मंगलेश डबराल समकालीन कविता के ऐसे सशक्त कवि हैं, जिनकी कविताओं में संवेदना, करुणा, सरोकार और मनुष्यता का स्वर शिद्दत के साथ मौजूद है। उनके प्रतिरोध में ओज और शोर नहीं है, अपितु मार्मिकता और आत्मीयता का स्वर अधिक सघनता से सुना और अनुभव किया जा सकता है। पत्रकार और साहित्यकार प्रियदर्शन के शब्दों में, "मंगलेश डबराल राजनीतिक चेतना और मानवीय आभा से दीप्त कवि थे। पहाड़ों की यातनाएँ हमारे पीछे है और मैदानों की हमारे आगे, जर्मन कवि ब्रेख्त की यह काव्य पंक्ति डबराल को बहुत प्रिय थी और अक्सर इसे दोहराते थे। ऐसा लगता था जैसे पहाड़ों पर न रह पाने और मैदानों को न सह पाने का जो अनकहा दुख है, उन्हें यह पंक्ति दिलासा देती हो।"
१६ मई १९४८, टिहरी गढ़वाल ज़िले के काफलपानी गाँव में जन्मे मंगलेश डबराल प्रारंभिक शिक्षा गाँव से पूरी करके आगे की पढ़ाई के लिए देहरादून आ गए। कविता सृजन का गुरु मंत्र उत्तराखंड के प्रसिद्ध कवि लीलाधर जगूड़ी जी से मिला। मंगलेश जी ने इसकी स्वीकृति में स्वयं कहा है, "आज मैं अपने गाँव के स्कूल में मास्टरी करते हुए गीत लिख रहा होता यदि लीलाधर जगूड़ी ने आधुनिक कविता की ओर दरवाज़ा न खोला होता।"
१६ मई १९४८, टिहरी गढ़वाल ज़िले के काफलपानी गाँव में जन्मे मंगलेश डबराल प्रारंभिक शिक्षा गाँव से पूरी करके आगे की पढ़ाई के लिए देहरादून आ गए। कविता सृजन का गुरु मंत्र उत्तराखंड के प्रसिद्ध कवि लीलाधर जगूड़ी जी से मिला। मंगलेश जी ने इसकी स्वीकृति में स्वयं कहा है, "आज मैं अपने गाँव के स्कूल में मास्टरी करते हुए गीत लिख रहा होता यदि लीलाधर जगूड़ी ने आधुनिक कविता की ओर दरवाज़ा न खोला होता।"
कुछ वर्षों बाद मंगलेश डबराल काम की तलाश में दिल्ली पहुँचे। 'हिंदी पेट्रियट', 'प्रतिपक्ष' और 'आसपास' पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े। भोपाल में 'पूर्वग्रह' के सहायक संपादक बनेl उत्तर प्रदेश से निकलने वाले अख़बार ‘अमृत प्रभात’ में साहित्य संपादक के रूप में जुड़े। देश के प्रसिद्ध अख़बार 'जनसत्ता' से जुड़कर साहित्यिक पत्रकारिता के नए प्रतिमान स्थापित किए। सिनेमा पर अप्रतिम लेख लिखे। इन्होंने विश्व के प्रसिद्ध साहित्यकारों जैसे ब्रेख्त, पाब्लो नेरुदा, हेरमन हेस्से, एर्नेस्तो कार्डेनल और डोरा गाबे आदि की रचनाओं को हिंदी अनुवाद के माध्यम से सुधी पाठकों तक पहुँचाकर सराहनीय कार्य किया। एक बार पहाड़ और गाँव छूटा तो जीवन भर उससे दूर ही रहे। रोजी-रोटी और रोजगार के सवाल ने उन्हें शहर में उलझाए रखा। इस पीड़ा और दर्द को उन्होंने इन पंक्तियों में बयां किया,
"मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कुराया
वहाँ कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और वापस न आया।"
वर्ष १९८१ में उनका पहला कविता संग्रह 'पहाड़ पर लालटेन' प्रकाशित हुआl इस कविता संग्रह ने उन्हें समकालीन कविता के बड़े कवि के रूप में स्थापित किया। इसी संग्रह से उनकी एक प्रेम कविता भी बहुत चर्चित हुई,
"तुम्हारा प्यार लड्डुओं का थाल है
जिसे मैं खाना चाहता हूँ
तुम्हारा प्यार एक लाल रुमाल है
जिसे में झंडे सा फहराना चाहता हूँ।"
१९८८ में मंगलेश जी का दूसरा कविता संग्रह 'घर का रास्ता' प्रकाशित हुआ। कवि के रूप में उनकी प्रतिष्ठा और लोकप्रियता में और अधिक इजाफ़ा हुआ। तीसरा कविता संग्रह 'हम जो देखते है' १९९५ में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह की अधिकांश कविताएँ, विशेष रूप से पाँच कविताएँ काबिले गौर और काबिले तारीफ़ है। 'दादा की तस्वीर', 'पिता की तस्वीर', 'माँ की तस्वीर', 'अपनी तस्वीर' और 'बच्चों के लिए एक चिट्ठी' आदि कविताएँ कवि की संवेदना की पराकाष्ठा है। 'पिता की तस्वीर' कविता पाठकों को प्रेरित भी करती है और मार्मिकता व आत्मीयता की खुशबू से मन का कोना-कोना भी महकाती है। इन पंक्तियों पर गौर कीजिए,
"मेरी अच्छाई ले लो उन बुराइयों से जूझने के लिए जो तुम्हें रास्ते में मिलेगीं। मेरी नींद मत लो मेरे सपने लो ....."
