Monday, February 14, 2022

रचनात्मक मूल्यांकन की पैरवी करते प्रो० कमला प्रसाद

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"विडंबना है कि जनता की भाषा और सत्ता तंत्र की भाषा में आपसी संवाद नहीं है। सत्ता तंत्र की भाषा कोड भाषा है। सूबे की अदालतों से लेकर मंत्रालयों तक कोड भाषा नृत्य करती है। तथाकथित बुद्धिजीवियों ने भी कोड भाषा का प्रयोग शुरू कर दिया है। यह इसलिए कि बुद्धिजीवी किसी न किसी पेशे से जुड़ा है। वह प्रोफ़ेसर है, वकील, पत्रकार या अन्य पेशों में है। पेशों के कारण वे असुविधाजनक निष्कर्षों से बचते हैं। निष्कर्षों को सुविधा की सीमाओं में बाँधने के लिए कोड वर्ड बहुत मदद करते हैं।"

इतनी साफ़गोई से बात करनी हो तो नाम प्रोकमला प्रसाद का लेना चाहिए। वे लेखक, आलोचक, सांस्कृतिक कार्यकर्त्ता एवं बुद्धिजीवी थे। साथ ही कुशल और प्रतिबद्ध संगठनकर्त्ता थे। ऐसा नहीं था कि प्रो कमला प्रसाद किसी पेशे से नहीं जुड़े थे इसलिए उनके लिए यह कहना आसान रहा हो। वे अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा (मध्य प्रदेश) में हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे, मध्य प्रदेश कला परिषद के उप-सचिव रहे, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के उपाध्यक्ष, प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव रहे और तमाम अकादमिक-सांस्कृतिक समितियों में अनेक महत्वपूर्ण पदों पर रहे, लेकिन वे इन पदों के मोहताज नहीं हुए। उन्हें जानने वाले उन्हें 'कॉमरेड' कहा करते थे। उन्होंने प्रगतिशील लेखक की भूमिका का निर्वाह बड़ी मुस्तैदी और सतर्कता से किया। छोटे कस्बे के रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के बाद दक्षिणपंथी परिवेश से वामपंथ की ओर चलना आसान नहीं रहा होगा? वह तब और भी दुरूह हो जाता है, जब व्यक्ति के रूप में किसी में आमूल-चूल परिवर्तन आ जाए, लेकिन उसका परिवेश वैसा ही रह जाए जैसा पहले था। वे लिबरल और मॉडरेट होते जा रहे थे, पक्के कम्युनिस्ट, लेकिन परिवार नहीं बदल रहा था। मन से बहुत करीब अपने भाई और पत्नी की विचारधारा में परिवर्तन लाना कठिन प्रक्रिया रही होगी। उन्होंने अपने भीतर हो रहे बदलावों के तर्कों को समझा और जो नहीं बदल पा रहे थे, उनका भी आदर किया। छोटे भाई प्रमोद की मृत्यु के बाद लगा कि वे टूट जाएँगे; लेकिन वे अपराजेय थे और अपराजेय बने रहे। अपने अंतिम दिनों तक वे लेखक और संगठक के रूप में निरंतर निष्ठा और ईमानदारी से कार्यरत रहे। यह यात्रा कुछ-कुछ वैसी ही कही जा सकती है, जैसी भगत सिंह की या बाबा अंबेडकर की रही होगी। दुरूह प्रसंगों को शालीनता से मात देना उनके व्यक्तित्व की ख़ासियत थी। वे प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव भी बने, लेकिन उन्होंने अपने आसपास किसी तरह का कोई छद्म वलय तैयार न होने दिया। मित्रों का बड़ा संसार उनके पास था। उन तक पहुँचना किसी के लिए भी बहुत आसान था। हर खेमे के बड़े लेखक उनका सम्मान करते थे और हर छोटे लेखक का भी वे उसी आत्मीयता से स्वागत करते थे, चाहे उसका खेमा कोई भी हो या चाहे उसका कोई खेमा न भी हो। 
प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) के संभवतः वर्ष २००४ में हुए प्रांतीय अधिवेशन में वे इंदौर आए थे। तब साँघी मुक्ताकाश मंच में उनसे हुई मुलाकात वास्तव में मुक्त आकाश में स्वच्छंद विचरण के अनुभव जैसी थी। उनकी कोई भी तस्वीर आप उठा लीजिए, किसी में भी उनकी त्यौरियाँ चढ़ी नहीं दिखेंगी। उनके सौम्य चेहरे पर सहज, सरल मुस्कान और आनंद की पराकाष्ठा उनका मिलनसार होना बताती है। ऐसा नहीं था कि उनकी कार्यशैली को लेकर या उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि को लेकर उन पर आक्रमण न हुए हों, लेकिन शांत व्यक्तित्व की अपनी पहचान को उन्होंने किसी सूरत में बिखरने न दिया। उन्होंने हर मोर्चे पर नेतृत्व की कमान सँभाली, जहाँ ज़रूरी लगा वहाँ प्रतिवाद भी किया, लेकिन विचार और विवेक के आधार पर जब ज़रूरी न लगा तो बिना बोले भी काम किया। प्रलेस की संगठनात्मक गतिविधियों को उन्होंने लगातार आँच दी और हिंदी क्षेत्र के बाहर भी संगठन की नई इकाइयों का गठन किया। सोवियत संघ के विघटन के बाद यानी १९९० के बाद जिस तरह तेज़ी से परिस्थितियाँ बदली और खुली अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण आमादा हुआ, तब वाम मोर्चों खासकर प्रगतिशील संगठनों पर तेज़ हमले हुए, लेकिन कमला प्रसाद जी न स्वयं विघटित हुए, न प्रलेस को विघटित होने दिया। 

