Sunday, May 8, 2022

ओज के यशस्वी कवि : पं० श्यामनारायण पांडेय

 

कविवर भूषण के पश्चात जातीय वीर भावना का उद्घोष करने वाले कवियों में पांडेय जी का स्थान सर्वप्रथम है। वे वीर रस के सुविख्यात हिंदी कवि ही नहीं थे, अपितु अपनी ओजस्वी वाणी से वीर रस काव्य के अन्यतम प्रस्तोता थे। जातीय वीर भावना की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने दो युगों से सामग्री एकत्रित की - त्रेतायुग और राजपूत युग। त्रेता के दो वीर "तुमुल" तथा "जय हनुमान" प्रभृति खंडकाव्यों में उन्होंने उनकी अद्भुत शक्ति-साहस-पराक्रम की शौर्य गाथा का अत्यंत ओजस्वी वर्णन किया है। "तुमुल" (१९२८), 'त्रेता के दो वीर' का संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण है, इसमें लक्ष्मण और मेघनाद के बीच होने वाले युद्ध का अत्यंत सजीव चित्रण हुआ है। "जय हनुमान" पांडेय जी का दूसरा पौराणिक खंडकाव्य है, इसमें राम-भक्त हनुमानजी के अद्भुत पराक्रम का ओजस्वी वर्णन है। पौराणिक इतिवृत्ति पर आधारित इन खंडकाव्यों के अतिरिक्त पं० श्यामनारायण पांडेय ने राजपूत-युग के शौर्य एवं पराक्रम की अभिव्यक्ति के लिए जिन प्रबंधकाव्यों की रचना की है, उनमें सर्वप्रमुख है "हल्दीघाटी" तथा दूसरा महत्वपूर्ण प्रबंधकाव्य है "जौहर"। इनके अलावा उन्होंने  गोरा-वध (खंडकाव्य) और कई मुक्तक काव्य-कृतियों का सृजन किया। 

ऐसे यशस्वी और स्वनामधन्य महाकवि का जन्म १९ जुलाई १९०७, तदनुसार श्रावण कृष्ण षष्ठी मंगलवार को सरयू पारीय ब्राह्मण परिवार में डुमग्राम (द्रुमग्राम) ज़िला आजमगढ़, उत्तर प्रदेश में हुआ था। यह वह काल था जब महीयसी महादेवी वर्मा, अज्ञेय और हरिवंशराय बच्चन जैसे हिंदी के महान सृजकों का अवतरण हुआ था। पांडेय जी के पिता का नाम पं० राजाज्ञा पांडेय और माता का नाम श्रीमती बतासी देवी था। उनके पिता पं० रामाज्ञा पांडेय कुशल कृषक थे। उनके परदादा पं० लीलाधर पांडेय संस्कृत के महान विद्वान एवं मृदंग-वादक थे। श्यामनारायण पांडेय अपने तीन भाइयों और दो बहनों में सबसे छोटे थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा का श्रीगणेश घर पर ही हुआ। किंतु शीघ्र ही बकवल गाँव की प्राइमरी पाठशाला में उनका प्रवेश करा दिया गया। तब उनकी आयु १०-१२ वर्ष रही। १९२४ में हिंदी मिडिल एवं १९२५ में उर्दू मिडिल उत्तीर्ण कर संस्कृत शिक्षा के लिए संस्कृत पाठशाला मऊनाथ भंजन, आज़मगढ़ में प्रवेश लिया। तदुपरांत गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज, बनारस (वाराणसी) से १९२७ में प्रथमा उत्तीर्ण कर काशी से साहित्याचार्य की परीक्षा अव्वल अंकों से उत्तीर्ण की। इसके पश्चात राजकीय संस्कृत महाविद्यालय (सरस्वती भवन) में  रिसर्च स्कॉलर हो गए और लगभग तीन वर्ष तक पुराण वांड्मय का अध्ययन एवं अनुशीलन करते रहे।

