बात स्कूल के दिनों की है। नर्मदा नदी के किनारे एक खंडहरनुमा किले को हम हमेशा दूर से देखते थे। स्कूल की चारदीवारी के अंतिम सिरे में कई पेड़ पौधों के बीच यह किला हमारे मन में रहस्य और रोमांच पैदा करता था और डर भी। तभी कक्षा नवमी में आते-आते ‘सन्नाटा’ नामक कविता पढ़ने को मिली, तब से उस किले के सारे रहस्य कुहासे की तरह छँट गए। कवितानुसार -
किले के सारे रहस्य खुलने के साथ-साथ एक और महारहस्य खुला कि काव्यांश के कवि श्री “भवानी प्रसाद मिश्र” स्वयं इस बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक शाला के दैदीप्यमान विद्यार्थी रहे हैं और कक्षा-कक्ष से किले के खंडहरों को निहारते हुए उन्होंने ’सन्नाटा’ नामक कविता को जन्म दिया है।
भवानीप्रसाद मिश्र का जन्म २९ मार्च १९१३ को होशंगाबाद जिले के गाँव खरखेड़ी टिगरिया में हुआ था । इनकी माता का नाम गोमती देवी एवं पिता का नाम पंडित सीताराम मिश्र था। इनकी शिक्षा मध्य प्रदेश के सोहागपुर, होशंगाबाद, नरसिंहपुर और जबलपुर नामक स्थानों पर क्रमश: हुई। इन्होंने सन १९३४-३५ में हिंदी, अँग्रेज़ी और संस्कृत विषय लेकर बी.ए. पास किया। महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर शिक्षा देने के विचार से एक स्कूल बैतूल जिले में खोलकर अध्यापन कार्य शुरू किया और उस स्कूल को चलाते हुए १९४२ में गिरफ्तार होकर १९४५ में जेल से छूटे। उसी वर्ष महिला आश्रम वर्धा में एक शिक्षक की भूमिका निर्वाह करते हुए चार-पाँच वर्ष व्यतीत किए।
बातचीत के शब्दों में कविता रचने वाले हर दिल अजीज, असाधारण कवि भवानीप्रसाद मिश्र ने कविता लेखन का श्रीगणेश १९३० के लगभग कर दिया था इसके पूर्व इन की कुछ कविताएँ पं. ईश्वरीप्रसाद वर्मा के द्वारा संपादित ’हिंदू पंच’ में हाईस्कूल पास होने से पूर्व प्रकाशित हो चुकी थीं। भवानीप्रसाद मिश्र सन १९३२-३३ में माखनलाल चतुर्वेदी जी के संपर्क में आए। वहाँ चतुर्वेदी जी आग्रह पूर्वक इनकी रचनाएँ ’कर्मवीर’ नामक पत्रिका में प्रकाशित कराते रहे। ’हंस’ में भी इनकी अनेक कविताएँ प्रकाशित हुईं उसके बाद अज्ञेय जी ने दूसरा सप्तक में इन्हें प्रकाशित किया।
दूसरे सप्तक के ’प्रथम कवि’ के रूप में प्रख्यात भवानीप्रसाद मिश्र विचारों, संस्कारों और अपने कार्यों से पूर्णतया गांधीवादी थे। गांधीवाद की स्वच्छता, पवित्रता और नैतिकता का प्रभाव और झलक उनकी कविताओं में स्पष्टत: देखा जा सकता है। इनका प्रथम काव्य संग्रह ’गीत-फरोश’ १९५६ में प्रकाशित होकर अपनी नई शैली, नई उद्भावनाओं और नए प्रभाव के कारण अत्यंत लोकप्रिय हुआ ।
गीत फरोश कविता की पृष्ठभूमि के विषय में कवि का कहना है- "गीत–फरोश” शीर्षक से हँसाने वाली कविता मैंने बड़ी तकलीफ़ में लिखी थी। मैं पैसे को कोई महत्व नहीं देता लेकिन पैसा बीच-बीच में अपना महत्व स्वयं प्रतिष्ठित करा देता है। मुझे अपनी बहन की शादी करनी थी। पैसा मेरे पास था नहीं तो कोलकाता में बन रही फिल्म के लिए गीत लिखे। गीत अच्छे लिखे गए। मैं कुछ लिखूँ इसका पैसा मिल जाए यह अलग बात है, लेकिन कोई मुझसे कहे कि इतने पैसे देता हूँ, तुम गीत लिख दो यह स्थिति मुझे अत्यंत नापसंद है।"
अपने समव्यस्कों में “भवानी भाई” और छोटों में “भवानी दा” के नाम से प्रसिद्ध मिश्र जी ने जनमानस की कविता को सादगी और सहजता के साथ प्रकट किया है। उनकी हर कविता में सीधी सरल शब्दावली किंतु गहरी छाप छोड़ने वाली कथ्य वस्तु है। आम आदमी की चिंता को बयां करती मानव मूल्य की यह कविता ’तूस की आग’(१९८५) कविता संग्रह में संग्रहित है।
