गद्यकाव्य लिखा जिसमें गद्यकाव्य और स्केच का समन्वय था। उस कविता के परिमार्जन की यात्रा में ‘कमाल’ तक पहुँचने के लिए उन्होंने जो सीढ़ियाँ पार कीं, वे उन्होंने अपनी किताब की भूमिका में दर्ज कीं -
- छपाने के लिए कभी मत लिखो, सिर्फ़ लिखने के लिए लिखो।
- लिखकर स्वयं एक संंपादक की दृष्टि से पढ़ो और जो कमियाँ दिखाई दें, उन्हें फिर सुधारो।
- दूसरी नक़ल के बाद उसे उठाकर रख दो और भूल जाओ।
- कुछ दिन बाद फिर पढ़ो और जो नई बातें सूझें - अवश्य सूझेंगी - उन्हें उस में बढ़ा दो।
- अब उसे फिर रख दो और कुछ दिन बाद उसे अपने मित्रों को सुनाओ।
- वे यदि कुछ सुझाव दें और ये अपने को जंचे या सुनाते समय स्वयं कुछ नई बातें सूझें - अवश्य सूझेंगी - उन्हें फिर से लेख में बढ़ा दो।
- यदि लिखकर पढ़ते समय ही यह सूझे कि यह कुछ नहीं है, तो उसे तुरंत फाड़कर फेंक दो।
इन्हीं दिनों उनके नगर के स्कूल में हिंदी के श्रेष्ठ कवि श्री गंगाप्रसाद प्रेम प्रधानाध्यापक होकर आए और दोनों में मित्रता हो गई। उनके सानिध्य में मिश्र जी की कविताओं में नया निखार आया। परंतु १९३० तक आते-आते उन्होंने कविताएँ लिखना बंद कर दिया और आलेखों पर केंद्रित हो गए। उन्होंने कहा, "कभी फ़ालतू चीज़ न लिखो, वही लिखो जिसमें पूरा मन लगे, पूरा रस मिले और पूरी डुबकी आए।"
संपादन की उनकी यात्रा भी कम रोचक नहीं! इटावा से प्रकाशित होने वाली 'ब्राह्मण-सर्वस्व' में उनका एक लेख छपा, साथ ही उसके संपादक ब्रद्मदेव शास्त्री ने उनसे हर महीने एक लेख माँगा। दूसरे वर्ष उसी पत्रिका में उनका नया स्तंभ 'स्वर्ण-संकलन' शुरू हुआ जिसमें दूसरे पत्रों में प्रकाशित श्रेष्ठ लेखों या उनके सारांश का संकलन होता। कभी-कभी वे पत्रिका के संपादकीय नोट भी लिख देते जो बिना नाम छाप दिए जाते। पत्रिका के रजत-जयंती विशेषांक के संपादन का काम उन्हें मिला। तीन महीने के जी-तोड़ परिश्रम से एक अनूठा विशेषांक बना जो असाधारण रुप से सफल रहा। 'प्रभाकर' अब वस्तुतः साहित्य के प्रभाकर सा चमकने लगे। उनके ही शब्दों में, "परिश्रम ही हर सफलता की कुंजी है और वही प्रतिभा का पिता है।"
इसके बाद उन्होंने 'गढ़देश' साप्ताहिक के एक विशेषांक का संपादन किया और अप्रैल १९३० में वे 'गढ़देश' के संपादक बन गए। चार महीने उन्होंने यह काम किया और फिर १९३० के काँग्रेस आंदोलन में जेल चले गए! पुनः १९३२ की जेल-यात्रा में उन्हें कई अच्छे लोगों का साथ मिला और उन्होंने काफ़ी पढ़ा भी। इस जेलयात्रा में उन्होंने अपने पिता के संस्मरण लिखे, और फ़ैज़ाबाद पहुँचकर कुछ ऐसे लेख लिखे, जिन्हें बाद में बनारसीदास चतुर्वेदीजी ने स्केच बताया। इस तरह उनकी क़लम को एक नई सूझ मिली और उनका कवित्व उनके गद्यमें ही समा गया। 'प्रताप' के तत्कालीन संपादक पंडित बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' उनसे बड़ा प्रेमभाव रखते थे। उन्होंने एक इंटरव्यू में प्रभाकरजी को एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में काम करने की सलाह दी। इस तरह फ़ैजाबाद जेल में नवीन जी के साथ इस वार्ता ने पत्रकार प्रभाकर की नींव रखी। जेल में लंबी बीमारी के कारण उन्हें जो एकांत मिला, उसमें उन्होंने यह निश्चय किया कि अब पत्रकार के रूप में ही वह राष्ट्रसेवा करेंगे और सामाजिक सरोकारों पर लिखेंगे। कन्हैयालालजी १९३० से १९३२ तक और १९४२ में जेल में रहे और निरंतर राष्ट्र के उच्च नेताओं के संपर्क में आते रहे। इनके लेख राष्ट्रीय जीवन के मार्मिक स्मरणों की जीवंत झांकियाँ हैं, जिनमें भारतीय स्वाधीनता के इतिहास के महत्त्वपूर्ण पृष्ठ समाहित हैं।
