Thursday, May 12, 2022

कृषि-पंडित, मौसम-विज्ञानी एवं समाज-शास्त्री : कवि घाघ

 

उत्तम खेती मध्यम बान 
निकृष्ट चाकरी भीख निदान
 
इन पंक्तियों से भारतीय समाज में कृषि-कार्य को वरीयता क्रम में प्रथम स्थान देने वाले 'घाघ' हैं!
जिनके व्यावहारिक अनुभव जन-मानस को संचालित करें, वे घाघ हैं!
जिनके सामाजिक और कृषि संबंधी विश्लेषणों से तपा हुआ हर वाक्य - मुहावरों, कहावतों और उक्तियों के रूप में आज भी भारत के गाँवों में नीति-वाक्यों की तरह रचा-बसा हो तथा जिनकी विलक्षण प्रतिभा की सुगंध गाँव की चौपाल तक सीमित न रह कर राज दरबार को भी महका दे, वे 'घाघ' हैं।

ये 'घाघ' हैं, देवकली दुबे। जिनको कवि की उपाधि तो कालांतर में मिली होगी परंतु 'घाघ' का संबोधन तो इनकी सूझ-बूझ, समाज पर गहरी पकड़ और इस कृषि प्रधान देश की जटिल समस्याओं के सरल समाधानों और ज़मीन से जुड़ी सोच के फलस्वरूप समाज ने स्वतः ही दे दिया होगा।

महाकवि घाघ के जन्म स्थान एवं जन्म तिथि की प्रामाणिक जानकारी न होने के कारण इस संबंध में काफ़ी मतभेद हैं। श्री शिवसिंह सरोज के मतानुसार इनका जन्म सन १७५३ में हुआ था, जबकि श्री रामनरेश त्रिपाठी इनकी पैदाइश सम्राट अकबर के शासन काल की मानते हैं। माना जाता है कि इनका जन्म छपरा (बिहार) में हुआ था और बाद में ये कन्नौज (उ०प्र०) में बस गए थे। इनके मौसम एवं कृषि संबंधी गहन, सूक्ष्म एवं अद्भुत ज्ञान से प्रभावित होकर सम्राट अकबर ने इनको 'चौधरी' की उपाधि के साथ-साथ उपहार स्वरूप प्रचुर धनराशि और कन्नौज के पास भूमि प्रदान की थी, जिस पर इन्होंने "अकबराबाद सराय घाघ" नाम से गाँव बसाया था। यह इलाक़ा आज भी "चौधरी सराय" के नाम से जाना जाता है।
 
लोक संस्कृति को किसी भी समाज का आधार माना जाता है। इसमें तत्कालीन समाज की छोटी से छोटी बातें छिपी होती हैं जो देश, काल और परिस्थितियों का आईना होती हैं। अकबर का शासन काल आते-आते भारतीय समाज की उथल-पुथल शांत होकर स्थायित्व की ओर बढ़ रही थी। जिस समय गोस्वामी तुलसीदास, संत कबीर, अब्दुल रहीम 'ख़ानखाना', मीराबाई और रसख़ान जैसे महान भक्त-कवि, समाज सुधारक जहाँ भारतीय समाज के मनोबल को अपने-अपने तरीक़े से सहेजने और सहलाने का प्रयत्न कर रहे थे, उसी समय गाँव की चौपाल पर बैठा गँवई, किसानों  का 'आपन मनईं- घाघ' (अपना आदमी) उनकी खेती, किसानी से लेकर परिवार और समाज संबंधी विषम और जटिल समस्याओं का समाधान अपनी सूझ-बूझ और दूरदृष्टि से कहावतों, दोहों और उक्तियों द्वारा बड़ी सहजता और सरलता से चुटकियों में कर देता था।
 
