Friday, February 18, 2022

जो जीती हूँ, वही लिखती हूँ : कृष्णा सोबती

 

"हमसे पूछिए तो गेंहू की तंदूरी रोटी पर मक्खन और धीमी-धीमी आँच पर पकी चौवसे की इलाही गंध, इसके आगे दुनिया की सब नियामतें फीकी हैं। दुनिया की सब छोटी-बड़ी नियामतों के मुकाबले में गेहूँ की रोटी पर हज़ार-हज़ार बार फ़िदा हूँ। चपाती खूब अच्छी बनाती हूँ। तवे और तंदूर दोनों की।''  

कृष्णा सोबती जी की इन पंक्तियों में जहाँ एक ओर उनके जीवन का सोंधापन है, तो दूसरी ओर दिल्ली के कनॉट प्लेस के चाइनीज फूड, पिज़्ज़ा, पास्ता और डस्टी आइसक्रीम के प्रति उनका लगाव उन्हें जानने वाले आज भी नहीं भूलते। शिमला की बर्फ़ीली रात में पकौड़ों के साथ मसाले वाली चाय, अपने जन्मदिन पर पाइनएप्पल केक काटने वाली और अतिथियों का स्वागत अंगूर से करने वाली कृष्णा जी के लेखन तक पहुँचने के लिए आप इन बातों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते, क्योंकि यह तो शुरुआत भर है उनके व्यक्तित्व को छूने की।  

एक पुरुष प्रधान समाज में एक महिला लेखक, जिसका अकेलापन, उसकी वेशभूषा, उन्मुक्त आचरण और इन सबसे परे समाज में स्त्री के लिए वर्जित साहित्य, भाषा व लेखन के मानदंडों ने उन्हें हमेशा चर्चाओं में घेरे रखा।
उनका  खुद का डिज़ाइन किया गया ढीला साटनी गरारा, सिर पर करीने से  लिपटा दुपट्टा और आँखों पर चटख  काला चश्मा उन्हें भीड़ में भी विशिष्ट बना देता था। वह कहती थी, "मुझे अपने वस्त्रों से मुहब्बत है। उसमें मुझे एक शक्ति मिलती है, वे मुझे तटस्थ चलने में सहायभूत होते हैं। मुझे इसकी चिंता नहीं कि वह नौकरशाही वाले लेखकों को पसंद आए या न आए।" अक्सर संध्या के समय वह गलीन रोब और मैचिंग हैट पहनती थीं। उनके अनुसार यह वह समय था, जब वह अपने साहित्य की कलम से अपना एकांत सुनती थी। कृष्णा जी की स्मृतियों को बाँटते हुए नरेश मेहता जी ने लिखा है कि भले ही वह आपके साथ कनॉटप्लेस के गलियारों में चल रही हैं अथवा वैगर्स या स्टडी की अपनी प्रिय सीट पर बैठी हैं, कहीं कोई त्रुटि नहीं मिलेगी। जैसे अक्षुण्ण कांगड़ा कलम का प्रयोग किया जा रहा है, गहरे तंबाकू रंग के दुकूल को सर पर कितना होना है, उसे वह उतने ही सधे हुए ढंग से  व्यवस्थित किए होंगी, जिस ढंग से वे कहानियाँ लिखती हैं।

सिर्फ़ वेशभूषा या खान-पान ही नहीं, कृष्णा जी अपने व्यक्तित्व के हर अंदाज में अनूठी थीं। वे दूरदर्शन के अमर धारावाहिक  'बुनियाद' की कुछ समय तक भाषा सलाहकार रहीं। उन्हें टीवी व फ़िल्में देखना बहुत पसंद था। अपने निवास को कलात्मक और व्यवस्थित रखना भी उनका प्रिय शगल था। उम्र को नकारती हुई उनकी लद्दाख की पहाड़ी ट्रेकिंग या ऐसी ही कई साहसिक यात्राएँ उनके जीवन को खुशमिजाजी से रंगे हुए थीं। अपने आप में ही रहकर अपनी अभिरुचियों को पूर्ण करना उनकी आदत में था और यही बातें उनके लेखन को समृद्ध करती रहीं। 
 
