Sunday, February 6, 2022

मैंने तेरी तान सुनी है : गुलाब खंडेलवाल




 

मैंने तेरी तान सुनी है
शांत विजन में
सुमन-सुमन में
हर तरु-तृण में
लय अनजान सुनी है
 
दूर गगन में
तारा-गण में
है त्रिभुवन में
जो गतिवान, सुनी है

शून्य विजन में उस अनजान लयबद्ध तान को सुनने वाला यह युवा प्रारंभिक अध्ययन के बाद काशी विश्वविद्यालय से स्नातक करते हुए साहित्यिक परिवेश से जुड़ा। वहाँ वह बेढब बनारसी के संपर्क में आया और कविता की धारा बह निकली। वह युवक और कोई नहीं महाकवि गुलाब खंडेलवाल था।

फरवरी १९२४ में नवलगढ़, राजस्थान स्थित अपने ननिहाल में जन्मे श्री गुलाब खंडेलवाल के माता-पिता श्रीमती बसंती देवी और श्री शीतल प्रसाद थे। बचपन में ही श्री गुलाब जी को उनके ताया श्री सूरज लाल जी ने गोद ले लिया था। उनके परदादा सदासुखजी १८३० में राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र के मंडावा राज्य से चलकर बिहार के गया शहर में आकर बस गए थे। गुलाबजी के पूर्वज राजस्थान में नवलगढ़ और मंडावा राज्य के प्रशासक थे और उस समय राज्य की ओर से उन्हें १०० बीघा ज़मीन प्रदान की गई थी। इसके अतिरिक्त राज्य की ओर से मास में चार सेर घी और अतिरिक्त अनाज के साथ मासिक राशि भी मिलती थी। कहने का तात्पर्य यही है कि गुलाबजी का जन्म एक संपन्न परिवार में हुआ था। 

१९३९ में अपने अध्ययन के दिनों में ही उनका विवाह कृष्णा देवी के साथ हो गया था। श्रीमती कृष्णाजी अध्ययनशील और काव्य प्रेमी थीं। वे हर कदम पर गुलाब जी के काव्य सृजन की प्रेरणा स्रोत रहीं और ७५  वर्ष से अधिक के दांपत्य जीवन में उनका साथ दिया। 

उधर, काशी विश्वविद्यालय के वातावरण ने गुलाब जी की विचारधारा और सोच के सौंदर्य व सौष्ठव को बढ़ाया। वे स्थानीय साप्ताहिक में अपनी रचनाएँ भेजते रहे। उस काल का एक संस्मरण याद आता है, जो उन्होंने  १९८८ में सिल्वर स्प्रिंग में मुझे सुनाया था।  बेढब जी के सान्निध्य में बेधड़क बनारसी भी थे, जिनकी लेखनी से व्यंग्य और हास्य की धारा निकलती थी। गुलाब जी की एक कविता उस समय साप्ताहिक में छपी थी :
दूर गगन में तारा टूटा
अंधकार ने मुँह फैलाया
सूनापन डँसने को आया
नहीं समझ पाया था कुछ भी, वह कि काल ने आकर लूटा
व्योम-पटी पर वह अभिमानी
लिख करुणा की अमर कहानी
एक ओर चल दिया क्षितिज में, जैसे भाग्य किसी का रूठा!

तो अगले सप्ताह ही श्री बेधड़क बनारसी ने उस कविता की पैरोडी लिख कर छपवा दी :-

दूर गगन में टूटा तारा 
दिवस निशा में क्रिकेट हो रहा 
फॉल  किसी का विकिट हो रहा 
चाँद खिलाड़ी ने वो देखो, बाउंड्री का हिट है मारा 
दूर गगन में टूटा तारा 