हमारा देश कृषि प्रधान है, अतः अर्थव्यवस्था अधिकांशतः इसी पर निर्भर है और कृषि तथा मौसम का चोली-दामन का साथ है। हर पल रूप बदलने वाली यह चंचल प्रकृति खेती को नियंत्रित भी करती है और आतंकित भी! मौसम संबंधी भविष्यवाणियाँ तो ज्योतिष ग्रंथों में मिलती हैं। आचार्य वराह मिहिर ने "वृहत्संहिता" में भी इसका विस्तार से वर्णन किया है, लेकिन वे किसी साधारण किसान की पहुँच और समझ से परे हैं। कवि घाघ इसी ज्योतिष ज्ञान, अपने अनुभव और अनुमानों द्वारा प्राप्त जानकारी को जीवन से जुड़ी आंचलिक भाषा में कहावतों और दोहों के द्वारा बड़ी आसानी से समझा देते हैं। प्रकृति के हर संकेत को जानने के लिए कवि घाघ बिना किसी वैज्ञानिक उपकरण या तकनीकी ज्ञान के अपने सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा कृषक भाइयों को आश्वस्त करते हुए कहते हैं -
 
शुक्रवारी बादरी सही शनिचर छाय,
तौ यह भाखै भड्डरी बिन बरसे नहीं जाय। 
शुक्रवार और शनिवार को बादल छाए रहें तो मान के चलिए ये बिन बरसे नहीं जाने वाले हैं। 
 
कवि घाघ मानसूनी वर्षा का संबंध नक्षत्रों से जोड़ते हैं, क्योंकि पृथ्वी ब्रह्मांड में जिस नक्षत्र के पास होती है, उस समय होने वाली वर्षा का प्रभाव फ़सल पर पड़ता है। जैसे चित्रा नक्षत्र (कार्तिक माह) में होने वाली बारिश ख़रीफ़ की पकी-पकाई फ़सल को सड़ा सकती है। इसी को ध्यान में रखकर वे कहते हैं,
 जब वर्षा चित्रा में होय, 
सगरी खेती जावै खोय। 
 
लेकिन मघा नक्षत्र की वर्षा भरपूर पैदावार से किसान को संतुष्ट कर देती है।  
मघा के बरसे, माता के परसे 
भूखा न माँगे, फिर कुछ हर से॥ 
 
यदि उत्तरा नक्षत्र में वर्षा होती है तो इतनी उपज होती है कि कुत्ते भी अनाज खाने से कतराते लगते हैं।
 जब बरसेंगे उत्तरा,
तौ नाज ना खवै कुत्तरा।
 
हवा का रुख़ हो या बादलों का रंग, ये सारे संकेत इस मौसम विशेषज्ञ के कान में कुछ न कुछ कह जाते हैं,
 
करिया बादर जिउ डरवावै,
भूरा बादर पानी लावै। 
काला बादल सिर्फ़ डराता है जब कि भूरा बादल पानी बरसाता है।
 
माघ-पूस जो दखिना चले,
तौ सावन के लच्छन भले। 
माघ-पूस महीने में दक्षिण से आने वाली हवाएँ सावन में अच्छी वर्षा का संकेत ले कर आती हैं।
 
जेठ चले पुरवाई तो सावन माँ धूल उड़ाई 
जेठ के महीने में लू के थपेड़ों की जगह अगर पुरवाई हवा चलने लगे तो यह सावन के महीने में बरसात ना होने का संकेत है।
 
हमारे कृषि प्रधान देश का आधार हैं गाँव और इसकी समृद्धि खेती पर आधारित है, अतः कवि घाघ किसान की आत्मनिर्भरता और खेती को पूर्णकालिक काम मानने पर ज़ोर देते हुए चेतावनी देकर कहते हैं,
 
खेती करै बनिज को धावे। 
ऐसा डूबै थाह ना पावै॥ 
खेती पर ध्यान न देकर जो व्यापार में लगा रहता है, उसकी खेती का बर्बाद होना तय है। 
 
उत्तम खेती जो हल गहा, 
मध्यम खेती जो संग रहा। 
जो पूछेसि हलवाहा कहाँ,
बीज बूड़िगे तिन के तहाँ॥
खुद खेती करना सबसे अच्छा है। अपनी देखरेख में खेती करवाने में भी कोई हर्ज़ नहीं है। परंतु जो हलवाहे के इंतज़ार में बैठा रहे, उसकी खेती क्या! बोए हुए बीज भी नष्ट हो जाते हैं। 
 