१८ फरवरी १९२५ गुजरात (पाकिस्तान ) में जन्मी कृष्णा जी का पूरा नाम सुश्री कृष्णा पृथ्वीराज सोबती है, जिसमें  पृथ्वीराज उनके पिताजी का नाम है और सरनेम सोबती ग्रीक शब्द 'सभूती' से लिया गया है, जो एक ग्रीक सिक्के पर देवनागरी में अंकित है। उनकी साहित्यिक रुचि में उनके पिता का बड़ा योगदान था। अपने संस्मरण 'वे दिन भी क्या दिन थे' में उन्होंने लिखा है, मुझे भारी-भरकम कागज़ों पर लिखना पसंद है। मैं जब छोटी थी, तब मेरे पिताजी मुझे अच्छे कागज़ लाकर देते थे, तब से मैं अच्छे पेपर पर पैसा खर्च करती हूँ।  वे दिन थे जब मुझे सनलाइट बॉण्ड पेपर पाँच रुपये में मिल जाता था, अब मुझे चालीस रुपये देने पड़ते हैं, वही पेपर खरीदने के लिए। मैं हमेशा काली स्याही और इस्कफरस या पार्कर के पेन इस्तेमाल करती हूँ। मेरा पहला पार्कर पेन मुझे मेरे जन्मदिवस के तोहफे़ के रूप में भगवती चरण वर्मा जी ने दिया था। 

ब्रिटिश माहौल में भी भारतीय संस्कार उनकी साहित्यिक समझ की नींव रख चुके थे। विभाजन के दौरान उन्होंने माउंट आबू के राजकुमार तेजसिंह की गवर्नेस का काम किया, उसके बाद वह दिल्ली आ गईं। वहाँ १९५० से ५१ तक आर्मी ऑफ़िसर्स के बच्चों के स्कूल में प्रिंसिपल का पद  संभाला।  १९५२ से १९८० तक में उन्होंने 'एडल्ट लिटरेसी' का संपादन भी संभाला, लेकिन नौकरी के अनुभव उन्हें  रास नहीं आए। १९८० के बाद से वह पूरी तरह स्वतंत्र लेखन करने लगी थीं। 

पंजाबी मूल की कृष्णा जी ने अहिंदी भाषी होते हुए भी हिंदी साहित्य को एक अलग ही साँचे में ढाला है। बचपन दिल्ली और शिमला में बीतने से उनकी लेखनी में एक ओर शहरी छाप तो दूसरी ओर पहाड़ों की शांति और सरलता के टप्पों की गूंज है। राजस्थानी मुहावरे और पंजाबी संस्कृति ने मिलकर उनकी शैली को अलंकृत कर दिया था। बावजूद इसके वह अपने लेखन को लेकर सदैव आलोचनाओं में घिर जातीं। 'हैलो सरवर' में उन्होंने मानो स्वीकारा है कि विवादों से घिरा रहना उनका आवश्यक परिचय हो गया है। 'जिंदगीनामा' के शीर्षक को लेकर उन्हें प्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम जी से बाकायदा कई वर्षों तक क़ानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। 'जिंदगीनामा' को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, तो अश्क जी ने कई सवाल खड़े किए। कृष्णा जी की किताब 'यारों के यार' की भाषा को अभद्र कहा ही गया, लेकिन उनकी बेबाक सोच को तो बार-बार सामाजिक कटघरे में खड़ा किया गया। 

स्त्री चेतना की आवाज़ को अपना माध्यम बनाकर कृष्णा जी ने जीवन के हर संवेदनशील पहलू को छुआ है। उनके व्यक्तित्व की पारदर्शिता और साहस ने उनके पात्रों के जरिए सामूहिक विश्लेषण के सभी तत्वों, परिवार, धर्म, परंपरा, जाति, संस्कृति से जुड़े पुराने विचारों और बिंबों को चुनौती दी है। देश के विभाजन की त्रासदी जितनी देश के लिए दुखद थी, उससे कहीं ज़्यादा महिलाओं लिए रही। आज़ाद भारत के सुखद परिवर्तन के दौर में भी वह उस वेदना को भूल नहीं पाईं। 'डार से बिछुड़ी' और 'सिक्का बदल गया' जैसी रचनाओं में बड़ी ही सजीवता और मार्मिकता के साथ वह तकलीफ उतरी है। 


