Thursday, February 10, 2022

जनचेतना के कवि व आलोचना के अपराजेय योद्धा : डॉ० परमानंद श्रीवास्तव

 

विचारों की ऊष्मा से हिंदी आलोचना को समृद्ध करने वाले अपराजेय साहित्यकार डॉपरमानंद श्रीवास्तव का जन्म १० फ़रवरी सन १९३५ को बाँसगाँव, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में एक प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में हुआ था। धन्य है बाँसगाँव की धरा, जिसने साहित्य जगत को अनुपम साहित्यकार दिए हैं। बाँसगाँव का हिंदी साहित्य से गहरा नाता रहा है। हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री लाल शुक्ल बाँसगाँव में एस० डी० एम (SDM)  थे। उनकी कालजयी कृति 'रागदरबारी' में बाँसगाँव की झलक दृष्टिगोचर होती है। वरिष्ठ कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का भी बचपन बाँसगाँव में बीता, जिसका मनोहारी वर्णन उन्होंने अपनी कविता में किया है।

प्रारंभिक शिक्षा गाँव से प्राप्त करने के उपरांत उच्च शिक्षा सेंट एंड्रयूज़ कॉलेज से हुई। गोरखपुर विश्वविद्यालय से १९६३  में 'हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया' पर पी० एच० डी० की उपाधि प्राप्त की। १९७५ में 'खड़ी बोली काव्य भाषा का विकास' विषय पर डी० लिट० की उपाधि गोरखपुर विश्वविद्यालय से ही प्राप्त की। १९५६ -१९६९ तक सेंट एंड्रयूज़ कॉलेज, गोरखपुर में अध्यापन किया। वहाँ वे विभागाध्यक्ष भी रहे। तत्पश्चात १९६९ से सेवानिवृत्ति तक गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे। प्रेमचंद पीठ की स्थापना में उनका विशेष योगदान रहा। १९८९ से १९९५ तक वे इसके प्रोफ़ेसर भी रहे। 

सहजता इतनी कि छोटी-बड़ी सभी पत्र-पत्रिकाओं में लेखन कर देते थे। दर्प तो कभी छू नहीं पाया। 'सड़क से संसद' तक उनका दैनिक हिंदुस्तान में कॉलम बहुत प्रसिद्ध हुआ था। श्रेष्ठ कवि व वरिष्ठ आलोचक श्री परमानंद जी कविता और आलोचना को हृदय संवेदना की चीज़ मानते हैं, जो बौद्धिक संवेदना को जन्म देती है।

कवि नीरज के साथ मोटरबोट पर यात्रा करते समय दिनांत में एक सहज संवेदी गीत उनके कंठ से फूट पड़ा, जो मानवीय मूल्यों से ओत प्रोत है-
"मछुओं ने फेंका जाल
बहा जीवन जल।"   

कविता
, विचार और आलोचना के द्वारा साहित्य का संवर्धन करने वाले डॉ० परमानंद श्रीवास्तव की साहित्यिक यात्रा एक कवि के रूप में शुरु हुई, जो विभिन्न सोपानों से होती हुई एक शीर्ष आलोचक तक पहुँचती है। उनकी प्रथम कविता श्री रामवृक्ष बेनीपुरी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका 'नई धारा' में १९५४ में छपी थी। उनकी कई काव्य कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं। उनकी कविताओं में लोकजीवन की झाँकी मिलती है। लोक संस्कृति का दर्शन कराती हुई उनकी रचनाओं का एक वृहद आयाम है। 'उजली हँसी  के छोर पर' कविता के कुछ भाव इस प्रकार हैं -
मेघ फूल सोने के
किसी के न होने के
अन्य विचार इस प्रकार हैं -
बाँधों  न सपने अंगुलियों में
भटकूँगा रस्तों में, गलियों में

१९५७  का वर्ष हिंदी आलोचना के लिए एक नया भविष्य लेकर आया, क्योंकि इसी वर्ष श्री परमानंद जी का पहला आलोचनात्मक निबंध 'युग चेतना' में प्रकाशित हुआ। आलोचना ने उन्हें एक नई पहचान दी।

'समकालीन कविता का यथार्थ' के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा 'आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार' प्राप्त हुआ। अनेक आलोचनात्मक पुस्तकें उनके विराट कृतित्व की द्योतक हैं। उन्होंने कई कहानियाँ भी लिखीं, जो हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं थीं।  'हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया' ने हिंदी कहानी में आलोचना के मार्ग को प्रशस्त किया। 

