गठीला एवं हृष्ट-पुष्ट लंबा शरीर, लहराते बाल, बड़ी-बड़ी आँखे, धोती और कुर्ते पर मुस्कुराते चेहरे वाले निराला जी का जन्म पश्चिम बंगाल के महिषादल राज्य के मेदिनीपुर जिले में पंडित रामसहाय तिवारी के घर २१ फरवरी सन १८९९ को हुआ। उनकी पैतृक भूमि गढ़ाकोला, उत्तर प्रदेश थी। रविवार के दिन जन्म होने के कारण उनका नाम सुर्ज कुमार रखा गया। तीन वर्ष की अल्पायु में माँ जानकी देवी का निधन हो गया। निराला जी अपने पिता की एकमात्र संतान थे, जिनका पालन-पोषण महिषादल में हुआ। निराला की स्कूली शिक्षा महिषादल में ही हुई, जहाँ शिक्षा का माध्यम बांग्ला था। निराला की शैक्षिक योग्यता नगण्य थी, वे हाईस्कूल परीक्षा भी उत्तीर्ण नहीं कर पाए थे; किंतु बंगला, संस्कृत और अंग्रेजी के प्रारंभिक ज्ञान के बल पर बाद में इन तीनों भाषाओं में पाण्डित्य प्राप्त किया और उन्हीं के बल पर खड़ी बोली में पदार्पण किया।
पंद्रह वर्ष की आयु में सन १९१८ में डलमऊ की सुपुत्री विदुषी मनोहरा देवी से उनका विवाह हो गया। पत्नी मनोहरा देवी ने निराला को हिंदी सिखाई थी। बाद में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हिंदी में अपनी रचनाएं लिखने लगे।
निराला का विवाह के बाद कुछ समय सुख पूर्वक व्यतीत हुआ, किंतु बाईस वर्ष की अल्पायु में विधुर होने के बाद जीवन का वसंत भी उनके लिए पत्नी-वियोग का पतझड़ बन गया। तदोपरांत प्रथम विश्वयुद्ध के बाद फैली महामारी में परिवार के कई सदस्य काल का ग्रास बन गए, इससे निराला की विपन्नता तो बढ़ी ही; एक असह्य एकाकीपन के दंशो की चुभन भी सहनी पड़ी। परिणामत: वे जटिलतम परिस्थितियों के दलदल में धँसते चले गए, कर्ज के बोझ से दबते गए। बच्चों को बहलाने और खुद बहलने के लिए इन्होंने जांत पर पिसनहारी का गीत भी गाया-
सन १९२९ में उनकी बेटी सरोज का विवाह हुआ और सन १९३५ में प्रिय पुत्री की मृत्यु से उन पर दारुण-दु:ख का पहाड़ ही टूट पड़ा और वह नैराश्य व अवसाद से ग्रस्त होकर स्वतः स्फूर्त 'सरोज स्मृति' जैसी लंबी शोक-कविता के सृजेता बने। पंक्तियाँ ‘हो गया व्यर्थ जीवन, मैं रण में गया हार।’ निराशा की मर्मभेदी चुभन से युक्त हैं।
इस काव्य में निराला ने समाज में व्याप्त रूढ़ियों, झूठी मान्यताओं तथा दहेज आदि का न केवल विरोध ही किया, अपितु स्वयं उसका आदर्श प्रस्तुत करके मानव को नयी राह दिखायी। रूढ़ियों को तोड़ने का चरम स्वरूप उस समय दृष्टिगोचर होता है, जब निराला अपनी पुत्री सरोज की सेज-सज्जा (पुष्प-सज्जा) स्वयं ही करते हैं। स्वयं निराला ने स्वीकार किया है-
शोक-कविताओं में यह कविता सदैव प्रथम स्थान पर आसीन रहेगी। निराला विविध वर्णी व्यक्तित्व के धनी थे। पराजय, उदासी, अपमान के साथ-साथ संघर्ष की एक अटूट श्रृंखला को आजीवन झेलते रहे। 'तू कभी न ले दूसरी आड़, शत्रु को समर जीते पछाड़।' इस आदर्श के साथ वे संघर्षों से सदैव लड़ते रहे।
डॉ0 राम विलास शर्मा लिखते हैं कि- “निराला जी का जन्म ऐसे परिवार में हुआ था, जहाँ महावीर के प्रति असीम श्रद्धा थी; तो पतुरिया के यहाँ पानी पीने पर जबरदस्त मार भी पड़ती थी। उनके घर के लोग राम और कृष्ण के उपासक, सामाजिक बंधनों को मानने वाले और किसी भी तरह के विद्रोह से कोसों दूर रहने वाले थे, इसलिए निराला उपनिषदों की दार्शनिक कुहेलिका से निकलकर कुकुरमुत्ता, बिल्ले सुर बकरिहा और चतुरी चमार पर अपनी लेखनी चलाने लगे।”
