बीजों में, पेड़ों में, पत्तों में नहीं होता
उन्माद
आँधी में होता है,
पर वह भी ठहरती नहीं ज़्यादा देर तक।
बहुत कम कवि ऐसे हुए हैं जिनकी वाणी की सहजता और शब्दों का औदार्य सीधे पाठकों के हृदय में उतरता चला गया हो, और पाठक ने उन भावों को अपना ही मान लिया हो। उसी सूत्र को बुनने और गुनने वाले रचनाकार हैं, प्रयाग शुक्ल। प्रयोगधर्मिता के अनन्य उपासक व आधुनिक मानसिकता के संवेदनशील कवि, लेखक, आलोचक, अनुवादक व कलाप्रेमी प्रयाग शुक्ल साहित्य की दुनिया को एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करने के लिए कृतसंकल्प रहे हैं।
प्रयाग शुक्ल का जन्म २८ मई, १९४० को कोलकाता, पश्चिम बंगाल में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा पुरखों के गाँव तिवारीपुर, ज़िला फ़तेहपुर, उत्तर प्रदेश में हुई। उच्च शिक्षा के लिए वे कोलकाता आ गए और यहीं कोलकाता विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक की डिग्री प्राप्त की। प्रयाग शुक्ल कवि, कथाकार और कला-समीक्षक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। साथ ही, वे रंगमंच और सिनेमा पर भी लिखते रहे हैं।
बचपन से ही प्रयाग शुक्ल को पुस्तकों से अथाह प्रेम था। कोलकाता में इनके पिता की किताबों की दुकानें थीं। वहीं साहित्य की दुनिया से इनका साक्षात परिचय हुआ। जिस उम्र में किशोर रोमानियत की दुनिया में लीन रहते हैं, प्रयाग शुक्ल साहित्य को अपना जीवन समर्पित करने की ठान बैठे थे। उन्होंने सोच लिया था, लेखक यदि न भी बन पाए, तब भी साहित्य साधना में सदैव समर्पित रहेंगे।
जब वे १७-१८ वर्ष के थे, तब उन्होंने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया था। यद्यपि कविता लिखने की शुरुआत इससे पहले ही हो चुकी थी। १८ वर्ष की आयु में ही 'कहानी' और 'कल्पना' पत्रिकाओं में इनकी दो कहानियाँ प्रकाशित हुईं - 'सड़क का दोस्त' और 'दो लड़के'। फिर तो लेखन का यह सिलसिला अनवरत चल निकला।
उसी दौर में प्रयाग शुक्ल को यह अहसास हुआ कि साहित्य के साथ कलाओं को गहनता से जानना भी बहुत ज़रूरी है। उनके कई मित्र दिल्ली में थे, लिख भी रहे थे। उन्हीं से प्रेरित होकर वे भी १९६४ में दिल्ली चले आए, हालाँकि यहाँ शुरुआती दिनों में उनके पास रहने का कोई ठिकाना नहीं था। कथाकार निर्मल वर्मा और उनके भाई चित्रकार राम कुमार से उनकी मुलाकात कोलकाता और हैदराबाद में हो चुकी थी। निर्मल वर्मा ने ही अपने भाई राम कुमार से प्रयाग शुक्ल के रहने के लिए व्यवस्था करने के लिए कहा। राम कुमार ने उन्हें अपने स्टूडियो में रहने के लिए बुला लिया। लगभग तीन माह तक प्रयाग शुक्ल इसी स्टूडियो में रहे और इस अवधि में स्टूडियो में आने वाले चित्रकार एम एफ़ हुसैन, तैयब मेहता, मनजीत बावा व कृष्ण खन्ना से उनका संपर्क हुआ जो जल्द ही अंतरंगता में तब्दील हो गया। इन चित्रकारों की संगत में प्रयाग शुक्ल का कला के प्रति आकर्षण काफी गहरा हुआ, जिसने उनके हर विषय पर लेखन को और भी समृद्ध किया।
