व्यंग्य वह विधा है, जहाँ तीखे शब्द-बाणों से वार किए जाएँ और चोट सीधे मर्म पर लगे। तंज ऐसा कि तिलमिलाहट तो हो, पर साथ ही ज्ञान-चक्षु भी खुल जाए। वस्तुतः व्यंग्य वक्रोक्ति के रूप में वह विधा है, जिसके द्वारा समाज की विसंगतियों, पाखंड, भ्रष्टाचार, सामाजिक-शोषण अथवा राजनीति के गिरते स्तर की घटनाओं पर अप्रत्यक्ष रूप से तंज कसा जाता है; जो हास्य नहीं, आक्रोश और विद्रोही चरपराहट की अभिव्यक्ति करता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, "व्यंग्य वह है, जहाँ कहने वाला अधरोष्ठों में हँस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठा हो और फिर भी कहने वाले को जवाब देना अपने को और भी उपहासास्पद बनाना हो जाता है।"
शरद जोशी का लेखन व्यंग्य विधा के सभी मानदंडों पर खरा उतरता हुआ एक अलग भाषायी तेवर के साथ गजब की बौद्धिकता, संवेदनशीलता समेटे हुए है। उनका व्यंग्य समाज और व्यवस्था की विसंगतियों पर पैनी नजर रखते हुए गहन सामाजिक सरोकारों के मुद्दों पर तीव्र दायित्व-बोध के साथ प्रहार करता हैं। शिल्प की सजगता इनके व्यंग्य लेखन की विशेषता है। भाषा में वक्रता के द्वारा ये शब्दों और विशेषणों का विशिष्ट संयोजन करते हैं। उनकी रचनाओं में हिंदी के तत्सम और देशज शब्दों के साथ-साथ अँग्रेज़ी के शब्दों का भी बहुलता से प्रयोग हुआ है। शरद जोशी व्यंग्य को जिंदादिली मानते हुए कहते हैं, "व्यंग्य वह सेंस ऑफ ह्यूमर है; जो अन्याय, अत्याचार और निराशा के विरुद्ध होने से व्यंग्य में अभिव्यक्त होता है।"
शरद जोशी का जन्म २१ मई, १९३१ को मध्यप्रदेश के उज्जैन ज़िले में मुगरमुट्टे नामक मोहल्ले में एक कर्मकांडी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीनिवास और माता का नाम शांति जोशी था। रूढ़ीवादी परिवार की मान्यताओं और सांप्रदायिक भेदभाव को परे धकेलते हुए एक अन्य धर्म की स्त्री इरफ़ाना से प्रेम और फिर विवाह कर उन्होंने अपनी धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्र विचार और निर्भीकता का अदम्य परिचय दिया। इरफ़ाना एक लेखक, रेडियो कलाकार और भोपाल में थिएटर कलाकार थीं। इन दोनों की तीन बेटियाँ बानी, ऋचा और नेहा शरद हैं। इनमें से नेहा शरद एक अभिनेत्री और कवयित्री हैं।
शरद जोशी की लेखन में रुचि बचपन से ही परिलक्षित होने लगी थी। उन्होंने कुछ बाल-मित्रों के साथ मिलकर एक संस्था बनाई और 'बाल साहित्य' का गठन करते हुए एक हस्तलिखित पत्रिका 'हंसोड़' निकालना शुरू किया। पत्रिका के संपादक थे, शरद जोशी। वर्ष १९५५ के दौरान शरद जोशी आकाशवाणी, इंदौर में पांडुलिपि लेखक के रूप में कार्यरत रहे। तदोपरांत मध्यप्रदेश के सूचना विभाग में १९५५ से १९५६ के मध्य बतौर जन-संपर्क अधिकारी कार्य किया। स्वभाव से स्वतंत्र और तेवरों से विद्रोही शरद ने इस राजकीय सेवा से शीघ्र ही त्यागपत्र दे दिया और पत्रकारिता का रुख किया। कादम्बरी, ज्ञानोदय, रविवार, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी उन्होंने नियमित स्तंभ और बहुत कुछ लिखा। १९६० के दशक में उन्होंने 'धर्मयुग' में 'बैठे ठाले' स्तंभ लिखना शुरू किया।
शरद जोशी ने नवभारत टाइम्स में 'प्रतिदिन' और 'नई दुनिया' के लिए कालजयी कॉलम लिखे। 'प्रतिदिन' की लोकप्रियता के साथ नवभारत टाइम्स और शरद जोशी ने अपूर्व ख्याति अर्जित की। संपादक राजेंद्र माथुर ख़ुद कहते थे कि शरद जोशी और 'नवभारत टाइम्स' एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं। प्रभाष जोशी ने एक बार कहा था कि उन्हें रज्जू बाबू (राजेंद्र माथुर) से ईर्ष्या है कि 'जनसत्ता' के पास कोई शरद जोशी क्यों नहीं?
