तरक़्क़ीपसंद तहरीक से निकले शायर जाँ निसार अख़्तर का जन्म मध्यप्रदेश के ग्वालियर में १८ फ़रवरी, १९१४ को हुआ। शायरी उन्हें घुट्टी में मिली। उनके माता-पिता दोनों उम्दा शायर थे, दादा भी आला दर्जे के शायर थे। घर में शेर-ओ-शायरी का माहौल कुछ ऐसा था कि महज़ तेरह साल की उम्र में उन्होंने शायरी शुरू कर दी। उनकी इब्तिदाई तालीम ग्वालियर में हुई। बाद में आला तालीम के वास्ते वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पहुँचे, जहाँ से उन्होंने गोल्ड मेडल के साथ उर्दू में एम० ए० किया। जाँ निसार अख़्तर जिस दौर में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से जुड़े, वह उसका सुनहरा दौर था। वहाँ पर अली सरदार जाफ़री, ख्वाज़ा अहमद अब्बास, मजाज़, सिब्ते हसन, सआदत हसन मंटो, मुईन अहसन जज़्बी, अख़्तर उल ईमान, हयातउल्ला अंसारी और इस्मत चुग़ताई जैसे दिग्गज इल्म की छाँव में पनप रहे थे। उनकी शरीक़-ए-हयात सफ़िया, जो असरार उल हक़ 'मजाज़' की बहन थीं, भी इन्हीं आज़ाद-ख़याल नौजवानों में एक थीं। ये सभी अदब और तख़्लीक के ज़रिए तहरीके-आज़ादी में अपना योगदान दे रहे थे। यूनिवर्सिटी तरक़्क़ीपसंद शायरों और अदीबों का मर्क़ज बनी हुई थी। ज़ाहिर है कि इस अदबी माहौल का असर जाँ निसार अख़्तर पर भी पड़ा और वे भी अपने तमाम साथियों की तरह मार्क्सवादी ख़याल के हामी हो गए।
जाँ निसार अख़्तर ने न सिर्फ़ शानदार ग़ज़लें लिखीं, बल्कि नज़्में, रुबाइयाँ, क़ितआ और फ़िल्मी नग़्में भी उसी दस्तरस के साथ लिखे। उनमें सरल और आसान ज़बान में बड़ी बात कहने का ऐसा हुनर था कि हर कोई उनकी शायरी सुन "वाह!" कर उठता था। उन्होंने शायरी को रिवायती रूमानी दायरे से बाहर निकालकर ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तों से जोड़ा। उनकी शायरी में इंक़लाबी अनासिर (क्रांतिकारी तत्व) तो हैं ही, साम्राज्यवाद और सरमायेदारी की भी जमकर मुख़ालिफ़त है। वतनपरस्ती और क़ौमी-यकजिहती (राष्ट्रीय एकता) पर उनकी बेहतरीन नज़्में हैं -
उनके बारे में कमोबेश ऐसी ही बात, शायर निदा फाज़ली ने भी कही थी। जाँ निसार अख़्तर ने एक फ़िल्म भी बनाई थी, जिसका नाम 'बहू बेग़म' था। फ़िल्म तो नहीं चली, अलबत्ता गाने ज़रूर हिट हुए। उन्होंने उसके बाद उस काम से हमेशा के लिए तौबा कर ली।
जाँ निसार अख़्तर की शायरी में सिर्फ़ एहतिजाज (विरोध) या बग़ावत के ही जज़्बात नहीं है, इश्क़-मुहब्बत के नर्म, नाज़ुक एहसास भी शामिल हैं। गर उनकी उस रंग वाली शायरी देखें, तो वे एक रूमानी लहज़े के शायर नज़र आते हैं -
'ख़ाक-ए-दिल', 'ख़ामोश आवाज़', 'तनहा सफ़र की रात', 'जाँ निसार अख़्तर : एक जवान मौत', 'नज़र-ए-बुताँ', 'सलासिल', 'तार-ए-गरेबाँ', 'पिछले पहर', 'घर-आँगन' (रुबाइयाँ) वग़ैरह जाँ निसार अख़्तर की ग़ज़लों, नज़्मों की अहम किताबें हैं। जबकि 'आवाज़ दो हम एक हैं' उर्दू में प्रकाशित उनकी सभी किताबों से ली गईं चुनिंदा रचनाओं का मजमूअः है।
