Wednesday, February 9, 2022

प्रपंच से परे : विष्‍णु खरे

 विष्णु खरे : वह अंतिम आदमी

हर कलाकृति जितनी वह पढ़ी जाती है, सुनाई या दिखाई देती है, उससे कहीं ज्‍़यादा होती है; और फ़िल्‍मों को लेकर शायद यह कुछ अधिक सत्‍य है।

एक बड़े कवि, उत्‍कृष्‍ट अनुवादक, हिंदी और विश्‍व सिनेमा के गंभीर अध्‍येता, तीखे तेवर वाले साहित्‍य समीक्षक, संगीत रसिक और निर्भीक पत्रकार विष्‍णु खरे की जो उपरोक्‍त विशेषताएँ हैं, वह उनके पोषक रसायनों का परिणाम हैं। उनका बचपन और किशोर जीवन शुष्‍क मरुभूमि में बीता। मध्‍यप्रदेश के छिंदवाड़ा की धरती पर जन्‍में बालक का नामकरण पिता ने अपने पसंदीदा गायक विष्‍णुपंत पागनीस के नाम पर किया। जिस उम्र में कोई बालक कुछ समझने लायक होता है (लगभग ६ वर्ष की उम्र में), ये बिना माँ के हो जाते हैं; तब से इनकी संघर्ष कथा प्रारंभ होती है, जो जीवन भर चलती है। छिंदवाड़ा के दोस्‍त इनको देखकर मुँह मोड़ लेते थे, लेकिन जब नौकरी लगी, तो कई सारे नए दोस्‍त भी मिल गए।

इनकी शादी भी विवादों का केंद्र रही। २७ वर्ष की उम्र में इन्‍होंने अपने कॉलेज की ही एक छात्रा से ब्‍याह रचाया। इससे नाराज़ कॉलेज ने इनका स्‍थानांतरण भी कर दिया था। इनकी प्राथमिक शिक्षा छिंदवाड़ा में ही संपन्‍न हुई। १९६३ में इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज से अँग्रेज़ी में परास्‍नातक की शिक्षा पूर्ण की। बाद में इंदौर के दैनिक 'इंदौर समाचार' पत्र हेतु संपादन का कार्य प्रारंभ किया। १९६६-६७ में लघु पत्रिका 'व्‍यास' का संपादन किया। १९८३-८४ में नवभारत टाइम्‍स में प्रभारी कार्यकारी संपादक का कार्य करना उनके लिए अभूतपूर्व रहा, जब उन्‍होंने संसार भर की प्रतिष्ठित कविताओं को अपनी ही शैली में हम सब तक पहुँचाया।

उन्‍होंने कई विधाओं में अपनी लेखनी चलाई। वे किसी भी टॉपिक को अधूरा नहीं छोड़ते थे। १९८३ में 'आलोचना की पहली किताब' आलोचना ग्रंथ प्रकाशित हुआ। इसके अलावा इनके अनुवाद ग्रंथ भी समय-समय पर प्रकाशित हुए। 'कालेवाला' फिनलैंड के राष्‍ट्रकाव्‍य का अनुवाद है, जिस पर उन्‍हें वहाँ का सर्वोच्‍च सम्‍मान 'नाइट ऑफ दि आर्डर ऑफ दि व्‍हाइट रोज़' प्राप्‍त हुआ। इन्‍होंने अँग्रेज़ी, जर्मन आदि विदेशी भाषाओं के साहित्‍य का हिंदी में एवं हिंदी के साहित्‍य का अँग्रेज़ी में अनुवाद किया। अतः ये सेतु के रूप में हम सबके सामने आते हैं। ३० जून २०१८ से आपने साहित्‍य अकादमी के उपाध्‍यक्ष पद को भी सुशोभित किया।