जब गुलाब जी ने बेढब जी से इस बात की शिकायत की, तो उन्होंने गुलाब जी को समझाया कि तुम्हारी रचना की यह श्रेष्ठता
 ही है कि कोई उस पर पैरोडी लिख रहा है। यह कविता सन १९४१ में छपे गुलाबजी के पहले संग्रह में है, जिसकी भूमिका महाप्राण निराला जी ने लिखी थी। तत्पश्चात गुलाब जी कवि सम्मेलनों में निराला जी के साथ जाने लगे और अपनी रचनाओं से श्रोताओं को मंत्र-मुग्ध करते रहे। उन्हीं दिनों का एक संस्मरण गुलाबजी ने सुनाया था कि एक रविवार को निराला जी गंगा घाट पर व्यायाम कर रहे थे, जो उनका स्नान से पहले का नियम था। एक आयोजक निरालाजी के पास किसी सम्मेलन का आमंत्रण लेकर पहुँचे। उस समय गुलाब जी भी वहीं थे। गुलाब जी ने बताया कि निरालाजी ने बड़े गौर से एक पल आयोजक को देखा और दूसरे पल गंगा की लहरों की ओर। उन्होंने आयोजक से कहा कि वे गुलाब से बात कर लें। फिर गुलाबाजी को पास बुलाकर निराला जी ने पूछा, "अरे गुलाब! यह बता कि मैं इस आदमी को उठा कर गंगा में फेंक दूँ तो ये डूब नहीं सकेगा" (क्योंकि आयोजन स्थूलकाय था) और फिर गुलाब जी के कहने पर उन्होंने कवि सम्मलेन का आमंत्रण स्वीकार कर लिया। 

गुलाबजी साहित्यिक गोष्ठियों में तत्कालीन विद्वानों के समक्ष अपनी रचना सुनाते और प्रशंसा के पात्र बनते रहे। इन विद्वानों में मैथिलीशरण गुप्त, बेढब बनारसी, रामचंद्र शुक्ल, बच्चनजी इत्यादि शामिल थे।  इसी वातावरण में गुलाबजी की कल्पना और सृजन क्षेत्र बढ़ने लगा और काव्य धारा प्रबल प्रवाह से बहने लगी। 'चाँदनी', 'उषा', 'अहिल्या', 'बलि-निर्वास' और 'कच-देवयानी' इसी क्रम में लिखी गईं और लोकप्रिय हुई। 'कच-देवयानी' में भाषा का सौंदर्य और लालित्य जैसे कूट कूट कर भरा है :
उर के आवेगों से विह्वल कच ने देखी वह छवि अजान
थी खड़ी देवयानी जैसे नववधू, विनत मुख, सजल प्राण
 
लतिकांचल में युग जुगनू ज्यों चंचल स्मिति का उजियाला ले
थे झुके स्नेह से भरे नयन सतरंगी लौ की माला ले
 
अलकें उड़ पलकों पर आतीं ज्यों हास न वह निर्धूम रहा
कंचन की धरती पर मानों नीलम का पौधा झूम रहा
 
कंपित सपनों की तूली से अंकित जिसकी स्वर-धारा हो
आशा ने लज्जित यौवन का सूने में चित्र उतारा हो

काशी विश्वविद्यालय से वापिस आने पर वे अपने पारिवारिक उद्योगों की देखभाल करने लगे। वे गया की नगरपालिका के प्रमुख भी रहे, लेकिन कवि-मन राजनीति में नहीं लगा और वे काव्य साधना में लगे रहे। कालांतर में अपने विवाह के उपरांत अपनी ससुराल की संपदा भी उन्हीं के दायित्व में आई और काव्य साधना करते हुए उन्होंने साठ से भी अधिक पुस्तकें लिखी। 

गुलाब जी की रचनाओं में मुक्त कल्पना का प्रवाह अपने शब्द सौंदर्य के साथ प्रवाहित होता है। 'उषा' में एक स्थान पर उनकी भाषा की परिपक्वता भावों को शब्दों में ढालती है :
अब  भी  कोई  दूरस्थ  कुंज
तुम खड़ी जहाँ पर ज्योति-पुंज
अधरों पर स्मिति के रजत गुंज
नयनों में मादकता अनंत
जीवन का चिर-चंचल प्रपात
मैं करता सबको आत्मसात
तुम बन सुषमा की मलय-वात
बरसाती चिर-यौवन-वसंत
इस मधुर स्वप्न का कहीं अंत!
प्रिय! निश्छल मानस में भर दी, तुमने कितनी छवियाँ दुरंत!

