हो सकता है आपने प्रयागराज के ८०० वर्ष से अधिक प्राचीन नागवासुकि मंदिर को न देखा हो, उसके सान्निध्य में झुककर माँ गंगा का आशीर्वाद न लिया हो, लेकिन कभी न कभी किसी नदी किनारे पत्थरों वाले चबूतरे पर बने मंदिर, घने पेड़ की ठंडी छाँव और शांत धारा से जुड़ी लय को अपने भीतर जरूर समेटा होगा। कुछ ऐसे ही आत्मिक सुख का अनुभव प्रयागराज के साहित्यिक तीर्थ डॉ० जगदीश गुप्त के घर भी किया जाता रहा है। नागवासुकि मंदिर से चंद क़दमों की दूरी पर अब भी न सिर्फ़ उनके लेखन की दुनिया जीवित है, बल्कि उनकी चित्रकला और मूर्तियाँ उनके घर या यूं कहें कि अघोषित संग्रहालय में संरक्षित हैं।
वासुकि पार्श्व में उनके शब्द आज भी गूंजते हैं,
"भागीरथी! हम दोस भरे
पै भरोस यहै, हैं परोस तिहारे।"
आधुनिक कविता के प्रणेता कहे जाने वाले डॉ० जगदीश गुप्त का जन्म ०३ अगस्त १९२४ (५ जुलाई १९२६ कार्यालयी दस्तावेज़ों में) को तहसील- शाहाबाद, ज़िला- हरदोई, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनके पिता श्री शिव प्रसाद गुप्त सनातन संस्कृति को मानने वाले ज़मींदार थे। सात संतानों में एकमात्र जीवित जगदीश जी को घर में सभी का विशेष ध्यान मिला। माता श्रीमती रमा देवी गृहिणी होने के बावजूद शिक्षा की अहमियत भली-भाँति समझती थीं। जब जगदीश जी दस वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया। उसके बाद उनकी माताजी उन्हें अपने भाई के पास लेकर चली गईं, जो कि मसूरी स्थित कॉलटर्न होटल में मैनेजर थे। शहर बदलने का यह क्रम जारी ही रहा, किंतु उन्होंने जगदीश जी की पढ़ाई कभी रुकने नहीं दी और अंततः प्रयागराज (तब इलाहाबाद) को अपना स्थाई निवास बना लिया। जिस तरह प्रयाग की पहचान तीन नदियों के संगम से थी, ठीक उसी तरह लेखन, चित्रकारी और पुरातत्त्व-प्रेम जगदीश जी के व्यक्तित्व की पहचान थे।
डॉ० गुप्त का जीवन किताब की भाँति कई ऐसे खंड समेटे हुए है, जिसका हर पन्ना प्रेरणा से भरा हुआ है। बचपन की अपनी कक्षाओं में छंदों, दोहे और सवैयों को रटने-समझने में पारंगत गुप्त जी पढ़ाई में भी अव्वल थे। देहरादून, सीतापुर रहने के बाद उन्होंने अपनी हाईस्कूल की पढ़ाई मुरादाबाद से पूरी की। उसके पश्चात कानपुर के बी०एन०एस०डी० कॉलेज से गणित विषय में ९५% अंक प्राप्त कर इंटरमीडिएट में पूरे ज़िले में तृतीय स्थान पर रहे। वर्ष १९४३ में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी०ए० में प्रवेश लिया। १९४५-४७ में उन्होंने प्रथम श्रेणी में हिंदी से एम०ए० पूरा किया, साथ ही संस्कृत और चित्रकला में डिप्लोमा भी किया।
प्रयाग के प्रसिद्ध ए०एन० झा छात्रावास में उन्हें स्थान मिला, जहाँ के वार्डन प्रसिद्ध शिक्षाविद पंडित अमरनाथ झा थे। डी०फिल० में उनके शोध का विषय 'गुजराती और ब्रजभाषा कृष्णकाव्य का तुलनात्मक अध्ययन' था, जिसका निर्देशन डॉ० धीरेंद्र वर्मा ने किया था। इलाहाबाद में पढ़ाई के दौरान वह साहित्यिक गतिविधियों में भी पूरी तरह से रम चुके थे। वर्ष १९५० में उन्होंने इलाहबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन कार्य शुरू किया एवं कई वर्षों तक विभागाध्यक्ष रह कर १९८६-८७ में अवकाश प्राप्त किया। बाद में वे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की उच्च शोध की विशेष योजना का हिस्सा भी बने। राज्य कला अकादमी से जुड़ाव, प्रकाशन घरों में सक्रियता, पत्र-पत्रिकाओं के संपादन, साहित्यिक संस्थाओं के गठन आदि उनकी दैनिकचर्या का हिस्सा बनते गए।