विष्‍णु खरे के वर्ण्‍य विषय 

विष्‍णु खरे अद्भुत प्रतिभा संपन्‍न साहित्‍यकार थे, इसलिए इनके वर्ण्‍य-विषय का भी कोई निश्चित पैमाना नहीं है; फिर भी पूरा जीवन संघर्ष की पृष्‍ठभूमि में होने के कारण इनके साहित्‍य का रुझान स्‍वाभाविक रूप से निम्‍न मध्‍यवर्गीय समाज की ओर रहा।

इनका काव्‍य स्‍वतंत्रता पश्‍चात भारत का दर्पण है, जिसमें देश और समाज की वस्‍तु स्थिति दिखाई गई है। इनके साहित्‍य में आधुनिक जीवन की समस्‍याएँ भी दृष्टिगोचर होती हैं। छिंदवाड़ा की मिट्टी से साहित्‍य-सृजन की यात्रा प्रारंभ करते हुए, वे साहित्‍याकाश में विराट रूप लेते हैं, पर छिंदवाड़ा को कभी नहीं भूलते। यहाँ तक कि वो इसी मिट्टी में अपना अंत भी चाहते हैं।

वे स्‍थानीयता से लेकर वैश्विक स्तर तक के कवि हैं। अध्‍यापक का जीवन और कवि हृदय प्राप्‍त खरे जी रिश्‍तों के प्रति गहरा लगाव रखते थे, पर ज़रूरत पड़ने पर किसी को भी खरी-खरी कहने एवं लिखने में संकोच नहीं करते थे। उनका भावुक हृदय हमेशा नवोदित कवियों को तराशने एवं उत्‍साहवर्धन हेतु प्रयत्‍नशील रहा। उनसे टकराने का साहस किसी में नहीं था। उनके प्रेमी भी उनसे भय खाते थे।

पहले से चली आ रही कविता को कोई कवि कितना बदल सकता है, यह उसकी प्रतिभा का आकलन होता है। इस दृष्टि से विष्‍णु खरे समकालीन कविता के श्रेष्‍ठ उदाहरण हैं। १९७१-७३ के दौरान प्राग (चेकोस्लोवाकिया) के प्रतिष्ठित फ़िल्‍म क्‍लब में संसार भर की प्रसिद्ध फ़िल्मों को देखने के बाद इस क्षेत्र में भी आपने लेखन किया और 'सिनेमा पढ़ने के तरीके' जैसा अमूल्‍य ग्रंथ प्रणयित किया।

'लालटेन जलाना' कविता में उन्‍होंने लालटेन जलाने की जिस प्रक्रिया का उल्‍लेख किया है, वह हम सबको अचरज में डाल देती है। 'नई रोशनी' कविता में वंशवाद पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि- "एक मात्र इनकी संतानें नई रोशनी लाना जाने"। 'हर शहर में एक बदनाम औरत होती है' कविता में समाज के ठेकेदारों और नारी की यथार्थ दशा का वर्णन देखते बनता है -
देखो-देखो ये उसे निपटा चुके हैं,
उन-उन की उतरन और जूठन है वह।

प्रवासी शरणार्थी जैसी वैश्विक समस्‍या पर
'आलैन' कविता में सीरियाई बच्‍चे आलैन के बारे में लिखते है -
हमने कितने प्‍यार से नहलाया था तुझे,
कितने अच्‍छे साफ कपड़े पहनाये थे।
और तू यहाँ आकर गीली रेत पर सो गया।

'एक कम' कविता में भारत की स्‍वतंत्रता के पश्‍चात मध्‍यमवर्गीय समाज को तत्‍कालीन नेताओं द्वारा दी गई निराशा का वर्णन है। वहीं 'लापता' कविता में महाभारत युद्ध में लापता २४१६५ योद्धाओं पर भी कवि लगातार सवाल करते हैं।

'लड़कियों के बाप' कविता लड़कियों और उनके पिताओं के निरीह एवं कातर दशा का तत्‍कालीन दस्‍तावेज़ है। इंसान तो इंसान उनकी दृष्टि पशु-पक्षियों पर भी समान भाव से पड़ी है। 'आगाही' कविता में कुत्‍ते के लिए लिखते हैं-
पत्‍थर वगैरह फेंक कर उसे खदेड़ने-चुप करने की कोशिश करते हैं,
लेकिन वह कुछ दूर जाकर फिर वही करने लगता है,
यानी जिसे रोना कहा जाता है
मगर बजाय इसके कि यह जानने की कोशिश की जाये कि
वह निरी भूख से रोता है या सर्दी-गर्मी-बरसात से।

