उनका खुद का डिज़ाइन किया गया ढीला साटनी गरारा, सिर पर करीने से लिपटा दुपट्टा और आँखों पर चटख काला चश्मा उन्हें भीड़ में भी विशिष्ट बना देता था। वह कहती थी, "मुझे अपने वस्त्रों से मुहब्बत है। उसमें मुझे एक शक्ति मिलती है, वे मुझे तटस्थ चलने में सहायभूत होते हैं। मुझे इसकी चिंता नहीं कि वह नौकरशाही वाले लेखकों को पसंद आए या न आए।" अक्सर संध्या के समय वह गलीन रोब और मैचिंग हैट पहनती थीं। उनके अनुसार यह वह समय था, जब वह अपने साहित्य की कलम से अपना एकांत सुनती थी। कृष्णा जी की स्मृतियों को बाँटते हुए नरेश मेहता जी ने लिखा है कि भले ही वह आपके साथ कनॉटप्लेस के गलियारों में चल रही हैं अथवा वैगर्स या स्टडी की अपनी प्रिय सीट पर बैठी हैं, कहीं कोई त्रुटि नहीं मिलेगी। जैसे अक्षुण्ण कांगड़ा कलम का प्रयोग किया जा रहा है, गहरे तंबाकू रंग के दुकूल को सर पर कितना होना है, उसे वह उतने ही सधे हुए ढंग से व्यवस्थित किए होंगी, जिस ढंग से वे कहानियाँ लिखती हैं।
१८ फरवरी १९२५ गुजरात (पाकिस्तान ) में जन्मी कृष्णा जी का पूरा नाम सुश्री कृष्णा पृथ्वीराज सोबती है, जिसमें पृथ्वीराज उनके पिताजी का नाम है और सरनेम सोबती ग्रीक शब्द 'सभूती' से लिया गया है, जो एक ग्रीक सिक्के पर देवनागरी में अंकित है। उनकी साहित्यिक रुचि में उनके पिता का बड़ा योगदान था। अपने संस्मरण 'वे दिन भी क्या दिन थे' में उन्होंने लिखा है, मुझे भारी-भरकम कागज़ों पर लिखना पसंद है। मैं जब छोटी थी, तब मेरे पिताजी मुझे अच्छे कागज़ लाकर देते थे, तब से मैं अच्छे पेपर पर पैसा खर्च करती हूँ। वे दिन थे जब मुझे सनलाइट बॉण्ड पेपर पाँच रुपये में मिल जाता था, अब मुझे चालीस रुपये देने पड़ते हैं, वही पेपर खरीदने के लिए। मैं हमेशा काली स्याही और इस्कफरस या पार्कर के पेन इस्तेमाल करती हूँ। मेरा पहला पार्कर पेन मुझे मेरे जन्मदिवस के तोहफे़ के रूप में भगवती चरण वर्मा जी ने दिया था।
पंजाबी मूल की कृष्णा जी ने अहिंदी भाषी होते हुए भी हिंदी साहित्य को एक अलग ही साँचे में ढाला है। बचपन दिल्ली और शिमला में बीतने से उनकी लेखनी में एक ओर शहरी छाप तो दूसरी ओर पहाड़ों की शांति और सरलता के टप्पों की गूंज है। राजस्थानी मुहावरे और पंजाबी संस्कृति ने मिलकर उनकी शैली को अलंकृत कर दिया था। बावजूद इसके वह अपने लेखन को लेकर सदैव आलोचनाओं में घिर जातीं। 'हैलो सरवर' में उन्होंने मानो स्वीकारा है कि विवादों से घिरा रहना उनका आवश्यक परिचय हो गया है। 'जिंदगीनामा' के शीर्षक को लेकर उन्हें प्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम जी से बाकायदा कई वर्षों तक क़ानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। 'जिंदगीनामा' को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, तो अश्क जी ने कई सवाल खड़े किए। कृष्णा जी की किताब 'यारों के यार' की भाषा को अभद्र कहा ही गया, लेकिन उनकी बेबाक सोच को तो बार-बार सामाजिक कटघरे में खड़ा किया गया।
