‘जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल २०१७ – आधुनिकता : एक खोज’ के एक सत्र का बस अंत हो रहा था; दर्शकों के कुछ अंतिम
प्रश्न थे। एक युवा-दर्शक पेनलिस्ट से कामों, काफ़्का, नित्ज़े का नाम
लेकर हिन्दी में आज के डिस्कोर्स के बारे में पूछता है।
एक पेनलिस्ट
मुस्कुरा कर करारा-सा जवाब देती हैं- “कामों, काफ़्का और सात्र सालों से चमगादड़ों की तरह हिन्दुस्तान के छात्रों के मन
में लटके हुए हैं। आई कैन वेट माय बॉटम डॉलर कि ९९
फ़ीसदी ने उनको पढ़ा भी नहीं है! …ये तो अपने मूल स्थान में भी बिसरे हुए युग की
चीज़ हो गए हैं। मुझे लगता है, हर समय अपने काल का फड़कता
हुआ डिस्कोर्स तैयार करता है; यदि आप सच में उसे खोजना चाहते
हैं तो नीमच, शाहजहाँपुर जैसी छोटी-छोटी
जगहों पर भी यह डिस्कोर्स मिल जाता है।”
इतनी साफ़गोई से इस
अँग्रेज़ी परस्ती के नकाब को वही खींच सकता है, जो हिन्दी के साथ-साथ
अंग्रेज़ी-साहित्य में भी गहरी पैठ रखता हो; और देश-विदेश के
साथ, कस्बाई जीवन से भी अनुप्राणित हो; यह हैं पद्मश्री मृणाल पाण्डेय। मृणाल हाज़िर-जवाबी,
नारी-चेतना और साफ़गोई का दूसरा नाम हैं। यह धारदार मेधा सुप्रसिद्ध लेखिका, उनकी माँ गौरा शिवानी की देखभाल में सधी है। यह माँ-बेटी का ‘पद्मश्री’
सुसज्जित विरल जोड़ा है।
मृणाल का जन्म
२६ फरवरी १९४६ में टीकमगढ़ (मध्यप्रदेश) के
ओरछा पैलेस में अपने मामा के घर हुआ। मृणाल गौरा की पहली संतान थीं। मृणाल के पिताजी शुकदेव
पंत शिक्षा विभाग में थे। गंभीर और अध्ययन प्रिय
मृणाल का बचपन पिता के तबादलों में लिपटा रहा। हर डेढ़-दो
साल में पिताजी का तबादला होने पर भाषा और जन-मानस की जो विविध और विस्तृत छवि मृणाल ने देखी, वह कालांतर में उनकी पत्रकारिता में बहुत काम आयी।
जब परिवार दस
साल नैनीताल रहा तो जीवन ज़रा स्थिर हुआ। मृणाल ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा वहीं पूरी
की। आज प्रतिगामी ताकतों के खिलाफ बेबाक कलम चलने वाली मृणाल, बचपन में अपनी सौतेली बड़ी बहन से अधिक सुन्दर, अधिक
मेधावी होने की अपराध भावना से ग्रस्त होकर अंतर्मुखी रहीं।
गौरा ने नैनीताल
में लेखन आरम्भ किया था और वह शिवानी नाम से प्रसिद्ध हुईं।
ऐसा लगा जैसे उनकी बरसों की शांति निकेतन की शिक्षा और गुरु रवीन्द्र की सोहबत रंग
ला रही थी। मृणाल माँ की सबसे मुँह लगी संतान थीं; सो वह
उनकी एडिटर, टाइपिस्ट और पोस्टमैन बनीं। माँ के जीवन का उतार-चढ़ाव, पितृ-सत्ता का रौब, रिश्तेदारों की डाह, यह सब
उन्होंने नज़दीक से देखा। मृणाल माँ पर नाराज़ होतीं तो,
माँ समझाती कि लड़कियों को यह तेवर शोभा
नहीं देता। एक स्वाभिमानी, निडर, ज़ुबान
की तेज़ और परोपकारी लड़की कुछ सालों के लिए जैसे चुप लगा