सन १९५८ से १९७० तक इन्होंने कई कहानियाँ लिखीं, जो 'कहानी', 'नई कहानियाँ', 'कल्पना', 'सारिका' आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। फिर इनका कहानियाँ लिखना थोड़ा कम होता चला गया। इसका कारण भी प्रयाग शुक्ल ने स्वयं ही अपने एक कहानी संग्रह की भूमिका में वर्णित किया है,
"युवा दिनों के कथा अनुभव अपना एक चक्र पूरा कर चुके थे और नए अनुभवों की पूरी राह या तो इस विधा में खुल नहीं रही थी या फिर मैं ही उनके अनुरूप भाषा-शिल्प की खोज नहीं कर पा रहा था। फिर एक लंबे अंतराल के बाद एक कहानी लिखी ‘दाँत’। यहीं से मेरे दूसरे दौर की कहानियों की शुरुआत हुई।"
बहुधा इनकी कहानियों को इनकी कविताओं का विस्तार भी माना गया। उनके गद्य की आत्मीयता में एक अलग ही आकर्षण है। उनके विस्तृत रचना संसार की झलक उनके गद्य लेखन में सर्वथा दृष्टव्य है। उनकी रचनाओं की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है। 'अकेली आकृतियाँ', 'इसके बाद', 'छायाएँ तथा अन्य कहानियाँ', 'काई' में उनकी कहानियों का संकलन हुआ है और 'एल्बम' उनकी प्रतिनिधि कहानियों का संकलन है। 'गठरी', 'आज और कल', 'लौटकर आने वाले दिन' उनके उपन्यास हैं। 'सम पर सूर्यास्त', 'सुरंगाँव बंजारी', 'त्रांदाइम में ट्राम', 'हेलेन गैनली की नोट बुक', 'ग्लोब और ग़ुब्बारे' उनके यात्रा-वृतांत हैं। उनके निबंधों का संग्रह 'घर और बाहर' और 'हाट और समाज' के रूप में प्रकाशित है और 'साझा समय' और 'स्मृतियाँ बहुतेरी' संस्मरणात्मक कृतियाँ हैं। 'अर्ध विराम', 'आज की कला', 'सत्यजित राय : एक फ़िल्मकार की ऊँचाई', 'राम कुमार : लाइंस एंड कलर्स' (अँग्रेज़ी) उनकी आलोचना संबंधी कृतियाँ हैं। दरअसल अलग-अलग विधाओं में रचना की प्रक्रिया उनके मानस की चेतना के अनेक विस्तृत स्वरूपों का अवलोकन कराती है। तब प्रयाग शुक्ल की लेखनी मात्र एक सहृदय कवि की वाणी न रहकर एक संवेदनशील रचनाकार का स्वरुप विस्तार कर उठती है। अपने कहानी संग्रह 'एलबम' की भूमिका में वे लिखते हैं,
"हम किसी कहानी की ओर दोबारा लौटते ही इसलिए हैं कि उसके भीतर और बाहर कुछ जारी रहने की उम्मीद बची रहती है। उसके प्रसंग से, या उसके बहाने हम फिर से जीवन की कुछ नई स्थितियाँ पहचानते हैं। कुछ नई प्रतिध्वनियाँ सुनते हैं। जो कहानी वास्तव में ऐसा नहीं कर पाती, वह पुरानी और बासी हो जाती है।"
