हिमांशु जोशी ने पहाड़ की अभिशप्त ज़िंदगी के तमाम पहलुओं को बहुत नज़दीक से देखा और उन्हें न केवल अपने कथा-साहित्य का विषय बनाया, बल्कि अपने जिए-भोगे, देखे-सुने अनुभवों को आत्मीय स्वर भी दिया है। यह कहना सर्वथा उचित होगा कि उनकी कथात्मक कृतियाँ पहाड़ी ज़िंदगी की थातियाँ हैं। डॉ० रामदरश मिश्र के कथनानुसार, "प्रेमचंद की तरह हिमांशु भी इन अभिशप्तों के तमाम दोषों को प्रभु-वर्ग की देन मानते हैं और उन्हें उनके चरित्र का मूल-धर्म नहीं स्वीकारते।"
सामाजिक जन-जीवन की विसंगतिपूर्ण स्थितियों-परिस्थितियों की विडंबना और आर्थिक विषमता का बड़ा ही बेबाक चित्रण उनकी कृतियों में हुआ है। मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव जाति-व्यवस्था का ही अंग है। जातिगत स्तरीकरण का उल्लेख करते समय उसके स्वभाव का निरूपण इनके कथा-साहित्य की अतिरिक्त विशिष्टता है। यद्यपि सामाजिक स्थितियों का निरूपण अन्य लेखकों ने भी किया है किंतु जितनी सूक्ष्मता और पैनापन इनकी रचनाओं में दृष्टव्य है, वैसा बहुत कम कथा-कृतियों में मिलता है।
कथाकार के रूप में हिमांशु जोशी का सृजन राष्ट्रीय ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनाने की साधना में रत रहा है। उनकी भाषा-शैली में कुछ ऐसा आकर्षण है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। उनके प्रत्येक शब्द में जीवंतता उद्भासित है। कथा-प्रवाह कहीं अवरुद्ध नहीं होता। 'सागर तट के शहर' में कुछ ऐसा सम्मोहन है कि पाठक उसे अनदेखा नहीं कर सकता। वास्तव में यह कृति हिमांशु जोशी के सृजन-स्वरूप को प्रस्थापित करने में अपनी अग्रणी पहचान बनाने में सक्षम है। संग्रह में कुल मिलाकर चौदह रचनाएँ हैं। हिमांशु जोशी की 'इकहत्तर कहानियाँ' आज़ादी के बाद के सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक बदलावों को रेखांकित करती हैं। इनमें न केवल समय-समाज का सच उद्घाटित हुआ है, वरन सार्थक जीवन की गहरी अनुभूति भी अभिव्यक्त हुई है।
उनके आंचलिक उपन्यासों में अंचल विशेष की सामाजिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति हुई है। 'कगार की आग' और 'अरण्य' उनके चर्चित आंचलिक उपन्यास हैं। इनमें पहाड़ी स्त्री-पुरुषों के रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा, स्त्रियोचित आभूषण, मनोरंजन के साधन और लोकगीत व लोकनृत्य की परंपराओं को बड़ी बारीकी से रूपायित किया है। 'कगार की आग' में लोक-नृत्य के संकेत मिलते हैं। कथा पात्रों के भाव-भंगिमाओं की प्रस्तुति लोक-रंग और लोक-संस्पर्श के उभार को उद्घाटित करती है। भले ही यह कथा का मूल-तत्व न हो, परंतु अलंकार के रूप में कथा-सौंदर्य में अभिवृद्धि अवश्य करते हैं। हुडके और घुँघरू के शब्द विच्छित्ति तत्व के अंतर्गत आते हैं। विविध ध्वनियों के माध्यम से अंचल के वातावरण को सजीव रूप में प्रस्तुत करने की विशिष्टता हिमांशु जोशी के आंचलिक उपन्यासों में दृष्टिगोचर होती है।
सातवें दशक में हिंदी कथा-साहित्य में विभिन्न आंदोलन शुरू हुए। कोई भी साहित्यिक आंदोलन इतिहास के पन्नों पर तभी जन्म लेता है, जब साहित्यिक संवेदना और जीवन के बीच की दूरी स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ने लगती है। इस दूरी को पाटने का काम आंदोलन ही करता है। उन कथा-आंदोलनों में कमलेश्वर, डॉ० महीप सिंह और डॉ० गंगाप्रसाद विमल के क्रम में हिमांशु जोशी ने भी समानांतर कहानी का आंदोलन खड़ा किया और अपने तर्कों से इसकी सार्थकता की पुष्टि की। वे इस कथा-आंदोलन के प्रस्तोता थे।
निश्चित रूप से हिमांशु जोशी के जनपदीय या आंचलिक साहित्य में लोक-परंपराओं का मोह विशेष है। यही कारण है कि उसमें पुरातनता का मोह दिखता है। वहाँ के जन-मानस को पुराने रीति-रिवाजों, प्राचीन संस्कृति और प्राचीन विषयों के प्रति विशेष लगाव है। विभिन्न धर्म-जाति के लोग जैसे हिंदू, मुसलमान, ईसाई व किन्नर आदि उनकी कथाओं के पात्र हैं। बेबी और उसकी मां ईसाई धर्मावलंबी हैं। मुसलमानों के एक गाँव का वर्णन उन्होंने अपनी एक कहानी में किया है। प्रसंगतः यहाँ रुढ़िवादिता और अंधविश्वास तथा भूत-प्रेत के अक्स भी उभरते हैं। धार्मिक अंधविश्वास (पिंडदान) का खंडन-मंडन भी उनकी कथा को रुचिकर बनाते हैं। आधुनिकता का समावेश साहित्यिक धरातल पर भले ही कम है, परंतु कुछ कहानियों में बदलते गाँवों के दृश्य-परिदृश्य और विडंबनाएँ हैं। 'इस बार फिर बर्फ़ गिरी तो' संग्रह की कहानियाँ हों, 'जलते हुए डैने' या अन्य कथा-कृतियाँ हों, सभी में उनका कथाकार एक अन्वेषी कथाकार की भूमिका में है। वह अपने समकालीनों-समवयस्कों से अलग अपने ही अंदाज़ में अपना कथा-बिंब बुनता हुआ एक नए प्लेटफॉर्म पर प्रतिष्ठित है।