"मेरी अच्छाई ले लो उन बुराइयों से जूझने के लिए जो तुम्हें रास्ते में मिलेगीं। मेरी नींद मत लो मेरे सपने लो ....."
इसी संग्रह की एक और कविता 'आयोवा' की कुछ पंक्तियाँ अंतर्विरोधों के कारण पाठक को चकित भी करती है और कवि की अद्भुत सृजनशीलता भी मन मोह लेती है,
"शोर होता रहता है सन्नाटा टूटता नहीं
रौशनियाँ जली रहती हैं अंधेरा भागता नहीं
रोना आता रहता है हँस रुकती नहीं
बर्फ गिरती जाती है आग बुझती नहीं।"
वर्ष २००० में मंगलेश जी का चौथा कविता संग्रह 'आवाज़ भी एक जगह है' प्रकाशित हुआ। इस संग्रह की एक खास कविता 'संगीतकार' को एनसीईआरटी ने कक्षा १० के हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल किया। पाठ्यक्रम में किसी कवि की कविता को शामिल करने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि कुछ वर्षों में लाखों-करोड़ों विद्यार्थी उस कविता की बारीकियों से अपने शिक्षकों के माध्यम से रूबरू होते हैं। मंगलेश जी की 'संगीतकार' कविता पिछले १६ साल से पाठ्यक्रम में लगी हुई है और प्रतिवर्ष १५ लाख से अधिक विद्यार्थी इसको पढ़ समझ रहे हैं। इस तरह से देखें तो मंगलेश जी की इस कविता को लगभग ढाई करोड़ बच्चों ने पढ़ा। मैंने केंद्रीय विद्यालय में प्राचार्य रहते मंगलेश डबराल जी को तीन बार अपने विद्यालय गुवाहाटी और देहरादून में बुलाया। उनके साथ ऋतुराज जी, राजेश जोशी जी और नरेश सक्सेना जी भी पधारे। मंगलेश जी ने 'संगीतकार' कविता को सुनाकर और उसका अर्थ समझाकर विद्यार्थियों को साहित्य से जोड़ने की बेहतरीन कोशिश की। सभी विद्यार्थी अपने बीच अपने प्रिय कवि को पाकर फूले नहीं समा रहे थे। मंगलेश जी ने विद्यार्थियों से कहा, "कविता का कार्य है मनुष्य को संवेदनशील बनाना। अच्छी कविता व्यक्ति को बेहतर मनुष्य बनाती है, प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्यता से जोड़ती है और प्रेम करना सिखाती है।" मेरी प्रार्थना पर उन्होंने 'माँ की तस्वीर' और 'पिता की तस्वीर' कविताएँ सुनाईं। विद्यार्थियों के लिए मंगलेश जी के साथ-साथ अन्य प्रसिद्ध कवियों से मुलाकात और संवाद अविस्मरणीय उपलब्धि थी।
'संगीतकार' कविता के माध्यम से उन्होंने यह बताने की कोशिश की कि मुख्य गायक की प्रसिद्धि और सफलता में उसके सहायक संगीतकारों का बड़ा योगदान होता है इसलिए संगीतकार के महत्व को कम करके नहीं आँकना चाहिए। इस कविता की अंतिम चार पंक्तियाँ काबिले गौर हैं,
"उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।"
मंगलेश जी का पाँचवा कविता संग्रह 'नए युग में शत्रु' वास्तव में बाजारवाद, भूमंडलीकरण, किसानों की आत्महत्याओं, पर्यावरण असंतुलन और मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन की करुण कहानी को बयां करता है। प्रसिद्ध आलोचक ओम निश्चल ने अपनी आलोचनात्मक पुस्तक 'कविता के वरिष्ठ नागरिक' में मंगलेश डबराल पर केंद्रित अध्याय 'शोर को संगीत में बदलने की पेशकश' में लिखा है,