प्रयाग शुक्ल अपने अनुभवों, समकालीन कला जगत की गतिविधियों, उपलब्धियों और कला परिदृश्य में हो रहे नित नवीन प्रयोगों को एक अलग नज़रिया प्रदान करते हैं और पाठकों के साथ अपने इन अनुभवों को बाँटने से भी गुरेज़ नहीं करते। 'कलाकृतियाँ एक पुल हैं ' सरीखी उनकी रचनाएँ पाठकों को एक विस्तृत दृष्टिकोण से बाँध लेती हैं। प्रयाग शुक्ल के लेखन पर उनकी विस्तृत विदेश यात्राओं का काफी प्रभाव रहा। घुमंतू प्रवृत्ति के चलते उन्होंने अनेक यात्राएँ की हैं, जिन्होंने उनके विचारों और उनके लेखन को काफी समृद्ध किया है। उनकी रचनाओं की ही तरह उनकी यात्राओं का ब्यौरा भी काफी विस्तृत है। सन १९७९ में प्रयाग शुक्ल ने फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी की यात्राएँ की और १९८७ में वे सोवियत संघ की यात्रा पर गए। वर्ष १९८४ में वे आयोवा (अमेरिका) के अंतर्राष्ट्रीय राइटिंग प्रोग्राम में सम्मिलित हुए। फिर १९९५ में चीन और १९९९ में फिर से रूस की यात्रा पर निकल पड़े। उनकी हर यात्रा और विदेश प्रवास ने न केवल उनके अनुभवों को विस्तार दिया बल्कि उनके यात्रा वृत्तांतों ने सहज ही पाठकों के कल्पना जगत को भी विस्तृत आकाश सौंपा। अपने यात्रा प्रसंगों की सार्थकता और स्मृति सूत्रों की उपादेयता पर उन्होंने लिखा है,
"जब भी मैं सुबह की सैर करके लौटा हूँ, कुछ गुनते-बुनते हुए। और मैंने पाया है कि घंटे-आधे घंटे पहले का कोई दृश्य, कोई प्रसंग, कोई वाकया भी मेरे साथ चला आया है - उसे मैंने बीते हुए की तरह, अभी-अभी बीते हुए की तरह देखा है और उसी के सूत्र से न जाने कब की स्मृतियों से भी जुड़ गया हूँ। इसी अर्थ में मैंने कहा है कि इन यात्रा प्रसंगों ने मुझे स्मृति के बनने सँवरने की प्रक्रिया से एक नए साक्षात का मौका दिया है।"
प्रयाग शुक्ल की एक विशिष्टता यह भी रही है कि उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता का परिचय अपनी लेखनी के साथ-साथ अद्भुत रंगों के अपने संयोजन के माध्यम से भी दिया है। उनकी कविताओं में पशु पक्षियों की, प्रकृति के उपादानों की, वर्षा के सौंदर्य की स्वीकृति भी है और साथ ही एक सघन विडंबना का बोध भी। वस्तुतः प्रयाग शुक्ल प्रकृति और परिवेश को शब्दों और रंगों से उकेरने वाले कवि हैं। उनकी 'पलाश के फूल' कविता कितनी संजीदगी से प्रकृति की अबाध सुलभता का निकट से परिचय करा देती है,
पलाश के वे लाल लाल,
बहुत लाल फूल!
दहकते, प्लेटफॉर्म के एक छोर पर,
डिब्बे से थोड़ा सा आगे-
एक दोपहर के
गर्मियों की बिलकुल शुरुआत के
आते याद
आते याद,
जाने किस बात के!
गया नहीं उन्हें भूल !
फूल पलाश के,
लाल लाल फूल!!
यही नहीं, पुराने परिचित पीपल के पेड़ से उनकी ये गहन समीपता मानो प्रकृति के औदार्य को नवीन दृष्टि से समझ पाने का एक आइना है।
एक बहुत पुराने परिचित पीपल वृक्ष के नीचे एक दोपहर
कुछ पीपल पल हैं ये,
दौड़ रहीं उन पर गिलहरियाँ।
कुछ पीपल पल हैं ये!
हवा बहुत हल्की है
चमक रही धूप में,
चमक रही हैं उसमें
कितनी दुपहरियाँ-
अपने ही रूप में!
घना तना, सघन, लिए
भार कई डालों का।
स्थिर है, मौन!