गई। मृणाल देखतीं कि पुरुष-प्रधान समाज में सारी व्यवस्था, सारी
रीति-नीतियाँ नारी के लिए ही थीं; पुरुष पर कोई बंधन नहीं था।
मृणाल के मुक्त-आत्मा, सुंदर, वाक्पटु
और मस्त-मौला मन में यह सब देख कर क्रोध और विद्रोह
पलने लगा।
मृणाल बचपन से
अत्यंत तीक्ष्ण-बुद्धि थीं- पढ़ने में होशियार,
सेल्फ-स्टार्टर! बचपन में ही उन्होंने किताबों से दोस्ती कर ली। सोलह साल की उम्र में उन्होंने वजीफ़ा लेकर इलाहाबाद
विश्वविद्यालय से स्नातक शिक्षा आरम्भ की। अब वह पहाड़ों की सादगी और जीवंतता से
अचानक मैदानी दुनिया के सपाटपन और बाहुल्य में आ गईं थीं। पिता के इलाहाबाद तबादले
तक वे हॉस्टल में ही रहीं, किन्तु पिता के आने के बाद घर आकर रहना हुआ। शहर के बड़े-बड़े साहित्यकार शिवानी से मिलने आते, परन्तु
युवा-मन उन दिनों इन बातों में कहाँ लगता। मृणाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से
अंग्रेज़ी से स्नातकोत्तर किया, और साथ में संस्कृत-साहित्य,
प्राचीन भारतीय इतिहास जैसे विषय भी पढ़े। परंपरा और प्रतिभा का यह
संगम इसी ठसक के साथ उनमें सदैव रहा। इसकी बानगी आज भी
उनके ट्विटर अकाउंट पर प्राय: मिल जाती है।
स्नातकोत्तर के
तुरंत बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उन्हें व्याख्याता की नौकरी मिल गई। उसी समय
अरविन्द पाण्डे का उनके जीवन में आगमन हुआ; शादी हुई और मृणाल सब
कुछ छोड़ कर नीमच चली गईं। वहाँ २१ की वय में उन्होंने अपनी पहली कहानी ‘कोहरा और मछलियाँ’
लिख कर धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती को भेजी, जिसे हफ्ते भर में छपने की स्वीकृति मिल गई। मृणाल या शिवानी ने भारती जी
को बहुत समय तक यह नहीं बताया कि मृणाल शिवानी की बेटी हैं। इस बात के लिए बाद में
भारती जी से जो शाबाशी की चिट्ठी मृणाल को मिली, वह उन्होंने
अब तक सँभाल कर रखी है।
यह पहला वाक़या
नहीं था, जब मृणाल ने चुप रह कर अपने बूते पर कुछ महत्वपूर्ण
हासिल किया था। लिखने का सिलसिला जो ‘धर्मयुग’
से शुरू हुआ, ‘सरिता’ से होता हुआ आगे बढ़ता गया। मृणाल नियमित रूप से लिखने लग गईं। अंदर का
कलाकार क्या चाहता है, इसके अन्वेषण में मृणाल ने बरसों
शास्त्रीय संगीत, नृत्य, पेंटिंग सब
सीखा। पति के वाशिंगटन प्रवास के दौरान उन्होंने पुरातत्व तथा ललित कला की शिक्षा
कारकारन (वाशिंगटन डी. सी.) से प्राप्त की। विदेश से लौटकर उन्होंने शास्त्रीय
संगीत की विधिवत् शिक्षा ली। घर के पास आगरा घराने की गायिका दीपाली जी से सीखना
शुरू किया, और बाद में नैना देवी
से ठुमरी गायन सीखा। हालांकि अपनी इस कला को उन्होंने कभी सार्वजनिक मंच नहीं दिया; जो भी सीखा, अपने लिए सीखा- स्वांत: सुखाय!