'प्रतिरोध की संस्कृति और साहित्य' उनकी महत्वपूर्ण कृति है, जो समकालीन परिदृश्य के साथ-साथ अतीत के साहित्य पर विस्तृत दृष्टि डालती है। 

जहाँ एक ओर पुराने साहित्य की आलोचना वे बड़ी कुशलता से करते हैं, वहीं मध्यकाल और आधुनिक कवियों की रचनाओं की विशद आलोचना भी करते हैं। उन्होंने जायसी काव्य की भूरि-भूरि प्रशंसा उनके लोक भाषा और लोक संस्कृति के सुंदर चित्रण के लिए की है।  बाबा नागार्जुन, निराला, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, धूमिल, दूधनाथ सिंह, मंगरेश डबराल, राजेश जोशी सहित अनेक आधुनिक साहित्यकारों की कविताओं की समीक्षा उन्होंने की है। अतीत से लेकर वर्तमान तक के साहित्य पर विशिष्ट विश्लेषण प्रस्तुत करना एक उद्भट विद्वान के द्वारा ही संभव है। यह कहना गलत नहीं है कि वे इस मापदंड पर सौ फीसदी खरे उतरते हैं। वस्तुतः उन्हें अपराजित परमानंद कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी।

ओम निश्चल कहते हैं - "युवा कवियों, लेखकों, कथाकारों को इतना प्यार-दुलार देने वाला आलोचक हिंदी में कदाचित कोई दूसरा न हो।" 

छात्र/छात्राओं के हितों के लिए सदैव तत्पर रहने वाले परमानंद जी के आलोचना लेख विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हुएजो उनकी विशाल उपलब्धि हैं। विचारों में गहनता की अनुभूति कितने सहज शब्दों में परिलक्षित होती है -
बीतेगा समय
धीरे धीरे
जैसे सदियाँ बीतती हैं
हाथ बँधी घड़ी में

'कविता का अर्थात' उनकी बहुत चर्चित पुस्तक है। इसके बारे में सुशील सिद्धार्थ से बातचीत में वे कहते हैं -
"कवि  का अर्थात वृहत्तर होना चाहिए। जिस कवि का अर्थात व्यापक वृहत्तर नहीं होगा, उससे हम वैसी उम्मीद नहीं कर सकते, जैसी रघुवीर सहाय जैसे कवियों से करते हैं।"

'कविता का उत्तर जीवन' उनकी बहु प्रशंसित कृति है, जिसमें वे कविता के उत्तरदायित्व की बात स्पष्ट रूप से करते हैं - "कविता संगीत की हद को भी छूना चाहती है, उससे पहले वह समय की तात्कालिक जटिलताओं से बच नहीं सकती…।"

गहन अनुभूति व सम्यक दृष्टि ही साहित्यकार का मूल मंत्र है। करुणा गुप्ता के साथ बातचीत में वे यह बात एक यथार्थ उदाहरण देते हुए स्पष्ट करते हैं -

करुणा गुप्ता : कल्पना करें, किसी लेखक की विधिवत दीक्षा नहीं हुई है, तो उसकी कृति का मूल्यांकन कैसे करेंगे?
परमानंद : दीक्षा कोई गारंटी नहीं है। आखिर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हीरा डोम की कविता छापी, हिंदी के पहले दलित लेखक की कविता। सृजनात्मकता का अपना स्कूल चलता है, अपना वर्कशॉप। कवि के मन में।

'शब्द और मनुष्य' की भूमिका में वे लिखते हैं - "निजी और सामाजिक के बीच का द्वंद्व समृद्ध विवेक, समझ और संवेदना का विस्तार और जीवन दृष्टि आज की कविता कहाँ तक अपने अनुभव लोक और रूपतंत्र के भीतर साध पा रही है… यह देखने की कोशिश इस पुस्तक का खास प्रयोजन है।" 

अंतर्विरोध चाहे जितना बड़ा हो, सौम्यता की मिसाल थे डॉ श्रीवास्तव। हिंदी के बड़े हस्ताक्षर श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, जो परमानंद जी के विद्यार्थी भी थे, ने अपनी कृति 'एक नाव के यात्री' में अपने विचार साझा किए हैं। जो एक नया आयाम गढ़ते हैं। नामवर सिंह के साथ उन्होंने आलोचना के संपादक के रूप में कार्य किया। नामवर सिंह ने ही उन्हें 'आलोचना' पत्रिका का संपादक बनाया। परमानंद जी ने प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह को तानाशाह आलोचक तक कह दिया। साहित्य में उन्होंने आलोचना के नए मापदंड स्थापित किए। नामवर सिंह की कृति 'आलोचना और विचारधारा' संकलन - आशीष त्रिपाठी की विस्तृत आलोचना में वो लिखते हैं -
"आलोचना एक सांस्कृतिक कर्म है।"
इसी संदर्भ में साहित्य के बारे में वे आगे कहते हैं -
"भाषा विवेक से काव्य विवेक यही साहित्य की पहचान है।" 