पांडेय जी का स्वभाव अत्यंत सरल था। उनके विरले व्यक्तित्व पर उनकी माता की धार्मिक भावनाओं और पिता के ओजपूर्ण विचारों का यथेष्ट प्रभाव था। वे बहुत ही हंसमुख प्रवृत्ति के नेक दिल और सारस्वत साहित्यकार थे। उनका पारदर्शी व्यक्तित्व बेहद विनम्र था। कहा जा सकता है कि वे सगुण साहित्यकार के व्यक्तित्व की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। उनका विवाह १९४० में गायत्री देवी से हुआ, किंतु विवाह के कुछ वर्षों बाद ही पत्नी का देहावसान हो गया। इसने उनके जीवन को सन्निपात-सा बना दिया। कालातंर में पहली पत्नी की अनुजा सरस्वती देवी के संग पुनः वैवाहिक बंधन में बंधे पर यह भी सफल नहीं हुआ। अब उन्होंने विवाह न करने का दृढ़ संकल्प लेकर अपने कवि-मन को संभाला और लेखन-कार्य में व्यस्त रहने लगे। कुछ वर्षों बाद ही माता-पिता के असामयिक निधन से उन पर दुखों का पहाड़-सा टूट पड़ा। इस संकट काल में उनके बड़े भाई पं० सत्यनारायण एवं चाचा श्री विष्णुगुप्त पांडेय का अत्यधिक प्यार मिला। उन्हीं की प्रेरणा से श्यामनारायण पांडेय की काव्य-प्रतिभा चमकी और वे हिंदी काव्य में महाकवि के पद पर प्रतिष्ठित हुए।

कवि-सम्मेलनों में सक्रियता

उस काल में स्थानीय अंचल के कवि-सम्मेलन के अलावा पांडेय जी गोरखपुर, लखनऊ, वाराणसी और देश के विभिन्न क्षेत्रों में आयोजित बड़े कवि-सम्मेलनों में अपने ओजपूर्ण काव्य-पाठ से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे। 'हल्दीघाटी' काव्य-रचना के फलस्वरूप श्यामनारायण जी को हिंदी साहित्य जगत में पर्याप्त ख्याति मिली। इसी रचना पर उन्हें ओरछा नरेश श्रीमान वीरसिंह जून देव ने हिंदी का सर्वश्रेष्ठ "देव पुरस्कार" देकर सम्मानित किया। १९६३ में दिल्ली में लालकिले पर एक राष्ट्रीय कवि-सम्मेलन हुआ। उसमें पांडेयजी ने 'हिमालय' शीर्षक कविता पढ़ी, जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर खूब प्रशंसा हुई। उसी वर्ष 'हिंदी साहित्य सम्मेलन' में छपरा अधिवेशन के अध्यक्ष रहे।
हिंदी साहित्य संस्थाओं ने उन्हें वीर रस के श्रेष्ठ कवि के रूप में घोषित कर अनेक बार अभिनंदन किया है। १९७४ में हरिऔध कला भवन, आजमगढ़ द्वारा आयोजित भव्य कवि-सम्मेलन में उन्हें चाँदी की तलवार भेंट कर सम्मानित किया गया। इस प्रकार दो दशकों तक वे कवि-सम्मेलनों में विख्यात रहे।

साहित्यिक अनुशीलन : भाव-पक्ष 

जिस राष्ट्रीय चेतना का उन्मेष द्विवेदी-युग में हुआ था और जिसमें बाबू मैथिलीशरण गुप्त अग्रणी राष्ट्रीय कवि के रूप में राष्ट्रप्रेम की ऊर्जस्वी भावना भर रहे थे। वे छात्र जीवन में ही तुकबंदी करने लगे थे। उनके साहित्यिक गुरु थे, हिंदी काव्य के सम्राट पं० अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'। उनके लेखन पर मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध जी की राष्ट्रीय चेतनापरक कविताओं के अलावा ठाकुर शहजाद सिंह, पं० श्री नारायण चतुर्वेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल का प्रभाव पड़ा। पं० श्यामनारायण पांडेय ने उसी परंपरा को आगे बढ़ाया। यद्यपि उन्होंने अपनी काव्य भूमिका में लिखा है कि उन्होंने अपना काव्य-पथ अलग बनाया है पर वह कोई वाद नहीं, यह काव्य-विषय कवि की दृष्टि है। इसमें दो राय नहीं कि अपनी विचारधारा के अनुसार ही वे यशस्वी काव्य-सृजन की ओर बढ़े हैं। समसामयिक स्वातंत्र्य-संग्राम में राणा प्रताप की यह प्रतिज्ञा देशप्रेमियों के लिए प्रत्यक्ष प्रेरणा थी,

स्वतंत्रता की कवच पहन
विश्वास जमाकर भाला में।
कूद पड़ा राणा प्रताप उस
समर-वह्नि की ज्वाला में।।