धर्म के बदलते स्वरूप पर भी शरद ने तीव्र कुठाराघात कर उसे बेपर्दा किया है। एक ओर शरद जोशी ने सती-प्रथा की भयावहता का दिल दहलाने वाला चित्रण कर क्रूर परंपराओं की आवहेलना की है, वहीं दूसरी ओर ब्राह्मणों को प्रेरित कर अतीत की याद दिलाते हुए सर्वहारा वर्ग को शोषण मुक्त कराने का आह्वान किया है। हिंदुओं द्वारा छुआछूत के व्यवहार पर भी उन्होंने कुठाराघात किया। हिंदू धर्म में व्याप्त छुआछूत, आदिवासियों और हरिजनों को समान रूप से हिंदू ना मानना इत्यादि विषयों पर शरद जोशी ने करारे व्यंग्य कर धार्मिक विषमता समाप्त करने का सराहनीय प्रयास किया, साथ ही उन्होंने हिंदू एवं मुस्लिम धर्म के उत्सवों में व्याप्त अराजकता को भी उजागर किया है। हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों, परंपराओं एवं अंधविश्वासों पर कुठाराघात तो किया ही, साथ ही मठाधीश संतों एवं पंडितों द्वारा धर्म के नाम पर लोगों को फंसाने एवं लूटे जाने जैसे विषयों को उजागर करते हुए कड़ी आलोचना की है। उन्होंने धार्मिक विषमता को नष्ट कर समानता स्थापित करने का प्रयत्न किया है।
हमारे यहाँ वाचिक परंपरा बहुत पुरानी है। मंच पर गद्य व्यंग्य पाठ के महत्व को स्थापित करने में शरद जोशी का महत्वपूर्ण योगदान है। मंच पर बड़ी ही गरिमा और संप्रेषणीयता के साथ शरद जोशी अपनी रचना का पाठ करते थे। वे देश के पहले व्यंग्यकार थे, जिन्होंने पहली दफ़ा मुंबई में 'चकल्लस' के मंच पर १९६८ में गद्य पढ़ा और किसी कवि से अधिक लोकप्रिय हुए।
शरद जोशी के हिस्से में यह श्रेय भी है कि उन्होंने टिकट ख़रीद कर व्यंग्य सुनने की रवायत चलाई। उनके मित्र प्रो० कांति कुमार जैन के संस्मरणों का एक संग्रह है, 'लौट कर आना नहीं होगा'। शरद जोशी पर संस्मरण लिखते हुए वे कहते हैं, "मंच के सामने खड़े हुए शरद के व्यंग्य सुनना एक अनुभव हुआ करता था। हिंदी में टिकट ख़रीदकर व्यंग्य सुनाने की परंपरा शरद ने चलाई। उन्होंने ख़ूब व्यंग्य पढ़े, ख़ूब पैसा कमाया, ख़ूब लोकप्रियता अर्जित की। हिंदी लेखक के भुक्कड़ पुनिया बने रहने का उन्होंने प्रत्याख्यान किया। जैसे कवि सम्मेलनों में कवि बुलाए जाते हैं, वैसे शरद भी बुलाए जाने लगे। शरद का व्यंग्य-पाठ अच्छे से अच्छे कवि के काव्य-पाठ पर भारी पड़ता…."