स्त्रियों के उपेक्षित मर्म और मौन आक्रोश को कृष्णा जी ने विद्रोह का स्वर देते हुए, एक ऐसा कथा समाज बनाया,  जिसमें अनदेखे मुद्दे उजागर हुए। साठ  के उस दशक में अपनी शारीरिक इच्छाओं पर जहाँ स्त्री का बात करना भी गुनाह था, तब 'मित्रो मरजानी' की उनकी मित्रो उसे समाज में एक आवश्यक सवाल बना देती है। 'सूरजमुखी अँधेरे के' की रत्ती बचपन में ही बालात्कार का दंश झेलती है और उम्र भर उस ग्रंथि से जूझती ही रहती है। 'समय सरगम' की अरण्या वृद्धावस्था में भी अपनी शर्तों को निभाती है। 'ए लड़की' उनकी माँ को समर्पित है, तो 'ज़िंदगीनामा' की शाहनी का जीवन उनकी नानी का हिस्सा है। विभाजन पर इतना सौंदर्यपरक, एक मीठी कविता जैसा उपन्यास शायद ही दुबारा लिखा जा सकता है। 'गुजरात से गुजरात' और 'हेलो सरवर' उनकी ज़िंदगी से जुड़े संस्मरण हैं, तो 'वे भी क्या दिन थे' में महत्वपूर्ण क्षण। शब्द चित्रों की एक घूमती हुई रील 'हम हशमत' के अंत में हशमत के परिचय से सुखद विस्मय में डाल देती है। 


कृष्णा जी की रचनाओं में स्त्री मन की गूढ़तम गुत्थियाँ सुलझी हैं, तो दूसरी ओर वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक विषमताओं का प्रखर विरोध भी मिला है। अपने अनुभवों को लेखन में प्रतिबिंबित करने के साथ उसकी सामाजिक कल्पना भी उनका प्रयास रहा है। दिल्ली के इतिहास और भूगोल को भी वह बहुत गहरे से जानती थीं। भारतीय इतिहास की कुछ निर्णायक घटनाओं के बीच वह एक सघन नागरिक की तरह रहीं। उन्होंने आज़ादी की पहली सुबह की ख़ुशी और उसमें उगती विभाजन की सिसकियों को छूकर महसूस किया। बापू की अंतिम यात्रा में लाखों आँखों की नमी से वो भीगती रही थीं।

  

"दोस्तों चौंकिएगा नहीं, अगर हम आपसे कहें कि एक शाम अपने घर पर अज्ञेय को देख कर हमने यह ठान लिया कि लेखक जरूर बन कर रहेंगे। वैसे अज्ञेय हमें नौसिखिया समझ कर भी बात करते, तो हमें अच्छा ही लगता, लेकिन उन्होंने हमसे बराबरी से बात की! गंभीरता से पूछा - अब तक कितनी कहानियाँ लिख चुके हैं....."  हमें न अटपटा लगा, न संकोच हुआ। कहा, जी सिर्फ एक, 'सिक्का बदल गया'।  उसे 'प्रतीक' (अज्ञेय जी की पत्रिका ) में भेजा है। अज्ञेय हल्का सा मुस्कुराए। साहबो वो एक यादगार शाम थी। वात्स्यायन जी ने 'प्रतीक' का अंक थमा दिया और इतना ही कहा, देखिएगा। 'प्रतीक' हमने मेज़ पर रख दिया और तकियों के सहारे देर तक लेटे रहे। टेबल लैंप की रौशनी में छत की ओर देखते रहे। उस रात वाले लेखक से ज्यादा महान लेखक हम फिर कभी अपनी ज़िंदगी में न बने। और न ही हमने आराम करने को वैसा कलाकारी पोज़ कभी बनाया।" (मार्फत दिल्ली )


'मार्फ़त दिल्ली'  में उन्होंने आज़ादी के बाद के समय की कुछ सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक छवियों को अंकित किया है, जो भविष्य में हिंदी को प्रमुख भाषा के रूप देख रही थीं। यह वह समय था, जब ब्रिटिश सरकार के क्षेत्र से निकल कर दिल्ली अपनी औपनिवेशिक आदतों और देसी शैली के बीच कुछ नया कर रही थी। मंडी हाउस और कनॉट प्लेस के कॉफी हाउस और रेस्त्रां उन दिनों साथियों जैसी भूमिका निभाते थे। नए विचारों और विचारधाराओं की ऊष्मा का प्रचार प्रसार लेखन को परिपक्व बनाता था। शिवनाथ जी ,कृष्णा जी के सर्वाधिक निकटतम मित्रों में से  रहे हैं। जैनेंद्र, अज्ञेय, सुमित्रानंदन पंत, बालकृष्ण शर्मा नवीन, उपेंद्रनाथ अश्क, उदयशंकर भट्ट, गोपालप्रसाद व्यास, विष्णु प्रभाकर, सत्यवती मालिक, भगवती चरण वर्मा, नरेंद्र शर्मा, वाचस्पति पाठक, यशपाल, डॉ मोतीचंद, देवेंद्र सत्यार्थी आदि सबके साथ कनॉट प्लेस के राजकमल की मधुर यादें उन्होंने बाँटी हैं - 

