पृष्ठभूमि
छत्तीसगढ़ की रियासत में खैरागढ़ की विशेष
प्रसिद्धि भारत के एकमात्र संगीत एवं ललित कला विश्वविद्यालय से हुई। चौदहवीं
शताब्दी में वहाँ के राजा लक्ष्मीनिधि के साथ मंडला से बख्शी परिवार खैरागढ़ आया
और यहीं बस गया। उमराव बख्शी खैरागढ़ नरेश ‘राजा फतहसिंह’ और फिर उनके पुत्र ‘राजा
उमराव सिंह’ के शासनकाल में राजकवि रहे। उमराव बख्शी की रुचि काव्य के अतिरिक्त
राजकाज तथा राजनीति में भी थी। उनके पौत्र और वरियाव बख्शी के पुत्र हुए पुन्नालाल
बख्शी और पुन्नालाल के पुत्र के रूप में जन्मे पदुमलाल बख्शी। इनका जन्म २७ मई
१८९४ को (ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन) हुआ।
मास्टर जी के नाम से विख्यात
पदुमलाल बचपन से ही पढ़ने–लिखने के शौकीन थे।
यह उनकी दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा था। उनका कहना था, "मैं पढ़ता हूँ, इसलिए लिखता हूँ और लिखता हूँ, इसीलिए पढ़ता हूँ।
मेरे लिए लिखना उतना ही आवश्यक है जितना पढ़ना।" पदुमलाल
बख्शी की प्रारंभिक शिक्षा खैरागढ़ में हुई। साहित्यिक पारिवारिक परिवेश ने साहित्य
के प्रति अनुराग विकसित किया। सातवीं कक्षा में विक्टोरिया स्कूल के छात्र थे, जब बाबू
देवकीनंदन खत्री की उपन्यास श्रृंखला चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति उनके हाथ लग
गई और साहित्य के प्रति आकर्षण विकसित हुआ।
वर्ष १९११ में मैट्रिकुलेशन परीक्षा का फॉर्म भरते समय तत्कालीन हेड-मास्टर एन. के. गुलाम अली ने उनके नाम के साथ पिता पुन्नालाल बख्शी का नाम भी जुड़वा दिया। तभी से वे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के नाम से जाने गए। परन्तु, उस साल की मैट्रिक परीक्षा में पदुमलाल फेल हो गए। उसी वर्ष, साहित्यिक लेखन की प्रथम परीक्षा उन्होंने जबलपुर की हितकारिणी पत्रिका में ‘तारिणी’ शीर्षक से अपनी प्रथम रचना के प्रकाशन के साथ उत्तीर्ण कर ली। यह अंग्रेजी की प्रतिष्ठित पत्रिका मॉडर्न रिव्यू में प्रकाशित एक कथा 'फेट' (fate) का हिन्दी अनुवाद थी। वह उन्होंने विपिन चंद्र के कल्पित नाम से प्रकाशित कराई थी। मैट्रिकुलेशन की परीक्षा उन्होंने एक वर्ष बाद १९१२ में पास की। सत्रह वर्ष की उम्र में, १९१३ में, पदुमलाल का विवाह मंडला के हरिप्रसाद श्रीवास्तव की कन्या लक्ष्मी देवी के साथ हुआ। इसी वर्ष पदुमलाल ने बनारस की सेंट्रल हिन्दू कॉलेज में दाखिला लिया और साहित्य के क्षेत्र में वे पूर्णरुपेण सक्रिय हो गए। साहित्यिक दृष्टि से संपन्न बांग्ला साहित्य पढ़ने के ध्येय से बांग्ला भाषा उन्होंने अपने सहपाठी सी. पारसनाथ सिंह से सीखी। साथ ही, वे बड़े मनो योग से अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन भी करने लगे। बनारस के साहित्यिक परिवेश ने उनकी लेखन को नया आयाम मिला। पिता के निर्देश पर उन्होंने कानून की पढ़ाई के लिए बनारस के सेंट्रल हिन्दू कॉलेज में पुनः प्रवेश लिया, किन्तु साहित्य में रमा उनका मन कानून में नहीं रम सका। नतीजा, बनारस छोड़ने का निर्णय लेते हुए, १९१६ में बी.ए. की उपाधि के साथ खैरागढ़ लौट आए, और साथ रहने आयीं मायके में रह रहीं उनकी पत्नी लक्ष्मी देवी।
