पर्वत कहता शीश उठाकर,
तुम भी ऊँचे बन जाओ।
सागर कहता लहराकर,
मन में गहराई लाओ।
समझ रहे हो क्या कहती है,
उठ-उठ गिर-गिर तरल तरंग।
भर लो भर लो अपने मन में,
मीठी-मीठी मृदुल उमंग।
पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो,
कितना ही हो सर पर भार।
नभ कहता फैलो इतना,
कि ढक लो सारा संसार।
पर्वत, समुद्र, नभ और धरा के माध्यम से मनुष्य को महान और गंभीर होने की प्रेरणा देने वाले, मानव-समाज के हितचिंतक, प्रेरणादाता और राष्ट्र की युगीन विषम परिस्थितियों से अजेय योद्धा की तरह आजीवन जूझने वाले कवि, पंडित सोहनलाल द्विवेदी वे विरले राष्ट्रवादी थे, जिन्होंने विद्यार्थीकाल से ही ब्रिटिश शासन की अन्यायपूर्ण नीतियों का विरोध किया और प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत का बहिष्कार करते हुए "माता का आँचल लाल करो, हड़ताल करो, हड़ताल करो" की हुंकार भरी। वे गांधीवादी चिंतन की ओर आकृष्ट तो हुए, किंतु किसी भी वाद में न रहते हुए सदैव राष्ट्र के कल्याण व अभ्युदय के प्रति समर्पित रहे। उनकी कवि चेतना भारतमाता के प्रति रागात्मक संबंध स्थापित करती हुई उसके उत्थान की साधना करती रही।
१९०६ में फतेहपुर, उत्तर प्रदेश के बिंदकी नामक गाँव में, गल्ले के बड़े माने हुए व्यापारी बिंदा प्रसाद द्विवेदी के घर जन्मे सोहनलाल द्विवेदी की शिक्षा हिंदी में एम० ए० रही। इन्होंने संस्कृत का भी अध्ययन किया। पंद्रह वर्ष की अल्पायु में आपका विवाह रामप्यारी से हुआ। कहा जाता रहा कि उन्हें खादी से इतना प्रेम था कि वे विवाह में भी खादी वस्त्र ही धारण किए हुए थे। पैतृक संपत्ति के रूप में आपको आर्थिक संपन्नता के साथ-साथ, जनता की निस्वार्थ सेवा तथा कायरता से चिढ़ प्राप्त हुई। आपकी काव्य-यात्रा प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात देश में शनै-शनै नवीन चेतना के विकास के संक्रांति काल में १९२०-२१ से आरंभ होकर विविध उतार-चढ़ावों के साथ लगभग ६० वर्षों तक चलती रही। राष्ट्रीयता से संबंधित कविताएँ लिखने वालों में आपका स्थान मूर्धन्य है, यही कारण है कि आप हिंदी के राष्ट्रीय कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। आपने महात्मा गांधी पर भी कई भावपूर्ण रचनाएँ लिखीं, जो हिंदी जगत में अत्यंत लोकप्रिय हुईं, इनमें इस रचना का विशेष स्थान है -
चल पड़े जिधर दो डग मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गए कोटि दृग उसी ओर।
द्विवेदी जी ने गांधीवाद के भावतत्व को वाणी देने का सार्थक प्रयास किया तथा अहिंसात्मक क्रांति के विद्रोह व सुधारवाद को अत्यंत सरल, सबल और सफल ढंग से काव्य में पिरोकर 'जन साहित्य' बनाने के लिए उसे मर्मस्पर्शी और मनोरम बना दिया। 'युगधार' की सभी कविताओं में राष्ट्रीय-चेतना की जागृति का स्वर विद्यमान है। इसकी भूमिका में द्विवेदी जी ने लिखा है कि इसमें युग की राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सामाजिक जनक्रांतियों की चिंगारियाँ हैं। ये सभी रचनाएँ वास्तव में राष्ट्रीय-चेतना का संचार करने में सहायक रही हैं। इसकी ऐसी ही कुछ पंक्तियाँ हैं -
