Monday, February 7, 2022

जगद्गुरु संत तुकाराम


पंढरपुर स्थित विठ्ठल भगवान के वारकरी संप्रदाय के प्रमुख संतों में संत तुकाराम का नाम बहुत आदरपूर्वक लिया जाता है। संत तुकाराम को आदरपूर्वक 'तुकोबा' भी बोला जाता है, जैसे विठोबा, चोखोबा। अंतिम शब्द 'बा' आदर वाचक बाबा, पिता के अर्थ में जोड़ा जाता है। हर वर्ष आषाढ़ी एकादशी को विठ्ठल भक्त पैदल यात्रा करते हैं, जिन्हें  वारकरी कहा जाता है। वारकरी संप्रदाय के घोष वाक्य में संत ज्ञानेश्वर के साथ संत तुकाराम का नाम भी कीर्तन, प्रवचन अथवा धार्मिक कार्यक्रमों में उद्घोषित किया जाता है।

पुंडलिक वरदा हरी विठ्ठल श्री ज्ञानदेव तुकाराम।
पंढरीनाथ महाराज की जय!

जब हिंदुस्तान पर विदेशी शक्तियों का आक्रमण हुआ और मंदिरों, पूजा स्थलों को तोड़ा जा रहा था, मूर्तियाँ ध्वस्त की जा रही थीं, हजारों वर्षों की श्रद्धा और धर्म पर कुठाराघात होने लगा था, तब महाराष्ट्र की भूमि पर संत ज्ञानेश्वर, एकनाथ, नामदेव और तुकाराम ने जनमानस में भागवत धर्म की ध्वजा फहराई।

संत कृपा झाली। इमारत फळा आली।।
ज्ञानदेवे घातला पाया। उभारिले देवालया।।
नामा तयाचा किंकर। तेणे केला हा विस्तार।।
जनार्दन एकनाथ। खांब दिला भागवत।।
तुका झालासे कळस। भजन करा सावकाश।।
बहेणी फडकते ध्वजा। निरुपण आले ओजा।।
(संत तुकाराम की शिष्या बहिणाबाई)
अर्थात,
संत कृपा से  भागवत धर्म भवन निर्मित हुआ।
ज्ञानदेव ने नींव रखी, मंदिर स्थापित किया।
नामदेव ने कंकर होकर विस्तार किया।
जनार्दन एकनाथ हुए स्तंभ।
तुकाराम हुए कलश।
एकाग्र होकर शांत चित्त से भजन करें।
बहिणा हुई ध्वज, प्रवचन हुआ प्रासादिक।
 
संत तुकाराम को महाराष्ट्र की संत परंपरा में भागवत धर्म का कलश माना गया है। भक्त भगवान के दर्शन करने से पहले प्रथमतः कलश का दर्शन करते हैं।

संत तुकाराम का जन्म पुणे ज़िले के देहु गाँव में ई सं० १६०८ में हुआ था। पिता का नाम बोल्होबा (बालोबाबावा)  माता का नाम कनकाई है। उनका उपनाम अंबिले (मोरे) था। पूर्वजों से परिवार को विट्ठल भक्ति, एकादशी का व्रत और पंढरी की आषाढ़ी-कार्तिकि वारी की विरासत मिली थी। सुख-संपन्न किसान परिवार में महाजनी, साहूकारी और व्यापार का काम होता था। तुकाराम महाराज सुसंस्कृत और प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य थे। उनके साहित्य में संस्कृत, पतंजलि योग और प्राकृत ग्रंथों के अनेक उदाहरण मिलते है। परिवार में पूर्वजों द्वारा स्थापित पांडुरंग मंदिर के कारण उन्हें कम उम्र में ही वहाँ होने वाले दैनिक भजन, कीर्तन और पुराणों का संस्कार प्राप्त हुआ था।