गीत
, दोहे, मुक्तक, रुबाई, सॉनेट और गीति-काव्यप्रत्येक विधा में उनके सशक्त हस्ताक्षर मिलते हैं। जब उन्होंने हिंदी में ग़ज़ल कहना आरंभ किया, तो उनकी ग़ज़लों में हिंदी का प्रमुख स्थान रहा। उनके प्रतीक और बिंब विलक्षण रहे हैं। गुलाब जी की एक विशिष्टता यह भी रही कि उन्हें अपनी हर एक कविता, किस संग्रह में है, यह याद रहती थी। किसी भी रचना का प्रसंग आने पर वे उसका संदर्भ और किस पुस्तक में संकलित है, तुरंत बता देते थे। 

भारत से चलकर वे १९८३ में अमेरिका आ गए और अपना स्थाई निवास ओहायो राज्य के मदीना शहर  में बना लिया। वे प्रतिवर्ष भारत जाते रहे और अपने साहित्य क्षेत्र (गया, कलकत्ता, प्रतापगढ़ और दिल्ली) में निवास करते रहे। अमेरिका में वे अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति के अध्यक्ष रहे और विभिन्न शहरों में कवि सम्मेलनों का गौरव बढ़ाते रहे। 

१९८५ में मैरीलेंड राज्य के बाल्टीमोर शहर के महापौर ने उनकी साहित्य सेवा के उपलक्ष में उन्हें बाल्टीमोर शहर की मानक नागरिकता प्रदान की। १९८६ में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में उन्हें विशिष्ट रूप से सम्मानित किया गया। उनकी दो पुस्तकों का विमोचन दिल्ली में तत्कालीन राष्ट्रपति श्री शंकर दयाल शर्मा द्वारा हुआ। 
 
अमेरिका प्रवास में भी उनका लेखन निरंतर गतिमान रहा। यहाँ लिखी अपनी पुस्तक 'गीत-वृन्दावन' में उन्होंने कृष्ण की अंतस पीड़ा को उजागर किया, जिसका वर्णन किसी और रचनाकार से अछूता रहा है। वे द्वारका में कृष्ण का अपने आप से संवाद लिखते हैं :-
मुरली कैसे अधर धरूँ!
सुर तो वृन्दावन में छूटे, कैसे तान भरूँ!
 
जो मुरली सबके मन बसती
जिससे थी तब सुधा बरसती
आज वही नागिन-सी डँसती
                    छूते जिसे डरूँ

गुलाब जी के साहित्य सृजन का क्षेत्र विशाल
 है। उनकी साठ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनके साहित्य पर कई विश्वविद्यालयों ने शोधकर्ताओं को पीएचडी प्रदान की है। अपनी एक ग़ज़ल में वे कहते हैं :
हमने छेड़ा जहाँ से तेरे साज़ को, कोई वैसे न अब इसको छू पायेगा
तेरे होठों पे लहरा चुके रात भर, सोच क्या अब जियें चाहे मर जायँ हम!
रात काँटों पे करवट बदलते कटी, हमको दुनिया ने पल भर न खिलने दिया
आयेंगे कल नये रंग में फिर गुलाब, आज चरणों पे उनके बिखर जायँ हम

और ज़िंदगी के दर्शन पर उनके विचार
-
एक दिन वासंती संध्या में
खड़े सिन्धु-तट पर थे जब हम, हाथ हाथ में थामे
ढलते रवि को मुझे दिखाकर
तुमने पूछा था अकुलाकर
'तुम भी लौट सकोगे जाकर
क्या कल नयी उषा में?'
 