"मंगलेश डबराल की कविताएँ भूमंडलीकरण की फलश्रुति, ताकत की दुनिया, आधुनिक सभ्यता के विकारों और तकनीक की शक्ल में छाते जा रहे नए युग के नए शत्रुओं के नवाचारों को कविता का मुद्दा बनाती है। जिस दौर में संवेदना का सबसे ज्यादा अवमूल्यन हो, कविता की जलवायु में भाषा की ऑक्सीजन लगातार घट रही हो, शब्दों की सांस उखड़ रही हो, ऐसे समय कवियों के लिए चुनौती भरे होते हैं। मंगलेश के यहाँ मनुष्यता को लगातार दुर्बल बनाती हुई सांप्रदायिकता, हिंसा और उसे एक यांत्रिक और परोपजीवी बनाती हुई ताकतों के प्रति गहरा विक्षोभ है।"
"मंगलेश डबराल की कविताएँ भूमंडलीकरण की फलश्रुति, ताकत की दुनिया, आधुनिक सभ्यता के विकारों और तकनीक की शक्ल में छाते जा रहे नए युग के नए शत्रुओं के नवाचारों को कविता का मुद्दा बनाती है। जिस दौर में संवेदना का सबसे ज्यादा अवमूल्यन हो, कविता की जलवायु में भाषा की ऑक्सीजन लगातार घट रही हो, शब्दों की सांस उखड़ रही हो, ऐसे समय कवियों के लिए चुनौती भरे होते हैं। मंगलेश के यहाँ मनुष्यता को लगातार दुर्बल बनाती हुई सांप्रदायिकता, हिंसा और उसे एक यांत्रिक और परोपजीवी बनाती हुई ताकतों के प्रति गहरा विक्षोभ है।"
'नए युग में शत्रु' शीर्षक कविता की अंतिम पंक्तियों में कवि की व्यंजना काबिले तारीफ़ है,
"हमारा शत्रु कभी हमसे नहीं मिलता सामने नहीं आता
हमें ललकारता नहीं
हालांकि उसके आने-जाने की आहट हमेशा बनी रहती है
कभी-कभी उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं है
हम सब एक दूसरे के मित्र है
आपसी मतभेद भुलाकर
आइए, हम एक ही थाली में खाएँ एक ही प्याले से पिएँ
वसुधैव कुटंबकम हमारा विश्वास है
धन्यवाद और शुभरात्रि।"
मंगलेश जी का अंतिम कविता संग्रह 'स्मृति एक दूसरा समय है' २०२० में प्रकाशित हुआ। इसमें उनकी ५४ कविताएँ शामिल है। इस संग्रह की अधिकांश कविताओं में प्रखर राजनीतिक प्रतिरोध का स्वर सुनाई पड़ता है। जिस तरह प्रेमचंद १९३४ के बाद 'गोदान' उपन्यास और 'कफ़न' कहानी तक आते-आते आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद का चोला उतारकर यथार्थवाद का रास्ता अख्तियार करते हैं, उसी तरह मंगलेश डबराल का मार्मिक लहज़ा ओज और प्रखर प्रतिरोध में परिवर्तित और रूपांतरित दिखाई और सुनाई पड़ता है। २०१९ में उनकी चर्चित कविता 'वर्णमाला' में उनके प्रतिरोध का स्वर अधिक मुखरित हुआ है,
"एक भाषा में अ लिखना चाहता हूँ
अ से अनार अ से अमरूद
लेकिन लिखने लगता हूँ अ से अनर्थ अ से अत्याचार
कोशिश करता हूँ कि क से कलम या करुणा लिखूँ
लेकिन मैं लिखने लगता हूँ क से क्रूरता क से कुटिलता
अभी तक ख से खरगोश लिखता आया हूँ
लेकिन ख से अब किसी खतरे की आहट आती है"