जहाँ एक और “गीत-फरोश” में भवानी प्रसाद के कवि जीवन के आंतरिक दौर की कविताएँ हैं जिनमें कई कविताएँ आज़ादी के पूर्व लिखी गई हैं, वहीं दूसरी ओर उनसे अधिक गहरी एवं परिपक्व कविताएँ आपातकाल और उसके बाद के समय में लिखी गई हैं। इस दृष्टि से “तूस की आग” मिश्र जी की अत्यंत महत्वपूर्ण किताब है जिसमें ७० कविताओं का संकलन है। इस संदर्भ में भवानीप्रसाद मिश्र की कविताओं पर शोध कर चुकी डॉ.स्मिता मिश्रा का यह कथन बहुत सही है- “गीत-फरोश के रूप में प्रसिद्ध उनके इस व्यक्तित्व को पाठक एकबारगी भूल जाता है, जब वह “तूस की आग” पढ़ता है।“
(गीत फरोश: संवेदना और शिल्प डॉ. स्मिता मिश्र पृष्ठ-१९)
इस प्रकार यह काव्य संग्रह भवानीप्रसाद मिश्र का प्रतिनिधि काव्य-संग्रह है जिसमें उन्होंने भारतीय परंपरा के वैशिष्ट्य को आधुनिक संदर्भों के साथ जोड़कर कथ्य की व्यापकता को सिद्ध किया है। वह कबीर, तुलसी, सूर, मीरा ही नहीं, शंकराचार्य के चिंतन को भी नए संदर्भ में जोड़ कर देखते हैं-
दूसरे तार सप्तक के सशक्त हस्ताक्षर होने के नाते मिश्र जी नई कविताओं के तमाम वैशिष्ट्य को छूते हुए अपनी कविता को नया आयाम देने का साहस रखते हैं। इनकी कविताओं की समीक्षा करते हुए प्रो. महावीर सरन जैन का कथन है कि- "हिंदी की नई कविता पर सबसे बड़ा आक्षेप यह है कि इसमें अतिरिक्त अनास्था, निराशा, विषाद, हताशा, कुंठा और मरण-धर्मिता है, उसको पढ़ने के बाद जीने की ललक समाप्त हो जाती है। व्यक्ति हतोत्साहित हो जाता है। मन निराशावादी हो जाता है और मरणासन्न हो जाता है। यह कि नई कविता ने पीड़ा, वेदना, शोक और निराशा को ही जीवन का सत्य मान लिया है। नई कविता भारत की जमीन से प्रेरणा प्राप्त नहीं करती इसके विपरीत यह पश्चिम की नकल से पैदा हुई है। भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएँ इन सारे आरोपों को ध्वस्त करती हैं।"
ग्रामीण परिवेश से लगाव रखने वाले मिश्र जी सदा से प्रकृति प्रेमी भी रहे हैं। प्रकृति छटा को निहारती रचना ’सतपुड़ा के जंगल’ में अंचल विशेष का यथार्थ बिंब इन्होंने प्रस्तुत किया है। घने जंगल की सूक्ष्म से सूक्ष्म दृश्यावलियों को कविता के कलेवर में पिरो दिया है। शाल, पलाश के झूमते ऊँचे पेड़, साँप सी काली लताएँ, शेर के गर्जन, झुरमुट और कांस, अजगरों से भरे जंगल, उफनती नदी व नाले, कल-कल बहते झरने, जंगली पशु-पक्षी एवं जीवों का कविता में सजीव चित्रण किया गया है।
सादा जीवन और उच्च विचार की परिपाटी को अपने जीवन में अपनाने की छाया दृष्टि उनके कृतित्व में स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है। सन १९६१ में श्री नारायण चतुर्वेदी के सम्पादकत्व में प्रकाशित ’सरस्वती’ के हीरक जयंती अंक में भवानी प्रसाद मिश्र ने ’अलीक पंछी’ कविता के शीर्षक से जीवन को दर्शनशास्त्री की नजरों से देखा है। वह एक और जीवन में आने वाली बाधाओं से डटकर मुकाबला करने की प्रेरणा देते हैं, वहीं दूसरी ओर मृत्यु के प्रति भी एक आत्मीय स्वर को मुखरित करते हैं।
भवानी प्रसाद मिश्र के लिए कविता किसी सत्य को व्यक्त करने का माध्यम मात्र नहीं है, वरन वह सत्य को जानने का उपकरण भी रहा है। इसी सत्य तक पहुँचने के लिए ’निराला’ ने छंद से मुक्ति दिलाई। मिश्र जी ने एक कदम और आगे बढ़ाते हुए उस ’मुक्त छंद’ को ’बातचीत के छंद’ के रूप में प्रस्तुत किया है। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उनकी रचना ’बुनी हुई रस्सी’ की भूमिका में वे लिखते हैं- "मैं जो लिखता हूँ, उसे जब बोल कर देखता हूँ और बोली उसमें बजती नहीं है तो मैं पंक्तियों को हिलाता-डुलाता हूँ।"