कौन जानेगा 
कौन समझेगा 
अपने वतनों को छोड़ने 
और उनसे मुँह मोड़ने के दर्दों को जेहलम और चनाब 
बहते रहेंगे इसी धरती पर 
इसी तरह।
हर रुत-मौसम में 
इसी तरह 
बिलकुल इसी तरह 
सिर्फ 
हम यहाँ नहीं होंगे।
नहीं होंगे ( ज़िंदगीनामा )

अपनी लेखनी से हर बार चौंका देने वाले विषय में जाने कितनी कहानियाँ  समेटे २५ जनवरी २०१९ को वह हमेशा के लिए शांत हो गईं, लेकिन उनके लेखन की गूँज अब भी साहित्य जगत में बुलंद सुनाई देती है।

कृष्णा सोबती : जीवन परिचय

जन्म

१८  फ़रवरी १९२५ , गुजरात (संबद्ध भाग अब पाकिस्तान में)

निधन

२५ जनवरी २०१९ (उम्र ९३)

पिता

पृथ्वीराज

राष्ट्रीयता

भारतीय

व्यवसाय

आख्यायिका लेखन

साहित्यिक रचनाएँ


कहानी संग्रह

  • बादलों के घेरे - १९८० 

आख्यायिका

  • डार से बिछुड़ी - १९५८ 

  • मित्रो मरजानी - १९६७ 

  • यारों के यार - १९६८ 

  • तिन पहाड़ - १९६८ 

  • ऐ लड़की - १९९१ 

  • जैनी मेहरबान सिंह -2007 (चल-चित्रीय पटकथा; 'मित्रो मरजानी' की रचना के बाद ही रचित, परंतु चार दशक बाद २००७  में प्रकाशित)

उपन्यास

  • सूरजमुखी अँधेरे के - १९७२ 

  • ज़िंदगी़नामा - १९७९ 

  • दिलोदानिश - १९९३ 

  • समय सरगम - २००० 

  • गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान - २०१७  (निजी जीवन को स्पर्श करती औपन्यासिक रचना)

विचार-संवाद-संस्मरण

  • हम हशमत (तीन भागों में)

  • सोबती एक सोहबत

  • शब्दों के आलोक में

  • सोबती वैद संवाद

  • मुक्तिबोध : एक व्यक्तित्व सही की तलाश में - २०१७ 

  • लेखक का जनतंत्र - २०१८ 

  • मार्फ़त दिल्ली - २०१८ 

  • यात्रा-आख्यान

  • बुद्ध का कमण्डल : लद्दाख़

पुरस्कार व सम्मान

  • कछा चुड़ामणी पुरस्कार १९९९ 

  • शिरोमणी पुरस्कार १९८१ 

  • हिंदी अकादमी अवार्ड १९८२ 

  • शलाका पुरस्कार २०००-२००१ 

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार १९८० 

  • साहित्य अकादमी फेलोशिप १९९६ 

  • ज्ञानपीठ पुरस्कार (भारतीय साहित्य का सर्वोच्च सम्मान ) २०१७ 


संदर्भ 

  • मार्फ़त दिल्ली - कृष्णा सोबती  
  • उपन्यास की परख - डॉ विवेक शंकर - अर्चना उपाध्याय 
  • कृष्णा सोबती का साहित्य और समाज - डॉ० कायनात क़ाज़ी

लेखक परिचय


अर्चना उपाध्याय 

डायरेक्टर 'अंतरा सत्व फाउंडेशन' 
डिज़ाइनर, टेक्सटाइल मिनिस्ट्री 
बुकट्यूबर 'अंतरा द बुकशेल्फ'

16 comments:

  1. ज्ञानवर्धक लेख इसमें कृष्णा सोबती जी का संपूर्ण व्यक्तित्व दर्शाने का अत्यंत सराहनीय प्रयास किया गया हैं । बहुत सुंदर प्रस्तुति ।

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  2. वाह, नमन कृष्णा जी को

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  3. अर्चना उपाध्याय जी के इस आलेख ने बहुत ही सधी भाषा-शैली में कृष्णा सोबती जी की रचनाओं सहित उनके जीवन-अंश को भी बखूबी चित्रित किया। बहुत-बहुत साधुवाद!