पांडेय जी हिंदी के यथार्थवादी कवि रहे। उनकी वर्णन-शैली अत्यंत चित्ताकर्षक है। वह जिस घटना अथवा परिस्थिति का चित्रण करते हैं उसका सजीव चित्र आँखों के सामने उपस्थित कर देते हैं। हल्दीघाटी में युद्ध का एक वीर रसपूर्ण चित्र,
निर्बल बकरों से बाघ लड़े, भिड़ गए सिंह मृगछौनों से,
घोड़े गिर पड़े, गिरे हाथी पैदल बिछ गए बिछौनों से।
हाथी से हाथी जूझ पड़े, भिड़ गए सवार सवारों से,
घोड़े पर घोड़े टूट पड़े, तलवार लड़ी तलवारों से।

बकौल आचार्य पं० सीताराम चतुर्वेदी, "इस महाकाव्य से दूसरा युग निर्माण  होगा...उन्हें पढ़ने मात्र से जान पड़ता है मानो वे स्वयं युद्ध-क्षेत्र की ओर चले जा रहे हैं। उनकी प्रबल वेगवती धारा में ऐसा जोश, उत्साह और प्रवाह है कि दुर्बल मानव-हृदय उसमें खड़ा नहीं रह सकता, वह भी बह पड़ता है।...इसमें सौंदर्य, वीरत्व को छोड़कर भागा नहीं है।...धुरंधर विद्वान और गंवार इसका समान आनंद ले सकते हैं, उन्हें भावावेश में नचा सकते हैं, रुला सकते हैं। साहित्य मर्मज्ञ आचार्य भी भाव-भाषा और कल्पना पर लिट्टे हो सकता है।"

हल्दीघाटी के कथ्य-शिल्प पक्ष का विश्लेषण करते हुए आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है, "हिंदी में युद्ध का ऐसा वर्णन नहीं देखा जाता।...उमंग का जो प्रवाह आरंभ से उठा है वह अंत तक अनेक बल खाता हुआ चला गया है।...शील निरूपण पर भी उसकी दृष्टि गई है और उसने मार्मिकता के साथ उसे संभालने का प्रयत्न किया है।"

"जौहर" नामक महाकाव्य पांडेय जी के यशस्वी कवि-जीवन का कीर्तिस्तंभ है। रानी पद्मिनी का जौहर राजपूतों के इतिहास में अपना विशेष महत्व रखता है। इस काव्य में कवि ने पद्मिनी के चरित्र को महत्ता प्रदान की है। रानी के मन में अनुपम पति-भक्ति थी। वे कहती हैं,
आँधी से आज मिला दूँगी तूफानी गति को।
मैं मुक्त करूँ क्षण भर में कारा से अपने पति को।।

इसमें कवि ने प्रकृति के विविध मनोरम चित्रों की झाँकी प्रस्तुत की है। महाकाव्य में वीर-करुण रस का परिपाक तथा छंद योजना सुनियोजित है। भारतीय नारी के गरिमापूर्ण चरित्र का निरूपण इसमें ध्यानाकर्षक है। "जय हनुमान" भी इसी दृष्टि से एक सफल काव्य है। सीता जी का करुणापूर्ण चित्र इन पंक्तियों में द्रष्टव्य है,
कपि ने सीता को देखा जल-कमल हीन वापी-सी।
कृशिता-उच्छवसिता-दीना,तम घिरे-प्रात की श्री-सी
उस अश्रु-मुखी सीता की आँखों से ढर- ढर पानी।
गोरे गालों पर गिरता मानो गल रही जवानी।।

हनुमान जी की वीरता और उनके आतंक का प्रभाव दिखाने के लिए पांडेय जी ने भयानक रस का प्रभावोत्पादक चित्र खींचा है,
शेष निशाचर प्राण बचाकर भागे लंका के अंदर।
रावण से बोले अजेय है महाभयानक है बंदर।।
पलक भांजते परिध उठाकर सजग राक्षसों को मारा
उसे मारना कठिन काम है उसने सबको ललकारा।।

भयानक रस के अलावा शृंगार, रौद्र, अद्भुत, हास्य, शांत और करुण, भक्ति, वात्सल्य प्रवृति रसों की सार्थक सृष्टि को भीरसाचार्यों ने पांडेय जी के काव्यों में स्वीकार किया है। संवेदनशीलता को काव्य का सर्वप्रथम और अनिवार्य उपबंध माना गया है। अपने भावों, अपनी अनुभूतियों अथवा मनोदशा को संवेद्य बनाना तथा पाठक या श्रोता को उसी स्थिति में ले आना कवि-कर्म का प्रमुख अंग है। सरस काव्य निर्मिति के लिए कवि को अपनी अनुभूति को सहृदय संवेद्य बनाना (ही) पड़ता है। कवि की संवेदनशीलता में कवि अनुभूति की सुष्ठु व्यंजना अंतर्निहित रहती है। इस कसौटी पर पांडेय जी की काव्य-कृतियाँ पूरी तरह खरी 
उतरती है।