तभी पलटकर ज्वार बह गया
पल में रज का महल ढह गया
प्रश्न वहीं-का-वहीं रह गया
उड़ता हुआ हवा में

और फिर यही
 हवा में उड़ता हुआ प्रश्न छोड़कर गुलाबजी इस लोक से २ जुलाई २०१७ को प्रस्थान कर गए। 

उनके महाप्रयाण के कुछ माह पूर्व गुलाब जी के ९३वें जन्मदिन पर फरवरी २०१७ में मैंने उनकी पुस्तकों को एक रचना में समाहित कर उनको अपना गीत सुनाया, जो उन्होंने बहुत पसंद किया। उसके कुछ अंश नीचे प्रस्तुत हैं :
 
शतदल कमल शारदा का जब पांखुर-पांखुर हो छितराया
सात पांखुरें नभ पर बिखरी, सप्त ऋषि मंडल बन उभरा
शेष सभी पंखुरियाँ  ढल कर बनी बरस फिर एक एक कर
संरचना के वर्ष  तिरनवें बन गुलाब यह खिल कर संवरा
 …   
शब्दों से जो परे भाव हैं उनको भी साकार किया है
नाव सिंधु में छोड़ी पतवारों के बिना, साधना करते
गाकर मुक्त हुये कहकर यूँ, मेरे गीत तुम्हारा स्वर हो
कस्तूरी कुण्डल की खुशबू, सीपी रचित रेत पर जड़ते
… 
 छन्द-छन्द में, पंक्ति-पंक्ति में, या फिर नूपुर बँधे चरण में
उस अनथकी कलम का करता एक बार फिर से मैं वंदन
खिले एक ताजा गुलाब नित, नये बरस की अंगनाई में
यही कामना, रहें घोलते आप चाँदनी में नित चन्दन!

महाकवि गुलाब खंडेलवाल : जीवन परिचय

जन्म

२१   फरवरी, १९२४,  नवलगढ़, राजस्थान

मृत्यु

२ जुलाई २०१७, अमरीका 

माता 

वसंती देवी

पिता

शीतलप्रसाद

पत्नी

श्रीमती  कृष्णा देवी 

शिक्षा

  • बी० ए०, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, १९४३ 

कार्यक्षेत्र 

  • अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के अध्यक्ष पद पर लगातार छः बार निर्विरोध चयन

साहित्यिक रचनाएँ

काव्य संग्रह (मुख्य)

 

  • सौ गुलाब खिले

  • गुलाब-ग्रंथावली (खण्ड १ से ६ तक)

  • देश विराना है

  • पँखुरियाँ गुलाब की

  • अनबिंधे मोती

  • चांदनी

  • प्रेम कालिंदी

  • उसार का फूल

  • देश वीराना है

  • वकटी बान कर आ

  • कागज़ की नाव

  • नूपुर बंधे चरण

  • सब कुछ कृष्णार्पणम

  • नाव सिंधु में छोड़ी

  • Selected Poems (English)

महाकाव्य /खण्डकाव्य 

 

  • आलोक वृत्ति

  • उषा

  • अहिल्या

  • कच-देवयानी

नाटक

  • राजराजेश्वर अशोक

  • बलि निर्वास (काव्य नाटक)

ग़ज़ल संग्रह

 

  • पंखुरियाँ गुलाब की

  • कुछ और गुलाब

  • हर सुबह एक ताज़ा गुलाब

  • मेरी उर्दू गज़लें 

आत्म कथा

  • ज़िंदगी है कोई किताब नहीं, २००८ 

सम्मान एवं पुरस्कार

  • १९८५ में काव्य-संबंधी उपलब्धियों के लिये बाल्टीमोर नगर की मानद नागरिकता

संदर्भ 

लेखक परिचय

राकेश खंडेलवाल 

“इस समय सिंधु की अजनबी इक लहर 
है बहाती रही इस घड़ी तक जिसे 
जो कि समझा नहीं अपने को आज तक 
उसका परिचय भला प्राप्त होगा किसे ?
काल के चक्र की अनवरत दौड़ में, मैं उगी भोर हूँ, मैं ढली शाम हूँ!”
१९८३ से अमेरिका में।
संप्रति: मेडस्टर हेल्थ में वरिष्ठ आपूर्ति निदेशक।
 