। चुटकुले रहित व्यंग्य रचना को पच्चीस साल तक कविता के मंच पर सफलतापूर्वक पढ़कर शरद जोशी ने सार्थक एवं गंभीर व्यंग्य को स्थापित किया, लेकिन देहरादून के एक कवि सम्मेलन में किसी मसखरे ने कह दिया, "शरद तू भांड बन गया है।" इसके बाद उन्होंने कवि सम्मेलनों में व्यंग्य पाठ करना छोड़ दिया। हालांकि लेखन से उनका नाता ताउम्र बना रहा। उन्होंने लिखा था, "लिखना मेरे लिए जीवन जीने की तरकीब है। इतना लिख लेने के बाद अपने लिखे को देख मैं सिर्फ़ यही कह पाता हूँ कि चलो, इतने बरस जी लिया। यह न होता तो इसका क्या विकल्प होता, अब सोचना कठिन है। लेखन मेरा निजी उद्देश्य है।" आगे उन्होंने लिखा, "अब जीवन का विश्लेषण करना मुझे अजीब लगता है। बढ़-चढ़ कर यह कहना कि जीवन संघषर्मय रहा। लेखक होने के कारण मैंने दुखी जीवन जिया, कहना फ़िजूल है। जीवन होता ही संघर्षमय है। किसका नहीं होता? लिखनेवाले का होता है, तो क्या अजब होता है?"
शरद जोशी में राजनीतिक परिपक्वता थी। वे जीवन के अपार व अबूझ छोटे से छोटे पल को लेकर रचनाएँ बनाते हैं। उनका कथन है, "प्रेम की पीड़ा गहरी होती है पर गरीब गरीबी की पीड़ा उससे भी गहरी होती है; यही विरल यथार्थ बोध है जो परिहास वक्रोक्ति आनंद आदि से आगे बढ़कर रचना को किसी दूसरे ही स्तर पर ले जाता है।"
शरद जोशी का व्यंग्य सृजन का शैल्पिक स्वरूप है। उनकी शैली, शब्द-चयन, प्रतीक व अनूठा बिंब संयोजन उनकी रचनाओं को एक चुटीला पुट प्रदान करता है। नाटकीयता और किस्सागोई उन के लेखन के अमोध अस्त्र थे, जो उनके रचित दो नाटकों 'गधा उर्फ़ अलादाद खाँ' और 'अंधों का हाथी' को कालजयी नाटकों की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं। उनके व्यंग्य की विशेषता है भर्त्सना, आक्रोश और ध्वंस की मात्रा का कम होकर भी गंभीरता के साथ मार्मिक चोट करना। 'होना कुछ नहीं का' व्यंग्य का आरंभ एक खादी-भंडार के आलस्य से भरे माहौल से होता है ... "बोर्ड लगा है- खादी भंडार। आयताकार लंबे काउंटर, आलमारियों पर यहाँ-वहाँ जमी धूल। अभी सुबह के ९:३० बज रहे होंगे। काउंटर के पीछे एक आदमी सुस्त झुका हुआ है।" आगे स्टाफ़ की 'मुस्तैदी' का व्यंग्यपूर्ण वर्णन है। इस सारे प्रकरण में जो जैसा है, जहाँ जैसा है, सब कुछ वैसा ही है। कहने को सब व्यस्त है, होता कुछ नहीं। आज भारतीय समाज इसी मानसिकता का शिकार है।
'तुम कब जाओगे अतिथि' में शरद जोशी ने ऐसे व्यक्तियों की खबर ली है, जो अपने किसी परिचित या रिश्तेदार के घर बिना कोई पूर्व सूचना दिए चले आते हैं; और फिर जाने का नाम नहीं लेते, भले ही उनका टिके रहना मेजबान पर कितना ही भारी क्यों ना पड़े?
