जीवन परिचय एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि
उदय शंकर भट्ट, हिंदी साहित्य का एक चिर-परिचित नाम, जिन्होंने एकांकी विधा को एक नया आयाम दिया। उनके व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार पद्मश्री पंडित गोपाल प्रसाद व्यास जी लिखते हैं-
"तन कसरती,मन हसरती, मष्तिष्क ज्ञान का भण्डार,
नयनों में उमड़ता स्नेह का सागर, होंठो के किनारे से झाँकती मुस्कान,
चाय-पान और यदा-कदा विजया (भांग) के शौकीन,
सदा खादी के अमल धवल वस्त्र धारण करने वाले,
महात्मा गाँधी के अहिंसा और शांति के पुजारी,
साथ ही भगत सिंह, सुखदेव तथा भगवती सिंह वोहरा के संगी-साथी,
क्रांतिदृष्टा और नयी से नयी विधाओं के अनोखे सृष्टा"
उदयशंकर भट्ट का जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा नगर में ३ अगस्त सन १८९८ को एक सुसंस्कारित एवं संस्कृतभाषी परिवार में हुआ था। श्री उदयशंकर भट्ट के पूर्वज मूल रूप से गुजरात के सिंहपुर गॉँव के निवासी थे और बाद में इंदौर नरेश के न्यायाधीश पद पर नियुक्त होकर उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के कर्णदास ग्राम में आकर बस गए थे। उनके पिताजी का नाम पं० मेहता फतेह शंकर भट्ट था जो संस्कृत और अँग्रेज़ी के अच्छे ज्ञाता थे और साहित्य में विशेष रूचि रखते थे। पं० फतेह शंकर भट्ट ब्रजभाषा में कविता, सवैये लिखा करते थे। कभी-कभी काव्यगोष्ठियों में वे अपनी रचनाओं का पाठ करते थे। नन्हें उदय शंकर जी पर इन गोष्ठियों का बड़ा प्रभाव पड़ा और बाल्यकाल से उनको साहित्य-लेखन की प्रेरणा मिली। उदय शंकर जी ने स्वीकारा है कि साहित्य लेखन उनको अपने पिता से विरासत में मिला। हालाँकि उदय शंकर जी को माता पिता का प्यार और वात्सल्य ज्यादा समय तक नहीं मिल सका, मात्र चौदह वर्ष की अवस्था में उनके माता और पिता का देहांत हो गया। उसके बाद उनके लालन पालन की जिम्मेदारी उनके नाना जी पं० दुर्गाशंकर जी ने उठाई और उदयशंकर अपने नाना जी के साथ इटावा में रहने लगे। उदय शंकर भट्ट के नाना जी का परिवार शिक्षा, भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में विशेष रुचि रखता था। यहाँ बचपन में ही भट्ट जी को संस्कृत भाषा का ज्ञान करा दिया गया था।
शिक्षा और व्यवसाय
श्री उदय शंकर भट्ट की प्रारंभिक शिक्षा इटावा में हुई और यहीं उन्होंने संस्कृत, हिंदी और अँग्रेज़ी भाषा की शिक्षा प्राप्त की। उनकी शिक्षा-दीक्षा वेदों के अध्ययन के साथ हुई। काशी में स्व० पं० चन्द्रशेखर शास्त्री ने उन्हें संस्कृत के स्थान पर हिंदी पढ़ने और हिंदी लिखने की ओर प्रेरित किया। बाद में उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात पंजाब से 'शास्त्री' और कलकत्ता से 'काव्यतीर्थ' की उपाधि प्राप्त की। जीविकोपार्जन के लिए सन १९२३ में वह लाहौर चले गए। वहाँ उन्होंने सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी लाला लाजपत राय के नेशनल कॉलेज में हिंदी और संस्कृत का अध्यापन कार्य किया। यहीं पर उन्होंने महान देशभक्त और क्रांतिकारी