"कुपथ पथ दौड़ता जो, पथ निर्देशक वह है
लाज लजाती जिसकी कृति से, धृति उपदेशक वह है
मूर्त दंभ गढ़ने उठता है, शील विनय परिभाषा
मृत्यु रक्तमुख से देता, जन को जीवन की आशा ...
जनता धरती पर बैठी है, वह मंच पर खड़ा है
जो जितना दूर मही से, उतना वही बड़ा है।"
"काशी..." बच्चे ने जवाब दिया। फिर कुछ सोचते हुए कहा, "मुझे काशी जाना है माँ!"
"काशी! अगर तुम काशी जाना चाहते हो, तब मैं यहाँ रहकर क्या करुँगी!" माँ ने दुखी स्वर में कहा और अगले ही दिन उनका स्वर्गवास हो गया। माँ के साथ वही बातचीत उसकी आख़िरी याद बनकर रह गई। पिता रामानुग्रह शर्मा बड़े अध्येता थे और अपनी पत्नी व बेटे से बहुत प्रेम करते थे। समाज और परिजनों के सभी आग्रहों को ठुकराते हुए उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का फैसला किया, ताकि अपने एकमात्र पुत्र का लालन-पालन अच्छी तरह से कर सकें। ऐसे विलक्षण बालक पर उनको बड़ा गर्व था और उसके उज्ज्वल भविष्य को लेकर वे बड़े आशान्वित थे। यही बालक बड़ा होकर संस्कृत का प्रकांड पंडित और हिंदी साहित्य का अद्भुत अनुरागी आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के नाम से विख्यात हुआ।
प्रस्तुत हैं, उनके जीवन से जुड़े कुछ जाने-अनजाने किस्से -
दिखावे के इस दौर में, जहाँ लोग बिना श्रम किए ही पारितोषिक पाने को लालायित रहते हैं, एक ऐसे साहित्यकार की कल्पना कर पाना कठिन है, जिन्हें भारत सरकार ने दो बार, क्रमशः १९९४ और २०१० में, पद्मश्री देने का फैसला लिया था और दोनों ही बार उन्होंने यह सम्मान ठुकरा दिया था। कारण - उन्हें यह पुरस्कार अपनी प्रतिभा से कम लगा। कुछ लोग इसे उनका अभिमान समझ सकते हैं, लेकिन उन्हें करीब से जाननेवाले इसे आत्मसम्मान की रक्षा में उठाया कदम बताते हैं और उनके समक्ष नतमस्तक हैं।
सब अपनी अपनी कहते है।
कोई न किसी की सुनता है,
नाहक कोई सिर धुनता है।
दिल बहलाने को चल फिर कर,
फिर सब अपने में रहते है।
सबके सिर पर है भार प्रचुर, सबका हारा बेचारा उर,
अब ऊपर ही ऊपर हँसते, भीतर दुर्भर दुख सहते हैं।
ध्रुव लक्ष्य किसी को है न मिला,
सबके पथ में है शिला शिला
ले जाती जिधर बहा धारा,
सब उसी ओर चुप बहते हैं।
उपाधियों की लड़ी
गौतम बुद्ध की तपोभूमि बोधगया के समीप मायाग्राम (वर्तमान मैगरा गाँव) में ५ फ़रवरी, १९१६ को जन्मे जानकीवल्लभ अत्यंत विलक्षण बालक थे। प्रारंभिक शिक्षा पारंपरिक विद्यालय में संस्कृत माध्यम से हुई। ग्यारह वर्ष की आयु में बिहार-उड़ीसा की राजकीय संस्कृत परीक्षा (प्रथमा) प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। सोलह वर्ष की आयु में 'शास्त्री' की उपाधि अर्जित कर सबको अचंभित कर दिया था। आगे की पढ़ाई के लिए काशी जाने की इच्छा जताई। पिता उसे स्वयं से दूर नहीं करना चाहते थे, किंतु बालक की हठ के सामने झुक गए और शास्त्री जी काशी आ पहुँचे। यहाँ उन्हें मदन मोहन मालवीय का सान्निध्य मिला और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसे गुरु का वरदहस्त। वे अब तक लेखनकार्य आरंभ कर चुके थे और संस्कृत में लिखते थे। अपनी आर्थिक समस्याओं से निबटने के लिए बीच-बीच में नौकरियाँ भी कीं। काशी में उनका प्रवास १९३२ से १९३८ तक रहा, जिसमें १९३६ में कुछ समय के लिए लाहौर में अध्यापन किया और १९३७-३८ के दौरान रायगढ़ (मध्य-प्रदेश) में राजकवि रहकर अपना खर्च वहन किया। इससे पूर्व १९३४-३५ में ही काशी विश्वविद्यालय से 'साहित्याचार्य' की उपाधि स्वर्ण पदक के साथ अर्जित की। उनकी दक्षता को देखते हुए पूर्वबंग सारस्वत समाज, ढाका ने उन्हें 'साहित्यरत्न' घोषित किया।