१९८० के दशक के
मध्य में मृणाल का पत्रकारिता में पदार्पण हुआ, किन्तु इससे पहले वे इलाहाबाद, दिल्ली और भोपाल विश्वविद्यालयों में बतौर प्रोफेसर पढ़ा चुकीं थीं। भोपाल
प्रवास के दौरान उन्होंने मौलाना आज़ाद कॉलेज फॉर टेक्नोलॉजी में अंग्रेजी भी पढ़ाई।
वहाँ नब्बे प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों से आते थे,
जिन्हें व्याख्यान (लेक्चर) समझने में दिक़्क़त होती थी, आत्मविश्वास कम होता था। मृणाल ने उनके साथ बहुत मेहनत की, फिर दिल्ली लौट कर
उनका अंग्रेज़ी पढ़ाने का मन नहीं हुआ।
पत्रकारिता
और मिडिया:
मृणाल लेखन के
लिए ही बनी थीं, सो लेखन पर पूर्णत: केंद्रित हो
कर उन्होंने कई ग्लास सीलिंग्स तोड़ीं, नई राहें बनाईं,
नए कीर्तिमान स्थापित किए; हिन्दी और
अंग्रेज़ी दोनों में समान रूप से दक्ष होने के बावजूद उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता की
राह चुनी और अंग्रेज़ी एलीट का डट कर सामना किया। यहाँ उन्होंने सीखा कि यदि हम
चाहते हैं कि लोग हमें गंभीरता से लें, तो हमें स्वयं को
गंभीरता से लेना होगा।
श्रीकांत वर्मा
के कहने से १९८४ में जब उन्हें मासिक
पत्रिका ‘वामा’ के संपादन का
काम मिला, तब उन्होंने निश्चित किया कि यह फैशन पत्रिका न
होकर ‘विचारशील महिलाओं की विशिष्ट पत्रिका’ के रूप में स्थापित हो। चार साल के संपादन के बाद उन्होंने ‘वामा’ छोड़ कर स्टार टीवी के हिन्दी चैनल का काम शुरू किया।
वर्ष २००० में
भारत के एक बहु-संस्करण हिन्दी दैनिक हिंदुस्तान (हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप) की वह पहली
महिला मुख्य संपादक बनीं। मृणाल जी ने ‘हिन्दुस्तान’ की कमान संभाली तो उन्हें हर कदम पर संघर्ष करना पड़ा- हिन्दी पत्रकारों के
हौसले, वेतन की समानता और विज्ञापन के पहलुओं पर वह लड़ती
रहीं। प्रिंट मिडिया को हिन्दी की व्यावसायिकता पर हमेशा शक रहा और लुटे-पिटे
विज्ञापन वो हिन्दी की तरफ खिसकाते रहे। बीस साल की अथक मेहनत के बाद ‘हिन्दुस्तान’
का सर्कुलेशन बढ़कर लाखों में हो गया।
मृणाल पाण्डे ने
हिन्दी पत्रकारिता के कुनबे में सक्षम लोगों को जोड़ने की एक मुहिम शुरू की। यह
जानते हुए कि जुड़ने वाले पत्रकार हमेशा उनके साथ नहीं रह सकते, वे पत्रकारिता के
शिखर पर योग्य और प्रतिभाशाली लोगों को लाने में जुटी रहीं। उन्होंने पत्रकारिता
को आकर्षक, मजबूत और दायित्वपूर्ण बनाया। अपनी
प्रतिभा पर भरोसा करते हुए रंच मात्र भी नैतिक समझौता
नहीं स्वीकारना उन्हें आदरणीय बनाता है। पत्रकारिता की
उत्कृष्ट सेवा के लिए २००६ में उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया। कुछ वर्षों तक वे ‘सेल्फ एम्प्लायड वूमेन कमीशन’
की सदस्य रहीं। उन्होंने असंगठित, अनौपचारिक
क्षेत्र में महिला श्रमिकों की स्थिति और जीवन पर केन्द्रित भारत का पहला दस्तावेज
‘श्रमशक्ति’ तैयार किया, जो १९८९ में प्रकाशित हुआ। अप्रैल २००८ में उन्हें पीटीआई का बोर्ड सदस्य बनाया
गया। वह ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ की महासचिव बनने वाली पहली महिला हैं।
एनडीटीवी के अलावा उन्होंने दूरदर्शन में भी हिन्दी
समाचार संपादक, एंकर के रूप में काम किया। लोकसभा चैनल के
