कर्मकांड और पाखंड से पीड़ित इस काल में एक चमार के घर में एक चमार पैदा हुआ, जिसकी अथक हथौड़ी की अनवरत ठक-ठक ने चमड़े के साथ-साथ समाज की कटन-फटन को भी दुरुस्त करने का बीड़ा उठाया। इस अछूत श्रमिक ने कार्ल मार्क्स से ४०० वर्ष पहले समतामूलक समाज की राह प्रज्वलित की। बेग़मपुरा शहर अर्थात बिना ग़म के शहर की अवधारणा गढ़ी।
बेगमपुरा सहर को नाउ। दूख अंदोहु नहीं तिहि ठाउ।
नां तसवीस खिराजु न मालु। खउफु न खता न तरसु जवालु।
अब मोहि खूब वतन गह पाई। ऊहाँ खैरि सदा मेरे भाई।
कायमु दायमु सदा पातिसाही। दोम न सेम एक सो आही।
आबादानु सदा मशहूर। ऊहाँ गनी बसहि मामूर।
तिउ-तिउ सैल करहि जिउ भावै। महरम महल न को अटकावै।
कहि रविदास खलास चमारा। जो हम सहरी सु मीतु हमारा।
बेग़मपुरा - एक ऐसा देश जहाँ दुख नहीं, झगड़ा नहीं, फ़साद नहीं – किसी तरह का कोई ग़म नहीं । न चिंता, न पछतावा, न ही कोई कर अथवा लगान। न भय, न अपराध, न कोई अभाव। सदा पातशाही (सच का राज), कोई दूसरे या तीसरे दर्जे का नहीं, सब बराबर। सबके लिए रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम। सामंती नहीं, गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था। सभी निर्भय होकर भ्रमण करें। कोई रोक-टोक नहीं – न क़ानून की, न महलों की। रविदास कहते हैं, अब मुझे ऐसे देश की समझ आ गई है, मेरे भाई! जहाँ सब सुख-चैन से बसें, सबकी ख़ैर हो। और जो भी इस शहर का वासी, वह इस ख़ालिस चमार रविदास का मित्र।
रविदास संत थे – ख़ालिस संत, आत्मदृष्टा। रविदास के जीवन-वृत्त से संबंधित तथ्यों के बारे में निश्चित तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता। अलग-अलग स्रोतों से अलग-अलग जानकारीयाँ मिलतीं हैं। यहाँ तक कि उनके स्वयं के भी कई नाम मिलते हैं, जैसे रैदास, रविदास, रादास, रुद्रदास, रयिदास, रूईदास आदि। कुछ नाम भाषाई रूपांतरण के कारण अस्तित्व में आ गए से लगते हैं और कुछ पदों और साखियों से अनुमानित किए गए हैं। गुरुग्रंथ साहिब में रविदास नाम से ४० पद संकलित हैं।
रविदास का जन्म १३९८ ईसवी के आसपास माघी पूर्णिमा के दिन माना जाता है। जन्मस्थान काशी अथवा काशी के आसपास, पिता का नाम रग्घू (राघवदास), माता का नाम करमा (कर्माबाई) एवं पत्नी का नाम लीणा या लोना माना जाता है। कुछ लोगों के मतानुसार उनका एक पुत्र था – विजयदास। रैदास के विषय में अगर कुछ प्रामाणिक तौर पर कहा जा सकता है तो वह है उनकी जाति। अपने पदों में उन्होंने बार-बार अपने चमार होने की बात कही, “प्रभुभक्ति जब ओछे को भी ऊँचा कर देती है तो फिर जाति के ऊँची या नीची होने का प्रश्न ही क्या!”