स्त्री चेतना की आवाज़ को अपना माध्यम बनाकर कृष्णा जी ने जीवन के हर संवेदनशील पहलू को छुआ है। उनके व्यक्तित्व की पारदर्शिता और साहस ने उनके पात्रों के जरिए सामूहिक विश्लेषण के सभी तत्वों, परिवार, धर्म, परंपरा, जाति, संस्कृति से जुड़े पुराने विचारों और बिंबों को चुनौती दी है। देश के विभाजन की त्रासदी जितनी देश के लिए दुखद थी, उससे कहीं ज़्यादा महिलाओं लिए रही। आज़ाद भारत के सुखद परिवर्तन के दौर में भी वह उस वेदना को भूल नहीं पाईं। 'डार से बिछुड़ी' और 'सिक्का बदल गया' जैसी रचनाओं में बड़ी ही सजीवता और मार्मिकता के साथ वह तकलीफ उतरी है।
स्त्रियों के उपेक्षित मर्म और मौन आक्रोश को कृष्णा जी ने विद्रोह का स्वर देते हुए, एक ऐसा कथा समाज बनाया, जिसमें अनदेखे मुद्दे उजागर हुए। साठ के उस दशक में अपनी शारीरिक इच्छाओं पर जहाँ स्त्री का बात करना भी गुनाह था, तब 'मित्रो मरजानी' की उनकी मित्रो उसे समाज में एक आवश्यक सवाल बना देती है। 'सूरजमुखी अँधेरे के' की रत्ती बचपन में ही बालात्कार का दंश झेलती है और उम्र भर उस ग्रंथि से जूझती ही रहती है। 'समय सरगम' की अरण्या वृद्धावस्था में भी अपनी शर्तों को निभाती है। 'ए लड़की' उनकी माँ को समर्पित है, तो 'ज़िंदगीनामा' की शाहनी का जीवन उनकी नानी का हिस्सा है। विभाजन पर इतना सौंदर्यपरक, एक मीठी कविता जैसा उपन्यास शायद ही दुबारा लिखा जा सकता है। 'गुजरात से गुजरात' और 'हेलो सरवर' उनकी ज़िंदगी से जुड़े संस्मरण हैं, तो 'वे भी क्या दिन थे' में महत्वपूर्ण क्षण। शब्द चित्रों की एक घूमती हुई रील 'हम हशमत' के अंत में हशमत के परिचय से सुखद विस्मय में डाल देती है।
कृष्णा जी की रचनाओं में स्त्री मन की गूढ़तम गुत्थियाँ सुलझी हैं, तो दूसरी ओर वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक विषमताओं का प्रखर विरोध भी मिला है। अपने अनुभवों को लेखन में प्रतिबिंबित करने के साथ उसकी सामाजिक कल्पना भी उनका प्रयास रहा है। दिल्ली के इतिहास और भूगोल को भी वह बहुत गहरे से जानती थीं। भारतीय इतिहास की कुछ निर्णायक घटनाओं के बीच वह एक सघन नागरिक की तरह रहीं। उन्होंने आज़ादी की पहली सुबह की ख़ुशी और उसमें उगती विभाजन की सिसकियों को छूकर महसूस किया। बापू की अंतिम यात्रा में लाखों आँखों की नमी से वो भीगती रही थीं।