१९५४ में नई कविता के साथ आरंभ की गई अपनी साहित्य-यात्रा में गुप्त जी ने कई ग्रंथों की रचना की। नई कविता के तीनों खंडों का संपादन डॉ० जगदीश गुप्त, डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी, विजयदेव नारायण साही ने सयुंक्त रूप से किया था। डॉ० गुप्त की काव्य-यात्रा के तीन महत्त्वपूर्ण पक्ष दिखते हैं, पारंपरिक ब्रजभाषा की कविता, नई कविता और समकालीन कविता।
वरिष्ठ ब्रजभाषा कवि डॉ० रमाशंकर शुक्ल 'रसाल' उनके गुरु व पथ-प्रदर्शक रहे। लेखन को मानवता प्रधान सोचने वाले गुप्त जी ने नई कविता का लक्ष्य आधुनिक सोच और संवेदनाओं से जोड़े रखा। वे इसे नए मनुष्य की प्रतिष्ठा कहा करते थे। उनका विचार था, कि नई कविता छायावाद के प्रेम-पगे काल्पनिक संदर्भों से मुक्त हो चुकी है और मानवीय अनुभूतियों का यथार्थ प्रदर्शित करती है; इसलिए उसे परंपरागत परिभाषाओं से जोड़ने के बजाए नए दृष्टिकोण से देखा जाना उचित होगा।
डॉ० गुप्त का हिंदी से एक गहरा रिश्ता रहा है। अपनी बोली-भाषा से जुड़े हर व्यक्ति के लिए उनका मन सम्मान से भरा था। उनके अनुसार डॉ० धीरेंद्र वर्मा, डॉ० बाबूराम सक्सेना, डॉ० उदय नारायण तिवारी और डॉ० माता बदल जायसवाल ने भी भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में जो किया वह सदा स्मरणीय रहेगा। महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से मैथिलीशरण गुप्त का ब्रजभाषा से खड़ी बोली में आना और प्रेमचंद का उर्दू छोड़कर हिन्दी में आना, उन्हें समान महतत्त्वपूर्ण लगता था। उनके अनुसार प्रगतिशील आंदोलन की भाषा-नीति शुरू से ही दो फांकों में बंटी है और तरक्की पसंद लोग प्रगतिशीलों में शामिल होकर हिंदी की टांग खींचते रहे है, जबकि हिंदी अपनी समस्त उपभाषाओं तथा ग्रामीण बोलियों का प्रतिनिधित्व करती है।
अपने लेखन में डॉ० गुप्त ने प्राचीन समय से जुड़ी कई चरित्र कहानियों का पुनर्पाठ किया है। जिसमें कहीं-कहीं परंपराओं के सामांतर एक विरोध झलकता है, जो कि सरल या सामान्य लेखन नहीं था, क्योंकि इन पात्रों का जुड़ाव जन-आस्था से संबंधित रहा है। शम्बूक, शांता, गोपा-गौतम, जयंत आदि पात्र किसी न किसी सामाजिक धारणा का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। 'शम्बूक' दलित चेतना से प्रेरित है। गोपा-गौतम में अंतस की गतिविधियों का अंकन है। शांता के रूप में एक भूले-बिसरे चरित्र का पुनर्स्मरण है, तो समकालीनता से प्रेरित आक्रोश के पंजे में उनके मन का द्वंद्व भी झलका है। उनका मानना था कि कवि वो जो अकथनीय कहे।
ब्रजभाषा में लिखे उनके छंद अप्रतिम हैं। नई कविता धारा में भी उन्होंने बिंब और प्रतीक को आधार रखा है। नाव के पाँव, युग्म, शब्द दंश, हिमविद्ध इस प्रवृति का सटीक उदाहरण हैं। गद्य जैसी दिखती इन कविताओं में शब्दों की लय परिलक्षित होती है। उनके लेखन में हमेशा प्रकृति-चेतना और सौंदर्य का समावेश रहा है।
डॉ० जगदीश रेखाओं के कुशल शिल्पी भी थे, इसलिए उनके काव्य में हमेशा चित्रात्मकता ने अपनी उपस्थिति दर्ज की है। उनके अनुसार साहित्य व्यक्ति और समाज की समन्वित चेतना से उत्पन्न होता है और रचनात्मकता उसका मूल आधार है। उनके मन की अधिकांश भावनाएँ अपने चित्रों और कविताओं में एक समान तरीके से उतरी हैं। हिंदी काव्य-धारा में महादेवी जी ने चित्र और काव्य का जो अंतः संबंध स्थापित किया था। गुप्त जी उसी की अगली कड़ी थे।