साप्ताहिक साक्षात्कार कार्यक्रम ‘बातों बातों में’
का संचालन भी उन्होंने कई वर्षों तक किया। कानून पर आधारित ‘अधिकार’ नाम का एक शो वह होस्ट किया करती थीं। ३० साल तक हिन्दी पत्रकारिता के
शिखर पर काम करने के बाद उन्हें २०१० में भारत के राष्ट्रीय प्रसारक, प्रसार भारती का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उन्हें
‘बातों बातों में’ और ‘फ़िल्म सर्टिफिकेशन
बोर्ड’ की सदस्यता छोड़नी पड़ी। प्रसार भारती में उन्होंने दो-तरफ़ा लड़ाई लड़ी,
किन्तु उस अनुभव ने उन्हें काफ़ी कुछ सिखाया। ब्यूरोक्रेसी
की बारीकियों से लेकर सरकार की अपनी बनाई किसी संस्था
को स्वायत्तता देने की हिचकिचाहट को उन्होंने बड़े करीब से देखा। मार्च २०१४ में
अपना कार्यकाल पूरा होते ही मृणाल बेबाक हो कर कहती हैं कि- “यदि
सरकार इसे अपनी गौशाला न बना ले और सचमुच ही स्वायत्तता दे, तो पब्लिक ब्रॉडकास्टर के नाते प्रसार भारती बहुत कुछ कर सकता है।”
मृणाल पाण्डे
जैसे जुनूनी लोगों से ही दुनिया का लुत्फ है,
मीडिया की गहराई है। २०१४ में उन्हें पत्रकारिता के लिए ‘रेडलिंक लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवार्ड’ से सम्मानित
किया गया।
साहित्यिक
लेखन:
पत्रकारिता की
आँच से उनका साहित्यिक लेखन कुंद नहीं पड़ा, बल्कि उसमें एक
पैनापन और सामयिकता आ गयी। मृणाल मानती हैं कि साहित्य से खेलना, मटकना, लड़ना चाहिए। उनका लेखकीय मन जीवन-रस के
परिपाक को कहानियों की तरह लिखता रहा- हिन्दी में भी और अंग्रेजी में भी। उनके
विविध ज़मीनी अनुभवों, तीक्ष्ण मेधा
और विषद् अध्ययन ने उनके भाषा-शिल्प को प्रयोगात्मक और विषय-वस्तु को ज़मीनी रखा। उन्होंने
पहाड़ी किस्सागोई के जादू को पत्रकारिता की पैनी नज़र ने
संतुलित किया।
पत्रकारिता से
मृणाल को रचनात्मक लेखन के लिए स्वानुभूति का कच्चा माल मिला। लोगों के दुःख-दर्द, काम की पॉलिटिक्स, यूनियन के दांव-पेंच से निपटते-निपटते
मृणाल ने बहुत कुछ सीखा, जो उनके उपन्यास और कहानियों में
झलका। वे अपने लेखन में समय तथा समाज के गम्भीर मसलों को लगातार उठाती रहीं।
भारतीय स्त्रियों के संघर्ष और जिजीविषा को भी वे व्यापक परिप्रेक्ष्य में
देखती-परखती रहीं, लगातार उस पर शोध करती रहीं, बोलती रहीं। स्त्रियों के प्रति गहरी
प्रतिबद्धता के बावजूद उनका लेखन स्त्री-विमर्श की नारेबाजी में नहीं सिमटा। वे
समय-समय पर ‘नारी-वाद आन्दोलन की विडम्बना’ को भी उजागर करती रही हैं। मृणाल अपने पात्रों
से संवेदना के स्तर पर जुड़ जाती हैं- यह उनके लेखन को विशिष्ट बनाता है।
“करुणा
के भीतर की बेचैनी को रेखांकित करना, मृणाल पाण्डे के लेखन
की खास विशेषता है।” -गुड रीड्स
हिन्दी में नाटक
जैसे महिला-शून्य प्रदेश में भी उन्होंने बड़े अच्छे और जीवंत नाटकों की फसल बोयी।
शाब्दिक तीरों से लैस ऐसी ज़बरदस्त शैली में संवाद लिखे कि पाठक कभी उचकता, कभी पढ़ता और कभी मुस्कुराता रह
जाए।
कई बार ऐसा लगता
है कि माँ शिवानी की छाया में या आइकॉनिक पत्रकार होने की चकाचौंध में उनके
साहित्य का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया। उनका बहुचर्चित उपन्यास ‘सहेला रे’ भारतीय संगीत की साधना