"दोस्तों चौंकिएगा नहीं, अगर हम आपसे कहें कि एक शाम अपने घर पर अज्ञेय को देख कर हमने यह ठान लिया कि लेखक जरूर बन कर रहेंगे। वैसे अज्ञेय हमें नौसिखिया समझ कर भी बात करते, तो हमें अच्छा ही लगता, लेकिन उन्होंने हमसे बराबरी से बात की! गंभीरता से पूछा - अब तक कितनी कहानियाँ लिख चुके हैं....." हमें न अटपटा लगा, न संकोच हुआ। कहा, जी सिर्फ एक, 'सिक्का बदल गया'। उसे 'प्रतीक' (अज्ञेय जी की पत्रिका ) में भेजा है। अज्ञेय हल्का सा मुस्कुराए। साहबो वो एक यादगार शाम थी। वात्स्यायन जी ने 'प्रतीक' का अंक थमा दिया और इतना ही कहा, देखिएगा। 'प्रतीक' हमने मेज़ पर रख दिया और तकियों के सहारे देर तक लेटे रहे। टेबल लैंप की रौशनी में छत की ओर देखते रहे। उस रात वाले लेखक से ज्यादा महान लेखक हम फिर कभी अपनी ज़िंदगी में न बने। और न ही हमने आराम करने को वैसा कलाकारी पोज़ कभी बनाया।" (मार्फत दिल्ली )
'मार्फ़त दिल्ली' में उन्होंने आज़ादी के बाद के समय की कुछ सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक छवियों को अंकित किया है, जो भविष्य में हिंदी को प्रमुख भाषा के रूप देख रही थीं। यह वह समय था, जब ब्रिटिश सरकार के क्षेत्र से निकल कर दिल्ली अपनी औपनिवेशिक आदतों और देसी शैली के बीच कुछ नया कर रही थी। मंडी हाउस और कनॉट प्लेस के कॉफी हाउस और रेस्त्रां उन दिनों साथियों जैसी भूमिका निभाते थे। नए विचारों और विचारधाराओं की ऊष्मा का प्रचार प्रसार लेखन को परिपक्व बनाता था। शिवनाथ जी ,कृष्णा जी के सर्वाधिक निकटतम मित्रों में से रहे हैं। जैनेंद्र, अज्ञेय, सुमित्रानंदन पंत, बालकृष्ण शर्मा नवीन, उपेंद्रनाथ अश्क, उदयशंकर भट्ट, गोपालप्रसाद व्यास, विष्णु प्रभाकर, सत्यवती मालिक, भगवती चरण वर्मा, नरेंद्र शर्मा, वाचस्पति पाठक, यशपाल, डॉ मोतीचंद, देवेंद्र सत्यार्थी आदि सबके साथ कनॉट प्लेस के राजकमल की मधुर यादें उन्होंने बाँटी हैं -
कौन समझेगा
अपने वतनों को छोड़ने
और उनसे मुँह मोड़ने के दर्दों को जेहलम और चनाब
बहते रहेंगे इसी धरती पर
इसी तरह।
हर रुत-मौसम में
इसी तरह
बिलकुल इसी तरह
सिर्फ
हम यहाँ नहीं होंगे।
नहीं होंगे ( ज़िंदगीनामा )
अपनी लेखनी से हर बार चौंका देने वाले विषय में जाने कितनी कहानियाँ समेटे २५ जनवरी २०१९ को वह हमेशा के लिए शांत हो गईं, लेकिन उनके लेखन की गूँज अब भी साहित्य जगत में बुलंद सुनाई देती है।
संदर्भ
- मार्फ़त दिल्ली - कृष्णा सोबती
- उपन्यास की परख - डॉ विवेक शंकर - अर्चना उपाध्याय
- कृष्णा सोबती का साहित्य और समाज - डॉ० कायनात क़ाज़ी
डायरेक्टर 'अंतरा सत्व फाउंडेशन'
डिज़ाइनर, टेक्सटाइल मिनिस्ट्री
बुकट्यूबर 'अंतरा द बुकशेल्फ'
ज्ञानवर्धक लेख इसमें कृष्णा सोबती जी का संपूर्ण व्यक्तित्व दर्शाने का अत्यंत सराहनीय प्रयास किया गया हैं । बहुत सुंदर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteवाह, नमन कृष्णा जी को
ReplyDeleteअर्चना उपाध्याय जी के इस आलेख ने बहुत ही सधी भाषा-शैली में कृष्णा सोबती जी की रचनाओं सहित उनके जीवन-अंश को भी बखूबी चित्रित किया। बहुत-बहुत साधुवाद!