सहारनपुर से साप्ताहिक 'विकास' के प्रकाशन की शुरुआत से ही वह उसके साथ जुड़ गए। १९३३ में पत्रिका के 'आर्यसमाज अंक' में सहयोग करने वे सहारनपुर गए और फिर वहीं काम करने लग गए! वे विचार करते रहते कि कैसे 'विकास' आदर्श साप्ताहिक का रूप ले और लोकप्रिय बने? उन्होंने तय किया कि विकास को ऊँचे और आदर्श विचारों से भरें और उसमें अपनी आत्मा का सर्वश्रेष्ठ दान दें। पर इस तरह-के पत्र का कोई ग्राहक न था। एक दिन पूनो की चाँदी-भरी रात में वे नहर पर लेटे हुए थे कि अचानक उनका ध्यान नहर की धारा पर गया। लहरें भी हैं, सरसता भी है, प्रवाह भी है, संतुलन भी है और गहराई भी। उन्होंने सोचा क्या लिखने की कोई ऐसी शैली नहीं हो सकती? उन्होंने तय कर लिया कि वे ऐसी शैली में लिखेंगे जो जनता के लिए बोझ न बने, यानि ज्ञान उपनिषद का-सा, पर अभिव्यक्ति लोरियों की-सी। बहुत काँट-छाँट के बाद उन्होंने 'विकास' के लिए एक लेख लिखा - 'झाड़ू लगाने की कला'। इसका आरंभ राष्ट्रपति वाशिंगटन के जीवन की एक घटना से हुआ था और इस तरह यह संस्मरण और लेख का समन्वय था। लेख पढ़ कर गांधी जी ने प्रतिक्रिया लिख भेजी - "भाई प्रभाकर, तुम तो मुझसे भी बढ़ गये । मैं तो पाखानों पर ही लिखता था, तुमने झाड़ू पर लिखा। मुझे बहुत अच्छा लगा।"
तब से प्रभाकर नए-नए प्रयोग करते रहे। उनके लेखों में स्कैच की चित्रात्मकता और संस्मरण की आत्मीयता थी। इस तरह हिंदी की एक नई शैली का प्रादुर्भाव हुआ। उनकी भाषा में व्यंग्यात्म्कता, सरलता, मार्मिकता, चुटीलापन तथा भावाभिव्यक्ति की अद्भुत क्षमता थी। वे अपने निबंधों को विचार यात्रा मानते थे और कहा करते थे "इनमें प्रचार की हुंकार नहीं, सन्मित्र की पुचकार है, जो पाठक का कंधा थपथपाकर उसे चिंतन की राह पर ले जाती है।" पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी, पं० श्रीराम शर्मा, श्री इंद्र विद्या-वाचस्पति और श्री रामनाथ 'सुमन'- इन चार लेखकों का उन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। वे अपनी कमियों पर हमेशा आँख गड़ाए रहते और दूसरों की विशेषताओं पर गहरा ध्यान देते।
भारत की स्वतंत्रता के बाद उन्होंने स्वयं को देश और समाज के उत्थान के लिए पत्रकारिता के काम में लगा दिया। उनकी पत्रकारिता स्वार्थ सिद्धि का साधन न होकर उच्च मानवीय मूल्यों की खोज और स्थापना का आधार रही। 'नया जीवन' और 'विकास' नामक समाचार-पत्रों के माध्यम से वे तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, तथा शैक्षिक समस्याओं पर अपने निर्भीक एवं आशावादी विचार संप्रेषित करते रहे। प्रभाकरजी ने अनेक साहित्यकारों को उभरने में सहयोग दिया। उन्होंने अपनी पत्रकारिता के बारे में बड़ी मार्मिक बात कही, "यह अनरुके चरण, अनबुझे दीप, अनझुके ललाट और अनथके शिव संकल्प का संघर्ष था।"