कवि निराला ने पूंजीपतियों को आइना दिखा कर चेताया कि यह तुम्हारा रंग-ओ-आब, चमक-दमक, रंगीनी मिज़ाज, गरीबों के शोषण पर आधारित है। उन्होंने पूंजीपतियों को प्रतीकात्मक शैली में फटकारते हुए कहा है-
निराला ने जिस समय साहित्य में पदार्पण किया, उस समय देश मे नारी-शोषण की समस्या बड़ी विकट थी। दहेज-प्रथा, अनमेल-विवाह, बाल-विवाह, सती-प्रथा, विधवा-शोषण जैसी समस्याऐं विकराल रूप ले चुकी थीं। उन्होंने नारी संबंधी समस्याओं को निरुपमा, अलका, अप्सरा इन तीनों उपन्यासों में चित्रित किया है।
१९२२ में स्वामी माधवानन्द ने कलकत्ते से 'समन्वय' नामक पत्रिका प्रकाशित की। निराला जी का लेख भी उसमें प्रकाशित हुआ। लेख से प्रभावित होकर संपादक ने उन्हें काम करने के लिए कार्यालय में बुला लिया। वे 'समन्वय' में रहकर बांग्ला भाषा के लेखों का हिंदी में अनुवाद किया करते थे। वह अब अपना नाम सुर्ज कुमार के स्थान पर सूर्यकांत त्रिपाठी लिखने लगे। सूर्यकांत के संबंध में आ जाने से उनका साहित्यिक रूप निखरने लगा।
सन १९२० में निराला ने 'जन्मभूमि' शीर्षक से गीत लिखा। यह उनकी पहली रचना थी, किंतु यह उनके किसी भी कविता संकलन में संग्रहीत न होने से 'निराला रचनावली' में पहली बार समाविष्ट हुई। निराला ने चार सौ गीत लिखे, जिनमें छंदों, रागों, रसों और कल्पना चित्रों की विविधता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर से प्रभावित होकर उन्होंने 'जूही की कली' निराली कविता लिखकर कविता-जगत में तहलका मचा दिया-
- - -
निराला समिष्टगत चेतना से संवाहित थे। उनकी आँखे एक मेहनतकश के लिए ही नहीं, एक भिक्षुक के लिए भी बरस पड़ती थी। तभी तो 'अधिवास' शीर्षक रचना में उनका हृदय छलक पड़ा है-
निराला जी ने 'दान' कविता में मानवीय मूल्यों के पतन की वर्तमान स्थिति को रेखांकित किया है। व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं-
उन्होंने ऊँच-नीच, भेद-परक भारतीय वर्ण-व्यवस्था की आलोचना की और कहा- “शूद्र-शक्ति सेवा-शक्ति का प्रतीक है।” निराला साहित्य का अंतःस्त्रोत बंधुत्व, समता एवं समरसता पूर्ण करुणा में है। अपनी ‘वाणी वंदना’ में वह भारती से प्रार्थना करते हैं-
महाप्राण निराला की प्रतिभा बहुआयामी है। वे कवि, तीर्थकार और समीक्षक हर रूप में अपने को सिद्ध-हस्त प्रमाणित करते हैं। एक ओर वे 'राम की शक्ति पूजा' जैसा अनूठा महाकाव्य रचते हैं, तो दूसरी ओर 'रवीन्द्र कविता कानन' जैसे आलोचना ग्रंथ लिखते हैं; जिसमें स्फुट निबंध, टिप्पणियों की समीक्षाएं संकलित हैं। उन्होंने 'रस अलंकार' पुस्तक में रस विवेचन किया है।
निराला का प्रथम निबंध संग्रह 'प्रबंध पदम' है। अन्य चर्चित निबंध संग्रह हैं- प्रबंध प्रतिमा, चाबुक, चयन और संग्रह। इनमें उनकी लिखी भूमिकाएं अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने 'चाबुक' की भूमिका में साहित्यकारों से क्षमा याचना की है। उन्होंने अनेकानेक काव्य-संग्रह, कहानी-संग्रह, उपन्यास, नाटक तथा निबंध आदि लिखे, जिनमें से कुछ अप्रकाशित भी हैं। उनकी श्रेष्ठ रचनाओं में- तुलसीदास, गीतिका, अर्चना, अनामिका, अपरा, अणिमा, बेला, नए पत्ते एवं कुकुरमुत्ता हैं। 'राम की शक्ति पूजा' तथा 'सरोज स्मृति' उनकी कालजयी रचनाएं हैं। निराला जी पर वेदांत का गहरा प्रभाव था।
