"जब हम कार बनवाने जाते हैं, तब यह नहीं देखते कि मेकैनिक हिंदू है या मुसलमान! जब हम डॉक्टर को दिखाने जाते हैं, तब यह नहीं देखते कि वह हिंदू है या मुसलमान! लेकिन, जब हम वोट माँगने जाते हैं, तब हिंदू बन जाते हैं; मुसलमान बन जाते हैं।"
'मेरे भाई मेरे दोस्त' नाटक के इस एक संवाद से लेखक की सोच के विस्तार का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। धर्म पर एक व्याख्यान देते हुए इन नाटककार ने कहा है, "धर्म विशेषतः संस्कृत का शब्द है जिसका अनुवाद रिलिजन ‘religion’ नहीं हो सकता है। धर्म न हिंदू है, न मुसलमान – धर्म तो एक सार्वभौमिक संकल्पना है जो हमें ख़ुशी और सौहार्द्र के साथ अपने पूरे सामर्थ्य से जीने की प्रेरणा देता है और हमें ऐसे कर्म करने के मार्ग बतलाता है कि जब हम इस धरा से विदा लें तो अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए एक बेहतर संसार छोड़ सकें।" अपने जीवनकाल में ऐसे अनेक प्रेरक संदर्भों और संवादों से आमजन का मनोरंजन करने वाले सुप्रसिद्ध नाटककार, अभिनेता, निर्देशक एवं प्रशासनिक अधिकारी दया प्रकाश सिन्हा जीवन के आठवें दशक के उत्तरार्द्ध में भी सक्रिय और सुर्ख़ियों में बने हुए हैं। अभी हाल ही में अपने नाटक 'सम्राट अशोक' के लिए वर्ष २०२१ का साहित्य अकादमी पुरस्कार अर्जित कर उन्होंने यह साबित कर दिया कि मान्यताओं से इतर किया गया कार्य भी यदि प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया जाए तो उसे सराहा जाता है। 'सम्राट अशोक' के ज़रिए उन्होंने महाप्रतापी सम्राट अशोक के मानवीय पक्षों – मानवीय दुर्बलताओं, मानवीय आकांक्षाओं को उजागर किया है, जिस पर इससे पहले कभी किसी ने कुछ नहीं लिखा, न ही कहा था। उनके जीवन के कुछ रोचक पहलुओं को समेटने की एक कोशिश यहाँ प्रस्तुत है,
सिन्हा साहब का जीवन वृत्त
एक मध्यम वर्गीय परिवार में ब्रिटिश भारत के कासगंज कस्बे (वर्तमान एटा, उत्तर प्रदेश) में २ मई १९३५ को दयाप्रकाश सिन्हा का जन्म हुआ। पीढ़ियों से यह परिवार सरकारी नौकरियों पर आश्रित था। दयाप्रकाश के परदादा लाल किले में दीवान थे। पिता अयोध्यानाथ सिन्हा सरकारी नौकर थे और अपने पुत्र से भी प्रशासनिक अधिकारी बनने की आस लगाए बैठे थे। सिन्हाजी भी बचपन से इसी परिवेश में रहे जहाँ नौकरी की अहमियत अन्य हर कार्य से अधिक थी। अतः पढ़ने-लिखने के शौकीन थे और किताबों में मन रमाते थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से विज्ञान से स्नातक करने के पश्चात पिता की इच्छा को देखते हुए उन्होंने प्राच्य इतिहास (Ancient History), पुरातत्व (archaeology), एवं संस्कृत जैसे गंभीर विषयों से स्नातकोत्तर की पढ़ाई की। किंतु कला और साहित्य के प्रति आसक्ति उन्हें रंगमंच की ओर खींचती रहती। वे पढ़ाई के साथ-साथ थिएटर करते रहे। उन्होंने थिएटर की शुरुआत अभिनय से की थी। एम० ए० के दौरान डॉ० लक्ष्मीनारायण लाल के नाटक में पहली बार मुख्य भूमिका में थे। उस नाटक के मंचन से पहले ग्रीन रूम में मेक-अप करते हुए मेक-अप आर्टिस्ट ने उनसे कहा था, "आपके मेक-अप के साथ मैंने आपके अंदर नाटक के कीड़े डाल दिए हैं। अब आप इससे कभी बाहर नहीं निकल पाएँगे।" उस रोज़ कही वह बात सिन्हा जी के जीवन का सच बन गया और वास्तव में वे नाटक के प्रति समर्पित हो गए। हालांकि, अभिनय का सफ़र १९७५ में 'ओह अमेरिका!' नामक नाटक के साथ ख़त्म हो गया था किंतु लेखन और निर्देशन उन्होंने सदैव जारी रखा।