१९५३ में उनकी किताब 'ज़िंदगी मुस्कराई' भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुई। यह पुस्तक ३९ आलेखों का संग्रह है, शैली ऐसी कि कोई आपसे हाथ पकड़ कर बात कर रहा हो। 'ज़िंदगी मुस्कराई' वास्तव में खूब मुस्काई। १९६४ में इसके तीसरे संस्करण पर प्रभाकर लिखते हैं कि "यह कोई पुस्तक नहीं जीवन की रिफाइनरी (संशोधनशाला) है, जिसमें जीवन शुद्ध हो, उदबुद्ध होता है। इस ही की शाखाएँ हैं - 'बाजे पायलिया के घुंघरू', 'माटी हो गयी सोना', 'महके आँगन चहके द्वार', 'दीप जले शंख बजे' और 'ज़िन्दगी लहलहाई'। हम सब इस विचार यज्ञ में भागीदार हों, अपने महान् राष्ट्र की श्रेष्ठ नागरिकता के स्वस्थ अंग बनें, यही मेरे जीवन यज्ञ की सार्थकता है।" किताब की लंबी पृष्ठभूमि में कन्हैयालालजी ने अपनी लेखकीय यात्रा का वर्णन अपने चुटीले और व्यंगात्मक अंदाज़ में किया है।
उनकी दूसरी किताब 'बाजे पायलिया के घुँघरू' का प्रथम संस्करण १९५७ में भारतीय ज्ञानपीठ काशी से आया। यह ३८ आलेखों का संग्रह है। प्रश्न है - ये किस की पायलिया के घुँघरू हैं? उत्तर है - यह जीवन की पायल के घुंघरूँ हैं, जो ह्रदय की बात पढ़ कर सात्विक आनंद से भरकर बज उठते हैं! 'प्रभाकर' स्वयं लिखते हैं, "इन लेखों में न बुद्धि के गोरखधंधे हैं, न सूखे ज्ञान के अम्बार; सरल ह्रदय की जिज्ञासाएँ हैं, चिंतन है, अध्ययन है, प्रयत्न है, समाधान हैं, सफलताएँ हैं, अनुभव है!" इन लेखों में उनकी जीवन साधना का निचोड़ है, जो उन्होंने युवा पीढ़ी को मित्रवत उपहार स्वरूप सौंपा है।
उन्हें लेखन के लिए भारतेंदु पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी व पराड़कर पुरस्कार व महाराष्ट्र भारती पुरस्कार सहित दो दर्जन से अधिक सम्मान मिले। मेरठ विश्वविद्यालय ने उन्हें डीलिट की मानद उपाधि से नवाज़ा। १९९० में उन्हें पद्मश्री सम्मान मिला। ९ मई, सन १९९५ को यह महान साहित्यकार, यह धरती का फूल, आकाश का तारा हो गया!
संदर्भ
https://epustakalay.com/book/54438-baje-payaliya-ke-ghughru-by-kanhaiyalal-mishra/
https://epustakalay.com/book/55703-deep-jaley-shankh-baje-by-kanhaiyalal-mishra/
https://epustakalay.com/book/48007-zindagii-musakaraai-by-kanhaiyalal-mishra/
https://thehindipage.com/aadhunik-kaal-ke-sahityakaar/kanhaiyalal-mishra-prabhakar/
https://kidskahaniyan.com/kanhaiya-lal-mishra-ka-jeevan-parichay.html
https://www.prathamswar.page/2020/05/riportaaj-vidha-ke-pravartak-t-2CMQRA.html
लेखक परिचय
साहित्य से बरसों से जुड़ा होने साथ-साथ कई समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में लेख, कविता, ग़ज़ल, कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
ईमेल - surya.4675@gmail.com
वाह,फाडकर फिर लिखो लिखने का हुनर का दिया गया मंत्र अद्भुत है। शार्दूला जी, सूर्यकांत जी, आप दोनों ने एक मानक शोधपरक लेख प्रस्तुत किया है। मिश्र जी रचनाओं को पढ़ने की लालसा बढ़ गई। साधुवाद 🙏💐
ReplyDeleteआप लोगों ने बहुत ही बढ़िया लिखा है. बधाई. मैं जब विद्यार्थी था, प्रभाकर जी के लिखे को बहुत चाव से पढ़ता था और उनके लिखे का मुरीद था. लेकिन अब शायद ही किसी को याद हो कि ऐसा भी कोई लेखक हुआ था. दुख की बात है कि हिंदी समाज ने ऐसे महत्वपूर्ण लेखक को लगभग भुला ही दिया है. आपने हमें झकझोरा है. आप दोनों का हार्दिक आभार.