का गीत है। यह उपन्यास पहाड़ों की पृष्ठभूमि में पुराने संगीत साधकों की तिलस्मी दुनिया में प्रवेश करता है। सच कहें तो यह किताब उनकी पहाड़ी परवरिश, संगीत-साधना
और लोक-जीवन के समझ की एक मिसाल है।
‘जहाँ औरतें गढ़ी जाती
हैं’ किताब समय-समय
पर लिखी गई उनकी टिप्पणियों और आलेखों का संकलन है। राजनीति में ‘महिला सशक्तिकरण’ और ‘पंचायती राज की महिला भागीदारी’ जैसे बड़े सवालों के साथ-साथ कई अन्य छोटे प्रश्नों को भी किताब में उठाया
गया है।
कुछ वर्ष पूर्व
उनकी किताब ‘हिमुली हीरामणि कथा: पुराना कलेवर नये तेवर’ किस्सागोई
की प्राचीन विधा को फिर से जीवित करने वाली साबित हुई। पहाड़ों पर तो वैसे भी शामें
लम्बी होती हैं; लोग सीना-ब-सीना किस्से सुनते-सुनाते हैं। इस किताब में उन्होंने
किस्सों को समकालीन बनाकर पारम्परिकता में सामयिकता का छौंक लगाया है। जो सचमुच
में बुद्धिशाली होते हैं, वह पुराने को पूर्णतः ख़ारिज नहीं
करते; इसका जीता-जगता प्रमाण हैं मृणाल!
२०२१ में उनकी
नई किताब ‘ध्वनियों के आलोक
में स्त्री’ हिन्दी में पहली किताब है, जिसमें शास्त्रीय गायन की यात्रा में महिलाओं की भूमिका पर बात की गई।
संगीत की जड़ें लोक-संगीत में हैं, और लोक-संगीत की सबसे बड़ी थाती महिलाओं के पास हैं। किताब में ‘गौहर जान’ से
लेकर ‘बेगम अख़्तर’ तक और ‘मोघूबाई’ से लेकर ‘गंगुबाई हंगल’ तक के अकल्पनीय
संघर्षों को गहरी संवेदना को आत्मीयता से आलोकित किया गया है। वास्तव में संगीत के
प्रसंग से यह किताब सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास के उस
अध्याय पर रोशनी डालता है, जो अभी
तक मटमैला है।
हिन्दी
पर उनके विचार:
मृणाल कहती हैं
कि हिन्दी-उर्दू अगर दो बड़ी नदियाँ हैं, तो प्रादेशिक बोलियाँ इनकी फ़ीडर नदियाँ हैं। हिन्दी को बोलियों से दूर नहीं
जाना चाहिए और शुद्धिकरण से बचना चाहिए। लोक ही किसी भाषा को नए शब्द देगा और
जीवित रखेगा। मृणाल का मत है कि भाषा का दायरा तब फैलता है,
जब उसमें नॉन-फिक्शन लिखा जाता है। भाषा जनता गढ़ती है,
इसलिए असली हिन्दी वह है, जो सभी प्रान्तों की
हिन्दी का जोड़ हो।
उनका यह भी कहना
है कि राजनीतिक हिन्दी को तो हमें अभी तैयार करना है। उनका
मानना है कि नारीवादी विमर्श हिन्दी में नकलची स्तर का है। ज़मीनी शोध और लेखन के बजाय उसमें आत्मकथात्मकता और आत्म-प्रदर्शन ही अधिक
है।
वर्तमान में
मृणाल ‘द नेशनल हेराल्ड ग्रुप’ की संपादकीय सलाहकार हैं तथा स्वतंत्र लेखन
करती हैं। उनकी दो मेधावी बेटियाँ अपने-अपने कार्य-क्षेत्र
में प्रवीण हैं, और वह अपने पति श्री अरविन्द पाण्डेय के साथ
दिल्ली में रहती हैं।
जो मृणाल पाण्डेय
को ट्विटर पर फॉलो करते हैं, वे जानते होंगे; कि उनको सत्ताधारी दल से कोई प्रेम नहीं है। वे सरल भाषा में गहरी बात कह
कर, २५० अक्षर में बड़ी-बड़ी लड़ाईयाँ लड़ लेती हैं।
नारी स्वतंत्रता, गतिशीलता और बोलियों के सरल प्रवाह में
कूदती-फाँदती एक लहर की तरह मृणाल पाण्डेय की प्रज्ञा सालों तक गतिमान रहे, भाषा
की तरलता बनी रहे।
मृणाल पाण्डेय
: जीवन परिचय |
|
जन्म |
२६ फरवरी
१९४६, टीकमगढ़ (मध्य प्रदेश) |
माता- पिता |
श्रीमती गौरा
पंत ‘शिवानी’- श्री शुकदेव पंत |
भाई |
श्री मुकेश
पंत |
बहने |
इरा
पाण्डेय, वीणा जोशी |
पति |
श्री अरविन्द
पाण्डेय |
शिक्षा |
एम.ए.