जाँ निसार अख़्तर का एक अहम कारनामा 'हिंदुस्तान हमारा' है। प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के कहने पर उन्होंने दो भागों में प्रकाशित हुई इस किताब पर काम किया था। किताब तीन सौ साल की हिंदुस्तानी शायरी का अनमोल सरमाया है; वतनपरस्ती, क़ौमी यकजिहती के साथ-साथ इस किताब में मुल्क की क़ुदरत, रिवायत और उसके अज़ीम माज़ी को उजागर करने वाली ग़ज़लें, नज़्में हैं। वाक़ई यह एक अहमतरीन काम है, जिसे कोई दृष्टिसंपन्न लेखक और संपादक ही मुमकिन कर सकता था। इस किताब के ज़रिेए उर्दू शायरी का एक ऐसा चेहरा सामने आता है, जो तब तक छिपा हुआ था। यह किताब भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब के फ़रोग़ में उर्दू शायरी के योगदान को रेखांकित करती है।
उर्दू-अदब और फ़िल्मी दुनिया में बेमिसाल काम के लिए जाँ निसार अख़्तर को कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा गया। साल १९७६ में किताब 'ख़ाक-ए-दिल' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। महाराष्ट्र अकादमी पुरस्कार के अलावा वे सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए थे।
जाँ निसार अख़्तर की शख़्सियत को और भी बेहतर तरीक़े से जानने-समझने के लिए उनकी शरीक़-ए-हयात सफ़िया अख़्तर के ख़त पढ़ें, जो उन्होंने जाँ निसार को लिखे हैं। जाँ निसार उनसे भले ही दूर रहे, लेकिन सफ़िया की उनके जानिब मोहब्बत ज़रा सी भी कम नहीं हुई। वे जाँ निसार को बेपनाह चाहती थीं और वक़्त-वक़्त पर उन्हें ज़रूरी नसीहत देती रहती थीं। अपने ऐसे ही एक ख़त में वे लिखती हैं, "जाँ निसार, ज़्यादा लिखना और तेज़ी से लिखना बुरा नहीं है, लेकिन मैं चाहती हूँ कि तुम रुक-रुक के और थम-थम के लिखो।" लेकिन जाँ निसार अख़्तर इन सब बातों से हमेशा बेपरवाह रहे और जब होश में आए, तब सफ़िया अख़्तर की कैंसर से बेवक़्त मौत हो गई थी। उनकी मौत ने जाँ निसार अख़्तर पर गहरा असर डाला। दिल को झंझोड़ देने वाली अख़्तर की नज़्में 'ख़ामोश आवाज़' और 'ख़ाक-ए-दिल' सफ़िया अख़्तर के इंतिक़ाल के बाद ही लिखी गई हैं। इन नज़्मों में एक अलग ही जाँ निसार अख़्तर से मुलाक़ात होती है -
मशहूर अफ़साना निगार कृश्न चंदर ने जाँ निसार अख़्तर की शायरी पर लिखा है, "जाँ निसार वो अलबेला शायर है, जिसको अपनी शायरी में चीखते रंग पसंद नहीं हैं, बल्कि उसकी शायरी घर में सालन की तरह धीमी-धीमी आँच पर पकती है।"
अपने वालिद को याद करते हुए, उनके बेटे शायर-गीतकार जावेद अख़्तर ने एक इंटरव्यू में कहा है, "उन्होंने हमेशा मुझे यह सीख दी कि मुश्किल ज़बान को लिखना आसान है, मगर आसान ज़बान कहना मुश्किल है।" जावेद अख़्तर की इस बात से शायद ही कोई नाइत्तेफ़ाकी जतलाए। यक़ीन न हो तो जाँ निसार अख़्तर की ग़ज़लों के कुछ अश्आर पर नज़र-ए-सानी कीजिए, ख़ुद ही समझ में आ जाएगा।
यह बात उन पर पूरी तरह से अमल होती थी। ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त तक उन्होंने अपने ऊपर बुढ़ापा कभी हावी नहीं होने दिया। रात में देर तक चलने वाली महफ़िलों और मुशायरों में वे अपने आपको मश्ग़ूल रखते थे।
जाँ निसार अख़्तर ने न सिर्फ़ शानदार ग़ज़लें लिखीं, बल्कि नज़्में, रुबाइयाँ, क़ितआ और फ़िल्मी नग़्में भी उसी दस्तरस के साथ लिखे। उनमें सरल और आसान ज़बान में बड़ी बात कहने का ऐसा हुनर था कि हर कोई उनकी शायरी सुन "वाह!" कर उठता था। उन्होंने शायरी को रिवायती रूमानी दायरे से बाहर निकालकर ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तों से जोड़ा। उनकी शायरी में इंक़लाबी अनासिर (क्रांतिकारी तत्व) तो हैं ही, साम्राज्यवाद और सरमायेदारी की भी जमकर मुख़ालिफ़त है। वतनपरस्ती और क़ौमी-यकजिहती (राष्ट्रीय एकता) पर उनकी बेहतरीन नज़्में हैं -