कानों में गूंजा, पर,
“कौन, यह कौन?”
मुग्ध चकित चित्त।
पल हैं ये,
कुछ पीपल पल हैं ये।
और शब्दों व रंगों का यह समन्वय ही उन्हें ओजस्वी कवि बनाता है। उनकी इन कविताओं के साथ प्रस्तुत चित्र भी प्रयाग शुक्ल द्वारा स्वयं ही बनाए गए हैं।
आम आदमी की संवेदना उनके शब्दों में फूटती सी दिखती है, मगर कहीं भी वे अपनी सहजता नहीं खोने देते।
सोचता है
सबसे पिछली क़तार
का आदमी,
सारी अगली क़तारों के बारे में।
कहता नहीं,
सोचता है—
हम सब हो सकते थे
एक ही क़तार में—
बस आदमी!
एक कवि के रूप में उनकी रचनाओं में पाठकों को अपार संभावनाएँ दिखती हैं। 'कविता संभव', 'यह एक दिन है', 'अधूरी चीज़ें तमाम', 'बीते कितने बरस', 'यह जो हरा है', 'यहाँ कहाँ थी छाया', 'इस पृष्ठ पर', 'सुनयना फिर यह न कहना' उनके काव्य-संग्रह हैं, जो काव्य प्रेमियों को यथार्थ का दर्पण बड़े संवेदनात्मक ढंग से दिखाती हैं। 'यानी कई वर्ष' में उनके छह संग्रहों की कविताएँ संकलित की गई हैं। प्रतिनिधि कविताओं का संकलन 'पचास कविताएँ' में हुआ है। 'ह्वाइल अ प्लेन ज़ूम्स पास्ट इन द स्काई' अँग्रेज़ी में प्रकाशित काव्य-संग्रह है।
प्रयाग शुक्ल की कविताओं में एक और विशेषता भी दृष्टव्य है। वे स्वयं बचपन से ही पुस्तकों से जुड़े रहे और आरंभ से ही साहित्य के प्रति उनकी अनुरक्ति रही है। पर पुस्तकें पढ़ने के प्रति नई पीढ़ी की उदासीनता उन्हें हताश करती है। अपनी इसी निराशा को स्वर देते हुए उन्होंने लिखा है,
इंतज़ार करते हैं आदमी
कोई पढ़े उनको!
लिखते हैं क़िताबें आदमी।
करती हैं क़िताबें इंतज़ार
पढ़े जाने का।
रचनाकार और पाठक के बीच समन्वय-सा स्थापित करती उनकी पंक्तियाँ मानो रचनाकार की ही नहीं, पुस्तकों की भी व्यथा को स्वर दे देती हैं, और इस रूप में शब्दों व भावों का एकाकार होता चला जाता है।
कवि, कथाकार, कला समीक्षक, निबंधकार, अनुवादक और सांस्कृतिक विषयों के टिप्पणीकार भी हैं, प्रयाग शुक्ल। 'कल्पना', 'दिनमान', 'नवभारत टाइम्स' के संपादक मंडल में रहे प्रयाग शुक्ल केवल अपने लेखन की गुणवत्ता के लिए ही नहीं, अपितु अपने लेखन के वैशिष्ट्य के लिए भी पहचाने जाते रहे हैं। उन्होंने कभी अपने को किसी एक विधा या शैली में बाँधा नहीं, और इसी का परिणाम रहा कि 'राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय' की पत्रिका 'रंगप्रसंग' और ‘संगीत नाटक अकादमी’ की पत्रिका 'संगना' के प्रथम संपादक होने गौरव भी उन्हें ही प्राप्त है। उन्होंने ललितकला की पत्रिका 'समकालीन कला' के प्रथम दो अंकों का भी संपादन किया है।
प्रयाग शुक्ल का हिंदी जगत को एक अमूल्य योगदान रहा है उनका बाल साहित्य। आम तौर पर बड़े लेखक बाल साहित्य लिखने से थोड़ा कतराते हैं, मगर अनेक रचना विधाओं के धनी प्रयाग शुक्ल की कलम जब भी बच्चों के लिए चली, सहजता, सादगी और उत्साह के रंग उसमें से उमड़-घुमड़ कर बहे। 'धम्मक धम्मक', 'हक्का बक्का', 'चमचम बिजली झमझम पानी', 'कहाँ नाव के पाँव', 'ऊँट चला भाई ऊँट चला', 'मिश्का झूल रही है झूला', 'धूप खिली है हवा चली है', 'उड़ना आसमान में उड़ना' आदि बाल-साहित्य में उनका योगदान है।
धूम - धड़क्का,
धूम - धड़क्का!