सत्याग्रही बने वह, जिसका देश प्रेम से नाता हो।
प्राणों से भी प्यारी जिसको अपनी भारत माता हो।।
और
बलिवेदी पर भीड़ लगी है, आज अमर बलिदानों की।
आज चली है सेना फिर से, धीर-वीर मस्तानों की।।
एक ओर जहाँ उन पर गाँधीजी का प्रभाव था, तो दूसरी ओर गणेशशंकर विद्यार्थी की क्रांतिकारी सोच से भी वे प्रभावित रहे थे। जहाँ उन्होंने यतींद्रनाथ दास के निधन पर शहीदों का फूलों भरा जनाजा उठाने की बात कह बलिवेदी भावना को उजागर किया, वहीं दूसरी ओर महाराणा-प्रताप के लिए निम्न पंक्तियाँ लिखकर राष्ट्र की स्वाधीनता के लिए आत्म-समर्पण करने की प्रेरणा प्रदान की।
तुमने अपने को लुटा दिया,
आज़ादी की फुलझड़ियों पर।
तत्कालीन नेताओं में एक ओर उन्होंने बापू, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू आदि के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर रचनाओं का सृजन किया, तो सुभाषचंद्र बोस की बलिदानी चेतना से प्रभावित होकर उनका भी प्रशस्ति गान किया। इससे स्पष्ट है कि वे भारतमाता के परतंत्रता के काल में कष्टों से व्यथित होकर स्वाधीनता-प्राप्ति और उसके कल्याण-अभ्युदय के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अत्यधिक बेचैन रहे और उसके लिए प्रयत्नशील प्रत्येक व्यक्ति का स्वागत किया। मातृभूमि के प्रति अपनी अदम्य भक्ति-भावना प्रदर्शित करते हुए उन्होंने लिखा था कि "मेरी इष्ट देवी एकमात्र राम, कृष्ण, तिलक, गोखले, गांधी की जननी भारतमाता है। मैं शत-शत जन्म धारण करके भी अपनी इष्ट देवी के ऋण से मुक्त नहीं हो सकता। मेरी लेखनी भारतमाता के वर्तमान और भविष्य की ही आराधिका है। मेरा जीवन और मेरी कलम भारतमाता की सेवा में ही समर्पित है।"
अतः मातृभूमि के अनन्य भक्त द्विवेदी जी की रचनाएँ राष्ट्रीय आंदोलन के उन तूफ़ानी दिनों में असंख्य नवयुवकों की प्रेरणा स्रोत बनी रहीं।
मैथिलीशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सुभद्राकुमारी चौहान आदि राष्ट्रीय कवियों की रचनाओं ने जन-मानस में अपने ढंग से क्रांति और विद्रोह का जो बीजवपन किया था, उसे पंडित सोहनलाल द्विवेदी की रचनाओं ने पल्लवित और पुष्पित किया।
भैरवी, विषपान, वासवदत्ता, कुणाल, युगाधार, वासंती, झरना, बिगुल, चेतना आदि नामों से आपके अनेक काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। वासवदत्ता, कुणाल, विषपान आदि प्रबंधात्मक रचनाओं के माध्यम से भी आपने अतीत की ओर उन्मुख देश के गौरवशाली इतिहास और भारत की सांस्कृतिक विरासत को राष्ट्रीय-संघर्ष के लिए प्रेरक स्रोत बनाया। आपने राष्ट्रीयता का मुक्त कंठ से गान किया था। राष्ट्र की चेतना को संपूर्ण रूप में प्रस्तुत करते हुए अपने स्वरों को राष्ट्र-प्रेम पर समर्पित कर उत्साह का संचार किया। यथा -
वंदना के इन स्वरों में,
एक स्वर मेरा मिला दो
वंदिनी माँ को न भूलो,
राग में जब मत झूलो
अर्चना के रत्न कण में,
एक कण मेरा मिला लो।।