आलोचना
, आलोचक का धर्म है, जो बेहिचक नीर-क्षीर की पहचान करने की आवश्यकता पर बल देती है। आलोचना को लेकर उनका मत एकदम स्पष्ट है। वे कहते हैं -
आलोचना कोई साझा कार्यक्रम नहीं  है। 
आलोचना मेरे लिए रचनात्मक कार्य है और मेरा स्वधर्म है, आपद्धर्म नहीं 

उनके रचना संसार में जीवन के हर रंग दृष्टिगोचर होते हैं। साहित्य के प्रत्येक पहलू पर उनकी नजर पड़ी है।
स्त्री लेखकों के उपन्यासों और आत्मकथाओं पर उन्होंने बृहद लेखन किया है। उनका यह कार्य हिंदी में स्त्री विमर्श का प्रारंभ माना जाता है। 

गोरखपुर में ही उनका पूरा जीवन बीता, किंतु साहित्य सृजन के लिए वे गोरखपुर, कोलकाता, दिल्ली, लखनऊ और प्रयागराज आदि की बराबर यात्रा करते रहे। वे निष्ठा और मेहनत का संगम थे। प्रगतिशील आंदोलन के इस प्रहरी ने सदैव मनुष्यता को महत्व दिया। हिंदी साहित्य का यह महामानव, मानवता का बड़ा पोषक व भारतीय संस्कृति का वाहक था।

विचारों की कसौटी पर जीवन दृष्टि को अपनी रचनाओं में कसते हुए, उन्होंने हिंदी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान बनाई। आलोचना जैसे गंभीर विषय को संप्रेषणीय आलोचना का रूप देना उनकी हिंदी साहित्य को एक विशाल देन है। डॉनामवर सिंह ने सत्य ही उनके बारे में कहा है -
"वह शरीर से लघु मानव थेलेकिन मन व विचार से बड़े थे।"

वरिष्ठ कवि व शीर्ष आलोचक डॉ० परमानंद श्रीवास्तव का साहित्यिक संसार हिंदी साहित्य की विपुल धरोहर है
, जो आने वाली पीढ़ी के लिए सदैव प्रेरणा स्रोत बना रहेगा।