इतिहासकार लिखते हैं कि तुकाराम का प्रथम विवाह १४ वर्ष की आयु में रखमाई से हुआ था। पहली पत्नी बहुत कमजोर और बीमार रहती थी। तुकाराम अपनी आत्मकथा 'अभंग' (अभंग क्रमांक १३३३) में कहते हैं कि अकाल के कारण उनकी पहली पत्नी और बेटे की मृत्यु भूख से हुई थी। उनकी मृत्यु के उपरांत उनका दूसरा विवाह पुणे ज़िले के खेड़ के अप्पाजी गुलवे के अवलाई नाम की लड़की से संपन्न हुआ। तुकाराम के बड़े भाई सावजी अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद तीर्थ यात्रा पर गए और वापस नहीं लौटे। अतः सत्रह वर्ष की अल्पायु में ही व्यापार सहित समस्त लोकों का भार तुकाराम पर पड़ गया।  


 १६३०-३१ में महाराष्ट्र में भीषण अकाल पड़ा। व्यापार, उद्यम बंद हो गए। परिवार कर्ज़दार बन गया। इसलिए उन्होंने भगवान के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। बचपन से ही आध्यात्म के संस्कार जाग्रत हुए और वे अध्यात्म के मार्ग पर सक्रिय हुए। उनमें पढ़ने की एक ललक शुरू हो गई। वे एकांत में रहने लगे। देहु के आसपास सह्याद्री के कई खूबसूरत पहाड़ हैं। उनके पास जाकर वे पठन-ध्यान-चिंतन में लीन रहने लगे। वे देहू के उत्तर में भामनाथ या भामचंद्र पहाड़ी पर एक गुफ़ा में बस गए। यहीं उन्होंने गीता, भागवत, ज्ञानेश्वरी, एकनाथी भागवत, नामदेव की गाथा, योगवशिष्ठ, रामायण, दर्शन आदि का अध्ययन किया। वे परिवार की मोह माया से दूर रहने लगे। उन्हें संतों और हरि भक्तों की संगति भाने लगी।


जिस तरह उत्तर भारत में संत कबीर की रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों, अंधश्रद्धा और ढोंग पर प्रहार किया गया, उसी तरह संत तुकाराम की रचनाओं में समाज को जागरुक करने के क्रांतिकारी भाव पाए जाते हैं। संत तुकाराम की भक्ति रचनाओं में समृद्ध लोक भाषा की मिठास, अनुभवजन्य प्रसंग और गहन आध्यात्मिक विचार अत्यंत सरल, सहज भाषा में प्रकट होते हैं। उनकी रचनाओं की लोकप्रियता मौखिक परंपरा के अनुसार भागवत धर्मीय वारकरी पंथ में दृष्टिगोचर होती है। तुकाराम कृत गाथा का मुख्य आधार सर्व साधारण, आम जन की भाषा है।

मराठी 'अभंग' का अर्थ वह काव्य जो कभी भंग नहीं होता, जो चिरंजीव कालातीत रचना है। मराठी भक्ति साहित्य में अभंग की परंपरा को सर्वाधिक लोकप्रियता संत तुकाराम के कारण प्राप्त हुई।


समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंध श्रद्धा, जातिभेद, वर्ण अभिमान का अमूमन सभी संतों ने विरोध किया है। परंतु अधिकतर यह हुआ कि संतों के विचारों का विरोध तत्कालीन जाति- बांधव, सनातनी ब्राह्मणों ने किया। संत तुकाराम के जीवन में भी उनके विरोधी मम्बाजी और रामेश्वर भट ने  बाधा उत्पन्न की। एक किंवदंती के अनुसार रामेश्वर भट का कहना था कि तुकाराम जन्म से ब्राह्मण नहीं थे, इसलिए वेदों का ज्ञान देने का उन्हें अधिकार नहीं है। इसलिए उन्होंने संत तुकाराम लिखित गाथा को इंद्रायणी नदी में विसर्जित करने का 'जल दंड' दिया। माना जाता है कि संत तुकाराम के १३ दिवस के उपवास के बाद, यह विसर्जित गाथा स्वयं इंद्रायणी देवी ने पुनः उन्हें सुपुर्द की थी। रामेश्वर भट कुछ दिनों के बाद स्वयं संत तुकाराम के शिष्य बन गए। वे तब से संत तुकाराम को 'जगद्गुरु' उपाधि से संबोधित करने लगे।