शरद जोशी के व्यंग्य में जितनी उद्भावनाएँ भ्रष्टाचार को लेकर मिलती है उतनी वह स्वयं में एक मिसाल है। राजनेताओं पर तंज़ करते हुए लिखते हैं, "वह पूरे समय नव-दौलतियों के लिए अतिरिक्त कमाई के साधन-सुविधा उत्पन्न करने का आंदोलन चलाता है।"
चुनाव को आपसी समझ-बूझ पर आधारित खेल मानते हुए वे लिखते हैं, "इस पार्टी के हो या उस पार्टी के, सत्ता में बैठे हो या विरोध में सब एक ही सिगड़ी से बदन सेकते रहते हैं। पांच साल सूचना यह मिलती है कि लड़ाई चल रही है। सच्चाई यह है कि सामूहिक नृत्य हो रहा है। जहाँ सिर्फ़ फुटौवल का अंदेशा था वहाँ पर उस पर सेहरे बांधने की रस्म होती नजर आती है।"
'जीप में सवार इल्लियाँ' में वे लिखते हैं, "यह सिर्फ़ चना को नहीं खा रही हैं, सब कुछ खाती हैं और निष्कंप जीपों पर सवार चली जा रही हैं।" भारत का प्रशासन फाइलों के इर्द-गिर्द घूमता है। फाइल की चाल पर व्यंग्य करते हुए जोशी जी लिखते हैं, "हर फाइल की चाल का अपना नाजु़क अंदाज़ होता है। नितंबिनी। कैसे हिलती, हिलाती बढ़ती है, कहाँ ठिठक जाए, कब मुड़ कर देखने लगे, कब सर्र से चली जाए, कहाँ पसर जाए, कब लौट आए, कब तक रमती रहे, कौन चिपका ले, कौन बगल में दाबे जाता नजर आए कह नहीं सकते।"
नाट्य-विधा पर अपनी गहरी तुलनात्मक पकड़ के कारण ही उन्होंने फ़िल्मों और दूरदर्शन के लिए अविस्मरणीय पटकथा और संवाद लिखें। उन्होंने 'क्षितिज'(१९७४) से शुरुआत करते हुए उन्होंने बी० आर० चोपड़ा की सुपर हिट फ़िल्म 'छोटी सी बात' (१९७५), 'गोधूलि' (१९७७) 'सांच को आंच नहीं' (१९७९), 'चोरनी' (१९८२), 'उत्सव' (१९८४) और 'दिल है कि मानता नहीं' (१९९१) जैसी कई फिल्मों के डॉयलाग लिखे। दूरदर्शन को एक अनोखी पहचान देने वाला उनका लिखा सिटकॉम 'ये जो है जिंदगी' आज भी अपनी यादों से लोगों के दिल में गुदगुदी पैदा कर देता है। टीवी पर उन्होंने 'विक्रम और बेताल', 'सिंहासन बत्तीसी', 'दाने अनार के', 'वाह जनाब', 'श्रीमती जी' जैसे कामयाब सीरियल लिखे। १९८५ में भारतीय ज्ञानपीठ ने उनके सौ चुने हुए व्यंग्य लेखों का संग्रह 'यथासंभव' छापा। अपने रचना-कर्म की प्रतिबद्धता को बताते हुए जोशी जी लिखते हैं, "मेरा इरादा तो यह है कि जिसे मैं ठीक नहीं समझता हूँ, उसे अपने लेखन के जरिए शर्म के उस बिंदु तक ले जाऊँ कि वह अपना गलत स्वीकार कर ले और फिर पूरी निश्छलता के साथ लौट आए। जब तक व्यंग्य रचना निर्भीक होकर नहीं की जाती, तब तक सफल व्यंग्य लेखक नहीं बना जा सकता। छापने वाले और पढ़ने वाले तो तैयार हैं, साफ-साफ लिखने की आदत होनी चाहिए।"