ReplyDeleteअर्चना जी, सोबती जी का बहुत बढ़िया परिचय। विभाजन की त्रासदी झेलने के बाद सोबती जी अगला साहित्यिक सफर कितना यादगार, चर्चित रहा। उनके व्यक्तित्व के बारे में अनेक किस्से पढ़े है। साहित्य में यह उम्दा बंधनमुक्त जीवन कितना विविधता से भरा था। सादर नमन।🙏💐
ReplyDeleteकृष्णा सोबती को बहुत अच्छे से जानने को मिला मैंम
ReplyDeleteकृष्णा सोबती जी के पूरे व्यक्तित्व को उकेरता बहुत खूबसूरत आलेख है ।
ReplyDeleteकृष्णा सोबती जी का उत्कृष्ट कार्य आपने सुंदर शब्दों के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाया है,कोटिश: धन्यवाद🙏🙏
ReplyDeleteअर्चना जी, कृष्णा सोबती जी के जीवन एवं कृतित्व पर सुंदर लेख के लिए आपको बधाई।शुभकामनाएँ। 💐💐
ReplyDeleteकृष्णा सोबती जी के जीवन एवं साहित्य यात्रा को समेटे हुए बहुत अच्छा लेख है। इस जानकारी भरे लेख के लिए अर्चना जी को बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteअर्चना जी, कृष्णा जी के अनोखे एवं ऊपर से चटकदार और अंदर से संजीदे व्यक्तित्व, तथा ज़िन्दगी के तजुर्बों को साहित्य में उड़ेलने की उनकी कहानी को बहुत सुन्दर तरीक़े से आपने पेश किया है। आपको इस अनुपम लेख के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteआज सुबह जब पटल पर ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मानित आदरणीया कृष्णा सोबती जी पर आलेख और चित्र देखा तो अपने आप दोनों हाथ प्रणाम करके मस्तक झुक गया। कुछ उत्कर्ष साहित्यिक व्यक्तित्व ऐसे होते है जिनके बारे में सुनकर या पढ़कर विलक्षण ताजगी का प्रभाव होने लगता है। उन्हीं में से आदरणीया कृष्णा जी हैं जिन्होंने स्त्री की अस्मिता और स्त्री चरित्रों को निर्भिकता और खुलेपन से गढ़ने का रचनाकर्म किया है। उनके लेखन का आयाम सुविस्तृत है जो खासतौर पर स्त्रियों के चैतन्य संवेदनाओं की जागृत विरलता को विशिष्ट पद्धति से प्रस्तुत करता है। आदरणीया अर्चना जी का सौभाग्य है जो उन्हें इतने महान व्यकितत्व वाले साहित्यकार पर लेख रचने का मौका मिला। आपके आलेख से कृष्णा जी के कथा-संसार एवं उनके पात्रों का विस्तृत और रोचक रूप से परिचय हुआ है। सुंदर और सहज शब्दों में गढ़ा गया आलेख उनके जीवन के उच्चतम कीर्ति की आधारभित्ति है। आपका बहुत बहुत आभार और असंख्य शुभकामनाएं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर आलेख
ReplyDeleteकृष्णा सोबती पर
पढ़कर दिल बाग बाग हो गया।
👌👌👌
'किताबें पढ़ने से दुनिया बदल जाती है' , कृष्णा सोबती जी की यह पंक्ति हमेशा ही पढ़ने को प्रेरित करती रही है। आज अर्चना जी के इस लेख के माध्यम से, कृष्णा जी को और भी करीब से जानने का अवसर मिला है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर बहुत बढ़िया लेख। अर्चना जी आपको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteकृष्णा सोबती जी को पढ़ना मेरे लिए हमेशा से ही बहुत रुचिकर रहा है, ncrt की छठवीं की हिंदी पुस्तक ' वसंत 'में कृष्णा जी द्वारा लिखा गया संस्मरण ' बचपन ' में उन्होंने अपने बचपन व शिमला का बड़ा खूबसूरत वर्णन किया है, और इस आलेख द्वारा आपने बहुत सी और रोचक बातों की जानकारी बड़ी सरलता से दी है अर्चना जी।आपको असीम शुभकामनाएँ व आभार।
ReplyDeleteBahut achha likha apne
ReplyDeleteअर्चना जी, अपने बहुत संतुलित प्रामाणिक और उम्दा लिखा है. यह लेख मुझसे छूट ही गया था, वह तो भला हो अनूप भार्गव जी का कि उन्होंने मुझसे इस लेख को पढ़ने की पुरज़ोर सिफ़ारिश कर दी. आपको हार्दिक बधाई.
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