जाति भी ओछी, करम भी ओछा, ओछा कसब हमारा ।
नीच सै प्रभु ऊँच कियो है कहे रैदास चमारा ॥
जाति-भेद को रैदास ने अभिशाप माना, “जिस तरह केले के तने को छीलने पर तह के बाद तह निकलती चली जाती है, जाति की नियति भी कुछ इसी तरह है। जब तक जाति नहीं जाती, मानवता एक नहीं हो सकती।”
जात-जात में जाति हैं, ज्यों केलन के पात।
रविदास मानुष न जुड़ सकैं, जौ लौ जाति न जात॥
रैदास अत्यंत परिश्रमी और कर्मठ व्यक्ति थे। कहते हैं, उनके कुछ सखा जब गंगा की ओर जा रहे थे तब उन्हें भी साथ चलने को कहा। लेकिन रैदास को समय पर जूतियाँ बना कर देनी थीं। कर्म को आराधना मानने वाले इस श्रमिक ने कहा, मन चंगा तो कठौती में गंगा। (कठौती - काठ का पात्र जिसमें पानी भरा जाता है और जूते बनाते समय इसमें चमड़ा डुबाया जाता है।) बाह्याचार और आडंबरों के घोर विरोधी इस संत का यह वाक्य नगाड़ा बन कर गूँजा और हर एक दीन-दलित की आवाज़ बना। रैदास ने आंतरिक पवित्रता, मन की निर्मलता और निश्छलता को ही प्रभु को पाने का मार्ग कहा तथा गुणहीन ब्राह्मण से कर्मनिष्ठ चांडाल को बेहतर बताया।
रविदास बाह्मन मति पूजिए जउ होवै गुनहीन।
पूजिहि चरन चंडाल के जउ होवै गुन परवीन॥
रैदास कबीर के समकालीन माने जाते हैं। दोनों में समानताएँ भी ख़ासी हैं। दोनों संत, दोनों का शहर एक, काल एक, यहाँ तक कि गुरु भी एक - संत रामानंद। कबीर भी उस काल के निम्न समझे जाने वाले मेहनतकश वर्णों में से थे, लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं कि चमार होने के कारण रैदास की संतई का संघर्ष कई गुना ज़्यादा और कठिन रहा होगा। शायद तभी तो कबीर स्वयं रविदास को साधुओं में संत बताते हैं और कहते हैं, “हिंदू और तुर्क मूर्ख हैं जो यह समझ नहीं पा रहे हैं।”
साधुन में रविदास संत हैं, सुपच ऋषि सो मानिया।
हिंदू तुर्क दुई दीन बने हैं, कछु नहीं पहिचानिया॥
दोनों ने रूढ़ियों, अंधविश्वासों और भेदभाव के दलदल में धँसे समाज को सतज्ञान की लाठी थमाई। हिंदू-मुस्लिम कठमुल्लापन को दोनों आजीवन ठोंकते रहे। कबीर की ही तरह रविदास ने भी बड़े सरल तर्कों द्वारा लोगों की बुद्धि पर लगे तालों को खोलने की कोशिश की।
देता रहे हज्जार बरस मुल्ला चाहे अजान।
रविदास खुदा नंह मिल सकइ जौ लौं मन शैतान॥
जब सभ करि दोए हाथ पग, दोए नैन दोए कान
रैदास प्रथक कैसे भये, हिन्दू मुसलमान॥
कबीर ने प्रारंभ से ही भक्ति की निर्गुण धारा को अपनाया। रैदास बहती धारा की तरह प्रवाहशील रहे और मूर्तिमान राम से मूर्तिविहीन राम में रमे और अंत में ‘नाम’ में लीन हो गये। किसी भी तरह की पूजा-अर्चना का खंडन कर उन्होंने ‘नाम’ को ही सच्ची आरती कहा, “नाम तेरो आरती भजनु मुरारे।” ‘नाम’ के द्वारा वे जन-जन के लिए ‘ईश्वर’ को सुलभ करना चाहते थे। अरे बंदे, किसी और चीज के पचड़े में मत पड़।
सत जुग ‘सत’, त्रेता, तपी, द्वापर पूजाचार।