(अंग्रेजी साहित्य), इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद एम.ए. (संस्कृत
साहित्य), नैनीताल विश्वविद्यालय, नैनीताल संगीत
विशारद, गन्धर्व
महाविद्यालय चित्रकला
एवं डिजाइन,कॉरकोरन स्कूल ऑफ आर्ट (वाशिंगटन) |
कर्मभूमि |
दिल्ली, प्रयागराज, भोपाल, नीमच |
साहित्यिक अवदान |
|
उपन्यास |
विरुद्ध
(१९७७), पटरंगपुर पुराण (१९८३), रास्तों पर भटकते हुए (२०००), हमका दियो परदेस(२००१), अपनी गवाही(२००३), सहेला रे |
कहानी-संग्रह |
दरम्यान,
शब्दबेदी, एक नीच ट्रेजिडी, एक स्त्री का विदागीत (१९८५), यानी कि एक बात थी
(१९९०), बचुली चौकीदारिन की कढ़ी (१९९०), चार दिन की जवानी तेरी (१९९५) |
निबंध/ इतिहास |
ध्वनियों
के आलोक में स्त्री, स्त्री : देह की राजनीति से देश की राजनीति तक (१९८७), परिधि
पर स्त्री (१९९६), ओ उब्बीरी.... (२००३), जहाँ औरतें गढ़ी जाती हैं (२००६), स्त्री:
लम्बा सफर (२०१२) |
नाटक |
मौजूदा
हालात को देखते हुए, जो राम रचि राखा (१९८१), आदमी जो मछुआरा नहीं था (१९८४), चोर
निकल के भागा (१९९५), काजर की कोठरी, शर्मा जी की मुक्तिकथा |
अंग्रेज़ी (साहित्य) |
द
सब्जेक्ट इज वूमन (महिला-विषयक लेखों का संकलन), द डॉटर्स डॉटर, माई ओन विटनेस
(उपन्यास), देवी- १९९१ (उपन्यास-रिपोर्ताज), स्टेपिंग आउट: लाइफ एंड सेक्सुअलिटी
इन रूरल इंडिया, द अदर कन्ट्री: डिस्पेचस फ्राम द मोफूसिल |
सम्पादन |
दैनिक व साप्ताहिक
हिन्दुस्तान, वामा पत्रिका
(1984- 1987) हिन्दी
समाचार संपादक- स्टार न्यूज और दूरदर्शन |
पुरस्कार व सम्मान |
|
पद्मश्री- २००६ रेडलिंक लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवार्ड (प्रेस
क्लब मुंबई द्वारा)- २०१४ |
सन्दर्भ:
https://jaipurliteraturefestival.org/wab-speaker/mrinal-pande
https://m.bharatdiscovery.org/india/मृणाल_पाण्डे
https://youtu.be/zjS2cZaTC_8
https://dolatti.com/2021/12/06/mrinal-pandey-n-hotin-to-dhah-jati-patrakarita/
https://www.thequint.com/news/india/my-mother-the-writer-and-her-unspeakable-tale#read-more
· एक सुपरिचित हिन्दी कवयित्री और हिन्दी के प्रचार-प्रसार में संलग्न।
· तेल
एवं ऊर्जा सलाहकार के रूप में २००५ से सिंगापुर में कार्यरत।
· संस्था ‘कविताई-सिंगापुर’ भारत
और सिंगापुर के काव्य-स्वरों को जोड़ती है।
· हिन्दी से प्यार है’ की कोर टीम से ‘साहित्यकार-तिथिवार’ परियोजना
का नेतृत्व और प्रबंधन कर रही हैं।
बहुत सुंदर आलेख है , शार्दुला जी। आपने मृणाल जी के कृतित्व के हर पक्ष को उजागर किया है , सुगढ़ और प्रभावशाली भाषा में। मृणाल जी को यह लेख पढ़कर प्रसन्नता होगी। आपको बधाई।ढेरों शुभकामनाएँ ।💐💐
ReplyDeleteअच्छे प्रयास व प्रयास में सफल रहने की शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत सुंदर आलेख!