उनके लेखन कर्म को भी देखें तो हमें वह दो हिस्सों में साफ़-साफ़ दिखता है, एक तो वर्ष १९७३ से १९९०-९१ का और दूसरा उसके बाद से वर्ष २०११ तक का। वैश्विक क्रांति से पहले के संघर्ष और उसके बाद के संघर्षों को उन्होंने बखूबी समझा ही नहीं, बल्कि उसे अपनी लेखनी में भी उतारा। कुछ लोग स्वांतः सुखाय लिखते हैं, लेकिन कुछ समाज के लिए लिखते हैं। कमला प्रसाद को हम उस श्रेणी के लेखक के रूप में देख सकते हैं, जिसने राजनीतिक चेतना के साथ लिखा। उन्हें ही उद्धृत करते हुए इस बात को समझा जा सकता है। वे कहते हैं कि "स्वतंत्रता संग्राम को विवेक सम्मत बनाने का कार्य राजनीतिक प्रशिक्षण से संभव था ; भविष्य की आर्थिक नीति का खुलासा करने से था ,संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता और जनतंत्र को विकसित करने की शैक्षणिक सांस्कृतिक प्रणाली निर्मित करने से था ; यह नहीं हुआ।"

उनका लेखन-कर्म अकादमिक महत्व का लेखन कर्म है। अपने समय और लेखकीय सरोकार से जुड़ी उनकी कई पुस्तकें इसकी बानगी हैं। 'प्रगतिशील वसुधा' के संपादक के तौर पर भी उन्होंने प्रगतिशील साहित्य और विचारों के महत्व को प्रतिपादित किया। उनके लिखे में समाज है और समाज को सजग करने के दायित्व का बोध भी है। उनके अनुसार - "संचार साधनों ने धीरे -धीरे मध्यवर्ग -उच्चवर्ग के मानस में प्रवेश कर हत्या , आत्महत्या , सामूहिक नरसंहार तथा युद्ध विनाश आदि की त्रासदी को मनोरंजनात्मक प्रतिक्रियाओं में बदल दिया है। हिटलर को याद करें , उसने कहा था - प्रचार माध्यमों का काम लोगों की भावनाओं को उद्वेलित करना है , उनकी तर्क शक्ति को जगाना नहीं है। " इंफ़ोमेंट के इस युग में जहाँ इंफ़ॉर्मेशन को इंटरटेनमेंट के साथ परोसा जा रहा है, तब कमला प्रसाद जैसे लेखकों की कमी और भी खलती है, जिन्होंने यश और प्रतिष्ठा पाने के लिए लिख, समाज के लिए लिखा। फ़ासिज़्म से कैसे लड़ा जाए, उसे उन्होंने साहित्यकार की दृष्टि से सामने रखा। आज लेखकों के बड़े केंद्र बड़े शहरों तक सीमित हो गए हैं, यह फ़ासीवाद की ताकत है जो हर चीज़ को केंद्रित करने लगता है और कमला प्रसाद उसके विपरीत विकेंद्रीकरण पर ज़ोर देने वाले लेखक थे। हमारी धारणा बनती चली जा रही है कि हिंदी का बड़ा लेखक दिल्ली