वह ८० फीसदी भारतीयों के कवि हैं। '
वापस' कविता में फुटपाथ पर दुकान लगाने वालों की दिनचर्या का वर्णन कुछ ऐसे करते हैं - "सफेद मूछें सिर पर उतने ही सफेद छोटे-छोटे बाल। बूढ़े दुबले झुर्रीदार बदन पर मैली धोती और बनियान। चेहरा बिलकुल वैसा जैसा ८० प्रतिशत भारतवासियों का।"

कवि विष्‍णु खरे का निश्‍चय हमेशा उन्‍हें आगे बढ़ने को प्रेरित करता है। लौटना उन्‍हें मंजूर नहीं। अनुभवों, स्‍पर्शों और बंसत में लौटना कितना हास्‍यास्‍पद है; फिर भी हर शख़्स कहीं न कहीं लौटता है, और लौटना एक यंत्रणा है।
उनके अनुसार बाहर की आइडेंटिटी कोई मायने नहीं रखती और अंदर की आइडेंटिटी बहुत पेनफुल होती है; क्‍योंकि वह हमेशा देखती है कि आप क्‍या हैं? संसार की आँखों में आप क्‍या हैं? इसी तथ्‍य को ध्‍यान में रखकर वह अंदर-बाहर की पहचान करते हैं, और पहचाने गए तथ्‍य की 'तफ़सील' कविता में बड़ी बेबाकी से करते हैं। १२ जुलाई १९७६ की कविता 'डरो' में समय आपातकाल का और निर्भीकता विष्‍णु खरे की - 
डरो तो डरो कि कहेंगे डर किस बात का है।
न डरो तो डरो कि हुक्‍म होगा कि डर। 

प्रत्‍येक व्‍यक्ति सत्‍य की तह में पहुँचना चाहता है, लेकिन सत्‍य की खोज के लिए युधिष्ठिर जैसा दृढ़निश्‍चयी होना पहली शर्त है। 
सत्‍य शायद यह जानना चाहता है
कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक भटक सकते हैं 
कभी दिखता है सत्‍य
और कभी ओझल हो जाता है सत्‍य

महिलाओं और बच्‍चों को सांप्रदायिक दंगों की कितनी कीमत चुकानी पड़ती है, विष्‍णु खरे की नज़रों से यह भी अछूता नही हैं। '
शिविर में शिशु' कविता में यह पीड़ा शब्‍दों में इस तरह उभरी है -
एक चादर पर पंद्रह शिशु लिटाये गये हैं,
वे उन पैंतालीस में से एक हैं
जो दंगों के बाद में इन कुछ हफ्तों में
एक राहत शिविर में पैदा हुए हैं।

महिलाओं और बच्‍चों के दैन्‍य का कुछ ऐसा ही वर्णन '
उसी तरह' में करते हुए कहते हैं - "अकेली औरतें और बच्‍चे दुनिया की तरफ पीठ किये हुए खा रहे हैं। यह दशा मेरे से देखी नहीं जाती। किंतु शांति से खाने की एकांत लय में बाधा न पहुंचे, वे भूखे पेट उठ न जाएँ, इसलिए मैं दूर से ही खुश हूँ, जैसे कुत्‍ता देखकर खुश होता है।"

खरे जी आदर्शोन्‍मुखी यथार्थवादी कवि हैं। 'विलोम' कविता में कहते हैं - "जिसके लिए शोक सभा की जा रही है, वह वास्‍तव में इसका हक़दार है या नहीं, और शोककर्त्ता भी इतने वास्‍तविक होते हैं कि १२० सेकेंड भी उनके लिए बहुत भारी पड़ जाते हैं।" उन्‍होंने हिजड़ों, चमगादड़ों और फोटोकॉपी जैसे नए और अछूते विषयों पर कविताएँ लिखी हैं। उनके यहाँ निबंध और पत्रकारिता भी कविता बन जाते हैं।