ReplyDeleteBahut badhiya likha hai!
ReplyDeleteनारी विमर्श एवं पत्रकारिता के साथ-साथ हिंदी साहित्य की खुशबू से अपनी गंध बिखेरने वाली मृणाल पांडे जी के जीवन के सभी आयामों को समेटता हुआ सुंदर आलेख.....आपको बहुत-बहुत बधाई, शार्दुला जी....
ReplyDeleteशार्दुला जी,बहुत बढ़िया लेख,हार्दिक बधाई। मृणाल जी की पत्रकारिता, टीवी का कार्य निसंदेह प्रशंसनीय रहा है। वरिष्ठ पत्रकार होने के कारण सामाजिक, राजनैतिक परिपक्वता उनकी कलम की खासियत बन गई है। अपने विचार, सरोकार से एकनिष्ठ रहकर प्रवाह के विरुद्ध दिशा में यात्रा करने का दम रखती है। पता नहीं क्यों कुछ लोग प्रवाह पतित होकर सच को सच मानने से क्यों इनकार करते है? अनुभव संपन्न विचारों का स्वागत होना चाहिए। मैंने ट्विटर पर उनकी मुठभेड़,साफ बात रखने की हिम्मत देखी है।
ReplyDeleteशानदार लेख, आनंद आ गया पढ़ के। साथ ही मृणाल जी को ट्विटर पर फॉलो करने की तीव्र इच्छा भी जाग गयी।
ReplyDeleteशार्दूला जी बहुत अच्छा लिखा है आपने। मृणाल जी को पढ़कर, सुनकर जितना अभी तक जान सकी थी ....उससे कहीं ज्यादा उन्हें, आपके इस लेख के माध्यम से जान सकी हूँ। मौजूद समय को ऐसे ही बेबाक और जुझारू पत्रकार की आवश्यकता है और वे बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात कहने का माद्दा रखती हैं। आपने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के हर पहलू पर जानकारियाँ उपलब्ध कराई है। इस सुरुचिपूर्ण लेख जे लिए आपको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteमृणाल पांडे जी ने हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता में अपनी विशेष पहचान बनाई। सामाजिक सरोकारों पर उन्होंने अपने विचारों को प्रखरता से रखा। शार्दुला जी, उनकी वैचारिक यात्रा एवं जीवन के विभिन्न आयामों को आपने इस लेख में बखूबी समेटा है। आपके इस रोचक लेख के माध्यम से मेरा ज्ञानवर्धन हुआ। इस उत्तम लेख के लिए शार्दुला जी आपको हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteएक मज़ेदार बात बताती हूँ। जब मैं स्कूल कॉलेज में थी, कोटा एक छोटा industrial town हुआ करता था। जब TV आया तो मृणाल जी को बॉब कट में, चमकते हुए चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ पैनी बात कहते हुए सुनते थे तो सपनों में पंख लग जाते थे! courage & conviction क्या होता है, महिला का intelligent होना, establish होना क्या होता है, वह भी मज़े से हिन्दी बोल कर- यह हमें सिखा गई मृणाल जी!