अपनी विराट लेखनी के माध्यम से कविताओं की ’आकाशगंगा’ में न जाने कितने चाँद-सितारे भवानी प्रसाद मिश्र जी ने आलोकित किए हैं। प्रकृति चित्रण, ग्रामीण परिवेश, मानवता, देश के प्रति समर्पण, सामाजिक चेतना, पर्यावरण चेतना, पानी का महत्व, बसंत, और न जाने कितने ज्ञात-अज्ञात विषयों पर अपनी जादुई कलम चलाकर मिश्र जी ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है।
उन्होंने स्वयं को कभी भी निराशा के गर्त में नहीं डूबने दिया है। जैसे सात-सात बार मौत से लड़े वैसे ही आज़ादी के पूर्व गुलामी से और आज़ादी के पश्चात तानाशाही से लड़े। आपातकाल के दौरान उन्होंने ठान लिया था कि दिन के तीन पहर कविताएँ लिखेंगे, उन्होंने सुबह, दोपहर और शाम कविताएँ लिखी जिसे ’त्रिकाल संध्या’ नामक पुस्तक में प्रकाशित किया गया। इस कारण सुधिजन उन्हें ’कवियों के कवि’ कहकर पुकारने लगे। जीवन की सांध्य बेला में वे दिल्ली से नरसिंहपुर (मध्य प्रदेश) एक विवाह समारोह में गए। वही अचानक बीमार हो गए और अपने सगे संबंधियों एवं परिजनों के बीच २० फरवरी १९८५ को उन्होंने अंतिम साँस ली ।
संदर्भ:
- हिंदी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास: डॉ. तिलक राज शर्मा
- सरस्वती हीरक जयंती अंक (१९६१) : श्री नारायण चतुर्वेदी
- kavitakosh.com
- hindisarang.com
- bharatdarshan.ac.n2
- egyankosh.ac.in
- Pritishruti.com
लेखक परिचय
डॉ. संजय सराठे
हिन्दी अध्ययन और अध्यापन में रत
डॉ. सराठे लिखित कवियों के कवि भवानी प्रसाद मिश्र पढ़ कर पुण्य सलिला मां नर्मदा के तीरे-तीरे होते हुए सतपुड़ा के घने जंगलों में कुलांचे भरता मन आह्लादित हुआ। सराठे जी को जीवंत शुभकामनाएं!
ReplyDeleteसम्पूर्ण जानकारी से युक्त दूसरे सप्तक भवानी भाई के बारे में बहुत अच्छा बताया आपने । मेरे मित्र हैं लक्ष्मण केडिया उन्होंने इपर बहुत काम किया है और उनकी कई पुस्तकों का प्रकाशन भी उन्होंने किया है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया डॉ सराठे साहब। आज ये आलेख पढ़कर सतपुड़ा के घने जंगल जैसे सामने आकर खड़े हो गए। आपने बहुत अच्छा आलेख सुरुचिपूर्ण तरीके से लिखा है। बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteअमित खरे, भोपाल
शुक्रिया अमित जी, निश्चय ही भवानी दादा की कविता को पढ़कर मन में दृश्य जीवंत हो उठते हैं लगता है कि हम सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच में हैं साभार... शुक्रिया
Deleteनपा,तुला,सधा और संतुलित लेख।भवानी दा की स्मृति को नमन।लेखक का अभिनंदन।
ReplyDeleteडा.भवानी प्रसाद मिश्र की लेखनी से मैं हमेशा प्रभावित रहा हूं। उनकी विशेषता ही थी ,बातचीत में कविता ।डा सराठे जी आपने विलकुल न्यायोचित लेख प्रस्तुत किया है।आभार ---प्रताप
ReplyDeleteसंजय जी, आपने भवानी दादा के सरल शब्दों की तरह ही सरल, सुंदर, प्रवाहमय लेख लिखा है। बधाई ! हमारा उनके काव्य से पहला परिचय विद्यालय में पढी कविता गीत फ़रोश से ही हुआ था। पहले तो किशोर मन को बड़ा रोचक लगा कि कोई गीत बेचने की बात कर रहा है। फिर अर्थ समझ में आने के बाद गहरा प्रभाव पड़ा। बचपन में ही भवानी दादा ने यह सबक़ सिखा दिया कि आर्थिक विवशता के जाल में कभी ना फँसना। गीत बेचने पड़ जाएँगे।मुझ जैसे कितने ही विद्यार्थी उनकी शिक्षा से कृतार्थ हुए हैं। उनके सरल ,प्रभावी काव्य को प्रणाम। 🙏💐
