१९ फरवरी दिन मंगलवार, यही वो दिन था जब अभिव्यक्ति के करिश्मेटिक व्यक्तित्व डॉ० नामवर सिंह शब्दों का अद्भुत और विशिष्ट सरमाया छोड़कर हम से हमेशा के लिए दूर हो गए। पिछले तीन वर्षों में भारतीय साहित्य को डॉ० नामवर सिंह जैसा विशिष्ट धाराप्रवाही वक्तृता से समृद्ध समालोचक नहीं मिला।
प्रगतिशील आलोचना के सशक्त स्वर नामवर सिंह के अध्ययन, तुलनात्मक दृष्टिकोण, सार्थक वक्तव्यों और मुद्रित अभिव्यक्तियों ने न केवल हिंदी साहित्य वरन भारतीय साहित्य और उनके लेखकों, कवियों और पाठकों की कई पीढ़ियों को परिष्कृत, समृद्ध किया। वे साहित्य की अनवरत रचनात्मकता को सदैव प्रेरित करते रहेंगे।
एक मस्तिष्क कितनी असीम संभावनाओं का धारक बन सकता है, इसके अप्रतिम उदाहरण थे नामवर सिंह। उनको देख, पढ़ और सुनकर एक बात तो समझ में आती थी, कोई व्यक्ति अपने प्रयासों को एक दिशा में झोंककर ही उस क्षेत्र विशेष में समृद्ध और जादुई होकर बहुत कुछ अपने समकालीन और कालांतर के समाज को दे सकता है।
वे सच्चे अर्थों में भारतीय साहित्य के अप्रतिम शिक्षक थे। उनकी रचनात्मकता को एक भाषाविद, कवि या गद्यकार अथवा निबंधकार के रूप में या सिद्धांतों के प्रतिपादक के रूप में आँके जाने की कोशिश बेहद जटिल और दुरूह होगी, तो क्यों न केवल उनके कृतित्व से जुड़े उनके संपूर्ण व्यक्तित्व की पड़ताल की जाए।
डॉ० नामवर सिंह वामपंथ से अनुप्राणित थे, हर अवसर पर चाहे वह अकादमिक हो, साहित्यिक संदर्भ हो, गोष्ठियाँ हों या वार्तालाप, नामवर जी हमेशा अपने बेबाक फलसफ़ों से खुद को व्याख्यायित करते रहे। विद्रोह उनका मूल स्वभाव था जो शायद वामपंथ की देन कहा जा सकता है, खुद पर इतना भयावह भरोसा बिरलों के पास ही होता है।
छायावाद से लेकर रससिक्त कविताओं के शृंगार-परक आरोहण को हाशिए में डालने की पहली सार्थक पहल उनकी किताब 'कविता के प्रतिमान' से शुरू हुई थी और कमोबेश दूर-दराज़ के कवियों के अभिव्यक्ति के स्वर बदलने की शुरूआत भी नामवर जी की गहरी और सटीक आलोचनाओं से हुई थी।
मार्क्सवाद की जड़े उनमें गहरे तक पैठी थीं। शायद विद्रोह, प्रतिवाद, असहमति और आलोचना ताज़िंदगी उनके मुखर स्वर थे। पिछली सदी के छठे दशक के मोटर साईकिल पर बैठकर पूँजी और सामंती व्यवस्था के प्रति विद्रोह की अलख जगाने वाले 'चे ग्वेरा' उनकी युवा अवस्था के आईकॉन रहे होंगे। साहित्य, क्रांतियों को जन्म दे सकता है और दिशा भी, इसके प्रबल पक्षधर थे डॉ० नामवर। ऐसे में उन्हें साहित्यिक क्रांतिकारी कहना भी अस्वाभाविक न होगा।
उनका व्यापक अध्ययन, इतिहास परक दृष्टिकोण, तीक्ष्ण मेधा, अद्भुत याद्दाश्त, प्रवाहमय संबोधन और विलक्षण शब्द-बोध सुनने वालों को हिप्नोटाईज़ करता था और यहीं आकर शब्दों के इस मायावी बोधि-वृक्ष के समक्ष प्रबुद्ध श्रोता भी जड़ बुद्धि हो जाया करते थे। गोष्ठियाँ डॉ० नामवर सिंह के नाम से साहित्यकार तो क्या, साहित्य में रुचि रखने वालों और गैर साहित्यिक लोगों को भी आकर्षित करती थी।