प्रयोगवाद में निराला की भूमिका सूत्रधार की थी। 'नये पत्ते' में उन्होंने संभावना की तलाश की थी। 'कुकुरमुत्ता' में जिजीविषा शक्ति के प्रतीक की व्याख्या की। निराला जी के साहित्य में आंचलिक संस्कृति के सहज दर्शन होते हैं। वे अपनी बात को रमणीय और तीखे-तेवर वाले साहित्य के माध्यम से कहते हैं। उन्होंने अपने जीवन मे निर्भीक होकर सत्य का आचरण किया। इसके लिए वे निन्दा व विरोध भी झेलते रहे। जो उनकी वाणी में होता था, वही कर्म में भी। निराला का व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व दोनों ही निराला रहा।
प्रकृति का हर रूप उन्हें भाया, किंतु वसंत उनके मन को सबसे अधिक आकर्षित करता था। यही कारण है कि जन्मतिथि किसी भी दिन पड़े, किन्तु निराला जी अपना जन्मदिन वसंत पंचमी को ही मनाते थे। वसंत के प्रति कवि की आस्था और आकर्षण का भाव उनकी कविताओं में सहज व्यक्त हुआ है-
निराला हिंदी काव्य-जगत के आधार स्तम्भ हैं। छायावाद में चतुष्टय कवियों में निराला का नाम सबसे ऊँचा है। १५ अक्टूबर सन १९६१ को माँ भारती के इस वरद-पुत्र का शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया। वे सचमुच सूर्य कान्त मणि थे। उनके रोम-रोम में माँ शारदा के विविध रूप समाये थे।
डॉ0 रमाकांत श्रीवास्तव के शब्दों में- “निराला को अपनी प्रतिभा, साधना, तपस्या, अथक-अनवरत श्रम, नयापन लाने की लालसा तथा सतत संघर्षशीलता के कारण अंततः अतिशय मान्यता मिली। जिस प्रकार कुकुरमुत्ता उगाए नहीं उगता, वैसे ही साहित्य के उद्यान में निराला जैसा कवि पैदा नहीं किया जा सकता।” सत्य है कि निराला का अंत न कभी हुआ, न ही होगा। उन्हीं के शब्दों में कहना होगा- 'अभी न होगा मेरा अंत।'
सन्दर्भ -
१. अपरा : सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
२. निराला की कविताएं एवं काव्यभाषा : रेखा खरे
३. सरोज स्मृति (भाष्य) : ब्रजेश श्रीवास्तव
४. कवि निराला : नन्ददुलारे बाजपेयी
५. महाप्राण निराला चित्र एवं जीवन के नये सन्दर्भ : रामनिवास पंथी
६. ऐसे थे हमारे निराला : डॉ0 शिव गोपाल मिश्र
७. महामानव निराला : डॉ0 शिव गोपाल मिश्र
८. विविधा : डॉ0 शिव गोपाल मिश्र
लेखक परिचय
डॉ. मंजू यादव
रुचि- विभिन्न विधाओं में लिखना व पढ़ना, विभिन्न मंचो पर कविता पाठ।
प्रकाशित पुस्तक- देव की काव्य भाषा।
प्रकाशन- विभिन्न पत्रिकाओं में लेख कविता, कहानी आदि।
सम्मान- मानस संगम शिवाला कानपुर के अंतरराष्ट्रीय मंच पर सम्मानित।
इटावा हिंदी सेवा निधि द्वारा सम्मानित।
संप्रति- प्रवक्ता (हिंदी) जनता विद्यालय इंटर कॉलेज बकेवर, इटावा, उत्तरप्रदेश।
निराला को परिस्थितियों ने इतना झकझोरा कि परिस्थितियों ने भी हार मान ली लेकिन निराला जी निरंतर मजबूत और मजबूत होते चले गये, संघर्षों से जूझते हुए यह कहने की स्थिति में आ सके-
ReplyDelete*न दैन्यं, न च पलायनम्* न दीनता स्वीकार करूँगा और न ही संघर्षपथ से भागूँगा.