तीनों जुग तीनों दृढ़ै, कलि केवल नाम आधार॥
रैदास के तो राम भी दशरथ पुत्र नहीं थे। वे उनके हृदय में थे, सर्वव्यापी थे।
रविदास हमारे रामजी दशरथ करि सुत नांहि।
राम टेमि मेहि रमि रह्यो बिसब कुटुंवह मांहि॥
मध्यकाल के इस युगदृष्टा ने देखा कि ‘ईश्वर’ कुछ वर्गों और वर्णों के घेरे में बंद है और मानव निर्मित ये घेरे ही अपने-पराए के भेद और पराधीनता को जन्म देते हैं। रैदास ने जड़-समाज की चेतना को झकझोरा।
पराधीन को दीन क्या पराधीन बेदीन।
रविदास दास पराधीन को, सब कोई समझे हीन॥
रैदास जी ने अपने दोहों, पदों और साखियों में आंचलिक भाषा का प्रयोग किया। उनकी रचनाओं में ब्रज,अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली, पंजाबी तथा उर्दू-फ़ारसी के शब्द मिलते हैं। दरअसल उनकी ज़बान है संतई यानी पंचमेलखिचड़ी, और शैली है बहुरंगी। आंचलिकता, लय-ताल और राग-रागिनियों से युक्त उनका काव्य तिलिस्म बन बैठा है। तभी तो आज तक उनके पदों को पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई ग्रामीण इलाकों में चिकारा और खंजरी बजा-बजा कर गाया जाता है; इनके भक्ति भरे भजनों से चौपालें और गुरुद्वारे झूम उठते हैं।
कुछ विद्वानों ने रैदास की रचनाओं में सूफ़ी मत का भी प्रभाव माना है। जैसे सूफ़ी मत में इश्क़-ए-मजाज़ी (मानवीय प्रेम) इश्क-ए-हक़ीक़ी में (आध्यात्मिक प्रेम) में परिष्कृत होता है, संत की परस्पर प्रीति में पगी हुई ये पंक्तियाँ भी कुछ उसी तरह का संकेत करती हैं – “तू मोही दख, हों तोहि देखूं, प्रीति परस्पर होई।” प्रेम-भाव की पराकाष्ठा देखिए, जहाँ प्रेम के प्याले के लिए सिर के बलिदान में भी परमात्मा से मिलन का भाव है।
देहु कलाली एक पियाला, ऐसा अवधू है मतिवाला।
ए रे कलाली तैं क्या कीया, सिरके सा तैं प्याला दीया।
कहै कलाली प्याला देऊं, पीवन हारे का सिर लेऊँ।
चित्तौड़ के महाराणा सांगा की पत्नी महारानी झाली ने संत रैदास को गुरु माना और उनसे दीक्षा ली। राणा और महारानी की ज्येष्ठ पुत्रवधु मीराबाई ने भी अपने कई पदों में रैदास का गुरुभाव से स्मरण किया है। प्रमाणों की अनुपलब्धता के कारण विद्वानों में इस बात पर मतभेद है कि मीरा ने रैदास से दीक्षा ली या रैदासी से! मीरा का यह पद पढ़कर यह मानने को जी करता है कि वे रैदास से ही मिलीं थीं।
मेरो मन लागो हरिसूँ, अब ना रहूँगी अटकी।
गुरु मिलिया रैदासजी, दीन्हीं ज्ञान की गुटकी ।।
समय के साथ संत रविदास की ख्याति चरम पर पहुँच गयी थी। तक़रीबन १२० वर्ष की आयु में शरीर के जरा हो जाने के कारण १५१८ ईसवी के आसपास संत ने ब्रम्हरन्ध्र में ध्यान लगाकर अपनी भौतिक देह त्याग दी। हर वर्ष माघी पूर्णिमा के दिन बनारस के सीर गोवर्धन में देश भर से रविदास पंथी इकट्ठे होते हैं। इस दिन के महत्त्व को इस बात से आँका जा सकता है कि रविदास जयंती (१६ फ़रवरी २०२२) को मद्देनज़र रखते हुए सरकार ने पंजाब विधान सभा चुनाव की तिथि को आगे बढ़ा दिया है।