अब तक उन्होंने संस्कृत में बहुत कार्य कर लिया था। काशी प्रवास का एक बहुत बड़ा लाभ शास्त्री जी को यह हुआ कि यहाँ उन्होंने अन्य भाषाओं का भी गहरा अध्ययन किया। निराला जी ने उन्हें हिंदी में लिखने को प्रेरित किया। निराला जी के साथ का उन पर बहुत गहरा प्रभाव रहा। इसीलिए कालांतर में, जब उन्होंने मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार) को अपना स्थाई ठिकाना बनाया, तब अपने आशियाने का नाम 'निराला निकेतन' रखा। साल १९४० में काशी को अलविदा कह वे बिहार वापस आ गए और अपने बसने के लिए आसरा तलाशने लगे। उन्हें ज्ञात हुआ कि गंगा पार मिथिलांचल प्रदेश साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से बहुत उत्तम स्थान है। वे अपनी ज्ञान-साधना को विद्वानों के निकट रहकर और प्रखर करना चाहते थे, सो गंगा पार जाने का मन बना लिया। उन दिनों नाव गंगा पार करने का एकमात्र साधन हुआ करता था और शास्त्री जी ने बहुत डरते हुए वह पूरा रास्ता तय किया। मुज़फ़्फ़रपुर में उनकी उपाधियों में दो नग और जड़ गए - वेदांतशास्त्री और वेदांताचार्य। इन दोनों परीक्षाओं में उन्हें समूचे बिहार राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। ख्याति दूर-दूर तक तो पहुँचनी ही थी।
यहीं, राजकीय संस्कृत महाविद्यालय के साहित्य विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए और कुछ ही समय में वहाँ के अध्यक्ष चुन लिए गए। वर्ष १९५३ में मुज़फ़्फ़रपुर में ही बिहार विश्वविद्यालय के रामदयालु सिंह कॉलेज में हिंदी के प्राध्यापक बने और इसी पद से १९८० में सेवानिवृत्त होकर 'निराला निकेतन' की देखरेख व साहित्य सृजन में समूचा जीवन लगा दिया।
यहीं, राजकीय संस्कृत महाविद्यालय के साहित्य विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए और कुछ ही समय में वहाँ के अध्यक्ष चुन लिए गए। वर्ष १९५३ में मुज़फ़्फ़रपुर में ही बिहार विश्वविद्यालय के रामदयालु सिंह कॉलेज में हिंदी के प्राध्यापक बने और इसी पद से १९८० में सेवानिवृत्त होकर 'निराला निकेतन' की देखरेख व साहित्य सृजन में समूचा जीवन लगा दिया।
'निराला निकेतन' की विशिष्टता
साहित्यकार अपना समूचा जीवन अपने मन के भावों को कागज़ पर उकेरते हुए बिता देता है, किंतु आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का एक कृत्य उन्हें ख़ास बनाता है; वह है निराला निकेतन की स्थापना। वे पशु-पक्षियों से बहुत प्यार करते थे और गाय को माँ का दूसरा रूप मानते थे। गौ-सेवा अपना धर्म समझते हुए, उन्होंने एक गाय 'कृष्णा' को गोद लिया। 'कृष्णा' से शुरू हुआ गौ-सेवा का सिलसिला उसकी पाँचवीं-छठी पीढ़ी तक चला। यह काम उन्होंने स्वयं अपने हाथों से किया। न कभी किसी बछड़े को बेचा, न कभी किसी गाय का दान किया। लगभग एक एकड़ में बसाए गए 'निराला निकेतन' में ही सभी गायों के रहने की उत्तम व्यवस्था की, उनकी मृत्यु पर समाधियाँ भी उसी प्रांगण में बनाई गईं। अपने इस कर्म की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं, "ऐसी प्रथा आज के ज़माने में आपको कहीं देखने को नहीं मिलेगी। यदि आप ये कथा किसी से कहेंगे तो वह कहेगा - या तो शास्त्री जी पागल हैं, या महामूर्ख! किंतु मेरे लिए यह परम संतोष का काम रहा है।"
शास्त्री जी का साहित्य सृजन
काली रात नखत की पाँतें-आपस में करती हैं बातें
नई रोशनी कब फूटेगी?