शिक्षकीय योगदान : शिक्षकीय कार्य को श्रेष्ठ बताते हुए मास्टर जी पदुमलाल बख्शी ने कहा था, "मैं यदि फिर से जन्म लूँ तो मास्टर ही बनना पसंद करूँगा। इस कार्य में जीवन भर नवीनता, उल्लास, श्रद्धा और निर्माण की भावना बनी रहती है।"
बख्शी जी का जीवन सादगी, सहिष्णुता, सहृदयता और साधना से परिपूर्ण रहा। वे आजीवन पठन-पाठन और लेखन में लीन रहे। खैरागढ़, काँकेर और राजनांदगाँव में शिक्षकपद पर हमेशा सक्रिय रहे। गिरीश बख्शी कहते हैं कि पुस्तक पढ़ते समय वे इतने तल्लीन हो जाया करते थे कि आस-पास की हलचलों पर उनका ध्यान तक नहीं जाता था। एक घटना का ज़िक्र करते हुए वे बताते हैं, “दिग्विजय महाविद्यालय, राजनांदगाँव, में एक दिन ११:०० बजे के करीब मैंने उन्हें एक उपन्यास दिया। उपन्यास अच्छा बड़ा था। वह वहीं कार्यालय में उसे पढ़ने लगे। कुछ देर बाद बोले – बड़ी अच्छी शुरूआत है। मैं इसे कॉमन रूम में बैठकर पढ़ता हूं। दो एक घंटे बाद जब मैं कुछ काम से उधर से निकला तो देखा मास्टर जी आराम कुर्सी पर बैठे हुए उपन्यास पढ़ने में तल्लीन हैं। इस बीच कितने पीरियड खत्म हो गए, कितना समय व्यतीत हो गया कौन कॉमन रूम में आया और गया उन्हें पता भी नहीं चला।”
अस्पृश्यता के विरोधी कर्मयोगी बख्शी
अपने सहकर्मियों के बीच पदुमलाल की छवि एक कर्मयोगी
के समान थी जी फल की आसक्ति से निस्पृह लेखन कर्म में अधिकाधिक समय रमे रहते थे।
वे अपनी पांडुलिपि किसी भी प्रकाशक को सहज रूप से दे दिया करते थे। १९६५-६७ के
दौरान कुछ अवसरों पर यह भी देखने को मिला जब उत्तर प्रदेश के दो प्रकाशक अलग-अलग
प्रसंगों पर उनका चरण स्पर्श करके उनकी एक-एक मूल्यवान पांडुलिपि ले गए, जो केरल
के त्रिवेंद्रम विश्वविद्यालय में पाठ्य पुस्तकों के रूप में लग गई। एक प्रकाशक ने
उनके पास मात्र चार सौ रुपए रख दिए और पांडुलिपि ले गया। देखने वालों को लगता कि बख्शी
जी ठगे गए, लेकिन उनके मुख पर तब भी संतुष्टि का भाव ही दिखता था। बेहद सहृदय और
आत्मीय स्वभाव के थे बख्शी जी। १९२०-१९२१
में जब समाज में छुआछूत की कुरीतियाँ चारों तरफ व्याप्त थीं, बख्शी
जी अछुत कहे जाने वाले निम्न जातियों के व्यक्तियों से सहजता पूर्वक मिलते थे। उनके
मित्र अक्सर तथाकथित निम्न जाति के लोग हुआ करते थे। इलाहाबाद के एक बगीचे में वे अक्सर
जाया करते थे। वहाँ हरिजनों से बहुत स्नेह से बात करते थे, बल्कि
उन्हें निमंत्रण देकर घर पर भी बुलाते थे और खाने पीने का इंतजाम भी करवाते थे। प्रथम श्रेणी की टिकट होने पर भी तीसरे दर्जे
में बैठकर रेल यात्रा करते थे। किसी भी प्रकार के बड़े आयोजन में मुख्य अतिथि या
अध्यक्ष बनने के प्रस्ताव को विनम्रता से अस्वीकार कर दिया करते थे। वह कहते थे, "यह