जीवन परिचय : डॉपरमानंद श्रीवास्तव

जन्म

१०  फ़रवरी १९३५, बाँसगाँव, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश

निधन

   नवंबर २०१३, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश

शिक्षा

प्रारंभिक शिक्षा

पैतृक गाँव में

उच्च शिक्षा

  • एम(हिंदी साहित्य)- १९५६ , आगरा विश्वविद्यालय

  • पीएचडी०  १९६३  

  • डीलिट१९७५ -गोरखपुर विश्वविद्यालय

अकादमिक परिचय

  • अध्यक्षता और अध्यापन, सेंट एंड्रयूज़ कॉलेज, गोरखपुर १९५६ - १९६९ विभागाध्यक्ष

  • प्रोफ़ेसर, गोरखपुर विश्वविद्यालय १९६९ - सेवानिवृत्ति तक

  • प्रोफ़ेसर, वर्धमान विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल

  • प्रोफ़ेसर, प्रेमचंद पीठ १९८९ - १९९५ 

  • विशिष्ट सदस्य, केंद्रीय साहित्य अकादमी , साधारण सभा एवं परामर्श मंडल १९८३-१९९२

साहित्यिक रचनाएँ

काव्य संग्रह

  • उजली हँसी के छोर पर- १९६० 

  • अगली शताब्दी के बारे में- १९८० 

  • चौथा शब्द- १९९३

  • एक अनायक का वृतांत- २००४

आलोचना कृतियाँ

  • नई कविता का परिप्रेक्ष्य- १९६५ 

  • हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया-१९६५ 

  • कवि कर्म और काव्य भाषा -१९७५

  • उपन्यास का यथार्थ और रचनात्मक भाषा- १९७६

  • जैनेंद्र के उपन्यास- १९७६ 

  • समकालीन कविता का व्याकरण- १९८०

  • समकालीन कविता का यथार्थ- १९८०

  • जायसी-१९८१

  • निराला- १९८५

  • शब्द और मनुष्य- १९८८ 

  • उपन्यास का पुनर्जन्म-  १९९५

  • कविता का अर्थात- १९९९

  • कविता का उत्तर जीवन-  २००४ 

कहानी

  • रुका हुआ समय

  • नींद में मृत्यु

  • इस बार सपने में

डायरी

  • एक विस्थापित की डायरी- २००५ 

निबंध

  • अंधेरे कुएं से आवाज-  २००५

संपादन

  • 'साखी' का संपादन

  • राजकमल समूह की प्रसिद्ध पत्रिका 'आलोचना' का संपादन

सम्मान

  • उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा 'समकालीन कविता का यथार्थ' के लिए आचार्य राम चंद्र शुक्ल पुरस्कार

  • व्यास सम्मान- २००६ 

  • भारत- भारती सम्मान, उत्तर प्रदेश- २००६ 

  • साहित्य भूषण सम्मान

  • द्विजदेव सम्मान


संदर्भ

  •   www.wikipedia.org

  •  www.amarujala.com

  •  आलोचना और विचारधारा- नामवर सिंह

  •  sarokarnama.blogspot.com

  • कविता का उत्तर जीवन- परमानंद श्रीवास्तव

  •   www.dainikjagaran.com

  • कवि का अर्थात वृहत्तर होना चाहिए - साक्षात्कार : परमानंद श्रीवास्तव, सुशील सिद्धार्थ से बातचीत

  • आलोचना कोई साझा कार्यक्रम नहीं है।ओम निश्चल से बातचीत, मेरे साक्षात्कार - परमानंद श्रीवास्तव

  • क्या है कविता का उत्तर जीवन - करुणा गुप्ता से बातचीत, मेरे साक्षात्कार - परमानंद श्रीवास्तव

  • मेरे साक्षात्कार - परमानंद श्रीवास्तव, पृष्ठ संख्या १४९

लेखक परिचय


मनीष कुमार श्रीवास्तव 

परास्नातक - भौतिकी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

भिटारी, रायबरेली, उत्तर प्रदेश

अध्यापक और साहित्यकार

मेरी एक पुस्तक "प्रकाश : एक द्युति" (हाइकु क्षितिज) प्रकाशित है। अनेक काव्य साझा संग्रह, एक साझा कहानी संग्रह भी प्रकाशित हैं। कई रचनाएँ व आलेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में व सोशल मीडिया पर प्रकाशित हैं।

5 comments:

  1. मनीष जी, आपने डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा। इस लेख के माध्यम से मुझे उनके साहित्य को जानने का अवसर मिला। लेख हेतु आपको बधाई एवं साधुवाद।

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    Replies
    1. आदरणीय, आपने आलेख पढ़ा आपको अच्छा लगा
      सुंदर सी प्रतिक्रिया भी दी।
      आपका हार्दिक आभार एवं धन्यवाद

      Delete
  2. मनीष जी, परमानंद श्रीवास्तव जी के साहित्य सृजन और व्यक्तित्व से परिचय कराता आपका लेख बहुत पसंद आया। उनकी संवेदना को व्यक्त करती उनकी कविताओं और आलोचना के सम्बन्ध में उनके विचारों का सुन्दर संकलन प्रस्तुत किया है आपने। इस सार्थक लेख के लिए आपको बधाई और शुक्रिया।

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  3. आदरणीय परमानंद श्रीवास्तव जी नई आलोचना के प्रमुख स्तंभ थे जो अपनी ओजस्वी वक़्तृत्व-कला के माध्यम से निरंतर लेखन में नई प्रतिभाओं को तलाशते थे। उन्होंने अपनी बौद्धिक संवेदनाओं के उद्देश्य से आधुनिक साहित्य में बेहतरीन पुस्तके लिखी हैं। 'शब्द और मनुष्य' उनकी महत्वपूर्ण आलोचनात्मक कृति है। आद. मनीष जी ने इस आलेख में उनके काव्य मूल्यों की अच्छी तरह पड़ताल करके उनके जीवन की यथार्थ अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है। उनके आलेख की समग्रता को देखते हुए परमानंद जी की साहित्य जगत का सामाजिक साथर्कता के साथ विश्लेषणात्मक दर्शन हो रहा है। इस समीक्षात्मक लेख के लिए आपका आभार और असंख्य शुभकामनाएं।

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  4. डॉ. परमानंद श्रीवास्तव जी के व्यक्तिव और कृतित्व से समग्रता के साथ परिचित कराता एक समृद्ध लेख। मनीष जी को बहुत बहुत बधाई।

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