साहित्य लेखन के साथ-साथ चित्रकला को लेकर उनकी गहरी समझ ने उनके व्यक्तित्व को नया ही आयाम दिया था। अपने परिचितों के बीच उन्हें आवरण चित्र आदि बनवाने के हमेशा आग्रह मिलते थे। डॉ० हरदेव बाहरी के 'प्रसाद साहित्य कोश' का आवरण चित्र डॉ० गुप्त ने ही बनाया, जो कि भारती भंडार से प्रकाशित हुआ था। डॉ० हरदेव के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्होंने कहा था, "बाहरी साहब कहने को बाहरी हैं, पर वास्तव में उन्हें भीतरी कहना चाहिए।" शम्भूनाथ सिंह के गीतों के चित्र, धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध पुस्तक 'अंधा युग' और 'कनुप्रिया' के आवरण चित्र भी उन्होंने ही बनाया था। 'नाव के पाँव' में बने रेखाचित्रों को भारती ने 'निकष' के कई अंकों में छापा। उनके लेखन की तरह उनके चित्रों को भी बहुत प्रशंसा मिली। डॉ० रामस्वरूप चतुर्वेदी ने अपने आलेख 'वे पाँच चित्र' में विस्तार से लिखा है। उनके अनुसार, "गुप्त जी के चित्रों को फैन्टेसी पर आधारित कहना अधिक उपयुक्त है, क्योंकि उनके कला-क्षेत्र में प्रेमाख्यान अति यथार्थवाद से प्रेरित है; जहाँ मन के भीतर अपनी संतुष्टि के अनुसार कल्पना का एक अलग लोक निर्मित किया जाता है।"
लेखन और चित्रकला के जैसे ही उनका टेराकोटा संग्रहालय भी उनके कला-प्रेम का अद्भुत उदाहरण है। मानव सभ्यता के विकास की गवाही देती हुई मृण्मूर्तियाँ, मृद-भाण्ड, मिट्टी की मोहरें उनके घर के तहखाने में लोक-कलाओं का वह अद्भुत कोश हैं, जिसे उन्होंने लगभग चालीस सालों के श्रम से सहेजा था। हड़प्पा, मुआनजो-दड़ो, सिंधु घाटी की सभ्यता का परिचय, विकास और उन्नति वहाँ मिले उत्खनन में मिलती है। इसी आधार पर डॉ० गुप्त ने भी शाहाबाद के इतिहास को समझने का प्रयास किया। उनके संग्रह में सप्त मात्रिकाएँ, यक्षिणी, प्रेम-युग्म यूनानी चेहरे, छपाई ब्लॉक, मौर्यकालीन संस्कृति के रीति-रिवाज, धार्मिक कर्मकांडो की मूर्तियाँ, महात्मा बुद्ध के समय को प्रतिबिंबित करती इमारतें, युद्ध का खाका खींचते हथियार, परंपराओं से जुड़ी दुर्लभ प्रतिमाएँ आदि शायद ही किसी अन्य संग्रहालय में देखने को मिलें।
साहित्य इलाहाबाद की परंपरा का अभिन्न हिस्सा रहा है। 'साहित्यिक संसद' और 'परिमल' आदि संस्थाओं में अपनी रुचियों और कार्य की वजह से डॉ० गुप्त सभी का अनिवार्य हिस्सा रहे। उनकी बातें, लेख और अनुभव सभी अविस्मरणीय हैं। महाकवि निराला जी के आम-प्रेम पर लिखा 'गुलाबखास, खासलुखास और महाकवि निराला का प्रतिदान' बहुत ही रोचक बन पड़ा है। निराला से उनका साथ लगभग तीस वर्ष का था। उनसे जुड़े अनुभवों का डॉ० गुप्त के पास एक अथाह संसार रहा। 'परिमल' संस्था का नाम भी निराला की रचना से ही प्रेरित होकर रखा गया था।
डॉ० कामिल बुल्क़े पर लिखा डॉ० गुप्त का लेख 'फादर बुल्क़े : मेरे गुरु भाई' मुझे व्यक्तिगत रूप से बेहद पसंद है, जिसमें उन्होंने कॉलेज के दिनों में उनके साथ अपनी और भारती जी की मित्रता का उल्लेख तो किया ही है; साथ ही उनके हिंदी-प्रेम, राम-काव्य के प्रति निष्ठा और भाषा के प्रति उनके योगदान का जिक्र है। इसमें बताया गया है कि कैसे विदेशी होने के नाते पहले उन्हें सहज स्वीकृति नहीं मिली थी, लेकिन आने वाले समय में उनका अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश बड़ा उपादेय समझा जाने लगा। बाईबिल का हिंदी अनुवाद अब भी मिशनरियों में सम्मान से पढ़ा जाता है। लेख के इस तथ्य ने मुझे आनंदित कर दिया कि फादर बुल्के के भारत आगमन का आधार जर्मनी में अनूदित राम चरित मानस की चौपाइयाँ थीं।
