जय भारत, जय भारत, जय भारत कहु रे
भारत की भक्ति करो, भारत में रहु रे
"हे गणेश जी के वाहन महागणेशमूषक! छोटा-सा रूप धारण करके कई मन के मोटे-ताजे गणेश जी को उठा ले जाना, यह तो आपका ही काम है या इष्टीम ऐन् जीन् का ही काम है। यदि गणेश जी हजारों विघ्न नाश करते हैं तो आप करोड़ों अवश्य नाश करेंगे, तिसमें अपने ही स्त्रोत में। इसी से हम आप ही के स्त्रोत में आप ही का मंगलाचरण करते हैं! ।।ओं श्री मन्महा महा गणाधिपतये मूषकेशाय नमः।।
हे मूसे राम मामा! हे सिद्धि श्री सर्वोपरि विराजमान सकल गुणनिधानं! आपकी कहाँ तक स्तुति करें। आपके गुण गाते-गाते हम तो क्या शेष, शारदा भी थक गईं, बस आपकी प्रशंसा यहीं समाप्त करते हैं, और यह वर माँगते हैं कि और सब कुछ चाहे काट डालिए, पर इस मूषक स्त्रोत को न काटिए। यह आपका उन्नीसवीं शताब्दी का सर्टिफिकेट है, इसे यत्न से अपने बिल में रखिए, और इसे गले में तमगे की तरह लटका कर निकलिए।"
यह थे "मूषक स्त्रोत" के कुछ व्यंग्यात्मक हिस्से।
अब देखतें हैं "रेलवे स्त्रोत" के कुछ चुनिंदा हिस्से, जिसमें रेलवे कर्मचारियों की अकर्मण्यता की आलोचना की गई है -
जीव लादि सब खींचत डोलत तन स्टेशन झेला है।
जयति अपूरब कारीगर जिन जगत रेल की रेला है।
लगा है तार हिचकी का, खबर जाने की आती है।
हमारे तन के स्टेशन से ग़म की रेल जाती है।
"हे सर्व मंगल मांगल्ये! स्टेशनों पर यात्री लोग तुम्हारी इस प्रकार बाट देखते हैं जैसे चातक स्वाति की, चकोर चंद्र की, किसान मेघ की, विरहणी पति की और बार बनिता जार लोगों की। पर तुम भी खूब झकाय-झकाय कंठगत प्राण करके ही आती हो।
हे दुर्गे! दुर्गति हारिणी! तुम्हें बहुत से देहाती भक्त दुर्गा का अवतार मानकर प्रणाम करते हैं। अतएव "या देवी सर्वदेशेषु रेल रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमोनमः"
कबीर के व्यंग्यों में जहाँ कटुता एवं तीखापन है, जिनके गले से उतरते ही एक निशान छोड़ देते हैं, वहीं गोस्वामी जी के व्यंग्य शहद सी हँसी में घुले हुए और कल्पना से रंगीन हैं। अँग्रेज़ों में कुत्ता प्रेम, भारतीयों की अँग्रेज़ी भक्ति, धार्मिक अंधविश्वास सभी को अपनी यात्रा की रंगीनी प्रदान करते हुए गोस्वामी जी कहते हैं -
"साहब प्रथम प्रश्न तो सुन लीजिए, गोदान का कारण क्या? यदि गौ की पूँछ पकड़ कर पार उतर जाते हैं तो क्या बैल से नहीं उतर सकते? जब बैल से उतर सकते हैं तो कुत्ते ने क्या चोरी की?"