संदर्भ
- संत रविदास – रत्नावली, लेखक – ममता झा
- Satrangiya-Shaili-ke-Amar-Gayak-Sant-Raidas.pdf (researchgate.net)
- बेगमपुरा - एक ऐसा देश जहां कोई गम न हो - गुरु रविदास - desharyana
- संत रविदास – इन्द्रराज सिंह
- बाबू गुलाबराय ग्रंथावली : ६
- जब सभ करि दोए हाथ पग - दोहा | हिन्दवी (hindwi.org)
लेखक परिचय
ऋचा जैन
आई टी प्रोफेशनल, कवि, लेखिका और अध्यापिका। प्रथम काव्य संग्रह 'जीवन वृत्त, व्यास ऋचाएँ' भारतीय उच्चायोग, लंदन से सम्मानित और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा २०२० में प्रकाशित। कहानी के माध्यम से जर्मन सीखने के लिए बच्चों की किताब 'श्पास मिट एली उंड एजी' गोयल पब्लिशर्स द्वारा २०१४ में प्रकाशित। लंदन में निवास, पर्यटन में गहरी रुचि, भाषाओं से विशेष प्यार।
ईमेल - richa287@yahoo.com
ईमेल - richa287@yahoo.com
प्रामाणिक और भाषाई सुंदरता के साथ अद्भुत लेख.
ReplyDelete. डॉ. जियाउर रहमान जाफरी
बहुत धन्यवाद, जाफरी जी। टीप पढ़कर खुशी हुयी।
Deleteसाधु,साधु! ऋचा जी, आपने सुबह सुबह भक्त रैदास की कथा कहकर वातावरण पवित्र कर दिया।आपने बहुत सुंदर वर्णन किया है।बधाई।कुछ छोटे-मोटे बिंदु आपके व्यक्तिगत संदेश पटल पर भेज रहा हूँ ।कैसी कमाल की सोच और कैसी अभिव्यक्ति :
ReplyDeleteमृग,मीन,भृंग,पतंग, कुंचर एक दोख बिनास॥
पंच दोख असाध जामै ताकी केतक आस।।
इन पाँच असाध्य दोषों से युक्त मानव के पास मुक्त होने की आशा है क्या? फिर स्वयं उत्तर भी देते हैं :
मीन पकरि फाँक्यो अरु काट्यो रांध कीयो बहु बानी ।।
खंड-खंड कर भोजन कीनो तऊ ना बिसरिओ पानी।।
जैसे मछली भोक्ता के उदर में भी पानी की माँग करती है, भूलती नहीं, वैसे ही प्रभु , मुझे आपका नाम ना भूले।और ऐसा कर लिया तो फिर मानव के पास आनंद ही आनंद। बेग़मपुरा सहर को नाउ।फिर ग़म, शिकायत, अपराध-बोध, कुछ भी नहीं।सब कुछ एक , सब समान।
भक्त रैदास जैसे संतों का हमारे जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्रायोगिक योगदान यह है कि उन्होंने हमें सांसारिक जीवन जीते हुए, गृहस्थ कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए ब्रह्मलीन हो जाने का मार्ग दिखाया। जैसी दृष्टि , वैसी सृष्टि। यदि भीतर स्वर्ग है , शांति है, तो बाहर कष्ट-क्लेश का प्रश्न ही नहीं।गुरु नानक,कबीर, रैदास,नामदेव , इन सबने ब्रह्म से एकात्म होने का बड़ा सरल मार्ग दिखाया और वही मार्ग हमारे जीवन काल में मानवता का हित भी करता है।
इह लोक सुखिए परलोक सुहेले।।
नानक हरि प्रभि आपे मेले।।🙏🙏
आपके शब्दों और प्रोत्साहन के लिए और बेगमपुरा के शब्दों को गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज शब्दों सा करवाने के लिए हृदय से आभारी हूँ, हरप्रीत जी।