संत तुकाराम की गाथा की लोकप्रियता सुनकर छत्रपति शिवाजी महाराज जी उनसे मिलना चाहते थे। उनकी भेंट पुणे में एक कीर्तन के कार्यक्रम के दौरान हुई। शत्रु की नजर छत्रपति शिवाजी पर थी। जान जोखिम में डालकर उन्होंने संत तुकाराम से भेंट की। इस भेंट के दौरान उन्होंने संत तुकाराम को स्वर्ण मुद्रा, आभूषण आदि संपत्ति नज़र की। तब संत तुकाराम ने उस नज़राने को मृत्तिका समान मानकर सविनय नामंजू़र किया। इस संबंध में उन्होंने लिखा है कि - 


आता पंढरिराया। येथे मज गोविसी कासया॥

आम्ही तेणे सुखी। म्हणा विठ्ठल विठ्ठल मुखी॥

 तुमचे येर ते धन। ते मज मृत्तिकेसमान॥

(पंढरीनाथ अब मुझे इस मोह में क्यों डाल रहे हो, हम तो विठ्ठल-विठ्ठल नाम स्मरण में सुखी हैं। आपके लिए यह धन है, लेकिन मेरे लिए यह मृत्तिका समान है।)


तुकाराम गाथा का संकलन और संपादन


गाथा की रचना मौखिक परंपरा के अनुसार लोक मानस में रूढ़ हो गई थी। इस गाथा का संकलन करने का महान कार्य तुकाराम के शिष्य संताजी जगनाडे तेली ने किया है। १७८७ में तुकाराम भक्त त्र्यम्बक कासार ने गाथा को शब्द बद्ध किया। गाथा की प्रथम मुद्रित आवृत्ति 'ज्ञान चंद्रोदय' ने १८४४  में प्रकाशित की थी, जिसमें ६२ अभंगों को शामिल किया गया था। १८६७ में शंकर पांडुरंग पंडित को ४५०० अभंगों का संपादन का कार्य अँग्रेज़ अधिकारी अलेक्स्जैंडर ग्रेट ने सौंपा था।

१८९६ में कृष्णराव अर्जुन केलुस्कर लिखित 'तुकाराम बावाचे चरित्र' ग्रंथ 'प्रकाशित हुआ।

महाराष्ट्र सरकार ने गाथा का अधिकृत प्रकाशन पु मा लाड के संपादन में १९५० को किया था, जिसे शासकीय अधिकृत ग्रंथ माना जाता है।

हिंदुस्तान अकादमी, इलाहाबाद ने हरि रामचंद्र दिवेकर लिखित हिंदी पुस्तक 'संत तुकाराम' १९५० प्रकाशित किया।


संत तुकाराम स्तुति


संत तुकाराम के कार्य और जीवनी के बारे में अनेक मराठी कवियों और संतों ने स्तुतियाँ लिखी हैं। इसमें प्रमुख बहिनाबाई, कवि मोरोपंतसंत निळोबाराय, कवि अरुण कोलटकर, कवि दिलीप चित्रे, रंगनाथ स्वामी, मराठी शाहिर होनाजी बाळा, रेव्हरंड रानडे आदि हैं। तुकाराम के व्यक्तित्व के बारे में जानकारी हेतु इन स्तुति, प्रशंसा साहित्य का विशेष महत्व है।

दिलीप चित्रे द्वारा लिखी पुस्तक 'Says Tuka' को 'The Longman Anthology of World Literature' में शामिल किया गया है। 


संतचरित्रकार महिपती ताहराबादकर (१७१५-१७९०)