विश्वविद्यालय के स्तर पर नाटक करते हुए उन्हें इतना आनंद आया कि विश्वविद्यालय के बाहर उन्होंने अपनी एक एसोसिएशन बनाई जिसे 'इलाहाबाद आर्टिस्ट एसोसिएशन' का नाम दिया। इस संस्था का सबसे पहला नाटक 'अँधा-कुआँ' था जिसकी दर्शक दीर्घा में सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, धर्मवीर भारती, गिरिजा कुमार माथुर सरीखे इलाहाबाद की साहित्यिक गतिविधियों से जुड़े सभी दिग्गज बैठे थे।
वर्ष १९५९ में संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली ने पहला ड्रामा फ़ेस्टिवल आयोजित किया, जिसमें देशभर से नाटक मँगवाए गए। इलाहाबाद से दो नाटक मँगवाए गए थे और संयोगवश उन दोनों ही में दयाप्रकाश सिन्हा की मौजूदगी थी – एक में बतौर लेखक और दूसरे में बतौर अभिनेता। धीरे-धीरे नाटकों के प्रति आकर्षण बढ़ता गया और उन्होंने 'एशियन थिएटर इंस्टिट्यूट, दिल्ली' जो अब नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ ड्रामा (एनएसडी) के नाम से विख्यात है, में दाखिले की अर्ज़ी दे दी। अब इसे संयोग कहें या विडंबना, किंतु एनएसडी और उत्तर प्रदेश संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा का परिणाम एक साथ आया और किसी एक को चुनना आसान न था। इसी वर्ष ब्रिटिश ड्रामा लीग के स्कॉलरशिप का संदेश भी मिला। किंतु ड्रामा की अस्थिरता के भय ने उन्हें एक प्रशासनिक अधिकारी बनने को प्रेरित किया। परिवार की परंपरा, आर्थिक अस्थिरता और बेरोज़गारी के वातावरण में यह चयन उतना भी मुश्किल ना था। उनकी पहली नियुक्ति बहराइच, उत्तर प्रदेश में हुई। यहाँ से आरंभ हुआ प्रशासनिक सेवा का सफ़र १९७४ में पदोन्नति के साथ आई०ए०एस० अधिकारी तक पहुँचा और ३३ वर्षों तक विभिन्न पदों पर सेवाएँ देने के बाद १९९३ में सेवानिवृति के साथ ख़त्म हुआ। किंतु एक रंगकर्मी और नाटककार के रूप में वे सदैव सक्रिय रहे – न पद का लोभ, न सेवा-निवृत्ति का भय – जब तक समर्थ हैं, कार्यशील रहेंगे।
बहुआयामी प्रतिभा के विविध रंग
दया प्रकाश सिन्हा ने जब नाटक की शुरुआत की थी तब वे स्वयं नहीं जानते थे कि आने वाले सालों में उनकी कलम उन्हें किन-किन विविध रंगों से परिचित करवाएगी। उन्होंने अपने जीवन के तमाम अनुभवों को मंच पर बड़ी सफलता से परोसा है। एमए के विषय-ज्ञान ने उनकी ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं के मर्म को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वहीं एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में समाज को बहुत सूक्ष्मता से देखने का संयोग भी उन्हें मिलता रहा। भाषाओं की विविधता भी उनकी नाटक की ख़ासियत रही – कहीं संस्कृतनिष्ठ हिंदी तो कभी उर्दू की भरमार – जैसे पात्र, वैसे संवाद; जैसी पृष्ठभूमि, वैसी भाषा।