कविता लिखने की प्रेरणा इन्‍हें अपने पिताजी से मिली थी। इन्‍होंने अपने जीवन का पहला व्‍यंग्‍य 'खण्‍डवा' प्रसिद्ध नेता एवं तत्‍कालीन मंत्री भगवंतराव मंडलोई पर लिखा था। यह व्‍यंग्‍य नागपुर से प्रकाशित साप्‍ताहिक 'सारथी' में छपा। 'सारथी' के संपादक को अगले अंक में दबाववश क्षमा-याचना एवं शर्मिंदगी प्रकाशित करनी पड़ी। इस घटना में विष्‍णु खरे को 'अभिव्‍यक्ति के सारे ख़तरे उठाने' और 'मठ तोड़ने' की प्रेरणा दी।

इनकी भाषा की ही भांति इनका स्‍वभाव भी सरल एवं स्‍पष्‍ट है, जिसमें आडंबर ढूँढने से भी नहीं मिलता। इनकी दृष्टि बहुत ही पैनी है। एक मौसमी प्रशंसक को झिड़कते हुए कहते है - ''यहाँ से दफ़ा होने का क्या लोगे?'' उन्‍होंने साहित्‍य अकादमी जैसी संस्‍था को भी साहित्‍य के विरुद्ध, काफ्काई, नौकरशाह एवं षड्यंत्रकारी संस्‍था बताने से भी गुरेज़ नहीं किया।

वह बाहर से जितने क्रूर हैं, अंदर से उतने ही कोमल, बिल्‍कुल नारियल की तरह। वे अकेले हैं, जिन्‍होंने आलोचना की भाषा में कविता को संभव किया। बौद्धिक स्‍तर पर उनसे टकराना किसी के लिए भी संभव नहीं था।

हिंदी साहित्‍य के दुर्जेय मेधा का निधन भी बहुत संघर्षमय रहा। मृत्‍यु के दो सप्‍ताह पहले इन्‍हें ब्रेन हैमरेज हुआ। इलाज के दौरान १९ सितंबर २०१८ को दिल्‍ली के जी० बी० पंत अस्‍पताल में इन्‍होंने अंतिम साँस ली। इनके निधन से हिंदी साहित्‍य जगत ने बहुत कुछ खो दिया है।

विष्‍णु खरे : एक परिचय

जन्‍म

९ फरवरी १९४०, मध्यप्रदेश

निधन

१९ सितंबर २०१८, दिल्ली

जन्‍मभूमि

छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश

कर्मभूमि

इंदौर, लखनऊ, मुंबई, प्राग(चेकोस्लोवाकिया), दिल्ली

पिता

स्व० सुंदर लाल खरे

पत्‍नी

श्रीमती कुमुद खरे (सुधा शर्मा) १९६७

पुत्र

अप्रतिम

पुत्री

अनन्‍या खरे (अभिनेत्री) 

शिक्षा एवं शोध

स्नातकोत्तर

  • अँग्रेज़ी - ‍क्रिश्चियन कॉलेज इंदौर, मध्य प्रदेश (१९६३)

साहित्यिक रचनाएँ

काव्‍य संग्रह

  • एक गैर-रूमानी समय में (१९७०)

  • खुद अपनी आँख से (१९७८), जयश्री प्रकाशन, दिल्ली

  • सबकी आवाज के पर्दे में (१९९४), राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज 

  • पिछला बांकी (१९९८), राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली

  • पाठांतर (२००८), परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ

आलोचना

  • आलोचना की पहली किताब (१९८३),  राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज

समीक्षा

  • सिनेमा पढ़ने के तरीके (२००८)

अनुवाद

हिंदी में

  • मरुप्रदेश और अन्‍य कविताएँ- टी.एस.इलियट (१९६०)