मैं उनके गीत गाता हूँ, मैं उनके गीत गाता हूँ
जो शाने बग़ावत का अलम लेकर निकलते हैं
किसी ज़ालिम हुकूमत के धड़कते दिल पे चलते हैं.....
वो मेहनतकश जो अपने बाज़ुओं पर नाज़ करते हैं
वो जिनकी क़ुव्वतों से देवे इस्तिबदाद डरते हैं….
जो जलकर आग दे देते हैं जंगी कारख़ानों को
मैं उनके गीत गाता हूँ, …
दूसरी आलमी जंग, देश की आर्थिक दुर्दशा और तमाम तात्कालिक घटनाक्रमों पर वे हमेशा नज़्मों, ग़ज़लों से तेज़ वार करते रहे। वे सांप्रदायिक सौहार्द के कट्टर हिमायती थे -एक है अपना जहां, एक है अपना वतन
अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं
आवाज़ दो हम एक हैं…
कह दो कोई दुश्मन नज़र उट्ठे न भूले से इधर
कह दो कि हम बेदार हैं, कह दो कि हम तैयार हैं
आवाज़ दो हम एक हैं।
अलीगढ़ में तालीम पूरी करने के बाद जाँ निसार ग्वालियर लौट आए। पहले ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज और फिर भोपाल के सैफ़िया कॉलेज में उन्होंने कुछ साल अध्यापन किया। आज़ाद-ख़याल अख़्तर नौकरी के लिए नहीं बने थे। साल १९५२ में उन्होंने नौकरी और भोपाल दोनों छोड़ दिए। अब उनका नया ठिकाना मायानगरी मुंबई था, जहाँ उनके कई तरक़्क़ीपसंद साथी - कृश्न चंदर, इस्मत चुग़ताई, ख़्वाजा अहमद अब्बास, मुल्कराज आनंद, साहिर लुधियानवी, सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, अख़्तर उल ईमान वग़ैरह - सिनेमा और अदब दोनों में अपना झंडा बुलंद किए हुए थे। साहिर लुधियानवी से जाँ निसार अख़्तर का गहरा याराना था और मुंबई में उन्होंने अपना ज़्यादातर वक़्त उन्हीं के साथ गुज़ारा। अपने संघर्ष के दिनों में वे कुछ अरसे तक इस्मत चुग़ताई के यहाँ भी रहे। फ़िल्मों में गीत लिखने के लिए जाँ निसार अख़्तर को ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा। साल १९५५ में आई फ़िल्म 'यासमीन' से उनके फ़िल्मी करियर की शुरुआत हुई। संगीतकार सी० रामचंद्र के संगीत से सजी इस फ़िल्म में उनके लिखे गीतों को ख़ूब सराहा गया। उसके बाद वे हिंदी सिनेमा को एक से बढ़कर एक लाजवाब गीत देते चले गए। फ़िल्म 'सीआईडी' के उनके गीतों - 'ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ..', 'आँखों ही आँखों में इशारा हो गया..' - ने उनकी कामयाबी के झंडे गाड़ दिए और उन का शुमार मक़बूल गीतकारों में होने लगा। उन्होंने तक़रीबन ८० फ़िल्मों में गीत लिखे। फ़िल्म 'नूरी' के गीत के लिए उन्हें फ़िल्मफेयर अवार्ड मिला। संगीतकार ख़य्याम ने अपने एक इंटरव्यू में गीतों को लिखने की उनकी असाधारण क़ाबिलियत के बारे में बतलाते हुए कहा था, "जाँ निसार अख़्तर में अल्फ़ाज़ और इल्म का ख़ज़ाना था। एक-एक गीत के लिए वे कई-कई मुखड़े लिखते थे। फ़िल्म 'रज़िया सुल्तान' में उन्होंने "ऐ दिले नादाँ..." गीत के छह-छह मिसरों के लिए कम से कम कुछ नहीं तो सौ अंतरे लिखे होंगे।" उनके बारे में कमोबेश ऐसी ही बात, शायर निदा फाज़ली ने भी कही थी। जाँ निसार अख़्तर ने एक फ़िल्म भी बनाई थी, जिसका नाम 'बहू बेग़म' था। फ़िल्म तो नहीं चली, अलबत्ता गाने ज़रूर हिट हुए। उन्होंने उसके बाद उस काम से हमेशा के लिए तौबा कर ली।