मंगलेश डबराल न केवल विश्वविख्यात कवि हैं, बल्कि गद्य लेखन में भी वह बेजोड़ है। 'लेखक की रोटी' और 'कवि का अकेलापन' उनके प्रमुख गद्य संग्रह हैं। 'एक बार आयोवा' और 'एक सड़क एक जगह' उनके प्रसिद्ध यात्रा संस्मरण हैं। मंगलेश जी को १९९१ में आयोवा विश्वविद्यालय, अमेरिका के अंतर्राष्ट्रीय राइटिंग प्रोग्राम में दो महीने के लिए आमंत्रित किया गया था। अनेक देशों से आए साहित्यकारों के साथ उनके अनुभवों की दिलचस्प गाथा है, यह यात्रा संस्मरण। पोलिश साहित्यकार उरसुला(Ursula) और मंगलेश जी एक बार बाहर घूमने गए और उन्हें खेतों में गाय दिखाई दी तो उरसुला(Ursula) जी ने गाय को दूर से हाथ जोड़कर प्रणाम किया और मंगलेश जी से कहा कि आपके यहाँ गाय को माता मानते हैं तो मंगलेश जी ने भी कहा जी यह सच है। हिंदी फ़िल्मों के संवाद और गीतों का भी मंगलेश जी ने दिलचस्प वर्णन किया है। अफ्रीकी और दक्षिण एशियाई देशों के लेखकों ने अमिताभ बच्चन की फ़िल्म 'जंज़ीर' और 'शोले' देखी हुई है, लेकिन मंगलेश जी ने कहा कि यह विडंबना है कि हिंदी के नाम पर 'शोले' के संवाद प्रचलित हों। मलेशिया के रहमान बिन शआरी को 'संगम' फ़िल्म का गीत 'मेरे मन की गंगा' बहुत प्रिय है और मंगलेश जी ने उनको रोमन भाषा में वह गीत लिखकर दिया जिससे वह गीत गा सके। मंगलेश जी ने कुछ साथियों के हाथ भी मनोरंजन के तौर पर देखे और ज्योतिष की कुछ बातें उन्हें बताकर उनका दिल जीता। संयोग से कुछ बातें सच साबित हुई और लोग मंगलेश जी की ज्योतिष विद्या का लोहा भी मानने लगे।
२०२० में मंगलेश डबराल प्रसिद्ध कवि शमशेर बहादुर सिंह की जीवनी पर काम कर रहे थे। शायद दो तिहाई काम भी पूरा कर लिया था। मंगलेश डबराल जी नवंबर के अंतिम सप्ताह में कोविड से संक्रमित हुए। इसकी चर्चा देश भर में साहित्यिक मित्रों के बीच हुई।
७ दिसंबर २०२० को प्रसिद्ध कवि और मंगलेश जी के मित्र आलोक धन्वा जी का मुझे मॉस्को में फोन आया, "इंद्रजीत जी आपका और मेरा बड़ा प्यारा दोस्त मंगलेश कोरोना के कारण ऐम्स दिल्ली में भर्ती है, तबीयत ज्यादा खराब हो गई है, आप ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि वह बच जाए।" आलोक जी का स्वर आँसुओं से भीगा हुआ था। आलोक जी से मैंने कहा कि हम सभी दुआ कर रहे हैं कि वह जल्दी स्वस्थ हो और फिर से मानीखेज संवेदना से लबरेज़ कविताएँ रचे। लेकिन ९ दिसंबर २०२० को खबर आई कि सामाजिक सरोकारों, संवेदना से लबरेज़ कविताएँ लिखने वाले और शोर को संगीत में तब्दील करने वाले कवि मंगलेश डबराल नहीं रहे। कोरोना के क्रूर हाथों ने ९ दिसंबर, २०२० को भारत ही नहीं विश्व के इस महान कवि को हमसे छीन लिया।
मंगलेश जी की सरलता, सादगी, विनम्रता, विद्वता और आत्मीयता के सभी प्रशंसक थे। अच्छे-अच्छे कवि और कविता के बारे में मंगलेश जी के विचार कितने प्रेरक और प्रभावशाली हैं,