में रहेगा, या भोपाल; बनारस या लखनऊ में रहेगा, लेकिन सामयिक प्रकाशन, आधार प्रकाशन और वाणी प्रकाशन से आई कमला प्रसाद की पुस्तकों को पढ़ते हुए समझा जा सकता है कि कस्बे और छोटे शहर में रहकर भी बड़ा लेखक हुआ जा सकता है। आलोचक की तरह उन्होंने मोटी-मोटी किताबें भी लिखीं तो गद्य लेखक के रूप में कई अख़बारों में छोटे लेख भी। वे कहते थे "लेखकों और कलाकारों का मूल्यांकन राष्ट्रीय सामाजिक परिस्थितियों से जुड़ा होता है , रचनाकर्म की निरपेक्ष स्वायत्त हैसियत मूलगामी नहीं होती , क्योंकि किसी काल का रचनाकर्म अपने पूर्व के सामाजिक अंतर्विरोधों में से निकलता है। आलोचक यदि अंतर्विरोधों को पहचान सके , इतिहास की दृष्टि से वैज्ञानिक हो तो समूचा रचनात्मक मूल्यांकन गड़बड़ा जाता है।"

रचनात्मक मूल्यांकन की पैरवी करते वे एक ऐसे लेखक थे जो गाँव से जुड़े थे, एकदम खाँटी किस्म के और गाँव के आदमी की जो अपनी सहजता और ज़मीनीपन होता है, उसे उन्होंने ताउम्र बचाए रखा। केवल खुद के ज़मीनीपन को बचाया, बल्कि तमाम लोग जो उनसे इस यात्रा में जुड़े, उन्हें भी ज़मीन से जोड़े रखा। उन्होंने अपने गाँव की ज़मीन से नाता हमेशा बनाए रखा। बेहद ज़मीनी व्यक्ति के रूप में उन्हें याद किया जा सकता है। उनका वर्णन एक ज़िंदादिल इंसान के तौर पर उनके समय के लोग और उनसे अगली पीढ़ी के लोग करते हैं। वे आत्मीयता से लबालब थे। अपने जीवन के सारे दुःखों और पीड़ाओं को उन्होंने अपनी कर्मठता और मुस्कान में खूबसूरती से छिपा लिया था। उनका जीवन संघर्ष लोगों के लिए प्रेरक रहा। कठिन परिश्रम और लगातार काम, संगठन के लिए काम। साहित्यिक-वैचारिक रचनाशीलता और कार्यक्रमों का क्रियान्वयन उनकी जिजीविषा का हिस्सा था। वे सामाजिक-सांस्कृतिक और वैचारिक एकात्मकता के पक्षधर थे। प्रगतिशील आंदोलन की जन-धर्मिता और जन-संवाद को वैचारिकी के साथ आगे बढ़ाने का काम उन्होंने किया। अपनी ज़रूरतों के मुताबिक अपनी लेखकीय प्रतिबद्धता को उन्होंने कभी नहीं बदला, बल्कि संगठन की ज़रूरतों के हिसाब से खुद को ढाला। संगठन कमज़ोर हो जाए तो व्यक्तिगत स्तर पर हर किसी की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर अपनी भूमिका को समझा और संगठन को कभी कमज़ोर नहीं पड़ने दिया।
 