उनकी रचनाओं में विविधता का अनूठा संगम है; इतिहास की घटनाओं में आज के संदर्भ हैं; मानवीय धर्म का मूल्यांकन है; संवेदनाओं का प्रवाह है; पात्रों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण हैं और मानव संबंधों के विभिन्न रूप-रंग हैं। अपनी पहली रचना 'साँझ-सवेरा' में उन्होंने पीढ़ियों के संघर्ष को बड़े कलात्मक ढ़ंग से पेश किया है – १९५० के दशक की पृष्ठभूमि पर आधारित यह नाटक भारतीय संस्कारों पर अंग्रेज़ियत की छाप पड़ने से प्रभावित दो पीढ़ियों के संघर्ष को उजागर करता है। 'मन के भँवर' की पृष्ठभूमि एक मनोवैज्ञानिक के मनोरोग से पीड़ित होने की कल्पना पर आधारित है, जबकि 'पंचतंत्र' बाल-साहित्य आधारित बच्चों पर लिखा उनका एकमात्र नाटक है। उनका बहुचर्चित नाटक 'कथा एक कंस की' पौराणिक पात्र कंस के माध्यम से एक तानाशाह की व्यवस्था का विश्लेषण करता है, जो आज भी प्रासंगिक है। दया प्रकाश सिन्हा का अपना पसंदीदा नाटक 'सीढ़ियाँ' है, जिसमें मुग़ल सल्तनत के पतन के दौर का चित्रण है। इसमें सिन्हा साहब ने बड़ी ही सूक्ष्मता से दर्शाया है कि किस प्रकार शक्ति-बुद्धि हीन व्यक्ति भी भ्रष्टाचार के दम पर सत्ता का सुख भोग सकता है। 'मेरे भाई : मेरे दोस्त' कौमी संघर्षों पर आधारित नाटक है जिसमें राष्ट्रवादी मुसलमानों की स्थिति दर्शाई गई है। उन्होंने कॉमेडी विधा में भी नाटक लिखे, जिनमें 'अपने-अपने दाँव' तथा 'सादर आपका' शामिल हैं। यह दोनों ही नाटक उन्होंने विवाहोपरांत हुए अनुभवों के आधार पर लिखे। अपने नाटक के इन विविध रूपों के विषय में दया प्रकाश सिन्हा कहते हैं कि जीवन ने उन्हें समय-समय पर जैसे-जैसे अनुभव कराए, उन्हीं को आधार बनाकर उन्होंने अपने नाटकों की रचना की है। साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत उनका नाटक 'सम्राट अशोक' कई दिनों तक अखबारों की सुर्खियाँ बना रहा। इस नाटक पर विवाद का कारण था सम्राट अशोक की प्रतिष्ठित छवि से अलग अशोक का ऐसा चित्रण जिसमें अशोक के मानवीय मूल्य उजागर होते हैं। किंतु, इन विवादों ने दया प्रकाश को डगमगाने नहीं दिया क्योंकि उनके पास अपनी कहानी की सत्यता प्रमाणित करने के लिए वे सभी ऐतिहासिक संदर्भ मौजूद हैं जिनके आधार पर उन्होंने इतना बड़ा साहस दिखाया। अपनी पुस्तक 'सम्राट अशोक' की अठारह पृष्ठों की भूमिका में उन्होंने इस नाटक के मुख्य पात्र अशोक के चित्रण के लिए एकत्रित किए गए सभी संदर्भ ग्रंथों की चर्चा करते हुए यह बताया है कि उनके इस नाटक का मुख्य आधार हज़ार-डेढ़ हज़ार वर्ष पुराने बौद्धिक ग्रंथ – दिव्यावतान, अशोकावतान, दीपवंश, महावंश, तथा विभिन्न बौद्ध शिलालेख आदि हैं जिनमें सम्राट अशोक के विषय में विस्तारपूर्वक लिखा गया है।
एक अन्य नाटक 'रक्त-अभिषेक' में उन्होंने सार्वजनिक हित में की गई हत्या को न्यायोचित बताने का प्रयास किया है। इस नाटक में अहिंसा का अनुसरण कर रहे अंतिम मौर्य राजा की अपने ही मंत्री द्वारा हत्या का चित्रण है। अहिंसा का अनुयायी राजा जब प्रजा पर आए संकट को भाँप पाने में असमर्थ होता है और अतिक्रमणकारी यूनानियों के आक्रमण पर भी नहीं चेत पाता, तब प्रजा की रक्षा हेतु और विनाश को रोकने के लिए मंत्री ऐसा कदम उठाता है। इस संदर्भ में सिन्हा जी ने कहा है, "भारतीय चिंतन में पूर्ण अहिंसा को महत्त्व नहीं दिया गया है। हत्या और वध में अंतर है और यही अंतर इस नाटक का आधार है। युनानियों द्वारा लाखों लोगों की हत्या को रोकने के लिए एक राजा का वध किया गया।"