मराठी के संत महिपती ने उत्तर भारत और महाराष्ट्र के २८४ संतों का चरित्र काव्य लिखा है। संत महिपती ने उल्लेख किया है कि संत तुकाराम ने उन्हें स्वप्न दृष्टांत देकर आदेश दिया कि मेरा संतचरित्र लेखन का अधूरा काम पूर्ण करें। उन्होंने  'भक्तविजय' और 'भक्तलीलामृत' ग्रंथ में संत तुकाराम चरित्र लिखा है। यह चरित्र अनेक दृष्टि से मानक माना जाता है। ईसाई धर्मगुरु रे० जस्टीन एडवर्डस एबोट ने मराठी पत्रिका 'ज्ञानामृत' हेतु महाराष्ट्र संत कवि माला के अंतर्गत संतचरित्रकार महिपती रचनाओं का अँग्रेज़ी अनुवाद किया, जो बाद में  स्टोरीज़ ऑफ़ इंडियन सेंटस नाम से विश्व प्रसिद्ध हुआ। 

संत महिपती के तुकाराम चरित्र का अँग्रेज़ी अनुवाद सी ए किनकेड (C A Kincaid C.V.O.) ने अपनी पुस्तक टेल्स ऑफ़ द सेंटस ऑफ़ पंढरपुर ('Tales of the saints of Pandharpur') में किया है, जो ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने प्रकाशित किया है।


संत तुकाराम के मराठी अभंग आम जन में अत्यंत लोकप्रिय और मौखिक भक्ति की ज्ञानसंपदा है। मराठी भाषा को समृद्ध करने का महान कार्य तुकाराम की गाथा ने किया है। उनकी कुछ रचनाएँ सादर प्रस्तुत हैं -


आम्हा घरी धन शब्दांची रत्ने ।

शब्दांची शस्त्रे यत्न करू ॥१॥

शब्दची आमुच्या जीवाचे जीवन ।

शब्दे  वाटू धन जनलोका ॥२॥

तुका म्हणे पाहा शब्दची हा देव ।

शब्देची गौरव पूजा करू ॥३॥

अर्थात-

हमारे घर शब्दों का धन और रत्न,

करेंगे शब्दों के शस्त्र

शब्दों  का यत्न।

शब्द ही आत्मा, हमारा जीवन

जनलोक को शब्द धन अर्पण।

'तुका' कहे शब्द ही भगवान

शब्दों की गौरव पूजा अर्पण।


अवघी भूते साम्या आली। देखिली म्या कै होती॥१॥

विश्वास तो खरा मग। पांडुरंग कृपेचा ॥ध्रु.॥

माझी कोणी न धरो शंका। हो का लोका निर्द्वंद्व ॥२॥

विश्वास तो खरा मग। पांडुरंग कृपेचा ॥ध्रु.॥

तुका म्हणे जे जे भेटे। ते ते वाटे मी ऐसे ॥३॥

विश्वास तो खरा मग। पांडुरंग कृपेचा ॥ध्रु.॥

अर्थात -

 क्या ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जब मुझे सभी जीवों के स्थान पर एक ही ईश्वर रूप का बोध होगा? 

 ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर ही माना जा सकता है कि मुझे सही मायने में भगवान पांडुरंग की अनन्य कृपा प्राप्त हो गई है।

जो भी मुझे मिले, उसके मन में मेरे बारे में कोई संदेह न हो।

सुख-दुःख, भय, निराशा आदि की दृष्टि से समस्त विश्व मेरे प्रति उदासीन रहे।

  जब ऐसी स्थिति निर्मत होगी, तभी यह माना जा सकता है कि मुझ पर पांडुरंग की दैवी कृपा हुई  है।


वृक्ष वल्ली आम्हां सोयरीं वनचरें।

पक्षी ही सुस्वरें आळविती।।

येणें सुखें रुचे एकांताचा वास।

नाही गुण दोष अंगा येत।।

(संत तुकाराम)