सरदार भगतसिंह, सुखदेव और भगवती चरण वोहरा को पढ़ाया। इनके अलावा प्रसिद्ध हिंदी उपन्यासकार यशपाल भी उनके शिष्य थे। यशपाल जी ने अपनी जीवन कथा में लिखा है कि पंडित उदयशंकर भट्ट उनको हमेशा साहित्य लिखने की प्रेरणा देते और लेखन में उनका मार्गदर्शन किया करते थे। लाहौर के खालसा कॉलेज और सनातन धर्म कॉलेज में भी उन्होंने अध्यापन का कार्य किया। उदय शंकर जी ने भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और सन १९४७ में स्वतंत्रता मिलने और देश-विभाजन के उपरांत वे लाहौर छोड़कर दिल्ली चले आए। यहाँ उन्होंने आकाशवाणी में परामर्शदाता एवं निदेशक के रूप में दीर्घकाल तक सेवाएँ अर्पित कीं। बाद में वे आकाशवाणी नागपुर और जयपुर में प्रोड्यूसर के पद पर भी रहे। उनके सतत प्रयास और निष्ठा ने आकाशवाणी को एक नए स्तर पर पहुँचाया। उनकी कर्तव्यनिष्ठा से प्रभावित होकर डॉ० नागेंद्र शर्मा ने लिखा है “भट्ट जी ने अत्यधिक अध्यवसाय और निष्ठा के साथ आकाशवाणी की वर्षों तक सेवा की। अतिशय श्रम से उनका स्वास्थ्य भी जर्जर हो गया और अंत में उन्हें आकाशवाणी की सेवा से अवकाश ग्रहण करना पड़ा”। सेवा-निवृत्त होने के बाद वे स्वतंत्र रूप से कहानी, उपन्यास, आलोचना और नाटक आदि विधाओं पर लेखनी चलाते रहे।
"मैं संघर्षो का प्राणी हूँ, भय से लूँ भिक्षा कैसी
मरण अगर त्योहार न हो तो, जीवन की दीक्षा कैसी?"
२८ फरवरी सन १९६६ को यह महान साहित्यकार अनंत में विलीन हो गया।
व्यवहार और भाषा शैली
उदय शंकर भट्ट जी अत्यंत उदार और मानवीय दृष्टिकोण के समर्थक थे। वे बहुत सूझ -बूझ और खुले विचारों वाले व्यक्ति थे। लेखक मानव समाज के भविष्य का दृष्टा हैं, लेखक को निष्पक्ष होना चाहिए और इस सन्दर्भ में वे लिखते हैं -
"यदि लेखक किसी वर्ग से, दल से या सिद्धांत विशेष से बँध जाता है तो वह प्रोपगैंडिस्ट के अतिरिक्त कुछ नहीं रहता। साहित्य प्रोपेगेंडा से दूर की वस्तु है। लेखक न साम्राज्यवादी है , न सोशलिस्ट और न ही कम्युनिस्ट। उसका अपना वाद है और वह है विवेकपूर्ण मानवतावाद, जिसके लिए उसने कलम उठाई है और जीवन के विकृत अंगों पर तीक्ष्ण प्रहार करने का उद्देश्य ग्रहण किया है"
मुक्तिपथ नाटक में वह कहते हैं "चलो अंधानुकरण मत करो, सोचो और प्रयोग करो"।
आत्म निरीक्षण किए बिना दूसरों को उपदेश देना व्यर्थ है, इस बारे में उदय शंकर लिखते हैं
"देते हो समापुदेश बहुत भोले हो
हर नए दोष देख बोल बोले हो।
अपने कभी झाँक कर भीतर भी देखो तो
कितना हलाहल इन प्राणों में घोले हो।"
उदय शंकर भट्ट जी ने अपने साहित्य सृजन में सरल, स्थिर व चुलबुली बोधगम्य भाषा लेकिन व्याख्यात्मक शैली का प्रयोग किया है। उनके लिखे हुए वाक्य प्रायः सरल और छोटे-छोटे होते हैं। भावों व पात्रों के अनुसार उनकी भाषा का रूप बदलता रहता है। उनकी भाषा में उर्दू शब्दों का बाहुल्य है, अँग्रेज़ी और संस्कृत शब्दावली का प्रयोग भी अक्सर दिखलाई पड़ता है। उनके नाटकों में मान्यता, सामाजिक परिवर्तन तथा चरित्र-सृष्टियों का बेजोड़ संगम मिलता है।
नाटक और एकांकी