तो राज सिंहासन पर बैठने जैसा है।"
संपादक का स्वाभिमान : जिस रचना के चयन और संपादन में उन्होंने श्रम किया हो उसे कोई और खारिज कर दे, यह उन्हें कतई मंजूर नहीं था। समाज के व्यापक हित और रुचि को ध्यान में रखते हुए बक्शी जी रचनाओं का चयन करते थे - अपराध, सेक्स और भयाक्रांत करने वाली सामग्री देने को वह लेखकीय अपराध मानते थे। ध्रुव नारायण अग्रवाल के अनुसार – “साप्ताहिक के लिए प्रेस में आई डाक को लेकर वह उनके यहाँ जाते और बख्शी जी अधिकतर डाक स्वयं खोलते थे। संपादित सामग्री में थोड़ी-सी भी छेड़छाड़ वह सहन नहीं कर पाते थे।” ऐसा एक प्रसंग कथाकार मनहर चौहान की एक कहानी को लेकर आया। महाकौशल के प्रधान-संपादक विश्वनाथ वैशंपायन ने वह कहानी वापस कर दी। बक्शी जी ने प्रधान-संपादक के हस्तक्षेप के विरोध स्वरूप साहित्य-संपादक के पद से त्यागपत्र दे दिया, जिसे श्यामाचरण शुक्ल के आग्रह पर उन्होंने वापस ले लिया।
भाषा शैली – उनकी भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली है। अधिकतर संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग है, किन्तु उर्दू तथा अंग्रेजी का भी प्रयोग हुआ है। इनकी भाषा में विशेष प्रकार से स्वच्छंद गति के दर्शन होते हैं। इनकी शैली गंभीर प्रभावोत्पादक, स्वभाविक और स्पष्ट है। अपने लेखन में उन्होंने समीक्षात्मक, भावात्मक विवेचनात्मक, व्यंग्यात्मक शैली अपनाया है।
प्रस्तुत है पत्रकारिता पर बख्शी के निबंध के कुछ अंश – “हिन्दी में समाचार पत्रों की विशेष वृद्धि हो रही है। तुम इसे राजनैतिक जागृति, समाजिक प्रगति और बौद्धिक उन्नति के शुभ चिन्ह कहोगे। मैं भी यह स्वीकार करता हूँ कि समाचार-पत्रों द्वारा शिक्षा का प्रचार अवश्य होता है और उनसे जागृति भी होती है। समाचार पत्र आधुनिक युग की ही वस्तु है। वह ज्ञान के साथ मनोरंजन का भी साधन है। इसमें स्वार्थ-सिद्धि के साथ जनसेवा, देश-सेवा और साहित्य सेवा भी होती है। इससे अर्थ के साथ-साथ कीर्ति भी मिलती है और शक्ति भी आती है। इसलिए उन समाचारों का मूल्य भी होता है। जिन पत्रों का कोई प्रभाव नहीं हैं, उनके समाचारों का कोई मूल्य भी नहीं होता है। ... समाचार पत्रों का दूसरा कार्य यह है कि वे जनता को सुशिक्षित बनाते हैं। ... निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि हिन्दी के अधिकांश पत्र अभी भी जनता के पत्र नहीं कहे जा सकते और न ही लेखक ही जनता के लेखक समझे जा सकते हैं। दोनों अभी प्रकाशकों की कृपा पर निर्भर हैं। स्वयं प्रकाशक अपनी शक्तियाँ संपत्ति पर निर्भर रहने के कारण जनता के हित की अपेक्षा अपने ही प्रभाव के वृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है। पत्रों में अभी प्रकाशक की नीति और रुचि की ही प्रधानता रहती है। यही कारण है कि हिन्दी पत्रों का प्रभाव अभी जनता पर नहीं है।”