अर्थात-

वन के वृक्ष, लताएँ और समस्त प्राणी जगत हमें बहुत प्रिय हैं

पंछी भी बहुत मीठे सुरों में गीत गा रहे हैं

इसी एकांत में सुख की अनुभूति है

हम किसी गुण दोष से दूर है


छत्रपति शिवाजी महाराज के सैनिकों के लिए संत तुकाराम ने 'पाईक अभंग' की रचनाएँ लिखीं। इस अभंग द्वारा  हिंदवी स्वराज्य निर्माण हेतु जागृति का भाव बुलंद हुआ। निष्ठावान, प्रामाणिक सैनिकों की मानसिक शक्ति बढ़ाने में पाईक अभंगों का विशेष योगदान रहा है।

उदाहरण स्वरूप 

पाईक - अभंग ११-१

पाईकपणें जोतिला सिध्दांत । सुर धरी मात वचन चित्तीं ॥१॥

पाइकावांचून नव्हे कधीं सुख । प्रजांमध्यें दुःख न सरे पीडा ॥२॥

तरि व्हावें पाईक जिवाचा उदार । सकळ त्यांचा भार स्वामी वाहे ॥३॥

पाइकीचें सुख जयां नाहीं ठावें । धिग त्यांनीं ज्यावें वांयांविण ॥४॥

तुका म्हणे एका क्षणांचा करार । पाईक अपार सुख भोगी ॥५॥


तुकाराम साहित्य के अभ्यासक सुप्रसिद्ध मराठी, अँग्रेज़ी, अंर्तराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त कवि दिलीप चित्रे जी का कहना है कि तुकाराम, यकीनन मराठी भाषा के सबसे महान कवि हैं। मराठी साहित्य में तुकाराम का कद अँग्रेज़ी में शेक्सपियर या जर्मन में गोथे के समकक्ष है। 


मराठी कविता विश्व में एक शैली के रूप में तुकाराम के बिना अधूरी है। जब महात्मा गांधी येरवडा कारावास में बंदी थे, तब १५-१०-१९३० से २८-१०-१९३० कालावधि में उन्होंने कविश्रेष्ठ संत तुकाराम के १६ अभंगों (रचनाओं) का अँग्रेज़ी अनुवाद किया था। उन्हें संत तुकाराम के अभंग प्रिय थे, जो उनकी दैनिक प्रार्थना में शामिल थे। नागपुर के डॉ० इंदुभूषण भिंगारे और कृष्णराव देशमुख ने 'श्रीसंत तुकारामांची राष्ट्रगाथा'  संग्रह १९४५ में प्रकाशित किया है। इस ग्रंथ की प्रस्तावना में महात्मा गांधी जी ने लिखा है कि  "तुकाराम मुझे बहुत प्रिय है।"

महात्मा गांधी जी के अनुरोध पर शांतिनिकेतन के सुप्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस ने इस ग्रंथ हेतु संत तुकाराम का चित्र तैयार किया था।


संत तुकाराम की रचनाओं का अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। तुकाराम की रचनाओं की जानकारी भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में वैश्विक स्तर पर प्रदान करने हेतु www.tukaram.com वेब साइट का निर्माण किया गया है। इस वेब साइट के मुख्य संपादक श्री दिलीप धोण्डे हैं। तुकाराम के वंशज प्रो० डॉ० सदानंद मोरे और सुप्रसिद्ध मराठी, अँग्रेज़ी कवि दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे ने सहयोग प्रदान किया है। 