हिंदी, उर्दू, संस्कृत, अँग्रेज़ी और बाँगला भाषा के उद्धरण और संस्मरण उनकी अभिव्यक्तियों में बेहद सार्थक रूप से दिखाई पड़ते थे। उनकी लगभग १२ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, लेकिन उन पर लिखी पुस्तकों की संख्या साल दर साल बढ़ती जा रही है।
उनका रचित कोई भी लेखन क्लासिक लेखन की श्रेणी में नहीं आता है। लेकिन लेखनी पर उनका सटायर अद्भुत होता है। कभी-कभी लगता है साहित्य की किवदंती बन चुके लोगों में डॉ० नामवर शीघ्र ही टैग कर दिए जाएँगे और वहाँ तक पहुँचने में सिर्फ़ और सिर्फ़ उनकी मेधा और वक्तृता को ही श्रेय जाता है।
ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ़ उनके प्रशंसक और समर्थक थे, उनके निंदकों और साहित्यिक विरोधियों की भी एक टोली हमेशा उनके समानांतर रही। हम कह सकते हैं कि नामवर के नामचीन होने में उनके समर्थक और आलोचक दोनों का बराबर का हाथ हैं। वहीं कुछ नकाबपोश चाटुकार भी हमेशा उनके ईद-गिर्द रहे पर फिर भी डॉ० नामवर के लिए घाटे का सौदा कभी नहीं रहा।
वैसे वे भी एक सामान्य मनुष्य ही थे, पर दूसरे उन्हें किवदंती के रूप में गढ़ते चले गए। इसके लिए भी उनकी अकाट्य मेधा को एक सलाम कहा जा सकता है।
डॉ० नामवर सिंह साहित्य के दायरे से बाहर एक लोक बुद्धि-जीवी के मिथक सदा सर्वदा बने रहे, पर उनकी भाषा की प्रखरता उनकी भेदक शक्ति कमोवेश उन्हें मार्क्सवादी पब्लिक बुद्धि-जीवी ही बनाती है। एक तेजस्वी शिक्षक से साहित्यिक मिथक बनने की यात्रा का एक सुखद परिणाम यह है कि उनको पढ़ने से ज्यादा उनको सुनना ज्यादा आनंददाई लगता था। मंत्रोंच्चार सरीखे उनके प्रवाही उद्बोधन में सामान्य श्रोता भी बहने लगता था। संतुलित लेखनी और सधी वाकपटुता ही नामवर को नाम-वर बनाती है। उनकी इसी विलक्षण प्रस्तुति ने आम लेखक और पाठक वर्ग में आलोचनात्मक बोध पैदा किया है कि साहित्य सिर्फ आत्मतुष्टि और प्रशंसा का विषय भर नहीं, वरन चिंतन और विश्लेषण का विषय भी है। आत्ममुग्धता से परे इसे लोक-संलग्न भी होना चाहिए। नामवर जी के व्याख्यानों में एक दुर्लभ विशेषता यह थी कि उनके संभाषण सोद्देश्य हुआ करते थे, आदेशों के रूप में नहीं निष्कर्षों के रूप में हुआ करते थे।
डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी को वे अपना गुरु मानते थे। लेकिन उनका व्यक्तित्व स्वनिर्मित था, जो नितांत प्रतिकूल परिस्थितियों में उपजा था। अपने शैक्षिक तेज और मार्क्सवादी विद्रोह के स्वर से वे हमेशा अभिशप्त रहे तभी तो उनका लेखन आर्थिक और वैचारिक संघर्षों में पका हुआ प्रतीत होता है। शायद यही वजह है, झुकना उनकी तासीर में नहीं था। वे अपने रचनात्मक प्रस्फुटन के दौर में आर्थिक असुरक्षा और ऐकेडमिक उपेक्षा के शिकार रहे।
उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के टिकट पर चंदौली से उपचुनाव लड़ा जिसे वे हार गए क्योंकि भारतीय प्रजातंत्र में वैचारिक चुनौतियों का कोई अस्तित्व नहीं होता है।
'प्रतिभा' समझौता नहीं जानती है और बहुतों को स्वयं के प्रति पूर्वाग्रही बनाती है। डॉ० नामवर इसी के शिकार रहे हैं, उनकी पुस्तकें 'इतिहास और आलोचना' और 'वाद-विवाद-संवाद' इन्हीं वैचारिक टकराहट की देन है। एक ख़ास बात यह भी है कि नए तथ्यों की रोशनी में उन्हें पीछे हटने और अपनी पहले कही बात को सुधारने में कोई हिचक नहीं होती थी। ऐसा साहस बहुत कम लोगों में मिलता है और यही आलोचनात्मक साहस नामवर को अर्थवत्ता प्रदान करता है।
डॉ० नामवर के जीवन के तीन मार्गदर्शक सिद्धांत थे, जो उनके निजी और सामाजिक जीवन के अलावा शैक्षिक जीवन के भी आधार सूत्र रहे हैं।
आत्म सम्मान की कीमत पर कुछ भी नहीं किया है और इसके लिए जीवन में संघर्ष करना ही पड़ा है। बहुत कुछ खोया भी है।
जीवन में उऋण होने के लिए अनवरत चेष्टा करता रहता हूँ, अर्थात किसी ने जिंदगी के किसी मोड़ पर उपकार किया है, तो चुपचाप यथासमय और यथासंभव लौटाने के लिए प्रयासरत रहा हूँ।
नए तथ्यों और तर्कों की रोशनी में अपना सतत पुनर्निरीक्षण करता रहा हूँ। मैं जड़-प्रतिबद्धता को बंजर मानता हूँ, जिसमें न व्यक्ति समृद्ध होता है और न ही विचारधारा और न ही व्यवस्था।
कमलेश्वर की चर्चित कृति 'कितने पाकिस्तान' को उन्होंने एक कमज़ोर किताब बताया और कहा कि यह एक सनसनीखेज़ पत्रकारिता का उदाहरण है। दूसरी ओर 'तुलसी' को खारिज करने वालों को उन्होंने आड़े हाथों लिया था और कहा था कि तुलसीदास का सारा लेखन कालातीत मानक संदर्भित है, लेकिन उन्हें ये कहने में गुरेज नहीं कि उनके लेखन में वर्ण संस्कृति के दर्शन भी द्रष्टव्य हैं। रामायण, महाभारत, मानस, कबीर और भारतेंदु हमेशा डॉ० नामवर के सामाजिक सांस्कृतिक विमर्श के केंद्र में रहे है। इतिहास और पाश्चात्य साहित्य उन्हें तुलनात्मक दर्शन प्रदान करता है। आगे चलकर 'गाँधी' भी उनके संदर्भों के केंद्र बिंदु रहे है।
मित्रों, आज भी आलोचना केवल लेखकों और आलोचकों के लिए लिखी जा रही है, पाठक वर्ग के लिए नहीं और अब तो तुलनात्मक आलोचना का दौर दिख पड़ता है। अब तो आलोचना भी वाद-विवाद का विषय बन गई है। क्योंकि अब रचना पर नहीं, व्यक्ति पर बल दिया जाने लगा है। अब तो व्यक्ति को देखकर ही रचना पढ़ी जाती है और फिर समीक्षा की जाती है। वे इसे आलोचना का नाकारात्मक पहलू कहते थे। उनका मानना था, आलोचना को नाकारात्मक नहीं होना चाहिए, इसके दायित्व रचना के मर्म और उसकी सृजनात्मकता की रक्षा होनी चाहिए।
आईए अब डॉ० नामवर की अभिव्यक्ति से निर्मित कुछ प्रभावी कोटेशन्स पर नज़र डाली जाए और महसूस किया जाए।