काव्य-संग्रह 'प्रभाती' में पं० द्विवेदी के राष्ट्रीय जागरण का स्वर ही मुखरित हुआ। इस कृति में उन्होंने साहित्य-सृजन पर टिप्पणी करते हुए कहा, "शताब्दियों से उपेक्षित, तिरस्कृत और बहिष्कृत जनता के लिए हम लिखें और उसकी भाषा में लिखें, जिसे वह समझ सके। आज हमारे राष्ट्र की माँग यही है कि हम जनता के लिए साहित्य-सृजन करें।"
उन्होंने स्वयं जन-भाषा में प्रभात-फेरी के गीत लिखे, जो जनता का जागरण करते थे तथा देश-प्रेम की भावना का संचार करते थे।
आपकी कविताओं में स्वतंत्रता पश्चात भी राष्ट्रीय-जागरण के स्वर बने रहे। 'चेतना' और 'मुक्तिगंधा' काव्य-कृतियों में जहाँ उत्सव और उल्लास की कविताएँ हैं, वहीं सम-सामयिक परिस्थितियों और समस्याओं को भी उठाया गया है। युवक और युवतियों को प्रगति-पथ के वरण का संदेश भी दिया है। स्वतंत्रता की ध्वजा को सुरक्षित रखने का आह्वान भी किया है -
शुभारंभ जो किया देश में, नव चेतनता आई है।
मुरदा प्राणों में फिर से, छाई नवीन तरुणाई है।
स्वतंत्रता की ध्वजा न झुके, यही ध्रुव ध्यान करो।
बढ़ो, देश के युवक-युवतियों, आज पुण्य प्रस्थान करो ।।
पं० द्विवेदी जी को हिंदी से अनन्य प्रेम था। वे किसी भी परिस्थिति में विदेशी भाषा को स्वीकार्य नहीं मानते थे। उन्होंने अँग्रेज़ों के साथ ही विदेशी भाषा अँग्रेज़ी को समाप्त कर अपनी भाषा और संस्कृति को अपनाने का आह्वान किया। 'पुण्य-प्रयाण' शीर्षक गीत में कवि का स्वर चिंतन योग्य है -
यही समय है,
जागो अपनी भाषा के ओ सम्मानी
यही समय है,
जागो अपनी संस्कृति के ओ अभिमानी।
पं० द्विवेदी जी को राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक कवि होने के साथ-साथ 'बाल साहित्य के निर्माता' के रूप में भी ख्याति प्राप्त है। उनका साहित्यिक जीवन बाल कवि के रूप में प्रारंभ हुआ था। 'बालसखा' पत्रिका का संपादन कर उन्होंने बच्चों का मन जीत लिया। इसके परिणामस्वरूप पं० हजारी प्रसाद द्विवेदी को कहना पड़ा, 'हिंदी में बड़े-बड़े साहित्यकार तो है, किंतु बच्चों के माई-बाप तो केवल सोहनलाल द्विवेदी ही हैं।
समग्रतः राष्ट्रीय-चेतना के गायक कवि पं० सोहनलाल द्विवेदी का गुणगान करते हुए प्रत्येक भारतवासी गौरव का अनुभव करता है, क्योंकि उन्होंने अपने कलम के साथ राष्ट्रीय-आंदोलन को दिशा व गति प्रदान की। उन्होंने न केवल अपने कवि जनित कर्तव्य का निर्वाह किया, वरन राष्ट्रप्रेमी सेनानी बनकर दूसरों को प्रेरित किया। यहाँ तक कि लालबहादुर शास्त्री जी यह कहा करते थे कि "अँग्रेज़ी शासन के दौरान मैं जब भी जेल गया हूँ, सोहनलाल द्विवेदी की कविताएँ हमेशा मेरा संबल रही है।"
डॉ० हरिवंशराय 'बच्चन' जी कि यह उक्ति भी उल्लेखनीय है - "जहाँ तक मेरी स्मृति है, जिस कवि को राष्ट्रकवि के नाम से सर्वप्रथम अभिहित किया गया, वे सोहनलाल द्विवेदी थे। गाँधीजी पर केंद्रित उनका गीत 'युगावतार' या उनकी चर्चित कृति 'भैरवी' की निम्नांकित पंक्ति स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का सबसे अधिक प्रेरणा गीत था।"
वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो,
हो जहाँ बलि शीश अगणित एक सिर मेरा मिला लो