उदय शंकर भट्ट जी को विशिष्ट साहित्यकार की श्रेणी में रखा जाता है। उन्होंने ऐतिहासिक, पौराणिक और सामाजिक, हर विषय के नाटक और नाट्य गीत लिखे। अध्यापन काल से ही उनमें नाटक लिखने की रूचि विकसित हुई और सन १९२१-२२ में उन्होंने 'असहयोग और स्वराज' तथा 'चितरंजनदास' शीर्षक से नाट्य-रचनाएँ लिखीं और उन्हें मंच पर प्रस्तुत भी किया। उनका पहला एकांकी दुर्गा सरस्वती पत्रिका में सन १९३४ में प्रकाशित हुआ, उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक के बाद एक उच्च कोटि के एकांकी नाटकों की रचना की। हालांकि उन्होंने यह स्वीकारा था कि उन्होंने एकांकी कब लिखना शुरू किया उनको ठीक से याद नहीं फिर वह आगे लिखते हैं ‘एक ही कब्र में’ या ‘दस हज़ार’ मेरा पहला एकांकी था। साहित्यिक समलोचकों की माने तो उदय शंकर भट्ट का पहला एकांकी ‘अभिनव’ एकांकी था जो १९४० में प्रकाशित हुआ। इस संदर्भ में उदय शंकर लिखते है कि मैंने एकांकी पिछले दो साल से लिखना आरंभ किया है। उदय शंकर जी के एकांकी में रंग संकेत व्यापक और विस्तृत रूप से उल्लेखित होते हैं। पात्रों के सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों को इस तरह वर्णित किया जाता है कि एकांकी निर्देशक को कलाकारों से रंगमंच में प्रस्तुत करवाने में कोई कठिनाई नहीं होती, बल्कि काम सुलभ हो जाता है। एकांकी नाटकों में उन्होंने वैदिक युग के सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ वर्तमान समय की समस्याओं और कुरीतियों का भी यथार्थ चित्रण किया। उनके एकांकी हाईस्कूल से लेकर स्नातक और परास्नातक के पाठ्यक्रम में शमिल किए गए हैं। किसी भी समस्या को जीवंत रूप में प्रस्तुत कर देना भट्ट जी के एकांकियों की सर्वप्रमुख विशेषता है। ‘नए मेहमान’ एकांकी में महानगरों में रहने वाले मध्यवर्गीय परिवारों की परेशानियों को हूबहू अंकित किया है। ‘परदे के पीछे’ एकांकी में उन्होंने समाज में फैले भ्रष्टाचार और शोषण पर तीखा व्यंग्य किया है। ‘दस हजार’ में विशाखा सेठ के कंजूसीपन का भी यथार्थ चित्रण, अपहरण जैसी कुरीतियों पर प्रहार तथा ‘एक हाथ से ले और एक हाथ से दे’ जैसे मुहावरों का बखूबी प्रयोग किया है। वे अपने एकांकियों में संवाद शैली का अधिक प्रयोग करते हैं तथा आवश्यकतानुसार व्यंग्य-हास्य, भावात्मक, वर्णनात्मक आदि शैली का भी प्रयोग करते है। रंगमंच एवं रेडियो-प्रसारण दोनों ही क्षेत्रों में उदय शंकर जी के एकांकी सफल सिद्ध हुए हैं।
उदय शंकर जी अपने एकांकी संग्रहों के लिए आलोचना का शिकार भी हुए। वे लिखते हैं कि मै अपने नाटकों का लेखा-जोखा लिखने के लिए बाध्य हुआ हूँ। मेरे आलोचकों ने मेरे नाटकों के बारे में भ्रांत धारणाएँ बना ली हैं, और कुछ आलोचक ने तो निश्चित ही मेरे नाटकों को समझने में भूल की है। वे स्वयं वादग्रस्त होने के कारण मेरे नाटकों की वास्तविकता को खोज नहीं पाए और न ही नाटकों के प्राणों को समझ सके। हिंदी आलोचकों के रूप को उन्होंने ‘विस्फोटक’ नाटक में भलीभांति चित्रित भी किया है। ‘अम्बा’ नाटक के प्राक्कथन में