श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ का संपादन: बीए करते हुए बख्शी जी ने सरस्वती के लिए लिखना शुरु कर दिया था। हितकारिणी में अंग्रेजी में रूपांतरित कहानी का प्रकाशन हो जाने के बाद उन्होंने एक रचना सरस्वती में भेजी थी। सरस्वती उस समय की श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका थी। वह रचना एक कौतूहल पूर्ण निबंध थी जिसका शीर्षक था - "सोना निकलने वाली चीटियाँ"।
राजनांदगाँव में शिक्षण कार्य करते हुए भी वे लेखन में मशगूल रहे और उनकी रचनाएँ सरस्वती सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी। सरस्वती के पारखी संपादक पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें सरस्वती में अपना उत्तराधिकारी बना लिया वर्ष १९२०-१९२७ तक और उसके बाद १९२९ में भी बख्शी जी ने ही सरस्वती का संपादकीय संभाला। अपनी चतुराई के साथ देश की स्वातंत्र्य कामना को पुष्ट करने वाली सामग्री भी देते और सरकार पर सीधा आक्रमण ना करके अपने संस्थान को ब्रिटिश से बचाए भी रखते थे। विशेष संपादकीय ‘अपनी बात’ वे ही लिखते थे जो बख्शी जी के अंतर्मन के दर्पण के रूप में ली जाती थी। बख्शी जी ने अपने लेखों के माध्यम से सरस्वती को राष्ट्रीय चेतना का अग्रदूत बनाने में अहम् भूमिका निभाई थी। द्विवेदी युग के प्रमुख साहित्यकारों में इनका नाम लिया जाता है। उन्होंने गद्य और पद्य - दोनों विधाओं में कलम चलाई है। सरस्वती के अलावा अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी इनकी रचनाएँ प्रकाशित होने लगी थी। उनकी प्रसिद्धि का मुख्य आधार आलोचना और निबंध लेखन है। वे साहित्य के महान साधक, संवेदनशील लेखक, श्रेष्ठ निबंधकार, निष्पक्ष आलोचक और समीक्षक के रुप में प्रतिष्ठित हुए तथा ललित निबंधों के लिए आप सदैव स्मरण किये जायेंगे।
सर्वश्रेष्ठ समालोचक- समीक्षक पदुमलाल बख्शी
पहला प्रसंग मुंशी प्रेमचंद से जुड़ा है। प्रेमचंद उपन्यासकार और कथाकार के रूप में प्रसिद्ध हो रहे थे। प्रेमचंद का एक नाटक ‘संग्राम’ सरस्वती में प्रकाशित हुआ। सरस्वती में प्रकाशित समालोचना से प्रेमचंद बहुत आहत हुए और वह सरस्वती कार्यालय पहुँच गये। वहीं पर दोनों की पहली मुलाकात हुई थी। हालाँकि, बख्शी जी प्रेमचंद की भाषा शैली के प्रशंसक थे और उन्हें प्रेमचंद की कहानियाँ भी बहुत पसंद थीं, किन्तु निष्पक्ष आलोचना उनका धर्म था। प्रेमचंद भी बख्शी जी की संपादन क्षमता और निष्पक्षता के प्रशंसक हो गए थे।
भगवती चरण वर्मा एक दिन 'सरस्वती' कार्यालय पहुँचे और अपनी रचनाओं का प्रकाशन न करने पर उन्होंने बख्शी जी से नाराजगी व्यक्त की। बख्शी जी ने सहजता के साथ उत्तर दिया कि उनकी रचनाओं में भाषागत त्रुटियाँ रहती हैं। सरस्वती को प्रेषित उनकी एक रचना उनके सामने रखते हुए उसमें भाषा संबंधी त्रुटियों को इंगित किया। किन्तु वर्मा जी ने उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और रचना में किसी संशोधन के लिए सहमत नहीं हुए। बख्शी जी अपने निर्णय पर कायम रहे। स्वाभाविक है, उस समय दोनों के रिश्तों में कुछ खटास पैदा हो गई। परन्तु, कालांतर में उनके संबंध सामान्य हो गए।