दया प्रकाश सिन्हा नाटक को द्विआयामी विधा बताते हैं – पहला, साहित्य - क्योंकि यह पात्रों व संवाद को पुस्तक रूप में प्रस्तुत करता है; इसमें कहानी है जो इसे शाश्वत बनाती है। दूसरा, कला जो इसे रंगमंच पर जीवंत बनाता है। एक नाटककार एक कथाकार भी होता है और एक कलाकार भी। अतः समाज के प्रति इनकी दोहरी ज़िम्मेदारी होती है। जब तक कहानी कोरी कल्पना पर आधारित है, तब तक क्रियात्मक स्वतंत्रता (क्रिएटिव लिबर्टी) का सहारा न्यायसंगत है; किंतु ऐतिहासिक नाटकों में कल्पना की उड़ान तभी तक मान्य है जब तक वह तथ्यों के साथ खिलवाड़ ना करे।
दया प्रकाश सिन्हा का हिंदी नाट्य जगत में योगदान अद्वितीय है। भोपाल के भारत भवन में अपनी नियुक्ति के दौरान उन्होंने वहाँ आमूल-चूल परिवर्तन किए। १९९१-९३ का वह दौर भारत-भवन के प्रजातंत्रीकरण का था जब यहाँ अनेक नाटकों की प्रस्तुतियाँ हुईं और इसे एक नई पहचान मिली। उन्होंने कला को सदैव राजनीति से दूर रखा। उन्होंने इस बात पर अधिक बल दिया कि थिएटर जन-आधारित होना चाहिए और सरकार व सेंसरशिप के हस्तक्षेप से मुक्त होना चाहिए। भारतीय रंगभूमि के इस लाल को जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएँ!
"रंगमंच विचारों का जनक, विवेक को जागृत करनेवाला, सामाजिक आधार का व्याख्याता, निराशा और निष्क्रियता के विरुद्ध कवच और मानव उत्थान का मंदिर है।" - अनूदित, दया प्रकाश सिन्हा।
दया प्रकाश सिन्हा : जीवन परिचय |
जन्म | २ मई १९३५ (आयु ८७ वर्ष) |
जन्म स्थान | कासगंज (ज़िला एटा), संयुक्त प्रांत आगरा व अवध (ब्रिटिश भारत) |
पिता | अयोध्यानाथ सिन्हा |
माता | स्नेहलता सिन्हा |
पत्नी | स्व० प्रतिभा भारतीय |
संतान | प्राची (दिवंगत), प्रतीची (पुत्री) |
शिक्षा |
स्कूल व हाईस्कूल | मैनपुरी एवं फ़ैज़ाबाद |
इंटरमीडिएट व बीएससी | इलाहाबाद |
एमए | प्राच्य इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृत, इलाहाबाद विश्वविद्यालय |
कार्यक्षेत्र |
१९६४-१९६५ | नगरपालिका निगम बहराइच के प्रशासनिक प्रभारी |
१९६५-१९६७ | फूलपुर एवं इलाहाबाद में प्रशासनिक अधिकारी |
१९६८-१९७१ | दिल्ली में प्रतिनियुक्ति पर रहे |
१९७१-१९७६ | साहित्य कला परिषद, नई दिल्ली के सचिव |
१९७६-१९७९ | निदेशक, भारतीय सांस्कृतिक केंद्र फिजी |
१९७९-१९८४ | साहित्य कला परिषद, नई दिल्ली के सचिव |
१९८४-१९८६ | आई०ए०एस० यू०पी० कैडर अयोध्या, वाराणसी आदि में सांस्कृतिक पुनर्जागरण |
१९८६-१९८८ | अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश राज्य ललित कला अकादमी, लखनऊ |
१९८९-१९९१ | निदेशक, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ |
१९९१-१९९३ | निदेशक, भारत भवन, भोपाल |
१९९७-२००३ | अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी, लखनऊ |
२००६ | भारत भवन ट्र्स्ट भोपाल के अध्यक्ष रहे |
साहित्यिक रचनाएँ |
- साँझ-सवेरा (१९५८) [अभिनय - निखिल की भूमिका में, १९५९ आइफ़ेक्स नई दिल्ली]
- मन के भँवर (१९६०) [निर्देशन १९६१ इलाहाबाद]
- अपने-अपने दाँव (१९६३)
- दुश्मन (१९६५)
- मेरे भाई मेरे दोस्त (१९७१) [१९७१ – १९७३ आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से कुल आठ बार प्रसारित]