सचिन का चौक्का,
सचिन का छक्का!
रह गए सारे
हक्का - बक्का!
चौका - छक्का
धूम - धड़क्का!
एक अनुवादक के रूप में भी प्रयाग शुक्ल ने उल्लेखनीय कार्य किया है, उन्होंने अनुवाद की प्रकिया को वास्तव में मूल कृति का विस्तार माना है। उन्होंने रवींद्रनाथ ठाकुर की 'गीतांजलि' का मूल बँगला से हिंदी, जीवनानंद दास और शंख घोष की प्रतिनिधि कविताओं, बंकिमचंद्र के प्रतिनिधि निबंध और ओक्ताविओ पाज़ की कविताओं का अनुवाद भी किया है। गीतांजलि के अनुवाद की अपनी भूमिका में उन्होंने लिखा,
"उन बँगला भाषी पाठकों को, जो नागरी पढ़ सकते हैं, और अँग्रेज़ी भी जानते हैं, हिंदी अनुवाद अब संभवतः आत्मीय प्रतीत होगा। वे अंग्रेज़ी रूपांतर के साथ हिंदी अनुवाद का मिलान करके मानो गीतांजलि का अपने लिए एक नया विस्तार भी देख और पा सकेंगे। हाँ, हर अनुवाद मूल कृति का एक और विस्तार भी तो होता है।"
यूँ तो अपने कार्य क्षेत्र की व्यापकता के चलते प्रयाग शुक्ल किसी परिचय या सराहना के मोहताज नहीं रहे, मगर उन्हें उनकी विशिष्टता और सार्वभौमिकता के लिए अनेक बार पुरस्कृत किया जा चुका है।
प्रयाग शुक्ल : जीवन परिचय |
जन्म | २८ मई १९४०, कोलकाता, पश्चिम बंगाल |
पत्नी | ज्योति |
शिक्षा | स्नातक , कोलकाता विश्वविद्यालय |
साहित्यिक रचनाएँ |
कविता संग्रह | |
कहानी संग्रह | अकेली आकृतियाँ इसके बाद छायाएँ तथा अन्य कहानियाँ काई एल्बम
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उपन्यास | गठरी आज और कल लौटकर आने वाले दिन
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निबंध | |
संस्मरण | साझा समय स्मृतियाँ बहुतेरी
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अनुवाद | रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘गीतांजलि’ जीवनानंद दास - प्रतिनिधि कविताएँ शंख घोष - प्रतिनिधि कविताएँ बंकिमचंद्र - प्रतिनिधि निबंध ओक्ताविओ पाज़ – कविताएँ
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आलोचना | |
बाल रचनाएँ | धम्मक धम्मक हक्का बक्का चमचम बिजली झमझम पानी कहाँ नाव के पाँव ऊँट चला भाई ऊँट चला मिश्का झूल रही है झूला धूप खिली है हवा चली है उड़ना आसमान में उड़ना
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यात्रा संस्मरण | सम पर सूर्यास्त सुरंगाँव बंजारी त्रांदाइम में ट्राम हेलेन गैनली की नोट बुक ग्लोब और ग़ुब्बारे
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संपादन | कल्पना दिनमान नवभारत टाइम्स रंगप्रसंग संगना समकालीन कला
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सम्मान व पुरस्कार |
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संदर्भ