वर्ष १९२१ में सुमित्रानंदन पंत ने ‘उच्छवास’ शीर्षक से एक पुस्तिका प्रकाशित करवाई। बख्शी जी ने इस पर लिखा – “हमारी समझ में कविता में व्यर्थ शब्दाडंबर है। भाव बिल्कुल अस्पष्ट और उपमा जबरदस्ती ठूंस दी गई है। कवि अभी अल्पव्यस्क है। शब्दजाल के मोह में न पड़कर भावों की अभिव्यक्ति पर ध्यान दे सकते हैं। उनकी रचनाओं से मालूम पड़ता है कि उनमें कवित्व का बीज है और वह अँकुरित होगा। पर विलक्षणता लाने के लिए उन्हें सुन्दर किन्तु अर्थहीन शब्दों की योजना छोड़ देनी चाहिए। इस टिप्पणी के प्रकाशन के बाद सुमित्रानंदन पंत बख्शी जी से मिलने उनके निवास पर पहुँचे। बख्शी जी ने पंत जी से रचनाओं को सुनाने का आग्रह किया।
वह पंत जी की मधुर रचनाओं को सुनकर प्रभावित हुए। उन्हें लगा कि इस किशोर कवि में संभावनाएं हैं। उन्होंने पंत को अपनी रचनाएं प्रकाशनार्थ भेजने को कहा। १९२३ से पंत जी की कविताओं का सरस्वती में प्रकाशन शुरू हो गया। उनकी ‘कर’, ‘मौन’, ‘निमंत्रण’, ‘शिशु’, ‘आनंद’, ‘नक्षत्रों के प्रति’, ‘आंसू’, ‘पल्लव’ कविताएँ सरस्वती के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हुईं। बख़्शी जी ने आरंभ में सुमित्रानंदन पंत की रचनाओं को यदि अस्वीकृत किया था तो केवल इसलिए कि वे उनकी कसौटी पर खरी नहीं उतर रही थी। जैसे ही पंत का लेखन परिष्कृत हुआ बक्शी जी ने उन्हें यथेष्ट महत्व दिया।
दिग्गज लेखकों से संबंध : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी से भी उनके व्यक्तिगत संबंध स्निग्धतापूर्ण रहे। मैथिलीशरण गुप्त से बख्शी जी के संबंध औपचारिकताओं तक सीमित रहे। बावजूद इस तथ्य के कि बख्शी जी उनके प्रशंसक थे और उनसे रचनाएँ आमंत्रित करते रहते थे। बख्शी जी उन संपादकों में से थे जो अच्छे रचनाकार से श्रेष्ठ रचना के लिए मनुहार करते रहना अपना दायित्व मानते थे।
मुक्तिबोध का समुचित मूल्यांकन उनके जीवन काल में न होने पर संताप व्यक्त करते हुए बख्शी जी ने लिखा – “उनकी मृत्यु के बाद जो सम्मान दिया गया वही उनके जीवन काल में प्राप्त होता तो सचमुच उनके लिए वरदान होता। उन्हें यथेष्ट कष्ट सहन करना पड़ा।" बहुआयामी प्रतिभा के धनी लोचन प्रसाद पांडे, लेखक एवं व्याकरणाचार्य कामता प्रसाद गुरु, मानस मर्मज्ञ डॉ बलदेव प्रसाद मिश्र और गजानन माधव मुक्तिबोध बख्शी जी के प्रगाढ़ मित्रों में रहे। देवीदत्त शुक्ला सरस्वती के संपादन काल में बख्शी जी के सर्वाधिक सहायक और उपयोगी सिद्ध हुए थे।
पहली कहानी 'झलमला' का प्रभावशाली नाट्य रूपांतरण: ‘झलमला’ स्नेह का प्रकाश है, प्रेम की दिप्ती है, आशा का उल्लास है और जीवन की स्फूर्ति है। इसी से सभी उत्सवों में सभी मंगलमय आयोजनों में प्रेम- प्रमोद और पूजा के सभी अनुष्ठानों में दीपों की अंजलि दी जाती है। आकाश में झिलमिल करते हुए प्रदीपों को हम लोग 'झलमला' कहते हैं। 'झलमला' कहानी में भौजाई को झलमला दिखाकर छोटे से नन्हें देवर का एक गिन्नी पुरस्कार पाना रोमांचित कर देता है।