शुद्ध साहित्य संगीत की तरह होता है, जिसमें आनंददाई आत्ममुग्धता होती है। वर्तमान समाजों में शुद्ध साहित्यकार होना कुछ भी होना नहीं है और कुछ मायने में तो यह सामाजिक दुर्भाग्य भी है।
लोगों को जितनी शिकायतें मुझसे है, उतनी ही मैं अपने आपसे करता हूँ। इरादे बाँधता हूँ, जोड़ता हूँ, तोड़ देता हूँ।
अंध-प्रतिबद्धता चाहे वह लौकिक हो या पारलौकिक, रचनात्मक नहीं होती। रचना या आलोचना जिसमें अन्वेषण का भाव न हो, जिसके पास व्यक्तिगत सुख-दुख, उल्लास, अवसाद का बोध एवं अनुभूति न हो और अर्मूत आस्था को केंद्रियता प्रदान करती हो, कालजयी नहीं हो सकती।
'गाँधी' अभी भी प्रभावी, विश्वसनीय नैतिक संदर्भ है और देश के राजनीतिक विवेक की कसौटी भी है। उनका मानना था, सांप्रदायिक सोच का प्रभावी प्रतिरोध आज भी 'गाँधी' है।
आलोचना का दायित्व है, रचना के स्वर को पकड़ना, उसकी रस भूमि तक पहुँचना और साहित्य के पाठक को उस तक पहुँचने में मदद करना। लेकिन अद्यतन आलोचना को इतने से ही नहीं निपटाया जा सकता है। आज आलोचक मूलतः विमर्शकार है और यह रचना की रस भूमि पर कम उसकी विचारधारा पर अधिक टिकता है।
कहानी के केंद्र में कला है, विश्वसनीय स्वप्नलोक गढ़ने की ताकत और हुनर है। लेखन का अनुभव से कोई सरोकार नहीं होता। अनुभव सिर्फ़ कहानी को विस्तार देता है, मौलिक लेखन को प्रभावित किए बिना। इसका श्रेष्ठ उदाहरण प्रेमचंद की कहानी 'कफ़न' है।
पुस्तकालय शिक्षा और संस्कृति का केंद्र है। मंदिर और मस्ज़िद आज भी सांप्रदायिक विवाद, सामाजिक नफ़रत और विभाजन के केंद्र बने हुए है। (पुस्तकालय को आप अब डिजिटल लाइब्रेरी और ऑडियो बुक्स से भी जोड़ सकते हैं।)
अगर विचारधारा अपनी घोषणा करने लगे, तो उसकी ईमानदारी पर शक करना चाहिए। जैसे अगर आस्था प्रवचन करने लगे, तो वह आडंबर हो जाती है।
संभव है कृतज्ञता बोध व्यक्ति को महान नहीं बना पाए, लेकिन कृतघ्नता तो व्यक्ति को निश्चित ही छोटा बनाती है।
जीवन की इस संध्या में 'प्रेमचंद' के दो बैलों की तरह अपनी पुरानी जगहों पर लौटना चाहता हूँ।
इस प्रकार उन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लोक मंगलवादी प्रगतिशील आलोचना परंपरा को गतिशीलता प्रदान की है। साहित्य की मूल्यांकन प्रक्रिया में नामवर जी ने उनके सामाजिक आशय और प्रतिबद्धता को केंद्र में रखा, लेकिन उसकी नैसर्गिक स्वतंत्रता, सापेक्षिक स्वायत्तता और कलात्मक वैशिष्ट्य की अर्थवत्ता को अक्षुण्ण बनाए रखा। दुर्भाग्यवश आचार्य शुक्ल की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले शीर्षस्थ आलोचक डॉ० रामविलास शर्मा और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने आलोचना कर्म में साहित्य की अंतर्वस्तु और उसके कला सौष्ठव के मध्य उस समानुपातिक संतुलन का सम्यक निर्वहन नहीं कर पाए। डॉ० शर्मा ने जहाँ साहित्य की सामाजिक भूमिका का अतिरंजित महत्वपूर्ण निरूपण किया। वहीं आचार्य द्विवेदी ने उसकी एकांतिक सांस्कृतिक शक्ति के शील निरूपण को अतिरिक्त महत्व प्रदान किया। शुक्लोत्तर हिंदी आलोचना में डॉ० नामवर सिंह अकेले हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने समाज-सापेक्ष साहित्यिक मूल्यांकन किया।