वैतरणी पार करने के लिए गाय की पूँछ के स्थान पर कुत्ते की पूँछ की मार्मिक कल्पना दुधारी तलवार का काम करती है। गोस्वामी जी की भाषा चुटीली और जनसामान्य के निकट की है।
ब्रजभाषा-समर्थक कवि, निबंधकार, नाटककार, पत्रकार, समाजसुधारक, देशप्रेमी आदि भूमिकाओं में भाषा, समाज और देश को अपना महत्वपूर्ण अवदान देनेवाले उच्च कोटि के साहित्यकार राधाचरण गोस्वामी जी देशवासियों की सहायता से देशभाषा हिंदी की उन्नति करना चाहते थे। देशोपकार उनके संपूर्ण लेखन का मूलमंत्र था। विचारों की उग्रता और प्रगतिशीलता में वे अपने युग के अन्य सभी लेखकों से बहुत आगे थे। वे एक क्रांतिदर्शी साहित्यकार थे, प्रखर राष्ट्र-चिंतक, साहित्य और समय की धारा को नया मोड़ देनेवाले युगदृष्टा कथाकार भी थे। स्वाधीन चेतना, आत्मनिर्भरता, साहस, निर्भयता और आत्माभिमान उनके विशेष गुण थे। वे वस्तुतः भारतभक्त और हिंदी साहित्य के एक गौरव स्तंभ ही थे।
राधाचरण गोस्वामी जी का जन्म वृंदावन में फाल्गुन कृष्णपक्ष ५ संवत १९१५ ( १८५९) २५ फ़रवरी को चार बजे अपराह्न में हुआ। उनके पिता गोस्वामी गल्लू जी महाराज थे और उनकी माता का नाम सूर्या देवी था। गोस्वामी गल्लू जी भक्त कवि होने के साथ ही साथ वृंदावन के राधारमण मंदिर के गोस्वामी, वैष्णव संप्रदाय के आचार्य और श्रेष्ठ महात्मा थे। छः वर्ष की अवस्था में १९२१ में राधाचरण जी का कर्णवेध हुआ। उन्होंने घर पर प्रायः दो वर्षों तक वर्णमाला अमरकोश, सारस्वत व्याकरण का अध्ययन किया। १९२३ में उनकी माँ का देहांत हो गया। उनके देहांत के बाद पिता के साथ कानपुर, काशी, बिहार, फ़र्रुख़ाबाद आदि की यात्राएँ करते रहे। वैशाख शुक्ल ४ संवत १९२४ को उनका प्रथम विवाह नौ वर्ष की उम्र में वृंदावन में चंपकलता देवी से हुआ। ग्यारह वर्ष की अवस्था से उन्होंने संस्कृत का नियमित अध्ययन प्रारंभ किया, जिसमें व्याकरण काव्य, श्रीमद्भागवत और वैष्णव संप्रदाय के धर्मग्रंथ थे। चौदह वर्ष की अवस्था में वे अँग्रेज़ी शिक्षा के प्रति आकृष्ट हुए, जहाँ शिष्य मंडली के कड़े विरोध के फलस्वरूप उन्हें अँग्रेज़ी शिक्षा का परित्याग करना पड़ा किंतु अँग्रेज़ी पढ़ने के शौक के कारण पुस्तक घर पर ही मँगवा कर स्वाध्याय के द्वारा अँग्रेज़ी भाषा में प्रवीण हो गए। अपनी सोच, साहस और सामाजिक सक्रियता के कारण वे सबसे अलग,अद्वितीय और अपने समय से आगे चलने वाले साहित्यिक व्यक्तित्व के रूप में दिखाई देते हैं। अग्रवाल और वैश्यों की पुरोहिताई करने वाले राधाचरण गोस्वामी के साहित्य का मूल स्वर व्यंग्य है।
पंडित राधाचरण १८८५ में वृंदावन नगरपालिका के सदस्य पहली बार निर्वाचित हुए थे। १० मार्च, १८९७ को वे तीसरी बार नगरपालिका के सदस्य निर्वाचित हुए थे। वृंदावन की कुंजगलियों में नगर पालिका के माध्यम से छः पक्की सड़कों का निर्माण उन्होंने करवाया था। गोस्वामी जी कांग्रेस के आजीवन सदस्य और प्रमुख कार्यकर्ता थे। १८८८ से १८९४ तक वे मथुरा की कांग्रेस समिति के सचिव थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वयं