साहित्य में स्थान

पं० श्यामनारायण पांडेय के काव्य का विषय अत्यंत व्यापक है। उनकी दृष्टि युग-सापेक्ष है। उनके काव्य के विषय समयानुकूल एवं चिरकालिक प्रेरणा के स्रोत हैं। नवीनता का संदेश देते हुए हमें अपनेपन की याद दिलाते हैं व युग का संदेश देते हैं। वे हिंदी साहित्य के महान कवियों में एक हैं। उन्होंने इतिहास और पौराणिक इतिवृत को आधार बनाकर महाकाव्यों की रचना की है, जो संपूर्ण हिंदी साहित्य में अनुपम प्रयास है। इस दृष्टि से वीर रसात्मक काव्य-सृजन के लिए पांडेय जी का अद्वितीय स्थान है। 

पांडेय जी की काव्य-भाषा 
            
आधुनिक हिंदी गद्य के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भाषा की उन्नति को मूल माना था, तो श्रीधर पाठक और मैथिलीशरण गुप्त ने राष्ट्रीयता और व्यापकता का उद्घोष किया। काल की दृष्टि से पांडेय जी ने भी खड़ी बोली हिंदी के प्रचार-प्रसार तथा विकास में विशेष योग दिया है।

हिंदी के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए उन्होंने आत्मसमर्पण भाव अपनाया था। उनकी काव्य-भाषा विशुद्ध साहित्यिक है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ -साथ बदरंग, शान, कुर्बान, नजदीक, ज़हर, खून, दुश्मन आदि फ़ारसी-अरबी के शब्द-प्रयोग भी पाए जाते हैं। कहीं-कहीं उनकी भाषा स्थानीय (पूर्वीपन) अंचलीय छाप भी दिखाई देती है। उनकी भाषा की सफलता का रहस्य उनके द्वारा चुने गए शब्दों के सामंजस्य एवं समन्वय में निहित है। उनकी भाषा के दो रूप मिलते हैं, १) व्यावहारिक २) संस्कृत गर्भित। हल्दीघाटी की भाषा व्यावहारिक भाषा है। इस भाषा पर उर्दू का अधिक प्रभाव है। 'जौहर' और 'जय हनुमान' आदि में भी व्यावहारिक भाषा पाई जाती है। गीतात्मक शैली के साथ-साथ मुक्तछंद का प्रयोग किया है। संपूर्ण काव्य के पाठन में चित्रात्मक शैली के गुण दिखाई देते हैं। कुछ मिलाकर उनकी भाषा प्रांजल, साहित्यिक, वेगपूर्ण, ओज और प्रसाद गुणयुक्त, प्रयत्नशील, प्रवाहमयी, मुहावरेदार और विषयानुसार है। ऐसा भाषा वैशिष्ट्य बहुत कम कवियों में देखने को मिलता है।   

श्यामनारायण पांडेय जी के साहित्यिक कार्य-कलापों के साथ-साथ उनकी समाज सेवा भी महत्वपूर्ण है। वे सुविख्यात शिक्षा-विशारद तथा शिक्षा-प्रेमी थे। कई शिक्षण संस्थाओं के निर्माण व विकास में उनकी अहम
भूमिका रही है। उनकी ओजपूर्ण रचनाओं का पाठ हम अपने अध्ययन-काल में करते रहे हैं। उनकी सृजनात्मकता को लेकर मैंने 'राष्ट्रीय सहारा' दैनिक अखबार में एक लेख भी लिखा था। और जब वे सख्त बीमार पड़े और आँखों की रोशनी लगभग खत्म हो चुकी थी, यह खबर पढ़कर मैंने उत्तर प्रदेश सरकार को एक आग्रह पत्र भेजा था कि साहित्यकारों के इलाज के लिए मुफ्त सरकारी सुविधाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिए। उसका कितना असर हुआ, मैं नहीं जानता परंतु बहुतों ने इस सद्प्रयास को एक कारगर पहल मानते हुए अनुशंसा की थी। पांडेय जी की भाषा के प्रति सचेत दृष्टि और साफ सोच सभी के लिए प्रेरक कही जा सकती है। उन्होंने अपने काव्यों के भाषा-प्रयोग से लेकर लोक-संस्कार स्वरूप तक अधिक बल दिया है। दरअसल भाषा कच्चे माल की तरह होती है, जिसे कलात्मक रूप देने के लिए कवि अपने व्यक्तित्व और प्रतिभा के अनुकूल श्रम करता है। वह श्रम-साध्यता पांडेय जी में दिखाई देती है। उनके काव्य में संस्कृत-फ़ारसी शब्दों के मेल कृत्रिम से नहीं जान पड़ते। यह खास खूबी उनकी काव्य-भाषा को अन्यों से अलग करती है।