बदल बदल दल छाये बादल
क्या खाकर बौराये बादल
झुग्गी-झोपड़ियाँ उजाड़ दीं, कंचन महल नहाये बादल।
जानकीवल्लभ शास्त्री ने मात्र १८ वर्ष में 'आचार्य' की उपाधि अर्जित की थी। यह ख़बर तत्कालीन अख़बारों की सुर्ख़ियों में रही, शास्त्री जी का नाम दूर-दराज़ तक प्रसिद्ध हो गया। इसी ख़बर को पढ़कर निराला लखनऊ से बनारस आए और शास्त्री जी से मिलकर उन्हें बहुत सराहा। निराला से वह मुलाकात शास्त्री जी के जीवन में नया सवेरा लेकर आई और संस्कृत में लिखने वाले आचार्य अब हिंदी में लिखने को प्रेरित हुए। लिखना तो वे सोलह वर्ष की आयु से ही आरंभ कर चुके थे। उनकी पहली रचना 'गोविन्दगानम्' थी जो संस्कृत में थी। फिर १९३५ में उनकी संस्कृत कविताओं का प्रथम संकलन 'काकली' नाम से प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक ने साहित्य के पुरोधाओं के बीच शास्त्री जी को ला खड़ा किया। इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद आचार्य को 'अभिनव जयदेव' की संज्ञा दी गई थी। वे रबींद्रनाथ ठाकुर, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', और जयशंकर प्रसाद के संपर्क में आए और अपना लेखन-क्षेत्र विस्तारित किया। हिंदी, बाँगला और अँग्रेज़ी भाषा को मज़बूत कर हिंदी में लिखना आरंभ किया और साहित्य की सभी विधाओं में अपनी कलम चलाई। उन्होंने किस्से-कहानियाँ, काव्य-नाटक, आत्मकथा, संस्मरण, उपन्यास, आलोचना तथा ललित-निबंध आदि सभी साहित्यिक रूपों को छुआ है, किंतु उनकी सृजनात्मक प्रतिभा अपने सर्वोत्तम रूप में उनके गीतों और ग़ज़लों में प्रकट होती है। सहज गीत शास्त्री जी की पहचान है। उनका पहला गीत 'किसने बाँसुरी बजाई' लोकप्रियता के पायदान में सबसे ऊपर अवस्थित है।
प्रो० नलिन विलोचन शर्मा ने उन्हें जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के बाद पाँचवाँ छायावादी कवि कहा है। आचार्य ने छंदोबद्ध हिंदी कविताएँ लिखी हैं। चालीस के दशक में लिखी गईं उनकी छंद-बद्ध काव्य-कथाएँ 'गाथा' नाम से संकलित हैं। उनके लिखे काव्य-नाटकों में 'राधा' महाकाव्य का नाम उल्लेखनीय है। हंस-बलाका (संस्मरण), कालिदास (उपन्यास), अनकहा निराला (आलोचना) उनकी प्रसिद्ध गद्य रचनाएँ हैं। सरल शब्दों में सहज दर्शन प्रकट करना इनकी कृतियों की ख़ासियत रही है। अपने गीतों के लिए विशेष रूप से सराहे जाने वाले जानकीवल्लभ नवगीत आंदोलन अथवा ऐसे किसी प्रयोग से नहीं जुड़े जिसमें ताल, तुक आदि से खिलवाड़ हो, किंतु अपने गीतों में नित नए प्रयोगों से हिंदी गीतों का दायरा बहुत व्यापक कर दिया।
किसने बाँसुरी बजाई
जनम-जनम की पहचानी वह तान कहाँ से आई !
किसने बाँसुरी बजाई
अंग-अंग फूले कदंब साँस झकोरे झूले
सूखी आँखों में यमुना की लोल लहर लहराई !