उनके शब्दों में उन्हें याद करना हो तो - "अतीत की समयानुकूल पुनर्व्याख्या जहाँ आवश्यक कार्य है, वहीं अतीत का स्थूल रूप वर्तमान का हत्यारा हो जाता है।" उनके समय के ख़तरों के बीच वे जिस तरह से लड़े, खड़े रहे और जीते उसकी आज के संदर्भ में हम पुनर्व्याख्या कर सके तो ही हम सूक्ष्मता से उन्हें समझ सकेंगे अन्यथा स्थूल रूप में उन्हें समझना, समझ पाना होगा।

प्रोकमला प्रसाद : जीवन परिचय

नाम

डॉकमला प्रसाद पांडेय

जन्म

१४ फरवरी १९३८, धौरहरा, रैगाँव, ज़िला - सतना, मध्यप्रदेश

निधन

२५ मार्च २०११, दिल्ली (हृद्याघात)

पिता

श्री रामहर्ष पांडेय

माता

श्रीमती श्रवण देवी पांडेय

पत्नी

श्रीमती रामकली पांडेय

पुत्र

संतोष पांडेय, आलोक पांडेय, परितोष पांडेय 

पुत्री

शैल- राजीव गोहिल व कल्पना- देवेश मिश्रा

शिक्षा 

  • एम० ए० - डॉहरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (मध्यप्रदेश)

  • पी० एच० डी०  - डॉहरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (मध्यप्रदेश)

  • डी० लिट - डॉहरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (मध्यप्रदेश)

सेवानिवृत्ति

फरवरी १९९८

कार्यक्षेत्र

आलोचना, बाल साहित्य

साहित्यिक रचनाएँ

प्रमुख कृतियाँ

  • साहित्य शास्त्र        

  • छायावादः प्रकृति और प्रयोग

  • छायावादोत्तर काव्य की सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

  • दरअसल

  • साहित्य और विचारधारा

  • रचना और आलोचना की द्वंद्वात्मकता

  • आधुनिक हिंदी कविता और आलोचना की द्वंद्वात्मकता

  • समकालीन हिंदी निबंध

  • मध्यकालीन रचना और मूल्य

  • कविता तीरे

  • आलोचक और आलोचना 

अन्य कृतियाँ

  • वार्त्तालाप

  • जंगल बाबा

संपादन

'पहल' (ज्ञानरंजन जी के साथ) 'प्रगतिशील पत्रिका वसुधा' सहित बीस से अधिक पुस्तकों - पत्रिकाओं का संपादन

सम्मान / पुरस्कार

  • प्रमोद वर्मा स्मृति आलोचना सम्मान 

  • नंददुलारे वाजपेयी पुरस्कार


संदर्भ

  • हिंदी समय - महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय का अभिक्रम

  • साहित्य समाचार - जाल पत्रिका अभिव्यक्ति को प्रेषित समाचारों के संग्रह

  • https://m.facebook.com में २५ मार्च २०२१ को डॉसेवाराम त्रिपाठी जी  की पोस्ट से

  • श्री आशीष त्रिपाठी (रीडर, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय) से वार्त्तालाप

लेखक परिचय

स्वरांगी साने – स्वयंसिद्धा
स्वरांगी साने


खुली आँखों से

सपने देखती

सपने को टूटते देखती

खुद को अकेला देखती

फिर भी

वो सपना देखती।                                        

संप्रति - सी-डैक की पंजीकृत अनुवादक, स्तंभ लेखन, लोकमत समाचार, पुणे में वरिष्ठ उप संपादक के रूप में ३ जून २०१२ से ३१ मई २०१५ तक।

चलित भाष - +९१ ९८५०८०४०६८

ई-मेल – swaraangisanegmail.com

16 comments:

  1. विस्तृत जानकारी।धन्यवाद!