पुरस्कार सम्मान : हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा सन् १९४९ में साहित्य वाचस्पति की उपाधि से अलंकृत किया गया। इसके ठीक एक साल बाद वे मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति निर्वाचित हुए। सन् १९५१ में डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी की अध्यक्षता में जबलपुर में ‘मास्टर जी’ का सार्वजनिक अभिनंदन किया गया। सन् १९६९ में सागर विश्वविद्यालय से द्वारिका प्रसाद मिश्र (मुख्यमंत्री) द्वारा डी. लिट. की उपाधि से विभूषित किया गया।
डॉ॰पदुमलाल
पुन्नालाल बख्शी : जीवन परिचय |
|
नाम |
डॉ॰ पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी |
दादाजी |
श्री उमराव बख्शी |
पिताजी |
पुन्नालाल बख्शी |
माताजी |
मनोरमा देवी |
पत्नी |
लक्ष्मी देवी |
|
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जन्म तिथि |
२७ मई १८९४ (ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन) |
जन्म भूमि |
खेरागढ़, जिला-राजनांदगाँव, (छ,ग) |
मृत्यु |
१९७१ |
कर्म भूमि |
भारत |
कर्मक्षेत्र |
साहित्य |
भाषा |
हिन्दी |
विद्यालय |
सेंट्रल हिंदू कॉलेज बनारस |
शिक्षा |
बी.ए. |
पुरस्कार उपाधि |
डी-लिट् की उपाधि, साहित्य वाचस्पति की उपाधि, मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन |
उल्लेखनीय
कार्य |
सोना निकालने वाली चींटियाँ, निबंध |
क्रमांक |
कृतियाँ |
सन् |
प्रकाशन |
स्थान |
|
१. |
विश्व साहित्य |
१९२२ |
गंगा पुस्तक माला |
लखनऊ |
|
२. |
हिन्दी साहित्य विमर्श |
१९२७ |
हिन्दी पुस्तक एजेंसी |
कलकत्ता |
|
३. |
हिन्दी कथा साहित्य |
१९५४ |
हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर |
मुंबई |
|
४. |
समस्या और समाधान |
१९६४ |
जवाहर पुस्तकालय |
मथुरा |
|
५. |
नवरात्रि |
१९६७ |
जवाहर पुस्तकालय |
मथुरा |
|
६. |
हिन्दी साहित्यिक एक
ऐतिहासिक समीक्षा |
१९६९ |
लोक चेतना प्रकाशन |
जबलपुर |
|
कथा संग्रह |
|||||
१. |
पंचपात्र |
१९२५ |
साहित्य भवन लिमिटेड |
इलाहाबाद |
|
२. |
झलमला |
१९३४ |
साहित्य भवन लिमिटेड |
इलाहाबाद |
|
३. |
मंजरी |
१९४४ |
सरस्वती प्रकाशन |
जबलपुर |
|
४. |
त्रिवेणी |
१९५७ |
लोक चेतना प्रकाशन |
जबलपुर |
|
५. |
कनक रेखा |
१९६१ |
मित्र बंधु कार्यालय |
जबलपुर |
|
|
उपन्यास नाटक |
|
|
|
|
१. |
कथा चक्र |
१९५७ |
लोक चेतना प्रकाशन |
जबलपुर |
|
२. |
वे दिन |
|
जवाहर पुस्तकालय |
मथुरा |
|
काव्य |
|||||
१. |
अश्रुदल |
१९३५ |
प्रेमा पुस्तक माला |
मुंबई |
|
२. |
शतदल |
१९३५ |
हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर |
मुंबई |
|
३. |
ग्राम गौरव |
- |
हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर |
मुंबई |
|
नाटक |
|||||