  • यह चाकू समय- ऑतिंला योझेफ (१९८०)

  • पियानो बिकाऊ है- फ़ेरेन्त्स करिन्थी (१९८३)

  • हम सपने देखते हैं-मिक्लोश रदनोती (१९८३)

  • कालेवाला- फिनी राष्‍ट्रकाव्‍य (१९९७)

  • दो नोबेल पुरस्कार विजेता कवि-चेस्बावमीवोश, विस्बावाशिम्बार्का(२००१)

  • किसी और ठिकाने- योखेन केल्तर, अगली कहानी- सेस नोटेबोम(२००२)

  • हमला- हरी मूलिश, काल और अवधि के दरमियान-लोटार लुत्से (२००३)

  • दो प्रेमियों का अजीब किस्सा-सेस नोटेबोम(२००३),फाउस्ट-गोएटे (२००९)

अँग्रेज़ी में

  • अदरवाइज एण्ड अदर पोएम्स : श्रीकांत वर्मा की कविताऍ (१९७२)

  • डिसेक्शंस एण्ड अदर पोएम्स : भारतभूषण अग्रवाल की कविताऍ(१९८३)

  • दि पीपुल एण्ड दि सैल्फ : हिंदी कवियों का संग्रह (१९८३)

जर्मन में

  • डेयर ओक्टेनकरेन : लोठार लुत्से के साथ संपादित हिंदी अनुवाद (१९८३)

  • फेल्जेनश्रिफ्टेन : मोनीका होर्स्टमन के साथ संपादित युवा कवियों के अनुवाद (२००६)

पंसदीदा लेखक

  • टी.एस.इलियट

  • गजानन माधव मुक्तिबोध

  • मक्सिन गोर्की

  • कृष्णचंदर

  • मुंशी प्रेमचंद

पुरस्‍कार व सम्‍मान

  • नाइट ऑफ दि आर्डर ऑफ दि व्‍हाइट रोज़ - फिनलैण्‍ड

  • 'सर' उपाधि- फिनलैण्ड

  • एंद्रे आदी वर्तुल पदक मिडेल्यन- हंगरी

  • अत्तिला ओझेफ़ वर्तुल पदक- हंगरी

  • साहित्‍य सम्‍मान- हिंदी अकादमी दिल्ली

  • शिखर सम्‍मान (मध्यप्रदेश)

  • रघुवीर सहाय सम्‍मान

  • मैथिलीशरण गुप्‍त सम्‍मान

  • भवभूति अलंकरण

  • हिंदी काव्य सेवा पुरस्कार- 'परिवार' कला-संस्कृति-साहित्य संस्था मुंबई 


संदर्भ

  • आलोचना की पहली किताब : विष्णु खरे - राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज।

  • गुफ़्तगू (राज्यसभा टी०वी०) इरफ़ान द्वारा साक्षात्कार, २३ सितंबर २०१२।

  • विष्णु खरे की कविता में स्त्रियाँ : अमितेश कुमार 'सदानीरा' विश्वकविता और अन्य कलाओं की पत्रिका।

  • समालोचना।

  • संस्मरण- विष्णु खरे : गोवर्धन यादव - रचनाकार.ओआरजी (https://rachnakar.org/)

  • कविताकोश.ओआरजी (http://kavitakosh.org/)

  • अमर उजाला.काम (https://amarujala.com/)

लेखक परिचय

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रत्‍नेश कुमार द्विवेदी


मध्‍यप्रदेश (भारत) के उच्‍चतर माध्‍यमिक विद्यालयों में १५ वर्षों से हिंदी भाषा अध्‍यापक के रूप में कार्यरत।


ईमेल -  ratnesh२०१६satna@gmail.com

दूरभाष - +९१ ८८७८१९७९५०

14 comments:

  1. बहुत बढ़िया आलेख

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद।

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  2. उत्कृष्ट लेखन के लिए भाई रत्नेश जी को साधुवाद!