डॉ० नामवर सिंह की अध्ययन परिधि जितनी व्यापक और वैविध्यपूर्ण रही है, उतनी शायद ही किसी अन्य किसी आलोचक की रही हो। उन्होंने आलोचना विधा में पदार्पण हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान जैसे प्राचीन, कथित रूप से दुरूह और नीरस विषय से किया था। यह वही नामवर जी हैं, जिन्होंने 'नई कहानी' और 'नई कविता' पर आधिकारिक पुस्तकें लिखीं, जो आज भी इन विषयों पर लिखी सर्वाधिक उद्धृत पुस्तकें मानी जाती हैं। नामवर सिंह को प्रतिष्ठित केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार उनकी बहुचर्चित पुस्तक 'कविता के नए प्रतिमान' पर ही मिला था।
हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान विषय पर उनकी पुस्तक वस्तुतः उनका शोध प्रबंध हैं। आलोचना विधा के अंतर्गत औपचारिक रूप से आने वाली उनकी पहली पुस्तक 'इतिहास और आलोचना' है, जो समय-समय पर लिखे गए सौंदर्य-शास्त्रीय और समीक्षात्मक निबंधों का संग्रह है। इन निबंधों में नामवर जी ने आचार्य शुक्ल की भाँति साहित्य का मूल्यांकन किसी मौलिक या नए प्रतिमान की स्थापना करते हुए नहीं की, लेकिन हिंदी साहित्य की समीक्षा में स्थापित हो चुकी उन तमाम रूढ़ियों का जमकर विरोध किया, जो एक ओर कलावाद को प्रश्रय दे रही थी, दूसरी ओर एकांगी सामाजिकता को।
छायावाद हिंदी आलोचकों के सर्वाधिक प्रिय विषयों में एक रहा है, निस्संदेह यह भक्ति काव्य के बाद हिंदी साहित्य का महत्वपूर्ण काव्य आंदोलन रहा है। इस पर कमोबेश हिंदी के सभी महत्वपूर्ण आलोचकों ने लिखा है। लेकिन जहाँ अधिकांश आलोचकों ने इसका मूल्यांकन पारंपरिक काव्य समीक्षा-उपादानों से किया है, वहीं 'छायावाद' नाम से लिखी अपनी पुस्तक में डॉ० नामवर सिंह ने पहली बार इसकी कलात्मक विलक्षणता के रेखांकन के समानांतर इसकी सामाजिक अंतर्वस्तु के महत्व की विशद विवेचना और समेकित समीक्षा की है। यही कारण है, यह आज भी छायावाद पर लिखी अब तक की सर्वश्रेष्ठ आलोचना कृति मानी जाती है।
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता में 'मुक्तिबोध' को केंद्रीयता प्रदान करने का श्रेय बहुत कुछ नामवर सिंह को ही जाता है। इलाहाबाद की विख्यात आलोचना-गोष्ठी में मुक्तिबोध की 'एक साहित्यिक डायरी' पर पढ़ी और 'कविता के नए प्रतिमान' में मुक्तिबोध की बहुचर्चित दीर्घ कविता 'अंधेरे में' पर लिखी नामवर की समीक्षा हिंदी आलोचना की स्वर्णिम उपलब्धियों में अन्यतम है।