वेब दुनिया : प्रयाग शुक्ल साक्षात्कार
कला की दुनिया में : प्रयाग शुक्ल (सम्पादक- अभिषेक कश्यप)
आर्ट क्रिटिक प्रयाग शुक्ल इंडियन एक्सप्रेस.कॉम
कविता कोश
विकीपीडिया
भारत कोश
बृहत् साहित्यकार संदर्भ कोश
ग्लोब और गुब्बारे - प्रयाग शुक्ल
एलबम - प्रयाग शुक्ल
गीतांजलि अनुवाद - प्रयाग शुक्ल
विनीता काम्बीरी
शिक्षा निदेशालय, दिल्ली प्रशासन में हिंदी प्रवक्ता हैं तथा आकाशवाणी दिल्ली के एफएम रेनबो चैनल में हिंदी प्रस्तोता हैं।
आपकी कर्मठता और हिंदी शिक्षण के प्रति समर्पण भाव के कारण अनेक सम्मान व पुरस्कार आपको प्रदत्त किए गए हैं जिनमें यूनाइटेड नेशंस के अंतर्राष्ट्रीय विश्व शांति प्रबोधक महासंघ द्वारा सहस्राब्दी हिंदी सेवी सम्मान, पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा नेशनल वुमन एक्सीलेंस अवार्ड और शिक्षा निदेशालय, दिल्ली सरकार द्वारा राज्य शिक्षक सम्मान प्रमुख हैं।
मिनिएचर-पेंटिंग करने, कहानियाँ और कविताएँ लिखने में रुचि है।
ईमेल: vinitakambiri@gmail.com
विनीता जी, प्रयाग शुक्ल जी पर आपका आलेख बहुत पसंद आया। बड़ी सहजता और सरसता से आपने उनके सहज शब्दों में गहरी बात कहने के पहलू को उजागर किया है। संलग्न चित्रों ने शब्दों में अद्भुत रंग घोले हैं। प्रयाग शुक्ल जी को उनके जन्मदिन पर अच्छे स्वास्थ्य एवं सुखद पलों की शुभकामनाएँ। एक और अच्छा आलेख पटल पर रखने के लिए आपको बहुत बधाई और आभार।
ReplyDeleteसातवें दशक से उभरे साहित्यकार श्री प्रयाग शुक्ल जी प्रख्यात अनुवादक,कला आलोचक और संपादक है। बंकिमचंद्र के प्रतिनिधि निबन्धों पर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त करने वाले आदरणीय प्रयाग जी पर बहुत ही खूबसूरत शब्दशैली से यह आलेख गढ़ा गया है। उनके साहित्यिक रचनासंसार का विस्तृत उल्लेख रंगबिरंगी चित्रों के साथ पाठक मन को संतुष्टि प्रदान करते हुए उनके बारे में और जानने के लिए प्रवृत कर रहा है। इस अतिउत्कृष्ट आलेख लेखन के लिए आदरणीया विनीता जी का आभार और ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।
ReplyDeleteविनीता जी नमस्ते। आपका लिखा एक और अच्छा लेख पढ़ने को मिला। आपने प्रयाग शुक्ल जी के जीवन एवं साहित्य को बखूबी इस लेख में समेटा। आपको इस शोधपरक एवं जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteवाह बधाई हो मेम, सुंदर, सारगर्भित और शोध परक लेख के लिए
ReplyDeleteबहुत सुंदर और सम्पूर्णता में लिखा आपने विनीता जी। प्रयाग जी बहुत ही मृदुभाषी हैं, स्नेही हैं।पिछले दिनों उनसे काफ़ी बात हुई। मैंने उनकी पत्नी श्रीमती ज्योति अहलूवालिया जी के विषय में एक लेख लिखा तब।
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