12 comments:

  1. राकेश जी गुलाब खंडेलवाल जी पर लिखे इस लेख के लिए आपको बधाइयाँ

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  2. राकेश जी, आपके लेख के माध्यम से कविवर गुलाब खंडेलवाल जी के जीवन एवं साहित्य को जानने का अवसर मिला। लेख पढ़ने में बहुत आनंद आया। इस रोचक एवं जानकारी भरे लेख के लिऐ आपको बहुत बहुत बधाई।

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    1. धन्यवाद दीपक जी। उनकी रचनाएं कविता-कोश पर भी उपलब्ध हैं

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  3. राकेश जी, एक कवि-मन ने एक महाकवि को अपने शब्दों में संजोया है, लेख तो रोचक और प्रभावी होना ही था। गुलाब खंडेलवाल जी के साहित्यिक प्रेम और सृजन से अच्छा परिचय कराया आपने। उनकी पुस्तकों को समर्पित आपकी कविता और आपका परिचय भी बहुत पसंद आये। आपका बहुत बहुत आभार, आपको बधाई और शुभकामनाएँ।

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    1. आभार प्रगतिजी
      मेरा सौभाग्य रहा की मन उनकी रकनाएं उनके अपने स्वर में प्रवाह में सुन सका। उनके खंड काव्यों का सस्वर गायन एक निधि है।

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  4. आज के आलेखक आदरणीय राकेश खंडेलवाल के द्वारा महाकवि गुलाब खंडेलवाल जी के साहित्यिक प्रवास और जीवनी से परिचित आलेख बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढंग से लिखा गया है। आपके माध्यम से आदरणीय गुलाब जी का साक्षात्कार हुआ है। अति समीक्षात्मक और सचेत आपने उनकी रचनाओं का साहित्य सृजन किया है। आपके आलेख की भाषा परिपक्वता अति सहज और लालित्यपूर्ण है जो महाकवि गुलाब जी के काव्य प्रवाह को हस्तक्षारित कर रही है। अंतिम कविता के अभिकरण से आपने उन्हें सही मायने में भक्तिमय निष्ठा प्रदर्शित कर के *हिंदी से प्यार है* समूह के एक एक सदस्य को कृतज्ञ किया है। रोचक आलेख के लिए आपका धन्यवाद,आभार और हार्दिक शुभकामनाएं।

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    1. सूर्या जी
      आपके प्रोत्साहक शब्द नई ऊर्जा देते हैं सृजन को।
      गुलाबजी के साहित्य को पढ़ते हुए शब्द अपने आप ही उतार आते हैं और मैथिली शरण गुप्त के शब्द याद आ जाते हैं :
      राम तुम्हारा चरित स्वयं ही महाकाव्य है
      आभार

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  5. महाप्राण निराला की जयंती के ठीक एक दिन बाद महाकवि गुलाब खंडेलवाल जी की स्मृतियों को जीना अनूठा रहा...राकेश जी ने अपनी खास शैली में उनकी पुस्तकों के शीर्षकों को एक कविता में समाहित कर इस लेख पर भी अपनी खास मुहर लगा दी...नायाब

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    1. धन्यवाद स्वरांगी
      मेरे प्रथम गीत संग्रह अमावस का चाँद की भूमिका आदरणीय गुलाब जी ने ही लिखी थी और पारिवारिक सम्बन्धों के फलस्वरूप उन्हें निकट से जानने का सौभाग्य मिला

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  6. गुलाब खंडेलवाल जी पर बहुत सार्थक जानकारी। गुलाब जी की कुछ पुस्तकें उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद और कुछ विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में स्वीकृत थीं।

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  7. गुलाब जी से 2005 में मिलने का सौभाग्य मिला था ,उन जैसे व्यक्तित्व के बारे में जितना लिखा जाए कम है, उनके गोलोक प्रस्थान के कुछ दिनों पूर्व ही उनके बारे में बातें हुईं थी। एक शोक सभा कोलकाता में आयोजित मेरी अध्यक्षता में भी हुई थी।

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