हिंदी के विद्वान् राय बहादुर पंडित श्री चम्पाराम मिश्र लिखते हैं “भट्ट जी में विलक्षण प्रतिभा है, निरीक्षण शक्ति है। अम्बा नाटक में प्रेम की जटिलताएँ सुलझाते हुए भी उसमें अश्लील श्रृंगार नहीं है”। ‘दाहर' में दु:खान्त पद्धति से नये समाज में आधुनिक वर्ग का चित्र प्रस्तुत किया है। वीडियो प्रसारण की दृष्टि से उनके नाट्यगीत अत्यधिक सफल हुए। प्रसिद्ध नाट्यगीत ‘मत्सयगंधा’ का रेडियो रूपांतरण भी हुआ जो आकाशवाणी से प्रसारित होता था और लोगों द्वारा बहुत सराहा गया। मत्सयगंधा में सत्यवती का माँगा हुआ वरदान चिरयौवन विधवा सत्यवती के लिए अभिशाप बन जाता है, तब उसकी पीड़ा का सटीक वर्णन करते हुए वह लिखते हैं
“डूबो नभ, डूबो रवि, डूबो शशि तारिकाओं
डूबो धरे वेदना में, मेरी ही युगांत की”
उन्होंने कालिदास के 'मेघदूत' का रेडियो रूपांतरण भी किया।
उपन्यास
उपन्यास के क्षेत्र में उदय शंकर का उल्लेखनीय योगदान है। वे लगभग दो दशकों तक उपन्यास सृजन में लगे रहे। उनका पहला उपन्यास ‘वह जो मैंने देखा’, सन १९४५ में और सन १९६३ में ‘आधार’ प्रकाशित हुआ। लेकिन उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्धि ‘सागर लहरें और मनुष्य’ से मिली। यह उपन्यास आंचलिक उपन्यास के श्रेणी में आता है। मुंबई (तब का बम्बई) महानगर के बरसोवा में रहने वाले मछुवारों का बेहद सजीव चित्रण इस उपन्यास में किया गया ह। एक और आंचलिक उपन्यास ‘लोक परलोक’ में उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तीर्थ ग्राम का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। वहीं ‘शेष अशेष’ में साधुओं के जीवन की गहराइयों को उनके पाप और पुण्य , आशा-निराशा , भूख-प्यास , सुख-दुःख, तथा उनके मानसिक परेशानियों और दुर्बलताओं को अंकित किया है।
काव्य संग्रह
उदय शंकर भट्ट जी वास्तव में पुराने समय के नए कवि थे। उनकी दूरदर्शिता और आधुनिक सोच ‘यथार्थ और कल्पना’ में झलकती है
"जाति देश की सीमाओं में जीवन नहीं, विकास नहीं
मुझे धर्म की विकट रूढ़ि में बंधने का अभ्यास नहीं
हम सब एक, एक है जीवन बांधव है भाई -भाई
आत्मनाश की यह कायरता तुममें जाने क्यों आयी?"
सन १९३१ में उनका ‘तक्षशिला’ काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। ‘तक्षशिला’ को तत्कालीन अविभाजित पंजाब सरकार द्वारा सम्मानित किया गया था। उसके बाद 'राका', 'विसर्जन, 'अमृत और विष', 'युगदीप', 'मुझ में जो शेष है' 'कौन्तेय कथा', 'मानसी' (खंड काव्य) प्रकाशित हुए। उदय शंकर जी की कल्पना और स्पष्टता का कोई सानी नहीं है । तक्षशिला एक उच्च कोटि का दुखांत ऐतिहासिक काव्य है। ‘तक्षशिला’ काव्य में उन्होंमे खंडहरों का अतुलनीय मानवीयकरण किया है। वो लिखते हैं “खुदाई से निकले नगरों के भाग अपने वैभव की बातें दिन में सूर्यदेव और निःस्तब्ध निशीथ में तारे और चन्द्रमा से पूछा करते हैं । क्या फिर कभी तक्षशिला अपना पुराना वैभव देख सकेगी, वह फिर यौवन में पनपकर अपना षोडश श्रृंगार कर सकेगी? क्या वह फिर अपने वैभव से भारत का मस्तक ऊँचा कर सकेगी” ?