'धर्मवीर भारती-कुछ आत्मीय संदर्भ' लेख में अपने सहपाठी भारती जी से हुई घनिष्ठ मित्रता से लेकर उनके प्रयाग छोड़कर मुंबई जाने के कष्ट के कई अविस्मरणीय संस्मरण हैं। गहरी आत्मीयता के कारण ही भारती जी ने स्वयं उनके नाम को जगदीश प्रसाद गुप्त से जगदीश गुप्त रखा था।
हिंदी साहित्य के प्रति उनकी आस्था की यह पराकाष्ठा थी कि वे अंतिम समय तक राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के जन्मदिन को कवि-दिवस के रूप में मनाए जाने के लिए संघर्ष करते रहे। इस अथक प्रयास में उन्हें कई प्रतिष्ठित समर्थन भी प्राप्त हुए। खास बात यह कि उनकी इस मुहिम को अब उनका परिवार आगे बढ़ा रहा है।
डॉ० गुप्त के जीवन में उनकी माताजी का बहुत प्रभाव और स्नेह रहा है। अपनी माँ की मृत्यु से उन्हें गहरा आघात लगा था। उन्होंने 'माँ के लिए' शीर्षक से एक मार्मिक शोक-गीत भी लिखा है, जिसे पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है कि माँ-बेटे का पूरा जीवन ही इसमें समाहित हो गया है,
उस दिन केशव आये थे
काफी देर साथ बैठे रहे
अपनी तीन मांओं को याद करते
सबसे पहले भारती की माँ गईं
फिर मेरी, तुम्हारीं
अब परिमल ‘मातृ-हीन’ हो गया है।
किसने समय को सही-सही देख पाया है
किसने चलती सुइयों का दंश
लगातार नहीं सहा?
डॉ० जगदीश गुप्त के व्यक्तित्व को किसी आलेख में समेट पाना गंगा को अंजुरी में भर लेने जैसा असंभव प्रयास है, किंतु मेरे लिए यह एक ऐसा सौभाग्य है जिसमें दुख का अनुपात बहुत ज्यादा है। मेरी माताजी और डॉ० गुप्त की पुत्रियाँ अच्छी सखियाँ हैं। उनके ये रिश्ते भविष्य में मेरा भी सम्मान बने। मौसी-मामा के मधुर संबोधनों के बीच नानाजी का स्नेह मेरे बचपन की वह अनमोल निधि थी, जिसे मैं बड़ी होने पर साहित्यिक परिपेक्ष्य में कभी संभाल न सकी। दारागंज के उस घर और अपनों से जुड़ी मेरी स्मृतियाँ और संबंध आज भी विस्तार पाते रहते हैं। डॉ० गुप्त जी के रंगों की धरोहर संभालने वाले उनके पुत्र चित्रकार अभिनव गुप्त के अकस्मात निधन से घर के रंग फीके पड़ गए हैं। डॉ० गुप्त का परिवार उनकी साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत को उसी निष्ठा से संभाले हुए है, जिस प्रकार उन्होंने आत्मा से उसे रचा था,
एक टूटे-भटकते कवि की शिराओं में
पार्वती-परमेश्वरी वागर्थ होता है।
भटकनों में अर्थ होता है
टूटना कब व्यर्थ होता है।
और उनकी इन पंक्तियों के साथ मेरा प्रणाम,
जो कुछ भी मैंने कहा, वही क्या था मन में
जो कुछ था मन में, ठीक वही क्या कह पाया।
वाह,बहुत सुन्दर! एक बहुमुखी प्रतिभासंपन्न व्यक्तित्व का सुचारु वर्णन करता आलेख। जगदीश गुप्त जी की रचनाधर्मिता की त्रिवेणी की बहुत संतुलित प्रस्तुति। उनके साथ आत्मीय-पारिवारिक संबंधों के उल्लेख में हार्दिकता छलक उठी है; कुछ खेद भी है। पर अनभिज्ञ पाठकों के साथ जगदीश गुप्त जी का सार्थक परिचय कराने के बाद अब वह कुछ सीमा तक दूर हो जाना चाहिए।
ReplyDeleteखटकता है तो 'मातृ' को 'मार्त' लिखा जाना!