कहा है, "देशोन्नति, नेशनल कांग्रेस, समाज संशोधन, स्त्री स्वतंत्रता यह सब मेरी प्राणप्रिय वस्तुएँ हैं।" गोस्वामी जी उस समय के अन्य साहित्यकारों की तरह 'प्राइवेट' और 'पब्लिक' की द्वंद्वात्मकता से उबर कर सामाजिक जीवन या 'देशोपकार' से जुड़े। वे आजीविका के लिए गोसाईयों का काम करते थे, किंतु अपने ही गोस्वामी समाज में सुधार की वकालत करते थे। वे 'वैष्णव धर्म प्रचारिणी सभा' और 'कवि कुल कौमुदी' जैसी संस्थाओं से संबद्ध ही नहीं रहे बल्कि १८८५ और १८९४ में वृंदावन के म्युनिसिपल कमिश्नर बने तथा कांग्रेस के लाहौर और कलकत्ता अधिवेशनों में डेलिगेट बनकर गए। संस्कृत और धार्मिक शिक्षा के साथ उन्होंने स्वाध्याय से अंग्रेज़ी, उर्दू, बंगला, मराठी, उड़िया और गुजराती का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया। श्री षड्भुज महाप्रभु मंदिर के अपने निवास में उन्होंने संस्कृत, अँग्रेज़ी, उर्दू, बंगला, मराठी, उड़िया, पंजाबी और गुजराती की लगभग ५००० पांडुलिपियों और किताबों का संग्रह किया, जिसे वह पब्लिक लाइब्रेरी का रूप देना चाहते थे।
पंजाब केसरी लाला लाजपत राय का आगमन दो बार वृंदावन में हुआ था। दोनों बार गोस्वामी जी ने उनका भव्य स्वागत किया था। ब्रज माधव गौड़ीय संप्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य होने के बावजूद उनकी बग्घी के घोड़ों के स्थान पर स्वयं उनकी बग्घी खींचकर उन्होंने भारत के राष्ट्रनेताओं के प्रति अपनी उदात्त भावना का सार्वजनिक परिचय दिया था। तत्कालीन महान क्रांतिकारियों से उनके आत्मीय संबंध थे और उनमें आस्था और विश्वास था। उदाहरणार्थ २२ नवंबर १९११ को महान क्रांतिकारी रास बिहारी बोस और योगेश चक्रवर्ती उनसे मिलने उनके घर पर आए थे और उनका प्रेमपूर्ण स्वागत उन्होंने किया था। उक्त अवसर पर गोस्वामी जी की दोनों आँखें प्रेम के भावावेश के कारण अश्रुपूर्ण हो गई थीं। वृंदावन के राधारमण मंदिर में अढ़ाई वर्षों के अंतराल में १७ दिनों की सेवा करने का अधिकार उन्हें प्राप्त था। अपने निधन के चार दिन पूर्व तक श्रीराधारमण जी की मंगला आरती प्रातः चार बजे वे स्वयं करते थे।
साहित्यिक सफर
वर्ष १८७७ से अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत करने वाले राधाचरण गोस्वामी जी की प्रथम पुस्तकाकार रचना 'शिक्षामृत' का प्रकाशन भी इसी वर्ष हुआ। तत्पश्चात् मौलिक और अनूदित सब मिलाकर पचहत्तर पुस्तकों की रचना उन्होंने की। प्रायः तीन सौ से ज्यादा विभिन्न कोटियों की रचनाएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में फैली हुई हैं, जिनका संकलन अब तक नहीं किया जा सका।
"मंजू" उपनाम से उन्होंने राधाकृष्ण की लीलाओं, प्रकृति-सौंदर्य और ब्रज संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर काव्य-रचना की। वे कवि थे किंतु हिंदी गद्य की विभिन्न विधाओं की श्रीवृद्धि भी उन्होंने की।
ब्रज भाषा लित कलित कृष्ण की केलि
या ब्रज मंडल में थी ताकि घर- घर बेलि