संत तुकाराम के कुछ हिंदी दोहे


लोभी के चित धन बैठे, कामिनि के चित काम। 

माता के चित पूत बैठे, तुका के मन राम॥ 

तुका बड़ो न मानूं, जिस पास बहुत दाम। 

बलिहारी उस मुख की, जिस ते निकसे राम

राम-राम कह रे मन, और सुं नहिं काज। 

बहुत उतारे पार आगे, राखि तुका की लाज।।


संत तुकाराम के हिंदी अभंग


मैं भूली घरजानी बाट। गोरस बेचन आयें हाट॥१॥

कान्हा रे मनमोहन लाल। सब ही बिसरूं देखें गोपाल॥ध्रु.॥

काहां पग डारूं देख आनेरा। देखें तों सब वोहिन घेरा ॥२॥

हुं तों थकित भैर तुका। भागा रे सब मनका धोका ॥३॥


हरिबिन रहियां न जाये जिहिरा । कबकी थाडी देखें राह ॥१॥

क्या मेरे लाल कवन चुकी भई । क्या मोहिपासिती बेर लगाई ॥ध्रु.॥

कोई सखी हरी जावे बुलावन । वार ही डारूँ उसपर तन ॥२॥

तुका प्रभु कब देखें पाऊं । पासीं आऊं फेर न जाऊं ॥३॥


वारकरी संप्रदाय में मान्यता है कि संत तुकाराम सदेह वैकुंठ की ओर प्रस्थान कर गए थे। यह दिन शके १५७१, फाल्गुन वद्य द्वितीया (९ मार्च १६५०) था। इस दिन को 'तुकाराम बीज' के नाम से मनाया जाता है। इसी दिन भक्तों से विदा होते समय संत तुकाराम ने भावुक होकर कहा था -


आम्ही जातो आपुल्या गावा । आमचा राम राम घ्यावा ।।

तुमची आमची हे चि भेटी । येथुनियां जन्मतुटी ।।

आतां असों द्यावी दया । तुमच्या लागतसें पायां ।।

येतां निजधामीं कोणी । विठ्ठल विठ्ठल बोला वाणी ।।

रामकृष्ण मुखी बोला । तुका जातो वैकुंठाला ।


अर्थात- हम अपने गांव जा रहे है, सभी को मेरा राम राम। अब इतना ही सहवास, जन्म का बंधन टूटेगा। आपकी स्नेह बना रहे, चरणस्पर्श। निजधाम आते ही अब वाणी बोले विठ्ठल विठ्ठल। मुख से बोलो रामकृष्ण, तुका करें वैकुंठ गमन।

'जगद्गुरु संत तुकाराम' : जीवन परिचय

जन्म

ई स. १६०८  पुणे ज़िले का देहु गाँव महाराष्ट्र 

निधन

शके १५७१ ,फाल्गुन वद्य द्वितीया (९ मार्च १६५०)

पिता 

  बोल्होबा (बालोबाबावा)  

माता 

  कनकाई

पत्नी 

  रखमाई (प्रथम पत्नी)

   अवलाई (दूसरी पत्नी)



संदर्भ

  • जाधव, रा० ग० आनंदाचा डोह, वाई, १९७६।

  • लाड, पु० म० संपा० श्री तुकारामबाबांच्या अभंगांची गाथा (महाराष्ट्र शासन), मुंबई, १९७३।

  • डॉ० जोशी, लक्ष्मणशास्त्री, संपादक मराठी विश्वकोश, महाराष्ट्र सरकार।

  • http://tukaram.com/

  • संत तुकाराम-अभंगगाथा लेखक- डॉ० वेदकुमार वेदालंकार, गुरुकुल प्रकाशन।

  • भक्त विजय, संत महिपती, प्रकाशक- गीताप्रेस,गोरखपुर।

लेखक परिचय

विजय प्रभाकर नगरकर


सेवानिवृत्त राजभाषा अधिकारी, बीएसएनएल, अहमदनगर, महाराष्ट्र।

पूर्व सदस्य- नराकास, अहमदनगर, राजभाषा विभाग, भारत सरकार (२००० -२०२०)

पूर्व सदस्य - हिंदी अध्यापन मंडल पुणे विश्वविद्यालय (१९९५ -२०००)

औरंगाबाद मराठवाड़ा विश्वविद्यालय (२००० -२००५ )

उत्कृष्ट हिंदी कार्य हेतु माननीय राष्ट्रपति जी द्वारा प्रमाणपत्र।

अनुवादक, लेखक, ब्लॉगर।

8 comments:

  1. संत तुकाराम के साहित्य को थोड़ा बहुत यहां वहां टुकड़ों में जरूर पढ़ा है लेकिन नगरकर जी ने आज अपने लेख के माध्यम से हम सबको उनके साथ गहराई और विस्तार से परिचित कराया है। लेख में मराठी भक्ति रचनाओं के अनुवाद देकर उन्हें सबके लिए सरल और ग्राह्य बना दिया गया है। विजय जी का आभार धर्म के 'कलश', उनके साहित्य, जीवन संघर्ष तथा उस दौर की विषम सामाजिक परिस्थितियों से परिचित कराने के लिए। तुकोबा का समाज सुधारक चेहरा भी स्पष्ट हुआ। गांधी जी तक ने उनकी रचनाओं का अनुवाद किया है! वाह!! आशा है, संत ज्ञानेश्वर, संत एकनाथ और संत नामदेव के बारे में भी आगे ऐसे उत्कृष्ट लेख पढ़ने को मिलेंगे।

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  2. संत तुकाराम के विशद आत्मीय परिचय के लिए अत्यंत आभार ! कितने ही अजाने अभंगों का अनुवाद सहित उल्लेख हमारे लिए बहुत सारवान है।
    आभार आपका

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  3. पंडरपुर, महाराष्ट्र के संत तुकाराम के बारे में पढ़ना किसी बड़े धार्मिक ग्रंथ को आत्मसात करने के समान है,पूरे महाराष्ट्र में उनकी आराधना पूर्ण भक्ति- भाव से की जाती है, अनुपम लेख विजय जी,हार्दिक बधाई व आभार।

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  4. विजय जी, आपने संत तुकाराम के बारे में बड़ी महत्वपूर्ण जानकारी दी है। अभंग का वर्णन बड़ा रुचिकर है। आपको सुंदर आलेख के लिए बधाई एवं भविष्य के लिए शुभकामनाएँ। 💐💐

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  5. संत तुकाराम जी पर बहुत अच्छा लेख है। इस लेख के माध्यम से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी मिली। इस रोचक लेख के लिये विजय जी आपको हार्दिक बधाई एवं साधुवाद।

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  6. संत तुकाराम महाराज एक साक्षात्कारी एवं निर्भीड संत कवि थे। उनके अभंग रचनाओं में से जनसामान्य जनजीवन तक महाराष्ट्र के साथ-साथ सारे देश मे महाराष्ट्र की परंपरा, भक्तिप्रेम और संस्कृति का साहित्य खजाना पहुंचा है। संत तुकाराम जी हमारे दैवत है और उनका जन्म स्थान हमारे गाँव से सिर्फ 10 किलोमीटर दूरी पर है। आज आदरणीय विजय नगरकर जी का मराठी संत महात्मा के बारे में लेख पढ़कर मन गदगद हो गया। बड़े ही अभिव्यंजक और अर्थतापूर्ण ढंग से उन्होंने अपने आलेख में संत जी के मराठी अभंग का हिंदी अनुवाद कर पूरे लेख को भक्तिमय कर दिया।
    मेरे पिताजी भी एक वारकरी संप्रदाय (भगवान विट्ठल की भक्ति करनेवाले) से थे। हमारे यहाँ हर अमावस्या और पूर्णिमा के दिन भजन होता था जिसमे पिताजी कभी-कभी हारमोनियम बजाया करते थे। आज विजय जी के आलेख ने पिताजी की यादों से आंखे नम के दी। आदरणीय विजय जी इस सुंदर आलेख के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद और असंख्य आभार।

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  7. विजय जी, संत तुकाराम के अभंगों, उनकी गाथा, उनके काम के महत्त्व और आवश्यकता को देखते हुए उनपर अँग्रेज़ी में हुए कामों से आपने सार्थक परिचय कराया। 'पंढरपुर के अमर संत' को आपने अच्छी शब्दांजलि दी है और हमरा तो निश्चित रूप से ज्ञानवर्धन किया है। आपको इस लेख के लिए धन्यवाद और बधाई।

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  8. संत तुकाराम पर अद्भुत जानकारी आद विजय जी..!
    और अंत में आलेख का ऑडियो, बहुत पसंद आया। यह एक अच्छा प्रयोग है, जिसे हमें और आलेखों में भी अपनाना चाहिए।

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