किसने बाँसुरी बजाई
उनकी हिंदी काव्य-रचनाओं जितनी ही वृहत उनकी संस्कृत रचनाएँ भी हैं, किंतु साहित्य जगत ने कभी उनका उचित मूल्यांकन नहीं किया। उनकी कविताएँ भारत के सनातन मूल्यों को पुनर्स्थापित करती हैं। अंधविश्वासों के अंधकार को चीरकर सत्य और यथार्थ का प्रकाशपुंज प्रस्थापित करती हैं।
"ज़िंदगी की कहानी रही अनकही
दिन गुज़रते गए, साँस चलती रही
वेदना अश्रु पानी बनी, बह गई
धूप तपती रही, छाँह चलती रही।"
वे किसी ख़ास विचारधारा के कवि नही हैं। अलबत्ता समालोचना की सभी धाराएँ जहाँ संगमित होकर प्रयाग की रचना करती हैं, वहाँ से आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री को समझने का जतन करना होगा। उनकी भव्यता, उनकी दार्शनिकता और उनकी जीवनशैली वैदिक ऋषि परंपरा की याद दिलाती है। जैसा निराला कहते थे कि मैंने 'मैं' शैली अपनाई, वैसे ही शास्त्री जी ने अपने जीवन के मानक स्वयं गढ़े हैं। यह जो अपने को पाने का आनंद है, असल में वही कविता का शाश्वत मूल्य है। वे बहुपठित साधनासिद्ध कवि हैं। विविध वर्णी रस भावों से सराबोर लगभग डेढ़ हज़ार गीतों के रचयिता आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री को भारत सरकार ने पुरस्कृत करने के दो असफल प्रयास किए, किंतु बिहार सरकार उन्हें समय-समय पर सम्मानित करती रही है। असाधारण विद्वता, विलक्षण वाग्मिता एवं अनश्वर साहित्य सृजन के लिए राजभाषा विभाग, बिहार सरकार ने उनको १९८८-८९ के डॉ० राजेंद्र प्रसाद शिखर सम्मान से अलंकृत किया। साथ ही वे 'भारत भारती पुरस्कार' तथा 'शिवपूजन सहाय पुरस्कार' से भी समादृत हुए। जानकीवल्लभ जी को कई उपाधियों से सम्मानित किया गया, जिनमें 'साहित्य वाचस्पति', 'विद्यासागर', 'काव्य-धुरीण' तथा 'साहित्य मनीषी' सम्मिलित हैं।
साहित्य साधना और गौ-सेवा करते हुए ७ अप्रैल, २०११ को ये विलक्षण सत्यार्थी साहित्य की अमूल्य धरोहर हमारे नाम कर परलोक सिधार गए। उन्हें राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई थी। किंतु साहित्य सृजनकर्ता सिर्फ़ शरीर से दूर जाते हैं, उनकी आत्मा तो उनके समृद्ध साहित्य से अमरता प्राप्त कर लेती है।
संदर्भ
- https://hi.wikipedia.org/wiki/जानकीवल्लभ_शास्त्री
- https://www.youtube.com/watch?v=D6JtKJyRjZ0
- https://www.amarujala.com/kavya/kavya-charcha/famous-indian-poet-writer-critic-janki-ballabh-shastri?page=3
- https://web.archive.org/web/20110610050244/http://abhivyakti-hindi.org/snibandh/2010/jankivallabh_shastri.htm
- https://web.archive.org/web/20110411134429/http://www.literatureindia.com/hindi/archives/239
- https://www.learnindia24hours.com/2021/02/biography-of-shree-janaki-ballabh.html
- https://www.shikshabhartinetwork.com/dayinhistory.php?eventId=4033 (चित्र)
लेखक परिचय
दीपा लाभ
साहित्य के प्रति आकर्षण और काव्य से ख़ासा अनुराग रखने वाली दीपा लाभ १३ वर्षों से अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं और विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में अतिथि लेक्चरर के रूप में व्याख्यान देती रहती हैं। साथ ही, हिंदी व अँग्रेज़ी भाषा में रोज़गारपरक पाठ्यक्रम तैयार कर सफलतापूर्वक चला रही हैं। दीपा लाभ 'हिंदी से प्यार है' समूह की सक्रिय सदस्या हैं तथा 'साहित्यकार तिथिवार' परियोजना की प्रबंधक-संपादक हैं।
ईमेल : deepalabh@gmail.com; व्हाट्सएप : +91 8095809095
ईमेल : deepalabh@gmail.com; व्हाट्सएप : +91 8095809095
बहुत ही सधी भाषा में शास्त्री जी के दैहिक-रचना संसार को व्यक्त कर लाभान्वित किया है दीपा जी ने! बहुत ही प्रेरक आलेख!! साधुवाद!!!