अंत में इतना ही कहेंगे कि डॉ० नामवर आने वाले वर्षों में अपनी पुस्तकों से ही पहचाने जाऐंगे। हम खुश किस्मत लोग है, जिनको उन्हें जीवंत सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, क्योंकि उनके कीमती मौखिक विमर्श ने आलोचना को नए आयाम और विशिष्ट जन क्षेत्र दिया है।
समय-समय पर लिखे विभिन्न सौंदर्यशास्त्रीय समीक्षात्मक लेखों के अतिरिक्त नामवर सिंह ने हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के तीनों सर्वाधिक महत्वपूर्ण आंदोलनों छायावाद, नई कविता और नई कहानी पर विस्तार पूर्वक लिखा है, जो तद्विषयक सर्वश्रेष्ठ आलोचना ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है। जहाँ 'नई कहानी' और 'नई कविता' आंदोलन का प्रश्न है, नामवर सिंह इसके अकेले पुरोधा आलोचक हैं, जिन्होंने इसकी प्रस्तावना भी लिखी और उपसंहार भी।
डॉ० नामवर सिंह आचार्य शुक्ल के बाद एक मात्र ऐसे आलोचक हैं, जिनकी स्थापनाएँ आज भी सबसे अधिक उद्धृत और संदर्भित की जाती हैं। उनकी इस चिरप्रासंगिकता का रहस्य इस बात में छिपा है कि इनके आलोचक व्यक्तित्व में आस्वाद के अनेक धरातल हैं और उन तमाम धरातलों में प्रतिश्रुत रसग्राही विवेक का सतत अनुशासित नियंत्रण है।
साहित्य के मूल्यांकन में वे राग और बुद्धि के द्वैत का सर्जनात्मक शमन करते हुए आलोचना कर्म को उस अद्वैतावस्था तक ले जाते हैं, जहाँ साहित्य एक महत्वपूर्ण कलारूप में अधिष्ठित तो रहता ही है, साथ ही सामाजिक परिवर्तन के एक सशक्त शस्त्र के रूप में प्रतिष्ठित भी होता है। संक्षेप में डॉ० नामवर सिंह जीवन-काल क्रमानुसार आज अतीत हैं, किंतु वह अतीत जो कभी व्यतीत नहीं होता!!
संदर्भ
डॉ० नामवर सिंह पर विशद अध्ययन
उनके वक्तव्य
एक संक्षिप्त किंतु महत्वपूर्ण सौजन्य भेंट
श्रव्य साक्षात्कार
विकीपीडिया
डॉ.नामवर पर लिखा आलेख पढ़ कर आज के दिन का शुभारंभ कुछ इस आसय से कि कुछ तो नया मिला, मिलेगा।
ReplyDeleteआलेखक श्री रविकांत जी को साधुवाद!
बहुत सुन्दर आलेख। बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteबेहद सुंदर लेख
ReplyDeleteआलोचना के शानदार साहित्यकार
👌👌👌
रविकान्त जी, इस प्रखर, समग्र और शानदार आलेख के लिए हार्दिक धन्यवाद 🙏🏻 नामवर सिंह ऐसे आलोचक हैं जिनके बारे में हम इस बात को ले कर सतर्क थे कि यह लेख किस लेखक के पास जा रहा है। आपका नाम देखने के बाद हमें यह ज़रा चिन्ता नहीं हुई कि कैसा लेख होगा! मुझे याद है ज्ञानरंजन जी पर आपके आलेख को पढ़ कर मैं हतप्रभ रह गई थी कि इतने कम शब्दों में आपने इतने विविध आयामों को कैसे बाँधा!
ReplyDeleteआपके लेखों की एक और विशिष्टता यह कि आप साहित्यकार के awe में आए बिना संतुलित बात लिखते हैं जैसे objective हो कर दूर से अपने विषय को देख रहे हों!
आज भी आपने एक अनमोल लेख दिया है। हमारा सौभाग्य है कि आप हमसे जुड़े हैं!