प्रणाम मैम🙏
Deleteआप स्वयं एक बहुमुखी प्रतिभा हैं, आपके द्वारा किसी व्यक्तित्व का परिचय निश्चित ही हमे उसकी बहुमुखी प्रतिभा सेअवगत कराएगा।ऐसे व्यक्तियों का परिचय प्रकाश में लाते रहना अनिवार्य है क्योंकि अनेकानेक साहित्यकार, रचनाकार प्रतिभाशाली होकर भी पाठको तक सरलता से नही पहुँच पाते।इसके लिए आप जैसे माध्यम का होना आवश्यक है।🙏
अर्चना जी, आपके प्रवाहमय आलेख ने जगदीश गुप्त जी की जीवन कथा बहुत सारी जानक़ारी के साथ सुनाई। अच्छा लगा। बधाई। 💐
ReplyDeleteअर्चना जी नमस्ते। आपके लेख के माध्यम से डॉ. जगदीश गुप्त जी की साहित्य साधना के बारे में जानने का अवसर मिला। आपने बहुत सारी जानकारी इस लेख बहुत अच्छे ढँग से प्रस्तुत की। डॉ व्योम सर ने उनके काव्य की विशेषता एवं छंदों की गहनता की जानकारी से लेख की और विस्तार दिया। दीपा जी ने भी उनकी रचना का बहुत बढ़िया उदाहरण प्रस्तुत किया। कुल मिलाकर सभी टिप्पणियों ने इस महत्वपूर्ण लेख को और समृद्धि दे दी। आपको इस बढ़िया लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteअर्चना जी आपके इस सुरुचिपूर्ण, प्रवाहमय और शोधपरक आलेख ने डॉ. जगदीश गुप्त जी रचना संसार को जानने का अवसर दिया। आपने जगदीश जी से जुडी महत्वपूर्ण जानकारियों को सिसिलेवार रेखाँकित किया है, जिसने उनके जीवन वृंत के सभी पहलुओं को जानना सुखद लगा। आपको इस समग्र और समृद्ध लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteअर्चना जी, जगदीश गुप्त जी से आपने बहुत ही आत्मीय और सार्थक भेंट कराई। उनके घर के परिचय से लेकर उनके परिजनों और आपकी माँ के उनकी पुत्रियों के साथ दोस्ताना संबंधों के अंश इस आलेख में स्नेह और सौहार्द की मिठास घोल रहे हैं। पारम्परिक कविता, नई कविता, समकालीन कविता तीनों को बखूबी निभाने वाले और अपने चित्रों तथा शब्दों से जादू फ़ैलाने वाले जगदीश गुप्त जी को नमन। आपको इस आलेख के लिए बधाई और आभार। आलेख पढ़कर इलाहाबाद जाने और नागवासुकि मंदिर समीप स्थित इस साहित्यिक और सांस्कृतिक मंदिर जाने की अभिलाषा घर कर गयी है।
ReplyDeleteप्रिय अर्चना, लेख सारगर्भित है पर जगदीश जी की माताजी का नाम 'रामा देवी' है न कि रमा देवी लेख एक बार दिखाया होता तो सुधार हो जाता। अच्छे लेख के लिये बधाई, पुण्यतिथि पर लेख से श्रद्धांजलि देने के लिए पुनः बधाई। मेरी वेबसाइट का इस्तेमाल किया मेरी मेहनत सार्थक हुई।
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