पं० श्यामनारायण पांडेय : जीवन परिचय

जन्म

१९ जुलाई १९०७, श्रावण कृष्ण षष्ठी (मंगलवार)

डुमग्राम (द्रुमग्राम), आज़मगढ़ (उ० प्र०)

निधन

३ जनवरी १९९१, डुमग्राम

शिक्षा

साहित्याचार्य  (शास्त्री)

पिता

पं० राजाज्ञा पांडेय

माता

श्रीमती बतासी देवी

साहित्यिक रचनाएँ

प्रतिनिधि रचनाएँ

  • चेतक की वीरता

  • राणा प्रताप की तलवार

  • तुमुल (त्रेता के दो वीर) खंडकाव्य १९२८

  • हल्दीघाटी (महाकाव्य) १९३९

  • जौहर १९४४

  • आरती (स्फुट कविताएँ) १९४६

  • जय हनुमान (खंडकाव्य) १९५६

  • गोरा-वध १९५६

  • शिवाजी (महाकाव्य) १९७०

  • मुक्तक काव्य - माधव, रिमझिम, आँसू के कण

  • कुमारसंभव - अनूदित

  • परशुराम (अप्रकाशित)

पुरस्कार व सम्मान

  • ओरछा नरेश द्वारा प्रदत्त देव पुरस्कार

  • हरिऔध कला भवन, आजमगढ़ नेहरू स्मृति सम्मेलन में चाँदी की तलवार भेंट(१९७४)

  • नेपाल और बर्मा राष्टों द्वारा वीररस कवि सम्मान

  • काशी नागरी प्रचारित सभा, वाराणसी से 'जौहर' कृति पर केंद्रित पुरस्कार

  • इनके अलावा साहित्यिक सेवाओं के लिए अन्य अनेक सम्मानों एवं पुरस्कारों से अभिनंदित


संदर्भ

  • हमारे कवि/ राजेंद्र सिंह गौड़, साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, १९७१
  • साहित्य : युग और चेतना/डॉ० राहुल, अंगूर प्रकाशन, नई दिल्ली
  • https://wwwamarujala.com 
  • https//www bandnaclasses.com
  • हिंदी साहित्य  का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल 
  • हिंदी साहित्य का इतिहास, सं० डॉ० नगेंद्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दरियागंज नई दिल्ली-२, प्रथम संस्करण १९७८
  • https//www nityastudypoint.com
  • आधुनिक हिंदी महाकाव्य/वीणा शर्मा, अनुपम प्रकाशन, जयपुर (राज०) पृष्ठ ५९
  • राष्ट्रीय सहारा (वीररस के प्रणेता : पं० श्यामनारायण पांडेय) लेख दैनिक समाचार पत्र, नई दिल्ली, अगस्त -१९९६

लेखक परिचय

डॉ० राहुल
ग्राम-खेवली, ज़िला वाराणसी, (उत्तर प्रदेश)। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ एवं हिंदी अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत-सम्मानित।
अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त यशस्वी कवि-आलोचक डॉ० राहुल की अब तक ७० से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उत्तर रामकथा पर आधारित "युगांक" (प्रबंधकाव्य) का लोकार्पिण करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० शंकरदयाल शर्मा ने कहा था- “यह बीसवीं सदी की एक महत्वपूर्ण काव्य-कृति है। इससे भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा होती है और सामाजिक-राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा।” कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना आदि विधाओं में इन्होंने महत्वपूर्ण सृजन किया है। जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हिंदी के महान साहित्यकारों ने की है। 

2 comments:

  1. राहुल जी, पं० श्यामनारायण पांडेय पर आपके आलेख से उनके साहित्य के बारे में अच्छी जानकारी प्राप्त हुई। आलेख में दिए गए अनुपम उद्धरण उनके ओज-काव्य और काव्य-भाषा से अच्छा परिचय करते हैं। इस आलेख के लिए आपको बधाई और आभार।

    ReplyDelete
  2. डॉ राहुल जी नमस्कार। आपके लेख के माध्यम से पंडित श्यामनारायण पांडेय जी के साहित्यिक योगदान के बारे में विस्तृत जानकारी मिली। उनकी कविताओं के उदाहरणों से लेख और भी सरस बन गया। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिये हार्दिक बधाई।

    ReplyDelete

आलेख पढ़ने के लिए चित्र पर क्लिक करें।

कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...