रविकांत जी, हिंदी के प्रकाश-स्तम्भ नामवर सिंह की पर आपका आलेख विस्तृत, जानकारीपूर्ण और बेहद दिलचस्प है। नामवर सिंह जी द्वारा किया गया काम अद्वितीय है और शायद बरसों स्थिति ऐसी ही रहे। नामवर जी, जैसा कि आपने लिखा, अतीत काल के होकर भी अपने काम के कारण कभी व्यतीत-काल के नहीं होंगे। नामवर सिंह जी को सादर नमन और आपको इस आलेख के लिए बहुत-बहुत बधाई और तहे दिल से शुक्रिया।
ReplyDeleteलगभग १९८४-८५ के बाद डॉ. नामवर सिंह जी का आलोचनात्मक लेखन समापन की तरफ प्रस्थान कर चुका था। संचार क्रांति के बाद उन्होंने राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर खूब लिखा और बोला है। व्यक्तिगत बातचीत की शब्दावली को वह मुख्यत अपने आलोचना और व्यख्यान में भी इस्तेमाल करते थे। उनकी विश्वदृष्टि सभी किस्म की रूढ़िबद्धताओं तथा ज्ञानमीमांसा विचारधाराओं से मुक्त होती हुई गतिशील और अनिश्चित होती थी। उनका आलोचनात्मक विश्व काफ़ी विस्तृत है जो उन्होंने साहित्यिक मूल्यों एवं मान्यताओं को लेकर विवादित किया है जिसमें पूर्व-समकालीन लेखक और आलोचक भी शामिल है। आदरणीय रविकांत जी एक सशक्त कलम के अधिकारी तो है ही पर साथ ही डॉ. नामवर जी के जीवन के कुछ अपरिचित तथ्य इस आलेख के द्वारा हमारे सामने प्रस्तुत किए है। आपने नामवर जी के व्यक्तित्व को सहजता से गहरे शोधपरख के साथ रचनात्मक ढंग में उन्हें हम सबके चहेते होने का हक अदा किया है। हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष को विनम्र श्रद्धांजलि और आपके लेख द्वारा दी गई अप्रतिम शब्दों की पुष्पमाला की भेंट के लिए आपका आभार और अधिकाधिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteरविकांत जी, आपने सुप्रसिद्ध समालोचक डॉ नामवर सिंह जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। लेख की नियत सीमा में रहकर आपने लेख को विस्तृत रूप दिया है। इस रोचक एवं जानकारी भरे लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteरविकांत जी, आपका यह लेख हमें बहुत सुरुचिपूर्ण ढंग और समग्रता के साथ, आलोचना के सशक्त स्वर डॉ. नामवर सिंह जी के जीवन और साहित्यिक यात्रा के विभिन्न पड़ावों को करीब से जानने का अवसर देता है, जिसके लिए आपका आभार। लखनऊ से प्रकाशित रेवान्त पत्रिका द्वारा दिए जाने वाला 'मुक्तिबोध साहित्य सम्मान, जब कवि उमेश चौहान जी को दिया गया था और उस कार्यक्रम की अध्यक्षता नामवर सिंह जी ने की थी। तब मुझे भी उनको सामने से सुनने का अवसर मिला था। क्योंकि तब मैं भी रेवान्त पत्रिका में सह संपादक थी। नामवर जी का वक्तव्य सुनते हुए, उस वक्त मेरे ज़ेहन में उनके लिए जो भाव आ रहे थे, उसे मैं आज आप द्वारा कहे गए साहित्यिक क्रांतिकारी नाम से रिलेट कर पा रहीं हूँ। बहुत सटीक कहा आपने।नामवर जी को सादर नमन और इस जानकारीपूर्ण और रोचक लेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteडा. नामवर सिंह जैसे हिंदी साहित्य के हस्ताक्षर
ReplyDeleteलेखक,समालोचक ,चिंतक ,प्रध्यापक पर सीमित शब्द सीमा में डा. वर्मा जी आपने उत्कृष्ठ लेख प्रस्तुत किया है।उनसे जुडा एक प्रसंग मुझे भी याद है,90 के दशश में "तमस" हिंदी धारावाहिक टीवी पर प्रसारित किया जाता था जो उन दिनों विवादों के घेरे में भी था । इसी विषय पर आगरा नागरी प्रचारिणी सभा ने डा. नामवर सिंह का वक्तव्य रखा था। उस सभा को मैं भी सुनने गया था, श्रोता उन्हें सुनकर तादात्म की स्थिति में थे सभा में पिन ड्राप सैलेंस था । उन दिनो मैं स्नातकोत्तर हिंदी का छात्र था ।कार्यक्रम के बाद मैं उनसे आटोग्राफ लेने गया ।उन्होने आटोग्राफ देते हुए कुछ प्रश्न किए और मेरे सर पर हाथ रखा । उनका आशीर्वाद किसी वरदान से कम नहीं---प्रताप