१. |
प्रायश्चित |
१९१६ |
हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर |
मुंबई |
|
२. |
भोला |
१९५९ |
लोक चेतना प्रकाशन |
जबलपुर |
|
३. |
त्रिपथगा |
१९६५ |
जवाहर पुस्तकालय |
मथुरा |
|
संस्मरण |
|||||
१. |
जिन्हें नहीं भूलूँगा |
१९६४ |
लोक चेतना प्रकाशन |
जबलपुर |
|
२. |
मेरी अपनी कथा |
१९५८ |
इंडियन प्रेस |
इलाहाबाद |
|
३. |
अंतिम अध्याय |
१९७२ |
लोक चेतना प्रकाशन |
जबलपुर |
|
४. |
मेरी डायरी |
- |
संभावना प्रकाशन |
हापुड़ |
|
विविध |
|||||
१. |
त्रिवेणी |
१९५७ |
पाठक बुक डिपो |
राजनांदगाँव |
|
२. |
बिखरे पन्ने |
- |
पाठक बुक डिपो |
राजनांदगाँव |
|
३. |
प्रदीप |
१९३५ |
प्रेमा पुस्तकमाला |
जबलपुर |
|
४. |
साहित्य चर्चा |
१९३७ |
बर्मन साहित्य निकेतन |
बांकीपुर पटना |
|
५. |
कुछ |
१९४८ |
इंडियन प्रेस |
इलाहाबाद |
|
६. |
और कुछ |
१९५० |
एजुकेशन बुक डिपो |
नागपुर |
|
"राजनांदगाँव ऑफ़िशियल वेबसाइट"
(अंग्रेज़ी में), राजनांदगाँव जिला सरकार, अभिगमन तिथि १८ दिसंबर २००७
"पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी". कविताकोश. अभिगमन
तिथि १८ दिसंबर २००७
लेखक परिचय :
वंदनागोपाल शर्मा ‘शैली’ भाटापारा, छत्तीसगढ़ में चाइल्ड केयर गाइडेंस एंड काउंसलिंग करती हैं। मनोविज्ञान एवम् हिन्दी साहित्य में एमए शैली की कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें ‘आने की आहट (काव्य)’, ‘अहसास प्रेम का (कहानी)’, लघुकथा संग्रह तथा कुछ साझा-संकलन भी शामिल हैं। आकाशवाणी, रायपुर से कविताएँ, कहानियाँ व परिचर्चा प्रसारित करती रहती हैं तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे साहित्य अमृत, विप्र गौरव, दिव्य छत्तीसगढ़, बाल भारती, बाल वाटिका आदि में रचनाओं का प्रकाशन।
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ReplyDeleteवंदनागोपाल जी, पदुमलाल बख्शी जी के कार्यक्षेत्र और कार्य के प्रति उनकी ईमानदारी और लगन को विभिन्न उद्धरणों के माध्यम से आपने एक सहज और सुन्दर तस्वीर में ढाला है। महान मास्टर, आलोचक, संपादक, साहित्यकार, निबंधकार बख्शी जी को नमन। आपको इस उत्तम लेख की बधाई और आभार।
ReplyDeleteशानदार आलेख बक्शी जी पर
ReplyDeleteबधाई आपको
वंदनागोपाल जी, आपने पदुमलाल पुन्नालाल बख़्शी जी पर सुंदर आलेख दिया है। आपको बधाई। आलेख से उनके जीवन और विभिन्न साहित्यकारों से उनके संबंधों की विस्तृत जानकारी प्राप्त हुई। धन्यवाद। 💐💐
ReplyDeleteवंदनागोपाल जी नमस्ते, आपके लेख के माध्यम से पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के अतुलनीय साहित्यिक योगदान को जानने का एक और अवसर मिला। उनका शिक्षा एवं साहित्य के प्रति समर्पण वंदनीय है। आपने लेख में उनके जीवन वृत्त एवं साहित्यिक यात्रा को बखूबी समेटा है। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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