ग्रामीण परिवेश की रग-रग से वाक़िफ़ कवि घाघ आगाह करते हुए यह भी कह देते हैं,
जो हल जोतै खेती वाकी। 
और नहीं तो जाकी-ताकी॥
 
ज़मीन पर मालिकाना हक़ किसी का भी हो, लेकिन खेती का असली मालिक काश्तकार ही होता है। सैकड़ों साल पहले कही हुई यह बात आज भी प्रासंगिक है। 
 
धरती की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए समय-समय पर दलहन (मेथी, सनई, उर्द) की खेती की सलाह भी देते हैं, जिससे ज़मीन को प्रचुर मात्रा में नाइट्रोजन मिल जाती है। इतना ही नहीं, घाघ की कहावतों में प्रति बीघा खेत में बीज बोने की मात्रा का भी उल्लेख मिलता है।  
सवा सेर बीघा साँवाँ मान, तिल्ली, सरसों अँजुरी जान, 
बर्रे, कोदो सेर बोआओ, डेढ़ सेर बीघा तीसी नाओ।।
 
आज जब हम बर्रे, सनई, कोदो, साँवाँ जैसे अनाजों के नाम भी भूल चुके हैं, कवि घाघ की पैनी नज़र का कमाल हमें उनके महत्त्व की याद दिलाता रहता है। 
 
घाघ की कहावतें अपने आप में कृषि संबंधी ज्ञान का संपूर्ण दस्तावेज़ हैं। 
छोड़े खाद जोत गहराई, 
फिर खेती का मज़ा दिखाई।
 
खेत को गहराई से खोद कर जब खाद डाली जाती है तब फ़सल का आनंद दूसरा होता है। 
गोबर, मैला, नीम की खली 
या से खेती दूनी फली। 
 
गोबर, मल और नीम की खली खेत में डालने से फ़सल अच्छी होती है। "जो प्राप्त है वही पर्याप्त है" उक्ति का इससे सटीक उदाहरण और क्या हो सकता है! गाँवों में उपलब्ध गंदगी का भी सदुपयोग खेती में किया जा सकता है और नीम की खली ऑर्गैनिक कीटनाशक भी है। 
 
इनकी कहावतों में कृषि-कार्य में सहायक छोटी से छोटी जानकारी भी मिलती है। आधुनिक युग में कृषक के लिए जो महत्त्व ट्रेक्टर का है, तत्कालीन किसान के लिए वही अनिवार्यता बैल की थी, अतः बैलों के विषय में भी वे अपनी राय रखते हैं,
नाटा-खोटा बेच के, अच्छा बरधा लेव।
आपन काम निकाल के, औरन मगंनी देव।।
 
अच्छे बैल की पहचान भी बताते हुए कहते हैं, 
नीला कन्धा, बैंगन खुरा, कभी न निकले कांता बुरा।
छोटे सींग और छोटी पूँछ, ऐसा बरधा लेवै पूँछ।।
(बरधा-बैल)
 
ग्राम्य जीवन पूरी तरह प्रकृति के सान्निध्य में पलता है, अतः कवि स्वस्थ दिनचर्या के लिए कहते हैं,
प्रात काल खटिया से उठ के, पिये तुरतै पानी।
कबहुँ घर माँ बैद न अइहैं, बात घाघ कै जानी॥ 
 
घाघ केवल नाम के ही 'घाघ' नहीं हैं, समाज की विषमताओं और उनके निवारण के उपाय भी व्यक्ति, घटना और परिस्थिति के अनुरूप ही कर देते हैं।
 
घर की खुन्नस, ज़र की भूख छोट दामाद बराहै ऊख।
पातर खेती भकुआ भाई, घाघ कहै दुःख कहाँ समाय।।
परिवार में आपसी कलह हो, बुख़ार उतरने के बाद असह्य भूख का लगना हो, दामाद ढंग का न हो, खेती कम और नकारा भाई हो तो इंसान को मन-मसोस कर रह जाना पड़ता है।
 