यही साहस निराला को निराला बनाता है, यही उनके व्यक्तित्व का विराट है, उनका रचना संसार इतना विस्तृत है कि एक लेख में उसे समेटना मुश्किल है... इसीलिए इस समूह में भी दो लेखकों ने उन पर दो लेख लिखे हैं, प्रताप दास जी और डा० मंजू यादव ने बहुत कुछ समेट कर प्रस्तुत करने की बहुत सफल कोशिश की है... रामविलास शर्मा जी द्वारा संपादित निराला ग्रंथावली कभी समय मिले तो पढ़कर निराला जी को कुछ कुछ जाना जा सकता है... वे जन जीवन से जुड़े कवि हैं, अति संवेदनशील कवि हैं... और सच्चे अर्थों में जनता के कवि हैं... उनमें अपनी बात कहने का अदम्य साहस है... उनका
यही साहस उन्हें जनता का कवि बनाता है तभी तो उनके विषय में डॉ० रामविलास शर्मा ने कहा है-
" यह कवि अपराजेय निराला/ जिसको मिला गरल का प्याला/
ढहा और तन टूट चुका है/
पर जिसका माथा न झुका है/ शिथिल त्वचा दलदल है छाती/
लेकिन अभी सँभाले थाती/ और उठाये विजय पताका/ यह कवि है अपनी जनता का"
जनता के उसी कवि निराला का आज इन दोनों लेखों के माध्यम से स्वागत है और लेखों के लेखकों प्रताप दास और डा० मंजू यादव के साथ साथ शार्दुल जी की पूरी टीम को बहुत सारी बधाइयाँ.
-डा० जगदीश व्योम
डॉ मंजु जी, आपने भी महाकवि निराला पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। आपको इस रोचक एवं महत्वपूर्ण लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteमहाकवि निराला जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व विषय में विस्तार से लिखा यह लेख बहुत अच्छा लगा | उनके द्वारा अनूदित 'रामकृष्ण वचनामृत' पढ़कर मैं बहुत प्रभावित हुई | इतने रोचक व् सारगर्भित आलेख के लिए डाक्टर मंजू जी को बहुत बहुत बधाई !
ReplyDelete-आशा बर्मन,हिंदी राइटर्स गिल्ड कैनेडा
मंजू जी, आज का दिन तो पूर्णतः काव्यमय हो गया। आपको इस अप्रतिम लेख के लिए बहुत आभार और बधाई। स्कूल में कविता 'वह तोड़ती पत्थर' पढ़कर जैसे कि उस लू भरी दोपहर का चित्र आँखों के सामने खिंच गया था और आज भी किसी को घोर परिश्रम में पसीना बहाते देख ये पंक्तियाँ मनपटल पर घूम जाती हैं। आपका सीमित शब्दों में सविस्तार लेख पढ़कर बहुत जानकारी मिली।
ReplyDeleteरोचक व सारगर्भित आलेख मंजू जी।
ReplyDelete