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  2. प्रो. कमला प्रसाद जी पर यह जानकारी भरा लेख मुझ जैसे अनविज्ञ के लिये बहुत उपयोगी है। स्वरांगी जी हर बार की तरह अपने बहुत अच्छा लेख लिखा है। आपको बहुत बहुत बधाई।

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    1. दीपक जी आपने उत्साहवर्धन किया, कोटिशः धन्यवाद

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  3. स्वरांगी जी, बहुत बढ़िया लेख, कोड भाषा की व्याख्या से लेख के प्रति उत्सुक हुआ।प्रो कमला प्रसाद जी का परिचय और उनका रचना संसार से परिचित करने हेतु हार्दिक धन्यवाद।🙏💐

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  4. कमला प्रसादजी ने जो कार्य किया है, वह अपने आपमें अतुलनीय है, कोशिश की है बस...महती आभार विजय जी आपका...

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  5. तलवार से कहीं तेज चलने वाली आदरणीय प्रो. कमला प्रसाद जी की कलम समाज,देश और मानवता के हित में हमेशा चलती रही। हिंदी साहित्य की 'पहल'और 'वसुधा' पत्रिका के संपादक, साहित्यकार एवं आलोचक प्रसाद जी राष्ट्र के प्रगतिशील लेखक थे। साहित्य शास्त्र, आलोचना के द्वंद्वात्मकता से साहित्य समाज हेतु सांस्कृतिक आंदोलन में उनकी विशिष्ठ भूमिका थी। आदरणीया स्वरांगी जी ने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को साक्षी देकर बहुत ही उल्लेखनीय आलेख रेकांकित किया है। प्रो.कमला जी के व्यक्तिगत भूमिका को बड़ी रोचकपूर्ण जानकारी के साथ प्रदर्शित किया है। उनके साहित्यिक संसार से परिचित कराने और सुंदर लेख का पाठन कराने हेतु आपका आभार और बहुत सारी शुभकामनाएं।

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    1. प्रो. कमला प्रसाद जी की लेखनी जितनी धारदार थी, उतना ही मृदु उनका स्वभाव था...विस्तृत टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपका

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  6. कमलाप्रसाद जी जितने सहज थे, उतनी ही सहजता से यह आलेख लिखा गया है।

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    1. हाँ माँ...कोशिश की है, उस सहजता को लेखनी में उतार पाऊँ...

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  7. स्वरांगी जी ने प्रस्तुत आलेख के माध्यम से कमलाप्रसाद जी के व्यक्तित्व और लेखन कर्म को और करीब से जानने का अवसर दिया। समृद्ध और महत्वपूर्ण लेख के लिए स्वरांगी जी को बहुत बहुत बधाई।

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  8. बहुत बहुत आभारी हूँ आपकी आभा जी....पुनश्च धन्यवाद

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  9. स्वरांगी, पूर्ण शोध के साथ किया हुआ एक और जानकारीपूर्ण लेख। तुमने कमलाप्रसाद जी के व्यक्तित्व का अनुपम परिचय दिया और उनकी सोच, उनके कृतित्व का भी। इतने सारे महान साहित्यकार ऐसे हैं जिनसे परिचय इस परियोजना के तहत हो रहा है; आज का लेख भी उसी श्रेणी का है और इसके लिए बहुत-बहुत आभार और बधाई।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद प्रगति जी, आपका स्नेह बहुत उत्साह जगाता है...

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  10. जय हो स्वरांगी
    जिन साहित्यिक लोगों से परिचय नहीं था, तुम्हारे माध्यम से विस्तृत जानकारी मिली। इस सुन्दर आलेख के लिए बधाई और नमन.

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    1. राकेश जी, नतमस्तक हूँ, आपके सामने कुछ कहूँ ऐसे शब्द नहीं है मेरे पास...

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