ReplyDeleteबहुत सार्थक सृजन दीपा जी पूरी जानकारी प्राप्त हो गयी
ReplyDeleteशास्त्री जी का जीवन पट खोल दिया,साहित्य और शिक्षा की नगरी काशी का प्रेम और उनके कार्य को सादर वंदन, बहुत अच्छा लेख दीपा जी 🙏💐
ReplyDeleteदीपा जी,साहित्यकार जानकी वल्लभ शास्त्री जी पर आपका आलेख सारगर्भित व शोधपरख है।आपको इतने अच्छे आलेख के लिए बहुत-बहुत बधाई।-सुनील
ReplyDeleteबहुत सुंदर तरीके से शास्त्री जी के जीवन के पहलुओं को अपने लेख में उकेरा है आपने दीपा जी, हृदयतल से बधाई।
ReplyDeleteऋषितुल्य जानकीवल्ल्भ शास्त्री के जीवन और काम पर दीपा जी ने बहुत बढ़िया आलेख लिखा है। आलेख के शुरू में दी गई कविता और माँ के साथ जानकीवल्ल्भ की बातचीत से लेकर अंत तक सब कुछ बहुत रोचक लगा। छोटी उम्र से ही ज्ञान के प्रति उनकी लालसा और उसके लिए लगातार प्रयासों ने उन्हें महान लेखक बनाया है। दीपा जी, जानकारीपूर्ण आलेख के लिए धन्यवाद और शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteमहाकवि निराला जी से प्रेरित हिंदी भाषा और साहित्य को अपनी लेखनी से सारभूत करने वाले आचार्य शास्त्री जी छायावाद साहित्य के अंतिम स्तंभ थे। विविध और व्यापक काव्य संसार के रचेयता शास्त्री जी ने 2010 में पद्मश्री सम्मान भी ठुकरा दिया जिसका कारण यह था कि उनके कृतित्व की जानकारी ना होने वाली सरकार ने उनसे उनका जीवनवृत्तांत मांग लिया था जो उन्हें कतई सम्मानजनक नही लगा था। अनेक संदर्भो से शोधपरख करके लिखा गया दीपा जी का यह लेख शास्त्रीजी के संस्मरण का पिटारा है। अति समीक्षात्मक और साहित्यदर्शन से प्राभावित करता हुआ यह आलेख दीपा जी की कलम को पुनः उजागर कर रहा है। इस अभिप्रेरित और हितकारी आलेख के लिए दीपा जी का आभार और बहुतायत धन्यवाद।
ReplyDeleteदीपा जी, हर बार की तरह आपने एक बढ़िया लेख पटल पर सभी के ज्ञानार्जन के लिये तैयार किया। इस लेख के माध्यम से आचार्य जानकीवल्लभ जी के जीवन एवं साहित्य को जानने का अवसर मिला। दीपा जी आपको साधुवाद एवं बधाई।
ReplyDeleteदीपा, अत्यंत जानकारीपूर्ण लेख, जानकीवल्लभ शास्त्री जी निश्चित ही हिंदी साहित्य की अद्भुत विभूति हैं। संस्कृत साहित्य को संपन्न करने के बाद हिंदी में क़दम रखा तो हिंदी-उर्दू के सामंजस्य से प्रभावी और सुन्दर रचनाएं दीं। बचपन में साहित्य के प्रति जगा सच्चा समर्पण उनमें अंत तक बना रहा और पुरस्कारों के आडम्बर भी उन्हें पथ से विचलित न कर पाए। धन्य हैं हम कि साहित्य के ऐसे बटवृक्षों की छाया में साँस लेते हैं। दीपा, बहुत बहुत आभार और शुक्रिया इस परिचय के लिए।
ReplyDeleteजानकीवल्लभ शास्त्री जैसै विद्वान के विषय में लिखा तुम्हारा आलेख बहुत विस्तृत जानकारी देता है, तुम्हारा शोध वास्तव में सराहनीय है| इस लेख को पढ़कर शास्त्री जी के विषय में बहुत सारी जानकारी मिली | हम सब कितने भाग्यशाली हैं कि हम लोगों को ऐसै - ऐसै विद्वानों को पढ़ने का मौका मिला | दीपा, तुम्हारी लेखनी बहुत ही प्रभावशाली है, ऐसै ही लिखा करो |
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