जाँ निसार अख़्तर की शायरी में सिर्फ़ एहतिजाज (विरोध) या बग़ावत के ही जज़्बात नहीं है, इश्क़-मुहब्बत के नर्म, नाज़ुक एहसास भी शामिल हैं। गर उनकी उस रंग वाली शायरी देखें, तो वे एक रूमानी लहज़े के शायर नज़र आते हैं -
अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं
जब ज़ख़्म लगे तो क़ातिल को दुआ दी जाए
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए
हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए
जाँ निसार अख़्तर का एक अहम कारनामा 'हिंदुस्तान हमारा' है। प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के कहने पर उन्होंने दो भागों में प्रकाशित हुई इस किताब पर काम किया था। किताब तीन सौ साल की हिंदुस्तानी शायरी का अनमोल सरमाया है; वतनपरस्ती, क़ौमी यकजिहती के साथ-साथ इस किताब में मुल्क की क़ुदरत, रिवायत और उसके अज़ीम माज़ी को उजागर करने वाली ग़ज़लें, नज़्में हैं। वाक़ई यह एक अहमतरीन काम है, जिसे कोई दृष्टिसंपन्न लेखक और संपादक ही मुमकिन कर सकता था। इस किताब के ज़रिेए उर्दू शायरी का एक ऐसा चेहरा सामने आता है, जो तब तक छिपा हुआ था। यह किताब भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब के फ़रोग़ में उर्दू शायरी के योगदान को रेखांकित करती है।
उर्दू-अदब और फ़िल्मी दुनिया में बेमिसाल काम के लिए जाँ निसार अख़्तर को कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा गया। साल १९७६ में किताब 'ख़ाक-ए-दिल' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। महाराष्ट्र अकादमी पुरस्कार के अलावा वे सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए थे।
जाँ निसार अख़्तर की शख़्सियत को और भी बेहतर तरीक़े से जानने-समझने के लिए उनकी शरीक़-ए-हयात सफ़िया अख़्तर के ख़त पढ़ें, जो उन्होंने जाँ निसार को लिखे हैं। जाँ निसार उनसे भले ही दूर रहे, लेकिन सफ़िया की उनके जानिब मोहब्बत ज़रा सी भी कम नहीं हुई। वे जाँ निसार को बेपनाह चाहती थीं और वक़्त-वक़्त पर उन्हें ज़रूरी नसीहत देती रहती थीं। अपने ऐसे ही एक ख़त में वे लिखती हैं, "जाँ निसार, ज़्यादा लिखना और तेज़ी से लिखना बुरा नहीं है, लेकिन मैं चाहती हूँ कि तुम रुक-रुक के और थम-थम के लिखो।" लेकिन जाँ निसार अख़्तर इन सब बातों से हमेशा बेपरवाह रहे और जब होश में आए, तब सफ़िया अख़्तर की कैंसर से बेवक़्त मौत हो गई थी। उनकी मौत ने जाँ निसार अख़्तर पर गहरा असर डाला। दिल को झंझोड़ देने वाली अख़्तर की नज़्में 'ख़ामोश आवाज़' और 'ख़ाक-ए-दिल' सफ़िया अख़्तर के इंतिक़ाल के बाद ही लिखी गई हैं। इन नज़्मों में एक अलग ही जाँ निसार अख़्तर से मुलाक़ात होती है -
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
तेरे गहवारा-ए-आग़ोश में ऐ जान-ए-बहार
अपनी दुनिया-ए-हसीं दफ़्न किए जाता हूँ
तू ने जिस दिल को धड़कने की अदा बख़्शी नहीं
आज वो दिल भी यहीं दफ़्न किए जाता हूँ….