- इतिहास चक्र (१९७२) [निर्देशन नई दिल्ली]
- ओह अमेरिका (१९७३)
- कथा एक कंस की (१९७४)
- सादर आपका (१९७६)
- सीढ़ियाँ (१९९०) [निर्देशन लखनऊ]
- इतिहास (१९९८)
- रक्त-अभिषेक (२००५) [निर्देशन २१ नवंबर २००६ श्रीराम प्रेक्षागृह, नई दिल्ली]
|
अन्य पुस्तकें | |
पुरस्कार एवं सम्मान |
साहित्य अकादमी पुरस्कार (नाटक- सम्राट अशोक) पद्मश्री - कला के क्षेत्र में, भारत सरकार अकादमी अवार्ड, संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली लोहिया सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा साहित्यकार सम्मान, हिंदी अकादमी, दिल्ली सरदार वल्लभ भाई पटेल सम्मान, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा, पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा
|
कुछ अन्य सम्मान | एनबीसी लाइफटाइम अवार्ड [हिंदी साहित्य], एनबीसी न्यूज़मेकर्स लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड [थिएटर] चमनलाल मेमोरियल सोसाइटी, नई दिल्ली साहित्य भूषण सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ लक्ष्मी नारायण लाल स्मृति सम्मान, डॉ० लक्ष्मीनारायण लाल फाउंडेशन, नई दिल्ली भावभूति सम्मान, नाट्यायन, ग्वालियर फ़िदा हुसैन नारसी सम्मान, आदर्श कला संगम, मुरादाबाद
|
अंतर्राष्ट्रीय सम्मान | |
संदर्भ
लेखक परिचय
दीपा लाभ
१३ वर्षों से अध्यापन कार्य से जुड़ी दीपा लाभ हिंदी से प्यार करती हैं और हिंदी सेवा के लिए प्रतिबद्ध हैं। हिंदी व अँग्रेज़ी भाषा में रोजगारपरक पाठ्यक्रम तैयार कर सफलतापूर्वक चला रही हैं। दीपा लाभ 'हिंदी से प्यार है' समूह की सक्रिय सदस्या हैं तथा 'साहित्यकार तिथिवार' परियोजना की प्रबंध-संपादक हैं।
ईमेल- deepalabh@gmail.com;
व्हाट्सएप- +91 8095809095
दीपा जी नमस्ते। आपका आज का दया प्रकाश सिन्हा जी पर लिखा यह लेख बहुत बढ़िया है। आपका हर लेख ही रोचक एवं शोधपरक होता है। आपने इस लेख में दया प्रकाश जी की जीवन यात्रा एवं कर्म यात्रा को बखूबी पिरोया है। उनका हिंदी रँग मँच में अमूल्य योगदान है। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसुप्रभात, दीपा जी। दया प्रकाश सिन्हा जी पर आपने सुंदर आलेख दिया है। बधाई।
ReplyDeleteधर्म पर उनके विचार सटीक हैं। धारियति इति धर्म: - मैं जिसे धारण करता हूँ, वही मेरा धर्म है। अंग्रेज़ी में लिखे रिलीजन को धर्म कहना ग़लत है।मुझे रंगमंच से सदैव लगाव रहा है और दयाप्रकाश जी के काम की विस्तृत जानकारी से बहुत ख़ुशी हुई। उनका प्रशासनिक अधिकारी बनने का निर्णय बहुत बुद्धिमतापूर्ण सिद्ध हुआ। तालिका से स्पष्ट है कि उन्होंने आजीवन काम तो साहित्य, कला और रंगमंच का ही किया और ऐसे पदों पर किया जहां से वह सकारात्मक परिवर्तन का माध्यम बन सके। उनके जन्मदिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ। 💐💐
अपनी रचनाशीलता के द्वारा हिंदी रंगमंच को अभूतपूर्व योगदान देकर समृद्ध करने वाले सशक्त हस्ताक्षर, दया प्रकाश सिन्हा जी पर दीपा जी ने बहुत सारगर्भित आलेख प्रस्तुत किया है। दीप जी को बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteसुंदर लेखन.. बढ़िया आलेख.. आभार
ReplyDelete