ReplyDeleteप्रसिद्ध साहित्यकार शिवानी की बेटी होने के बावजूद अपनी अलग पहचान बनाकर एक महिला होकर दूसरी महिलाओं के वजूद को नया रास्ता मार्गदर्शित करने का जिम्मा उठाया। किसी भी गलत बात को टक्कर देकर अपनी बुलंद आवाज,साहस और जुनून से नित नए आयाम बनाना उनकी फितरत ही नही विशेषता रही है। स्त्री समाज मे नवीनतम निर्माण तथा पथप्रदर्शक बनकर उभरी हुई प्रख्यात पत्रकार पद्मश्री से सम्मानित मृणाल पाण्डे का आलेख आदरणीया शार्दुला जी ने बड़ी आत्मीयता और रोचक पध्दति से लिखा है। अपनी लेखनी की क्षमता को विकसित कर निरंतर खोज प्रयास से यह लेख अति ज्ञानवर्धक बन पड़ा है। मृणाल जी के वर्चस्व,कार्यप्रणाली और विशेषताओं का अहम भाग इस लेख में जोड़कर शार्दुला जी ने उन्हें देश की महिलाओं और स्वयं विकसित क्षेत्रों में आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया है। सुंदर और सहज आलेख के लिए अति आभार और हिंदी से प्यार है समूह में सक्रिय सहभागिता के लिए खूब खूब अभिवादन।
ReplyDeleteबहुत ही सारगर्भित व उत्तम लेख,मृणाल जी की मुस्कराती तस्वीर शुरुआत में देखकर मन प्रफुल्लित हो गया और पढ़कर तो ऐसा लगा जैसे गागर में सागर समाई हो। इस रोचक लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ शार्दुलाजी।
ReplyDeleteDevendra Chaubey Ji:
ReplyDeleteदेवेन्द्र चौबे जी ने यह महत्वपूर्ण टिप्पणी भेजी है:
🍁👍🏻🍁
मृणाल जी गंभीर कथाकार है। मेरी किताबों में इनकी खूब चर्चा है; खासकर *समकालीन कहानी का समाजशास्त्र* में।
जब दैनिक हिंदुस्तान में थी, तब 1996 में मेरी कहानी *एक व्यस्त शहर की कहानी* और रविवार के अंक में एक फीचर *घरेलू नौकर: न घर के, न घाट* के प्रकाशित किया था।
पर निजी मुलाकाते न के बराबर है।
🍁
ReplyDeleteशार्दुला जी, जैसी मृणाल पाण्डेय जी के जीवन और काम में रवानगी और सरसता है, उसी प्रवाह और सहजता से आपने उन पर आलेख लिखा है। आपने उनके बहुआयामी कृतित्व के विभिन्न पहलुओं को बख़ूबी समेटा है। मज़ा आ गया आलेख पढ़कर। आपको इसके लिए धन्यवाद और बधाई।
शार्दुला जी, जीवन को अपने उसूलों, अपने तेवर पर जीनेवाली, दूसरों के दुःख-दर्द को बख़ूबी महसूस करने वाली, स्वानुभूति को बेबाक तरीक़े से ज़बान और कलम दोनों से बयान करने वाली मृणाल पांडे के व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ आप की लेखनी ने अच्छा न्याय किया है और हम पाठकों को एक ख़ूबसूरत तोहफ़ा दिया है। आपको इस लेख के लिए बधाई और आभार।मृणाल पांडे को जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई और यह कामना है कि उनकी कलम और शब्दों की धार दिन दूनी रात चौगुनी पैनी होती रहे।
ReplyDeleteमृणाल जी के जीवन के सभी पहलुओं को बेहद रोचक ढंग से प्रस्तुत करता आलेख। बहुत धन्यवाद शार्दूला जी।
ReplyDeleteMrinal Pandey Ji Retweeted the article with comments:
ReplyDeleteधन्यवाद और सस्नेह शुभाशीष शार्दुला ।�� -
अत्यंत मनभावन लेख शार्दुला जी। आज ही पढ़ा, और मुग्ध हो गई।
ReplyDeleteमृणाल पांडेय जी की रचनाशीलता को बड़ी सार्थक अभिव्यक्ति दी है आपने।
"नारी स्वतंत्रता, गतिशीलता और बोलियों के सरल प्रवाह में कूदती-फाँदती एक लहर की तरह मृणाल पाण्डेय की प्रज्ञा..." में जो आपने भाषा की रमणीयता उकेरी है, वह निःसंदेह प्रशंसनीय है।
अहा! अभी तक मृणाल जी टीवी को परदे पर बोलते हुए देखा था या विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके आलेख पढ़े थे| शार्दूला, आपके इस आलेख के द्वारा उनके मन के अन्दर झाँकने का अवसर मिला| बहुत ही सरल और मनभावन शब्दों में लिखे इस आलेख के लिए बधाई आपको| बोलियों को मुख्य भाषा में सम्मिलित करने की बात बिलकुल सटीक है| भाषा का सौन्दर्य इससे और भी पुष्पित हो सकता है| बहुत बहुत बधाई आपको |
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