लखनऊ मेरे वतन मेरे चमन-ज़ार वतन
देख इस ख़ाक को आँखों में बसा कर रखना
इस अमानत को कलेजे से लगा कर रखना। (नज़्म-'ख़ाक-ए-दिल')
सफ़िया अख़्तर के इंतिक़ाल के बाद जाँ निसार अख़्तर ने उनके लेखों और ख़ुतूत को किताब की शक्ल देकर उन्हें अपनी ख़िराजे अक़ीदत पेश की। 'ज़ेरे-लब', 'अंदाज़े-नज़र' और 'हर्फ़ आशना' वे क़िताबें हैं, जिनमें इन दोनों के प्यार और शिकवे-शिकायतों में डूबे ख़त शामिल हैं।मशहूर अफ़साना निगार कृश्न चंदर ने जाँ निसार अख़्तर की शायरी पर लिखा है, "जाँ निसार वो अलबेला शायर है, जिसको अपनी शायरी में चीखते रंग पसंद नहीं हैं, बल्कि उसकी शायरी घर में सालन की तरह धीमी-धीमी आँच पर पकती है।"
अपने वालिद को याद करते हुए, उनके बेटे शायर-गीतकार जावेद अख़्तर ने एक इंटरव्यू में कहा है, "उन्होंने हमेशा मुझे यह सीख दी कि मुश्किल ज़बान को लिखना आसान है, मगर आसान ज़बान कहना मुश्किल है।" जावेद अख़्तर की इस बात से शायद ही कोई नाइत्तेफ़ाकी जतलाए। यक़ीन न हो तो जाँ निसार अख़्तर की ग़ज़लों के कुछ अश्आर पर नज़र-ए-सानी कीजिए, ख़ुद ही समझ में आ जाएगा।
ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं
इश्क़ में क्या नुक़सान नफ़अ है हम को क्या समझाते हो
हम ने सारी उम्र ही यारों दिल का कारोबार किया
सारी दुनिया में ग़रीबों का लहू बहता है
हर ज़मीं मुझको मेरे ख़ून से तर लगती है
जाँ निसार अख़्तर एक बोहेमियन थे; किसी भी तरह के रूढ़ि और धार्मिक कर्मकांड से आज़ाद। उन्हें ज़िंदगी में कई रंज-ओ-ग़म मिले, मगर उसके बावजूद उनके दिल में किसी के भी जानिब कड़वाहट नहीं थी। वे एक मिलनसार, महफ़िलपसंद और ख़ुशमिज़ाज इंसान थे। नौजवान शायर उन्हें हरदम घेरे रहते थे। जाँ निसार ने अपने एक ख़त में लिखा है, "आदमी जिस्म से नहीं, दिल-ओ-दिमाग़ से बूढ़ा होता है।" यह बात उन पर पूरी तरह से अमल होती थी। ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त तक उन्होंने अपने ऊपर बुढ़ापा कभी हावी नहीं होने दिया। रात में देर तक चलने वाली महफ़िलों और मुशायरों में वे अपने आपको मश्ग़ूल रखते थे।
फ़िक्र-ओ-फ़न की सजी है नयी अंजुमन
हम भी बैठे हैं कुछ नौजवानों के बीच
उन्होंने शिकवे-गिले की रिवायत को कभी नहीं अपनाया -ज़िंदगी ये तो नहीं, तुझ को सँवारा ही न हो
कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो
वे ज़िंदगी का क़र्ज़ १९ अगस्त, १९७६ को उतारकर कभी न लौटने के लिए इस जहां से रुख़्सत हो गए। क्या वे वाक़ई हमसे रुख़्सत हो गए? बिलकुल नहीं! उनकी दिलकश और दिलफरेब नग़्में, नज़्में हर बज़्म की आज भी जान होते हैं; वे हमें और जहान को रौशन रखने के लिए कई चराग़ छोड़ गए हैं - लहू की बूँद भी काँटों पे कम नहीं होती
कोई चराग़ तो सेहरा में छोड़ते जाओ
बहुत बहुत बढ़िया लिखा