ReplyDeleteभवानी भाई का महापुरुषीय व्यक्तित्व और नर्मदा के जल सा प्रवाहमय कृतित्व साकार करने के लिए संजय सराठे जी को बधाई।बचपन में पढ़ी थी ‘सतपुड़ा के घने जंगल’ पूरी याद थी। गेयता भवानी भाई की कविता का मुख्य गुण है, बल्कि कहना चाहिए कि उन्होंने कविता नहीं गीत लिखे हैं। उनका प्रथम संग्रह 'गीत-फ़रोश' अपनी नई शैली, नई उद्भावनाओं और नये पाठ-प्रवाह के कारण अत्यंत लोकप्रिय हुआ।सब कुछ तो आपने लिख दिया है ।
ReplyDeleteभवानी भाई की कविताओं का स्वाद सिर चढ़कर बोलता है-
“कलम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध ।
यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह ।
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।
चीज ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाए
बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए ।
फल लगें ऐसे कि सुख-रस, सार और समर्थ
प्राण-संचारी कि शोभा-भर न जिनका अर्थ ।”
नई कविता में जो नैराश्य और नकारात्मकता थी, भवानी भाई की कविता ने उसे समाप्त कर दिया।
उनके जीवन दर्शन से नई आशा, नई आस्था और नई उमंग पैदा होती है।
पुनः बधाई स्वीकार करें।
डॉ. सुनीता यादव
भवानी प्रसाद मिश्र जी की कविताएँ परिवर्तन और सुधार की अभिव्यक्ति हैं। उनकी कविता में समाज है, प्रकृति है तो नसीहत भी है। 'जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख,
ReplyDeleteऔर इसके बाद भी हम से बड़ा तू दिख।'
डॉ. संजय जी ने इस रोचक लेख के माध्यम से भवानी प्रसाद जी की साहित्यिक यात्रा से पुनः जुड़ने का एक अवसर दिया। इसके लिए साधुवाद एवं हार्दिक बधाई।
संजय जी, आपने बोलती कविता लिखने वाले प्रणम्य कवि भवानीप्रसाद मिश्र की तस्वीर भी उतनी ही जीवंत लगायी है, जैसे कि वे अभी बोल उठेंगे। महाप्राण निराला ने सत्य की तह तक कविता को ले जाने के लिए उसे मुक्त-छंद किया और भवानीप्रसाद जी ने उसे 'बातचीत के छंद'के रूप में करके सामान्य बातचीत को प्रवाहमयी कविता बना दिया। उनकी हर कविता सरल शब्दों में गहन कथ्य को संजोए होती है। आपने बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से सरल और सरस शब्दों में भवानीप्रसाद जी के उज्जवल व्यक्तित्व और अनुपम कृतित्व के पन्ने खोले हैं, इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई और आभार।
ReplyDeleteसंजय जी ..। बहुत अच्छा लगा पढ कर ।पिताजी को गये हूए 40 साल से ऊपर हो गयें हैंं फिर भी वे हमारे बीच हैं, यह आप जैसे प्रशंसकों कारण है। हम सभी की ओर से आभार ।
ReplyDeleteजिनकी कविता घर की याद को मैंने कुमार विश्वास की तर्पण सीरीज़ में शायद सैंकड़ों बार सुना हो, जब-जब पानी बरसा हो, जब-जब पिताजी की याद आई हो! ऐसे कवि पर- प्राण मन तिरता रहा है…के अलावा और क्या लिखूँ!
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर एवं सरल शब्दों से सजा हुआ लेख हैं। आदरणीय भवानीप्रसाद जी की जीवनव्याख्या और साहित्यिक परिचय भी अत्यंत सुसज्जित मात्रा में रखा गया हैं। सौम्य लेखन के लिए संजय सराठे जी को हार्दिक बधाई और ढेरों शुभकामनाएं।
ReplyDeleteबहुत सुंदर और सरल शब्दो से वर्णित यह सृजन यह बता रहा है की आपने बडे दिल से आदरणीय भवानीप्रसाद मिश्रा की जानकारी लिखी है ।बधाई हो आपको
ReplyDeleteडॉ. सराठे जी ने बहुत सहज, सरल शब्दों में कवि भवानी प्रसाद जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को हमसे परिचित कराया है। आपको इस सुरुचिपूर्ण लेख के लिए बहुत बहुत बधाई। भवानी जी की स्मृति को सादर नमन।
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