यद्यपि उनके जीवन में माँ भारती का प्रेम और उसका उत्कर्ष प्रधान लक्ष्य रहा, तथापि उनका राष्ट्र-प्रेम भौगोलिक सीमाओं में बँधकर किसी जाति या धर्म के उन्नयन के लिए ही अभिव्यक्त नहीं हुआ और न ही किसी अन्य राष्ट्र की स्वच्छंद प्रगति में बाधक सिद्ध हुआ। इसके विपरीत उनका राष्ट्र प्रेम भौगोलिक सीमाओं का उल्लंघन कर विशुद्ध मानव प्रेम में परिणत हुआ। उनका काव्य 'सर्वे भवंतु सुखिनः' की व्यापक प्रेम-भावना का निरंतर निर्वहन करता रहा। इस तथ्य का साक्ष्य उनकी इन पंक्तियों में परिलक्षित हुआ है -
मेरे हिंदू ओ मुसलमान
रे अपने को पहचान
हम लड़ जाते हैं आपस में,
मंदिर मस्जिद हैं लड़ जाती
हम गड़ जाते हैं धरती में,
मंदिर मस्जिद हैं गड़ जाती
मंदिर मस्जिद से ऊपर हम,
रे अपने को पहचान।
उनका काव्य युग-सापेक्ष होते हुए भी उसके निर्माणमूलक स्वर उसे युग निरपेक्ष बना उसमें चिरंतनता प्रदान करते हैं। ऐसी ही एक कविता कोशिश करने वालों की हार नहीं होती इतनी लोकप्रिय है कि बच्चा-बच्चा उससे वाकिफ़ है। बरसों इस कविता को हरिवंशराय बच्चन के नाम से पढ़ा जाता रहा जब तक कि अमिताभ बच्चन ने स्वयं यह न कहा कि वह कविता उनके पिता की नहीं अपितु द्विवेदी जी की है।
द्विवेदी जी को समय-समय पर अनेक संस्थाओं ने अलंकृत किया, किंतु सबसे अधिक महत्वपूर्ण है पद्मश्री सम्मान जो १९६९ में भारत सरकार ने प्रदान किया। ८३ साल की आयु में १ मार्च १९८८ को बिंदकी कस्बे स्थित अपने आवास में वे चिरनिद्रा में लीन हो गए।
पंडित सोहनलाल द्विवेदी : जीवन परिचय |
जन्म | २२ फरवरी १९०६ , बिंदकी, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | १ मार्च १९८८ |
कर्मभूमि | जयपुर, राजस्थान |
पिता | बिंदा प्रसाद द्विवेदी |
माता | पियारा देवी |
शिक्षा | एम० ए० |
साहित्यिक रचनाएँ |
काव्य संग्रह | भैरवी युगाधार प्रभाती वासवदत्ता झरना
| कुणाल पूजागीत विषपान जय गांधी
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बाल साहित्य | |
पुरस्कार व सम्मान |
हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रतापगढ़ से विशिष्ट अभिनंदन पत्र १९६८ राजस्थान विद्यापीठ से साहित्य चूड़ामणि १९६९ पद्मश्री १९६९ साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा साहित्य वारिधि की उपाधि १९७२ कानपुर विश्वविद्यालय से डी० लिट की मानद उपाधि १९७५
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लेखक परिचय
भावना सक्सैना
दिल्ली विश्वविद्यालय से अँग्रेज़ी व हिंदी में स्नातकोत्तर हैं। चार पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें एक पुस्तक 'सूरीनाम में हिंदुस्तानी' दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम है। एक कहानी संग्रह नीली तितली व एक हाइकु संग्रह काँच-सा मन है। हाल ही में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से सरनामी हिंदी-हिंदी का विश्व फलक प्रकाशित। नवंबर २००८ से जून २०१२ तक भारत के राजदूतावास, पारामारिबो, सूरीनाम में अताशे पद पर रहकर हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। संप्रति भारत सरकार के राजभाषा विभाग में कार्यरत हैं।
ईमेल - bhawnasaxena@hotmail.com