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  3. रत्नेश जी, विष्णु खरे जी की जीवंत तस्वीर उकेरने में आप बहुत सफल रहे हैं। साहित्यकार के प्रति शोध और सम्मान आपके शब्दों से साफ झलकता है। बेबाक शख़्सियत की एक ख़ूबसूरत दास्तान है आपका लेख। इसके लिए आपको बधाई और शुक्रिया।

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  4. बढ़िया परिचय,विष्णु खरे जी कविताएं सोचने को मजबूर करती है।उनका वैचारिक विश्व बहुत संपन्न है। मध्यप्रदेश में अनेक मराठी परिवार स्थायिक हुए और कला,साहित्य, संगीत,नाटक क्षेत्र में प्रसिद्ध हुए। हार्दिक बधाई,रत्नेश जी

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  5. "हर कलाकृति जितनी वह पढ़ी जाती है, सुनाई या दिखाई देती है, उससे कहीं ज़्यादा होती है।"
    जब शुरुआत ही एक सारगर्भित पंक्ति से हो, तो संपूर्ण रचना की रोचकता कहीं अधिक बढ़ जाती है। विष्णु खरे की रचनाएँ उनके गहन वैचारिक चिंतन को परिभाषित करती हैं। अपनी माटी से जुड़े इस विरले रचनाकार के जीवन को शब्द देने के लिए धन्यवाद रत्नेशजी।
    हार्दिक बधाई,
    सादर।

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  6. विष्णु खरे जी के जीवन और साहित्यिक यात्रा को बहुत बारीकी से रेखांकित करता लेख। बधाई रत्नेश जी

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  7. सुप्रसिद्ध कवि, पत्रकार एवं अनुवादक आदरणीय विष्णु खरे जी जी साहित्य यात्रा सृजन से भरी हुई है। रत्नेश जी ने इस लेख के माध्यम से विष्णु खरे जी के जीवन एवं साहित्य को बख़ूबी पटल पर रखा। इस लेख के लिये रत्नेश जी को हार्दिक बधाई।

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  8. 'व्यास' लघु पत्रिका के संपादक विख्यात साहित्यकार और आलोचक आदरणीय विष्णु खरे जी ने अपनी विशिष्ट शब्द शैली से अनगिनत कविताओं का अनुवाद किया है। उसके साथ-साथ उन्होंने अपनी स्वरचित गहरी विचारक कविताएं भी भारतीय साहित्य जगत को प्रक्षेपित की है। आद. रत्नेश कुमार जी ने गहन अध्ययन करके उनके रचनात्मक और आलोचनात्मक जीवनी का लेख पूरी रंगत के साथ वृस्तित किया है। खरे जी की समाज,समय औए विचारधारा का आलोक बड़ी बारीकी से विश्लेषित किया है। उनकी ओजस्वी जैविक श्रृंखला के विस्तारित पाठ का अध्ययन कराने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद और हार्दिक अभिनंदन।

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  9. उत्कृष्ट लेख रत्नेश जी,खरी - खरी परन्तु सटीक बोलने वाले विष्णु जी पर लिखना कोई आसान कार्य नहीं। बेहतरीन आलेख प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक बधाई।

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  10. बेहतरीन आलेख विष्णु खरे जी पर
    👌👌👌🙏🙏👌🙏

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  11. रत्नेश जी, आपका हृदयतल से साधुवाद। विष्णु खरे के जीवन और काम को इतने मँझे हुए आलेख में पिरोने के लिए धन्यवाद। पाठक को बाँधकर रखने वाले आलेख के लिए आपको बधाई और शुभकामनाएँ।

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  12. वरिष्ठ कवि,अनुवादक और आलोचक विष्णु खरे जी के जीवन और साहित्यिक यात्रा के बारे में जानकारियां उपलब्ध कराता एक महत्वपूर्ण आलेख। सारगर्भित प्रस्तुति के लिए रत्नेश जी को बहुत बधाई।

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  13. बहुत सुंदर । खरे जी के बारे में विस्तार से बताने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।

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