Deleteअपना स्नेह बनाए रखें 🙏🙏
ऋचा जी,आपने संत रविदास पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। इस लेख के माध्यम से संत रविदास जी के जीवन एवं साहित्य के बारे में विस्तृत जानकारी मिली। ऋचा जी को इस रोचक लेख के लिये हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteइस प्रोत्साहन के बहुत आभारी हूँ, दीपक जी।
Deleteहार्दिक बधाई व कोटी - कोटी धन्यवाद ऋचा जी,संत रैदास की विस्तृत जानकारी इतने रोचक ढंग से उपलब्ध कराने हेतु। संत कबीर व संत रैदास के क़ाव्य की समानता व विविधता को बहुत सुंदर तरीके से उकेरा है आपने। निश्चित रूप से आप व आपका ये लेख ढेरों बधाईयों के हकदार हैं।
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी को पढ़ कर बहुत प्रसन्नता हुयी। बहुत आभार, रश्मि शीतल जी
Deleteजातिभेद दूर करने में रैदास की भूमिका महत्वपूर्ण रही है।हार्दिक बधाई, ऋचा जी 💐
ReplyDelete🙏 आभार विजय जी 🙏
Deleteऋचा, संत रैदास पर उत्तम लेख। बातों को कहने का तुम्हारा अंदाज़ बहुत पसंद आया मुझे, जातीय विषमताओं पर प्रहार करने वाले रैदास जी की तरह तुमने भी पैनी लेखनी चलाकर आलेख को सार्थक बनाया है। बहुत बहुत बधाई और आभार इस प्रस्तुति के लिए।
ReplyDeleteआपके कुशल सम्पादन के लिये हृदयतल से धन्यवाद , प्रगति जी 😊🙏
Deleteआपकी टीप पढ़ कर आनंदित हो मंद-मंद मुस्कुरा रही हूँ ।
*मन ही पूजा मन ही धूप*
ReplyDelete*मन ही सेऊं सहज स्वरूप।।*
ऐसे पवित्र विचारों वाले संत गुरु रविदास जी के अनमोल वचन का स्मरण करके अपने जीवन मे साक्षात्कार किया तो ईश्वर हमारे मन के वास्तव को प्रेमभक्ति और कल्याण से भर देगा। अपने कर्मो को प्राथमिकता देनेवाले संत महागुरु रैदास जी का जीवन परिचय आपने अपने लेखनी से उजागर करना यही एक गौरान्वित, सुंदर कार्य है। आदरणीया ऋचा जी ने बड़ी ही समीक्षात्मक लेख लिखकर अपना उत्तरदायित्व निभाया है। गुरु रैदास के वचन,दोहे और कहावतों का सुशोभित, संपन्न, और समर्थ भाषा में विश्लेषण किया है। इस खूबसूरत और धार्मिक अतिविशिष्टपूर्ण आलेख के लिए आपका आभार, धन्यवाद , बधाई, शुभकामनाएं। सब कुछ एक साथ।
अभिभूत हूँ, सूर्या जी। बहुत आभार 🙏🙏🙏
Deleteकाश... बेग़मपुरा हम सबका लक्ष्य होता....बहुत बढ़िया आलेख, ऋचा जी! बधाई!
ReplyDeleteजी, सच कहा आपने! धन्यवाद अल्पना जी।
Deleteऋचा जी ने संत गुरु रविदास जी के जीवन एवं साहित्य से जुड़ी जानकारियों को समग्रता के साथ इस लेख में दर्ज किया है। जिसे पढ़कर आनंद आया। ऋचा जी को इस रोचक लेख के लिये हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteइस मीठी टीप के लिए आभारी हूँ , आभा जी 🙏
Deleteरुचिकर व ज्ञानवर्धक प्रस्तुति ऋचा जी।
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