ReplyDeleteलिपि जरूर देवनागरी है, लेकिन अधिकाधिक उर्दू शब्दों के प्रयोग के कारण अर्थ ग्रहण में कठिनाई महसूस हो रही है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आलेख, इससे जाँ निसार अख्तर की जीवन और साहित्यिक यात्रा का सुन्दर परिचय मिला। और आज एक बार फिर हृदय शिवप्रसाद जी द्वारा देवनागरी में नुक़्ता जोड़ने के काम के प्रति नत-मस्तक हो गया। किस रवानगी और समझ से हम उर्दू के पाठ आसानी से देवनागरी में लिख पाते हैं। जाँ निसार साहब आसान अल्फ़ाज़ में दिल जीतने का हुनर रखते थे। उम्दा लेखन के लिए ज़ाहिद जी को शुक्रिया और मुबारकबाद।
ReplyDeleteज़ाहिद जी,बहुत शुक्रिया व मुबारकबाद, जां निसार अख्तर जी की बहुत उम्दा जानकारी दी आपने साथ ही कई नए उर्दू शब्दों को सीखा। शुक्रिया।
ReplyDeleteजाँ निसार अख्तर साहब पर उम्दा लेख है। ज़ाहिद जी ने इस विस्तृत लेख के माध्यम से महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराई। लेख पढ़ने में आंनद आया। इस रोचक लेख के लिये ज़ाहिद जी को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteवाह, जनाब जां निसार अख़्तर जी के बारे में इतनी जानकारी नह थी। अभी तक केवल उनके नाम व गीतों नज़्मों से ही परिचय था। इस जानकारी के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteये इश्क का सौदा ये रिसाले ये किताबें
ReplyDeleteइक शक़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं
इश्क़िया शायरी को नए यथार्थ-बोध से परिचित कराने वाले जाँ निसार साहब रुमानियत के शायर थे। वह एक अलबेले शायर थे जिन्हें चीख़ते रंग पसंद नही थे। उनके बेतकल्लुफ़ ज़ुल्फ़ वाले हुलिये में अलग ही महबूबीयत थी। आदरणीय जाहिद जी के आलेख ने इस हरफनमौला शायर को बड़ी अर्थतापूर्ण अपनी लेखनी में ढाला है। जाहिद जी ने जाँ निसार जी के जीवनी को रूमानी दायरे से बाहर निकालकर जिंदगी के तल्ख हक़ीक़तों से जोड़ा है। बहुत ही खूबसूरत आलेख के लिए जाहिद जी का शुक्रिया और सलाम।
ज़ाहिद जी , आपने जाँ निसार अख़्तर पर यादगार लेख लिखा है । भाषा खूबसूरत है, शोध मज़बूत है, और रवानी ऐसी कि पाठक बीच में छोड़ ही नहीं सकता। संदर्भ में कही गई शायरी भी बहुत सुंदर है। आपके लेखन का अनुभव एवं परिपक्वता साफ़ झलकते हैं। आपको बधाई एवं शुभकामनाएँ। 💐💐
ReplyDeleteज़ाहिद जी, आपका जॉ निसार अख़्तर पर सुगठित, रोचक और प्रवाहमय आलेख बहुत पसंद आया। पाठक को बाँधकर रखने वाले आलेख के लिए आपको बधाई और शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteजाहिद भाई,जाँनिसार अख़्तर पर प्रस्तुत आपका आलेख बहुत ही अच्छा और शोध परख है। आपने उनके सभी पहलुओं को इस आलेख में समेटा है। आपकों बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteआप सभी दोस्तों को लेख पसंद आया, यह मेरी ख़ुशनसीबी है। आप सब का मैं तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूं।
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