नाट्य-विधा पर अपनी गहरी तुलनात्मक पकड़ के कारण ही उन्होंने फ़िल्मों और दूरदर्शन के लिए अविस्मरणीय पटकथा और संवाद लिखें। उन्होंने 'क्षितिज'(१९७४) से शुरुआत करते हुए उन्होंने बी० आर० चोपड़ा की सुपर हिट फ़िल्म 'छोटी सी बात' (१९७५), 'गोधूलि' (१९७७) 'सांच को आंच नहीं' (१९७९), 'चोरनी' (१९८२), 'उत्सव' (१९८४) और 'दिल है कि मानता नहीं' (१९९१) जैसी कई फिल्मों के डॉयलाग लिखे। दूरदर्शन को एक अनोखी पहचान देने वाला उनका लिखा सिटकॉम 'ये जो है जिंदगी' आज भी अपनी यादों से लोगों के दिल में गुदगुदी पैदा कर देता है। टीवी पर उन्होंने 'विक्रम और बेताल', 'सिंहासन बत्तीसी', 'दाने अनार के', 'वाह जनाब', 'श्रीमती जी' जैसे कामयाब सीरियल लिखे। १९८५ में भारतीय ज्ञानपीठ ने उनके सौ चुने हुए व्यंग्य लेखों का संग्रह 'यथासंभव' छापा। अपने रचना-कर्म की प्रतिबद्धता को बताते हुए जोशी जी लिखते हैं, "मेरा इरादा तो यह है कि जिसे मैं ठीक नहीं समझता हूँ, उसे अपने लेखन के जरिए शर्म के उस बिंदु तक ले जाऊँ कि वह अपना गलत स्वीकार कर ले और फिर पूरी निश्छलता के साथ लौट आए। जब तक व्यंग्य रचना निर्भीक होकर नहीं की जाती, तब तक सफल व्यंग्य लेखक नहीं बना जा सकता। छापने वाले और पढ़ने वाले तो तैयार हैं, साफ-साफ लिखने की आदत होनी चाहिए।"
५ सितंबर, १९९१ को मुंबई में देश के इस ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार ने इस नश्वर संसार को अलविदा कह दिया, किंतु जब तक राजनैतिक व सामाजिक नैतिकता की ऊसर भूमि मानवीयता के उच्च संस्कारों से फलीभूत होकर प्रेम, विश्वास, समानता और सद्भावनामय न हो जाए, तब तक शरद जोशी की व्यंग्योक्तियाँ चेतावनी रूप में हमारे आस-पास प्रतिध्वनित होती रहेंगी।
लेखक परिचय
लतिका बत्रा
लेखक एव कवयित्री
शिक्षा - एम०ए०, एम०फिल बौद्ध विद्या अध्ययन
प्रकाशित पुस्तकें- उपन्यास- तिलांजलि
तीन कवयित्रियों का साँझा काव्य संग्रह - दर्द के इन्द्र धनु
आत्मकथात्मक उपन्यास- पुकारा है जिन्दगी को कई बार डियर कैंसर
साँझा लघुकथा संग्रह लघुकथा का वृहद संसार
व्यंजन विशेषज्ञ- फूड स्टाईलिस्ट
गृहशोभा, सरिता, गृहलक्ष्मी जैसी पत्रिकाओं में कुकरी कॉलम
ई-मेल latikabatra19@gmail.com
मोबाईल 8447574947
प्रकाशित पुस्तकें- उपन्यास- तिलांजलि
तीन कवयित्रियों का साँझा काव्य संग्रह - दर्द के इन्द्र धनु
आत्मकथात्मक उपन्यास- पुकारा है जिन्दगी को कई बार डियर कैंसर
साँझा लघुकथा संग्रह लघुकथा का वृहद संसार
व्यंजन विशेषज्ञ- फूड स्टाईलिस्ट
गृहशोभा, सरिता, गृहलक्ष्मी जैसी पत्रिकाओं में कुकरी कॉलम
ई-मेल latikabatra19@gmail.com
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बहुत उम्दा लिखा है आपने, लतिका जी. बधाई.