"दुनिया में कितनी महान कविता मौजूद है, कितने बड़े कवि हैं। नेरुदा, नाज़िम हिकमत, लोर्क, ब्रेख्त, . . निराला, शमशेर, फ़ैज़, मुक्तिबोध और भी कितने ही, कई सौ महाकवि जिनकी रचनाएँ इस संसार को बार-बार सम्मान के साथ रहने और जीने योग्य बनाती हैं।"
"दुनिया में कितनी महान कविता मौजूद है, कितने बड़े कवि हैं। नेरुदा, नाज़िम हिकमत, लोर्क, ब्रेख्त, . . निराला, शमशेर, फ़ैज़, मुक्तिबोध और भी कितने ही, कई सौ महाकवि जिनकी रचनाएँ इस संसार को बार-बार सम्मान के साथ रहने और जीने योग्य बनाती हैं।"
मंगलेश जी को ७४वें जन्मदिन पर प्रख्यात कवि नरेश सक्सेना जी ने मंगलेश जी की स्मृति में कितनी मार्मिक रचना लिखी है,
"मंगलेश मुझसे
दस बरस छोटे थे।
हमेशा वादा करते
और अक्सर नहीं आते।
अब वे कभी नहीं आऐंगे
मुझे ही जाना होगा।
शब्द खोखले हो चुके
कुछ कहते नहीं बन रहा।
मंगलेश जी नमस्कार!!"
संदर्भ
- कविता के वरिष्ठ नागरिक - ओम निश्चल
- एक बार आयोवा - मंगलेश डबराल
- स्मृति एक दूसरा समय है - मंगलेश डबराल
लेखक परिचय
डॉ० इंद्रजीत सिंह
एम० ए० (अर्थशास्त्र, हिंदी और समाजशास्त्र) गोल्डमेडलिस्ट
पी० एच० डी० (आईआईटी रुड़की)
संस्थापक - "शैलेंद्र सम्मान", "जनकवि शैलेंद्र", "धरती कहे पुकार के", "तू प्यार का सागर है" पुस्तकों के संपादक।
संस्थापक - "शैलेंद्र सम्मान", "जनकवि शैलेंद्र", "धरती कहे पुकार के", "तू प्यार का सागर है" पुस्तकों के संपादक।
३४ साल अध्यापन के बाद केंद्रीय विद्यालय संगठन से प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त। पत्राचार - केंद्रीय विद्यालय, भारतीय राजदूतावास मॉस्को (रुस)
मो० 9536445544 (व्हाट्स एप केवल) +7 9168796387
ईमेल indrajeetrita@gmail.com
ईमेल indrajeetrita@gmail.com
इंद्रजीत सिंह जी, मंगलेश डबराल जी पर लिखे इस बेहद खूबसूरत आलेख के लिए आपको बधाई। आपने एक आलेख में ही मंगलेश जी की जीवन यात्रा, उनके सृजन , और उनकी सोच का भरपूर वर्णन कर दिया है। यह आपके लेखन के कौशल और व्यक्तिगत अनुभवों की गहराई का परिचायक है।
ReplyDeleteकविता के बारे में मैं मंगलेश जी के विचार से सहमत हूँ। काव्य हमें जीना सिखाता है। कविता से ही हमारे जीवन में रस और रंग हैं। कविता के अभाव में तो केवल पेट भर कर मर जाना , यही रह जाता है। साँस तो हम लेते हैं पर उसमें ख़ुश्बू कविता भरती है। 💐💐
इस सार्थक आलेख के लिए हृदय से धन्यवाद !
ReplyDeleteकवि को फिर से जीना और पाना अभिभूत कर गया
बधाई शुभकामनाएं बंधुवर !
मंगलेश डबराल जी पर आज लेख प्रकाशित हुआ है... डा० इन्द्रजीत सिंह जी को बधाई एक अच्छे लेख के लिए... दिल्ली में दो तीन कार्यक्रमों में मंगलेश जी से भेंट हुई है... वे एक प्रतिभाशाली साहित्यकार रहे हैं... उनका असमय चले जाना साहित्य की बड़ी क्षति भी है.