बचपन से ही शायद सभी ने हिंदी की कक्षा में सोहनलाल द्विवेदी जी की कविताओं को पढ़ा और याद किया होगा। उनकी कविताएँ हर आयु वर्ग के पाठक को भाती हैं। भावना जी ने इस लेख के माध्यम से पुनः सोहनलाल जी की कविताओं को पढ़ने का अवसर दिया। इसके लिए भावना जी को साधुवाद एवं हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteकविता के माध्यम से राष्ट्रीयता की अलख जगाने वाले पं. सोहनलाल द्विवेदी राष्ट्रकवि को कौन नहीं जानता।हमसभी को याद है कि बचपन में पाठ्य-पुस्तक में शामिल इनकी कविता से राष्ट्रप्रेम की भावना मुखरित की है। भावना जी ने कसे हुए शब्दों एवं प्रबंधकीय रूप में इस लेख को पिरोया है।कवि को नमन करते हुए भावना जी को बहुत-बहुत धन्यवाद,आभार 🙏🙏 प्रताप कुमार दास
ReplyDelete*लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती*
ReplyDelete*कोशिश करने वालों की हार नहीं होती*
कई बार इस ऊर्जावान प्रेरणादायक रचना के रचेयता आद. हरिवंशराय बच्चन ही समझे जाते है जब कि इस उत्तेजनार्थ रचना के रचेयता पद्मश्री सोहनलाल द्विवेदी जी है जो गाँधीवादी भावपक्ष विचारधारा के साहित्यकार थे। राष्ट्रीय साहित्य और बाल साहित्य से सारे राष्ट्र को युगावतार के रूप में साहित्यसृजन करते रहे। बोधगम्य, स्वाभाविक खड़ी बोली में उत्कृष्ट रचनाओं का सृजन करनेवाले आद. द्विवेदी जी की भाषा शैली इतिवृत्तात्मक, गीतात्मक एवं मनोरंजनात्मक होती थी। राष्ट्रकवि सोहनलाल जी का गांधीजी पर केंद्रित एक गीत युगावतार के कृति भैरवी की पंक्ति *'वंदना के इन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो, हो जहाँ बलि शीश अगणित एक सिर मेरा मिला लो'* आज भी स्वतंत्रता की उस लड़ाई को यादकर हृदय गर्व और प्रेरणा से भर देता है। श्रीमती भावना सक्सैना जी ने उनके जीवन यात्रा तथा रचनाओं की बड़ी सरलता से समीक्षा प्रस्तुत की है। आपके आलेख से द्विवेदी जी के साहित्य संघर्ष और उनके द्वारा रची गई रचनाओं में से ऊर्जा और चेतना का भास हो रहा है। आपके अथक शोधपरख और लेखन के लिए आपका आभार और अग्रिम आलेखों के लिए ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।
भावना जी, सोहनलाल द्विवेदी की ओजपूर्ण, देशभक्ति और राष्ट्रभाषा प्रेम की कविताएँ हम सभी ने गाईं और दोहराईं हैं, पर आपका आज का आलेख पढ़कर उनके व्यक्तित्व के कुछ नए पहलुओं को जानने और कृतित्व को नए प्रकाश में समझने का मौक़ा मिला। इस अनुपम लेखन के लिए आपको बधाई और आभार।
ReplyDeleteभावना जी को सुंदर लेख के लिये बधाई। द्विवेदी जी को उस कविता के साथ श्रद्धांजलि जो सदैव मानव को प्रेरणा देती रहेगी :
ReplyDeleteलहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
🙏🙏
बहुत बढ़िया समृद्ध लेख। भावना जी के इस लेख के माध्यम से राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी जी की कविताओं को पुनः गाने,गुनगुनाने का अवसर मिला, जिन्हें गुनगुनाते हुए हम सभी बड़े हुए हैं। द्विवेदी जी के जीवन दंघर्ष के बारे में भी जानकारी मिली। उत्कृष्ट लेख के लिए भावना जी को बहुत बहुत बधाई।
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