ReplyDeleteधन्यवाद दुर्गाप्रसाद जी
Deleteशरद जोशी को पढ़ना-सुनना शादी करने के समान है। सुना है कि प्रेम अंधा होता है और शादी आँखें खोल देती है। शरद जोशी भी आँखें खोल देते हैं। और ऐसे हँसते-हँसाते खोलते हैं कि संदेश लेने वाले के मुँह में कसैलापन महसूस नहीं होता। उनके व्यंग्य में सहज हास्य का पुट था। अपने समकालीन व्यंग्यकारों , हरिशंकर पारसाई और रवीन्द्रनाथ त्यागी के लेखन की तुलना में शरद जी के लेखन में दंश कम था , कड़वाहट कम थी, हास्य अधिक था। यही कारण था कि पक्के काँग्रेसी भी उनके काँग्रेस वाले व्यंग्य लेख पर हँस देते थे। खेल अधिकारी ओलंपिक खेलों में हमारे निराशाजनक प्रदर्शन पर उनके लिखे व्यंग्य पर बर्बस हँस पड़ते थे, मुस्कुराने लगते थे। वोटर को बेवकूफ़ बनाकर नेता के मामाजी बनजाने वाली कहानी तो लोकश्रुति बन चुकी है। हमने देखा है कवि सम्मेलनों में देर रात तक लोग इस प्रतीक्षा में बैठे रहते थे कि कवि लोग समाप्त करें तो शरद जी को सुनें । वह भारतीय मंच पर व्यंग्य के पहले ( और अब तक आख़िरी भी) सुपर-स्टार थे।
ReplyDeleteलतिका जी, आपको सुंदर आलेख के लिए बधाई। शरद जी को पढ़ते-सुनते, दोस्तों से चर्चा करते, ठहाके लगाते कितने दिनों, कितने घंटों की यादें आपने ताज़ा कर दीं। शरद जी को जिसने पढ़ा, वह भूल नहीं सकता। इस जन्म में तो हरगिज़ नहीं। 😊💐
धन्यवाद हरप्रीत जी । शरद जी पल लिखते समय आप की टिप्पणी में भी शरद जी जैसा हास्य मिश्रित व्यंग्य का पुट आ ही गया ।😁 सच में आँखें तो शादी के बाद ही खुलती हैं। हम जिनके मामा हैं हो या अन्य व्यंग्य शरद जी लाजवाब थे ।
Deleteलतिका जी नमस्ते। आपने शरद जोशी जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा। शरद जी ने सार्थक एवं गंभीर व्यंग्य को बखूबी स्थापित किया। इस लेख के माध्यम से उन्हें एक बार फिर विस्तृत रूप से जानने का अवसर मिला। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteअपने व्यंग्यात्मक लेखन से सामाजिक कुरीतियों और विद्रूपताओं पर प्रहार करने वाले साहित्यकार शरद जोशी जी पर, लतिका जी आपने बहुत सुन्दर और सारगर्भित आलेख प्रस्तुत किया है। आपके इस लेख के माध्यम से उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को और अधिक जानने का अवसर मिला। उनकी लेखन शैली जितनी तीखी उतनी ही धारदार और शब्द मानो डंक, जो गलती करने वाले को अपनी गलती मानने पर विवश कर दें। लेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा। आपको बहुत बहुत बधाई व आभार। 🙏🏻💐💐
ReplyDeleteलतिका जी, आपका लेख पटल पर आया और साथ ही सार्थक टिप्पणियाँ। कल पूरा दिन ऐसी फ़ुर्सत न मिली कि इसे ध्यान से पढ़ती। आपने बहुत ही सधा हुआ और शरद जोशी जी की सोच और कृतियों के साथ न्याय करता आलेख लिखा है। बहुत अच्छा लगा आपका आलेख पढ़कर। आपको इस आलेख के लिए बधाई और आभार। आगे भी आपके आलेखों की प्रतीक्षा रहेगी, बहुत शुभकामनाएँ।
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