ReplyDeleteमंगलेश जी कभी कभी ऐसा भी लिखते रहे हैं जो शायद उचित नहीं कहा जा सकता... वे नयी कविता के कवि रहे हैं लेकिन नयी कविता के साथ साथ हिंदी में अनेक अनेक विधाएँ हैं और प्रत्येक विधा समान है... इसलिए किसी विधा को कम या अधिक नहीं माना जा सकता... न कभी कभी विधाएँ आपस में झगड़ती हैं... इसी लेख में मंगलेश जी का कथन कोट किया गया है कि- .... यदि गाँव में रहता तो... गीत लिखता होता...
उनके इस कथन से ऐसा लगता है कि उनकी दृष्टि में गीत कोई बहुत ही निकृष्ट तरह की चीज है... जबकि वास्तविकता यह है कि गीत उतना पुराना है जितना मनुष्य का अस्तित्व... गीत ने समय के साथ साथ न जाने कितनी बार अपने को अपडेट किया है... लेकिन मंगलेश जी शायद गीत लिखने को कोई बहुत छोटी चीज है समझते थे... यह सोच उनके कद को छोटा ही करता है......
यही नहीं हाइकु कविता पर भी वे ऐसी ही टिप्पणी कर डालते हैं...
मंगलेश जी जी जापान की यात्रा पर गये और वापस आकर एक लेख लिखा जो पहल-88, मार्च- अप्रैल 2008 में प्रकाशित हुआ... इस लेख में वे लिखते हैं-
"दुनिया भर में हाइकू लिखे गए हैं, ऐसी कोशिशें
हिंदी में भी हुई हैं लेकिन मुझे लगता है चीनी या जापानी के बाहर हाइकू लिखना काफी कठिन है और उसके पांच-सात-पांच के विन्यास को निभाना तो असंभव है"
यह टिप्पणी हाइकु के प्रति उनके अनजानपन की टिप्पणी है... भारत में हिंदी हाइकु बड़ी मात्रा में लिखे जा रहे हैं और हजारों हाइकु संग्रह, संकलन प्रकाशित हो चुके हैं... अनेक विश्व विद्यालय हाइकु पर शोध करा चुके हैं और करा रहे हैं... मंगलेश जी का यह कहना कि हिंदी में हाइकु लेखन संभव नहीं है... आश्चर्य चकित तो करता ही है हिंदी में हाइकु जैसी कविता के प्रति इतनी गैरजिम्मेदार टिप्पणी के लिए उनकी सर्वज्ञता पर प्रश्न चिह्न भी लगाता है.
चूँकि इस पटल पर प्रकाशित लेख अनेक लोग पढ़ रहे हैं और पढ़ेंगे... इसलिए मुझे लगा कि टिप्पणी आवश्यक है...
डा० इन्द्रजीत सिंह जी को हार्दिक बधाई लेख के लिए और मंगलेश डबराल जी की स्मृति को नमन.
-डा० जगदीश व्योम
धारा प्रवाह बेहतरीन आलेख👌👌 🙏
ReplyDeleteइंद्रजीत जी नमस्ते, कवि मंगलेश डबराल के कृतित्व और व्यक्तित्व को इतने मँझे हुए आलेख में पिरोने के लिए धन्यवाद। साहित्यकारों के साथ आपकी मुलाक़ातों के किस्से आपसे सुनना और आलेखों में पढ़ना हमेशा ही बहुत रोचक लगता है। यह रस इस आलेख में भी मिला। एक बार फिर आपको आलेख के लिए हार्दिक धन्यवाद और बहुत-बहुत बधाई! आगे भी ऐसे आलेख हमें पढ़ाते रहिएगा।
ReplyDeleteडॉ. इंद्रजीत जी नमस्ते। आपका आदरणीय मंगलेश डबराल जी पर यह लेख बहुत व्यवस्थित एवं समृद्ध है। आपने सीमित लेख में उनके जीवन एवं साहित्य के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाई। आपको इस बढ़िया लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteइंद्रजीत जी नमस्ते। वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को उल्लेखित करता आपका यह आलेख बहुत सुरुचिपूर्ण और जानकारियों से परिपूर्ण है। उनके विपुल और वैविध्यपूर्ण रचना संसार को पढ़ कर आनंद आया। आपको इस सारगर्भित और सशक्त लेख के लिए हार्दिक बधाई व् आभार।
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई हो सर जी। आलेख के जरिये डबराल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित हो सके। आपके लेखन की विशिष्टता से परिचित हुए। बहुत शुभ कामनाएँ। नमस्कार
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