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  4. अर्चना जी, सोबती जी का बहुत बढ़िया परिचय। विभाजन की त्रासदी झेलने के बाद सोबती जी अगला साहित्यिक सफर कितना यादगार, चर्चित रहा। उनके व्यक्तित्व के बारे में अनेक किस्से पढ़े है। साहित्य में यह उम्दा बंधनमुक्त जीवन कितना विविधता से भरा था। सादर नमन।🙏💐

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  5. कृष्णा सोबती को बहुत अच्छे से जानने को मिला मैंम

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  6. कृष्णा सोबती जी के पूरे व्यक्तित्व को उकेरता बहुत खूबसूरत आलेख है ।

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  7. कृष्णा सोबती जी का उत्कृष्ट कार्य आपने सुंदर शब्दों के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाया है,कोटिश: धन्यवाद🙏🙏

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  8. अर्चना जी, कृष्णा सोबती जी के जीवन एवं कृतित्व पर सुंदर लेख के लिए आपको बधाई।शुभकामनाएँ। 💐💐

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  9. कृष्णा सोबती जी के जीवन एवं साहित्य यात्रा को समेटे हुए बहुत अच्छा लेख है। इस जानकारी भरे लेख के लिए अर्चना जी को बहुत बहुत बधाई।

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  10. अर्चना जी, कृष्णा जी के अनोखे एवं ऊपर से चटकदार और अंदर से संजीदे व्यक्तित्व, तथा ज़िन्दगी के तजुर्बों को साहित्य में उड़ेलने की उनकी कहानी को बहुत सुन्दर तरीक़े से आपने पेश किया है। आपको इस अनुपम लेख के लिए बधाई और आभार।

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  11. आज सुबह जब पटल पर ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मानित आदरणीया कृष्णा सोबती जी पर आलेख और चित्र देखा तो अपने आप दोनों हाथ प्रणाम करके मस्तक झुक गया। कुछ उत्कर्ष साहित्यिक व्यक्तित्व ऐसे होते है जिनके बारे में सुनकर या पढ़कर विलक्षण ताजगी का प्रभाव होने लगता है। उन्हीं में से आदरणीया कृष्णा जी हैं जिन्होंने स्त्री की अस्मिता और स्त्री चरित्रों को निर्भिकता और खुलेपन से गढ़ने का रचनाकर्म किया है। उनके लेखन का आयाम सुविस्तृत है जो खासतौर पर स्त्रियों के चैतन्य संवेदनाओं की जागृत विरलता को विशिष्ट पद्धति से प्रस्तुत करता है। आदरणीया अर्चना जी का सौभाग्य है जो उन्हें इतने महान व्यकितत्व वाले साहित्यकार पर लेख रचने का मौका मिला। आपके आलेख से कृष्णा जी के कथा-संसार एवं उनके पात्रों का विस्तृत और रोचक रूप से परिचय हुआ है। सुंदर और सहज शब्दों में गढ़ा गया आलेख उनके जीवन के उच्चतम कीर्ति की आधारभित्ति है। आपका बहुत बहुत आभार और असंख्य शुभकामनाएं।

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  12. बहुत सुंदर आलेख
    कृष्णा सोबती पर
    पढ़कर दिल बाग बाग हो गया।
    👌👌👌

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  13. 'किताबें पढ़ने से दुनिया बदल जाती है' , कृष्णा सोबती जी की यह पंक्ति हमेशा ही पढ़ने को प्रेरित करती रही है। आज अर्चना जी के इस लेख के माध्यम से, कृष्णा जी को और भी करीब से जानने का अवसर मिला है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर बहुत बढ़िया लेख। अर्चना जी आपको बहुत बहुत बधाई।

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  14. कृष्णा सोबती जी को पढ़ना मेरे लिए हमेशा से ही बहुत रुचिकर रहा है, ncrt की छठवीं की हिंदी पुस्तक ' वसंत 'में कृष्णा जी द्वारा लिखा गया संस्मरण ' बचपन ' में उन्होंने अपने बचपन व शिमला का बड़ा खूबसूरत वर्णन किया है, और इस आलेख द्वारा आपने बहुत सी और रोचक बातों की जानकारी बड़ी सरलता से दी है अर्चना जी।आपको असीम शुभकामनाएँ व आभार।

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  15. अर्चना जी, अपने बहुत संतुलित प्रामाणिक और उम्दा लिखा है. यह लेख मुझसे छूट ही गया था, वह तो भला हो अनूप भार्गव जी का कि उन्होंने मुझसे इस लेख को पढ़ने की पुरज़ोर सिफ़ारिश कर दी. आपको हार्दिक बधाई.

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