आपसी संबंधों को सुदृढ़ बनाए रखने के लिए वे एक 'गुरुमंत्र' भी देते हैं, 
 रहै निरोगी जो कम खाय, काम न बिगरै जो ग़म खाय। 
संयमित भोजन हमें चुस्त-दुरुस्त रखता है, वाणी का नियंत्रण हमारे संबंधों को बिगड़ने से बचाता है। 
 
कृषि-पंडित, मौसम-विज्ञानी एवं समाज-शास्त्री घाघ का कोई लिखित ग्रंथ या शिष्य परंपरा न होने पर भी वे हिंदी साहित्य के ही नहीं, बल्कि भारत के कृषक समाज के मज़बूत स्तंभ हैं। घाघ ने भारतीय कृषि के विषय को व्यवहारिक एवं व्यवस्थित दृष्टि प्रदान की। ग्रामीण जीवन के अनुभवों का सूक्ष्मता से निरीक्षण कर देश, काल परिस्थितियों के अनुरूप उपलब्ध साधनों द्वारा समुचित समाधान बताने के साथ-साथ पारिवारिक, सामाजिक एवं खान-पान तथा स्वास्थ्य संबंधी सरल सटीक उपाय बताए। घाघ की कहावतें खेतिहर समाज में आज भी बहुत लोकप्रिय हैं और विश्वसनीय मानी जाती हैं। ये विज्ञान सम्मत एवं प्रामाणिक भी होती हैं।

घाघ : जीवन परिचय

पूरा नाम

देवकली दुबे 'घाघ'

जन्म

छपरा, बिहार  

समय 

अनुमानतः अकबर के समकालीन थे (कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है)

व्यवसाय 

लेखक

कर्मभूमि 

कन्नौज (उत्तर प्रदेश)

विधा 

कहावतें, मुहावरे, उक्तियाँ, दोहे आदि 

विषय

कृषि एवं ग्रामीण समाज

पुरस्कार व सम्मान

  • सम्राट अकबर द्वारा “चौधरी” की उपाधि और कन्नौज (उत्तर प्रदेश) में ज़मीन

संदर्भ

लेखक परिचय


हिना चतुर्वेदी 
B.SC, M.A.(हिंदी) रविशंकर वि०वि० रायपुर, M.A( समाजशास्त्र) एवं B.Ed लखनऊ वि०वि० तत्पश्चात R.V.M.विद्यालय कोलकाता में अध्यापन।
संप्रति - अवकाश प्राप्ति के बाद लगभग १० वर्षों से बेटे के साथ शंघाई में प्रवास। कुछ रचनाएँ कोलकाता के दैनिक पत्र सन्मार्ग में प्रकाशित।

3 comments:

  1. वाह, बहुत ही बढ़िया ज्ञानवर्धक आलेख।शुक्रिया

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  2. कृषि पण्डित एवं कवि घाघ पर हिना जी का सहज और ज्ञानवर्धक आलेख बहुत पसंद आया। आलेख के माध्यम से ग्रामीण समाज और जीवन पर नई कहावतों और लोकोक्तियों से ग्रामीण जीवन एक बार और क़रीब से समझने का अवसर मिला। वैसे भी भाषा में इनका प्रयोग हमेशा मन को लुभाता है। कहावतें भाषा का वज़न तो बढ़ाती ही हैं, साथ ही इनके माध्यम से हम अपनी बात कम शब्दों में और बहुत आसान तरीके से कह सकते हैं। हिना जी, इस उम्दा आलेख के लिए आपको बधाई और धन्यवाद।

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  3. हिना जी नमस्ते। आपके लेख के माध्यम से कवि घाघ के बारे में जानने का अवसर मिला। लेख पर की गई टिप्पणियों ने लेख को और समृद्ध बना दिया। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिये हार्दिक बधाई ।

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