ReplyDeleteशार्दुला दीदी और सूर्या सर को हार्दिक बधाई। मिश्र जी ने गद्य लेखन के जो गुर बताये वो अनुकरणीय है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को रूबरू होने का मौका मिला। इतनी बारीकी से जानने को मिला, उसके लिए आप दोनों को हार्दिक ।आभार। आलेख लेखन के लिए प्रेरणास्पद लेख।
ReplyDeleteसूर्यकांत जी और शार्दुला जी नमस्ते, आप दोनों ने मिलकर कन्हैयालाल मिश्र जी पर सराहनीय और उत्तम आलेख लिखा है। आलेख के शीर्षक से लेकर अंत तक सब बहुत पसंद आया। भाषा शैली को लेकर कितना सटीक कहा है - ज्ञान उपनिषद का-सा, अभिव्यक्ति लौरियों की-सी। शोधपरक और रोचक आलेख के लिए दोनों लेखकों को बधाई।
ReplyDeleteछोटी छोटी उक्तियां, गहरी बड़ी बात, साधुवाद शार्दुला जी, सूर्यकांत जी गागर में सागर भर दिया आपने
ReplyDeleteखुद को सतत परिमार्जित कर हिंदी साहित्य के प्रत्येक पहलू के लिए 'प्रभाकर' तुल्य बनने वाले कन्हैयालाल मिश्र जी को नमन। इस आलेख पर किए गए शोध और ई-पुस्तकालय पर मौजूद उनके साहित्य की अनमोल निधियों के प्रकाश को हमसब तक पहुँचाने के लिए शार्दूला और सूर्या जी का बहुत आभार। उनकी उक्तियों, युक्तियों और सोच की झलकियों से युक्त इस आलेख के लिए लेखकों को आभार और बधाई।
ReplyDeleteशार्दुला जी, सूर्या जी नमस्ते। आप दोनों लेखकों को इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई। आप लोगों ने एक बहुत अच्छा लेख लिख कर हम लोगों को उपलब्ध करवाया। लेख कन्हैयालाल मिश्र जी के साहित्य एवं जीवन को सुंदर ढँग से प्रस्तुत करता है। उनकी लेखन हेतु दी गई सलाह लेख को शिक्षाप्रद बनाती हैं। पुनः बधाई।
ReplyDeleteबड़ी प्रेरक जीवन कथा है प्रभाकर जी की। शार्दुला जी, आपने बहुत रोचक सिलसिलेवार प्रस्तुति की है। जीवन का बारीक अध्ययन किया गया है और भाषा में सुंदर प्रयोग किए गए हैं। “पूनो की चाँदी भरी रात” और “ज्ञान उपनिषद का-सा पर अभिव्यक्ति लोरियों की-सी” मन मोह लेने वाली काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। आपको बहुत बधाई।
ReplyDeleteसूर्या जी, आपने खाका भेज कर शार्दुला जी को उत्कृष्ट लेखन के लिए सामग्री भेजी।धन्यवाद।
💐💐
शार्दूला जी, सूर्यकान्त जी आप दोनों कलमकारों की उत्कृष्ट लेखन और गहन शोध ने प्रभाकर जी के प्रेरक जीवन वृन्त और रचना संसार को बहुत दमग्रता के साथ इस आलेख में समेटा है। और हम पाठकों के लिए प्रस्तुत कर हमें समृद्ध किया है। आप दोनों का आभार। इस सुन्दर शोधपरक और सारगर्भित लेख के लिए बधाई।
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