यूँ तो ऐसे अनेक साहित्यकार हैं, जिनके सृजन-साहित्य को लेकर फिल्में बनाई गई हैं, किंतु ऐसे साहित्यकार कम हैं जिनकी कथा-कृति पर विश्व-स्तरीय फिल्म का निर्माण हुआ हो। हिमांशु जोशी के उपन्यास पर आधारित फिल्म 'सु-राज' ने 'इंडियन फेनोरमा' के अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में भारतीय फ़िल्मों का प्रतिनिधित्व किया। उनके चर्चित उपन्यास 'तुम्हारे लिए' पर दूरदर्शन धारावाहिक बना। साथ ही, 'तर्पण सूरज की ओर' आदि पर टेलीफ़िल्में बनीं।
साहित्य पर शोध और सम्मान
साहित्य, विशेषकर कथा-साहित्य अपने समय के यथार्थ का सबसे बड़ा आईना है। कथाकार अपने समय के आदर्श और यथार्थ के बीच कितना संतुलन बना पाता है, इसका मूल्यांकन समय-समय पर सुधी आलोचकों ने किया है, किंतु हिमांशु जोशी के कथा-साहित्य में अतिरिक्त कथान्विति है। हिमांशु जोशी के कथा-साहित्य पर अब तक ३६ शोधार्थियों ने पी०एच०डी० की उपाधि अर्जित की है। कई विश्वविद्यालयों में उनकी रचनाएँ पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती हैं। राजीव जोशी ने कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल से वर्ष २०१० में प्रो० देवसिंह पोखरियाल के नेतृत्व में हिमांशु जोशी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बृहद शोधकार्य किया। उनका शोध 'हिमांशु जोशी : रूप एक रंग अनेक' नाम से ग्रंथाकार रूप में प्रकाशित है।
प्रगतिवादी और प्रयोगवादी कथाशिल्पी हिमांशु जोशी ने हिंदी कथा-साहित्य के क्षेत्र में जहाँ एक ओर विशेष उत्कर्ष को हासिल किया, वहाँ अपने कार्य-वैशिष्ट्य से भारत सरकार के अनेक मंत्रालयों में मानद सदस्य रहते हुए अपना गरिमापूर्ण स्थान कायम किया। सारतः वे एक कालजयी कथाकार थे। २२ नवंबर २०१८ को लंबी बीमारी के कारण उनका देहावसान हो गया। आज वे भले ही हमारे बीच भौतिक रूप से न हों, किंतु उनका विपुल साहित्य युग-युगांत तक रचनात्मक और कार्यात्मक दृष्टि-दिशा देते रहेंगे।
संदर्भ
https://thehindipage.com.himansh
https://Gadayakosh.orgपरिचय
राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली, १६ नवंबर २००८
समीक्षा : बाहरी और भीतरी दुनिया के यथार्थ, डॉ० रामदरश मिश्र
हिमांशु जोशी के कथा-साहित्य में आंचलिकता/ डॉ० अरुण प्रकाश दौंडियाल, सार्थक प्रकाशन, नई दिल्ली, वर्ष १९९९
सु-राज तथा अन्य रेडियो नाटक/ हिमांशु जोशी, साहित्य भारती, दिल्ली, वर्ष २००१
साठोत्तरी हिंदी कहानी : उपलब्धि और सीमाएँ/ डॉ० जितेन्द्र वत्स
राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली (रविवार) १ अप्रैल २००७
लेखक परिचय
डॉ० राहुल
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ एवं हिंदी अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत-सम्मानित।
अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त यशस्वी कवि-आलोचक डॉ० राहुल की अब तक ७० से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उत्तर रामकथा पर आधारित "युगांक" (प्रबंधकाव्य) का लोकार्पण करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० शंकरदयाल शर्मा ने कहा था- “यह बीसवीं सदी की एक महत्वपूर्ण काव्य-कृति है। इससे भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा होती है और सामाजिक-राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा।” कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना आदि विधाओं में इन्होंने महत्वपूर्ण सृजन किया है। जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हिंदी के महान साहित्यकारों ने की है।
डॉ. राहुल जी नमस्ते। आपके इस लेख के माध्यम से हिमांशु जोशी जी के बारे में विस्तार से जानने का अवसर मिला। आपने नियत शब्द सीमा में जोशी जी के जीवन एवं साहित्य का परिचय उन्हीं की तरह रोचक कहानी के रुप में प्रस्तुत किया। आपको इस बढ़िया लेख के लिये बहुत बहुत बधाई।
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