उनकी सशक्त कलम की एक और बानगी-
"साँस को सुख दे गए, बल दे गए
कल्पना के वृक्ष को जल दे गए
विफल होकर बुझ रहे अरमान के
पंख को तूफ़ान के पल दे गए
दूर की इस यात्रा में सब मिले
पराजय, संदेह के अंधड़ चले
तुम मिले जीवन मिला आकंठ मधु
हिल उठे कंकाल उड़ते जड़ चले
संदर्भ
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया
डॉ० माली सिंह, २००७, आधुनिक हिंदी काव्य और पुराण कथा
डॉ० संजय गुप्ता, हिंदी साहित्य का इतिहास, भाग १
वाह,बहुत बढ़िया
ReplyDeleteअप्प्का तहे दिल से धन्यवाद ��
Deleteनीरू जी, बहुत उम्दा आलेख है! जब भी एक से अधिक मीडियम मिलते हैं कला और साहित्य को पर लग जाते हैं। भट्ट जी की विलक्षण प्रतिभा, महान लोगों की सोहबत और objective दृष्टि ने वाकई उनके योगदान को मौलिक और महत्वपूर्ण बनाया है। आपने उनके कृतित्व के विभिन्न आयामों को बड़ी ख़ूबसूरती से प्रस्तुत किया है। सारे उद्धृत अंश इतने असरदार और चमकदार हो कर आपकी साहित्यिक समझ को परिलक्षित कर रहें हैं! शुक्रिया 🙏🏻 शायद हमारे पटल पर यह आपका पहला आलेख है, कृपया और लिखें।
ReplyDeleteअप्प्का तहे दिल से धन्यवाद ��
Delete[3:50 pm, 27/02/2022] Harpreet Singh Puri: उदयशंकर जी जैसे साहित्यकारों के बारे में विस्तार से पढ़कर मन प्रसन्न हो जाता है , प्रेरणा भी मिलती है। मैं उनके इस कथन से पूर्णत: सहमत हूँ कि लेखक को किसी एक दल या वर्ग से प्रतिबद्ध नहीं होना चाहिए। किसी भी प्रबुद्ध व्यक्ति का किसी एक राजनैतिक विचारधारा से जुड़ने का अर्थ है पूर्वाग्रह से ग्रस्त होना एवं वैचारिक स्वतंत्रता को खो देना। उनकी लिखी यह पंक्ति भी मनभावन है : मरण अगर त्योहार न हो तो जीवन की दीक्षा कैसी ?
ReplyDeleteउनका जो काव्य इस लेख में उद्धृत है , वह भावों की गहराई और भाषा की समृद्धि को दर्शाता है। प्रभावशाली कृतित्व! कुल मिलाकर यह लेख पढ़कर मन बड़ा प्रसन्न हुआ। लगता नहीं कि नीरू जी ने पहला आलेख लिखा है । बहुत बधाई , धन्यवाद । आपके आगे के लेखों की प्रतीक्षा रहेगी।💐💐
अप्प्का तहे दिल से धन्यवाद ��
Deleteसुप्रसिद्ध एकांकीकार आदरणीय उदयशंकर भट्ट जी अपनी साहित्यिक लेखनी से दुखांत पद्धति के समावेश से नए समाज में आधुनिक वर्ग का चित्र प्रस्तुत करते थे। उन्होंने पौराणिक, ऐतिहासिक एवं सामाजिक प्रकार का साहित्य हिंदी सृष्टि में अपनी शब्दकला से परिचित किया है। आदरणीया डॉ. नीरू भट्ट जी के द्वारा लिखित उदयशंकर जी के संदर्भ का लेख बहुत ही उम्दा और सशक्त ढंग से अभिव्यक्त किया गया है।बड़े ही स्वाभविक रूप से पूरी सवेंदनाओ के साथ उस लेख को प्रस्तुत किया है। आद. उदयशंकर जी की दूरदर्शिता और आधुनिक सोच को समीक्षात्मक रूप में रचितकर उनके साहित्यिकदर्शन कराने हेतु आपका आभार और असंख्य शुभकामनाएं।
ReplyDeleteअप्प्का तहे दिल से धन्यवाद ��
Deleteनीरू जी, आपके इस लेख के माध्यम से उदय शंकर भट्ट जी की साहित्यिक एवं जीवन यात्रा को विस्तृत रूप में जानने का अवसर मिला। आपने लेखक के कलेवर को लेख में खूब उतारा है। इस उम्दा लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteअप्प्का तहे दिल से धन्यवाद ��
Delete