हिंदी के प्रचार के लिए उन्होंने "कवि कुल कौमुदी" नामक एक संस्था की स्थापना की। सन १८८३ ई० में उन्होंने जब हिंदी के विकास के लिए २१ हजार लोगों के हस्ताक्षर करवाए, उस समय हिंदी के संबंध में कहा -
कवि पंडित परिजन छात्र रसिक रिझावर
राजा प्रेम सप्रेम बस, करि हिंदी को प्यार
हिंदी हिंदुस्तान की, भाषा विशद विशाल
जन्म लेत सबसो कहे, मांग माँ दादा बाल
गोस्वामी राधाचरण हिंदी में प्रथम समस्यामूलक उपन्यासकार थे, प्रेमचंद नहीं। हिंदी में ऐतिहासिक उपन्यास का आरंभ उन्होंने ही किया। ऐतिहासिक उपन्यास 'दीप निर्वाण' और सामाजिक उपन्यास 'विरजा' उनके द्वारा अनूदित उपन्यास है। लघु उपन्यासों को वे 'नवन्यास' कहते थे। 'कल्पलता' और 'सौदामिनी' उनके मौलिक सामाजिक नवन्यास हैं। हिंदू और मुसलमान किसानों का एक साथ ज़मींदार के प्रति सम्मिलित विद्रोह और समस्यायों का निराकरण 'बूढ़े मुँह मुँहासे लोग देखें तमाशे' नामक प्रहसन में बहुत प्रभावशाली ढंग से देखने को मिलता है। गोस्वामी जी एक श्रेष्ठ समालोचक भी थे। उनकी प्रतिज्ञा थी "किसी पुस्तक की समालोचना लिखो तो सत्य-सत्य लिखो।"
निबंध लेखन के क्षेत्र में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। उनके निबंधों का वर्ण्य विषय अत्यंत व्यापक था। उन्होंने ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक, शिक्षा और यात्रा सम्बंधी लेख लिखे। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हिंदी गद्य खड़ी बोली और पद्य ब्रजभाषा में था। खड़ी बोली पद्य आंदोलन का आरंभ हिंदोस्तान (दैनिक पत्र) ११ नवंबर १८८७ से हुआ, जब राधाचरण गोस्वामी ने खड़ी बोली पद्य का सक्रिय विरोध किया। गोस्वामी जी का कथन था, "यदि खड़ी बोली में कविता की चेष्टा की जाए, तो खड़ी बोली के स्थान पर थोड़े दिनों में उर्दू की कविता का प्रचार हो जाएगा।" (हिंदोस्तान, ११ अप्रैल १८८८) गोस्वामी जी द्वारा विरचित 'एक नए कोष की नकल' से कुछ व्यंग्य प्रस्तुत हैं, जिसमें उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की भारतीय मानसिकता का दिग्दर्शन होता है।
मधुर भाषा। अँग्रेज़ी।
शरीफों की ज़बान।
उर्दू या राजा शिव प्रसाद जिसे कहैं।
जंगली लोगों की भाषा।
संस्कृत-हिंदी परम कर्तव्य।
खुशामद खुशामद॥
अकर्तव्य। देश का हित, भारतवासियों की भलाई॥
खड़ी बोली कविता का विरोध करने के लिए उन्होंने 'भारतेंदु' का पुनर्प्रकाशन अक्टूबर १८९० में किया था। "भारतेंदु का प्रेमालाप" में संपादक राधाचरण गोस्वामी ने कहा था, "भाषा कविता पर बड़ी विपत्ति आने वाली है। कुछ महाशय खड़ी हिंदी का मुहम्मदी झंडा लेकर खड़े हो गए हैं और कविता देवी का गला घोंटकर अकाल वध करना चाहते हैं, जिससे कवि नाम ही उड़ जाए।" किंतु यह पत्र अपने पुनर्प्रकाशन के बावजूद अल्पजीवी ही सिद्ध हुआ। पंडित श्रीधर पाठक खड़ी बोली गद्य के समर्थक थे। गोस्वामी जी और पाठक जी में खड़ी बोली पद्य आंदोलन के दौर में इसी बात पर मनोमालिन्य भी हुआ। ४ जनवरी १९०५ में खत्री जी के निधन के पश्चात सरस्वती और अन्य पत्रिकाओं में खड़ी बोली कविताओं का प्रकाशन शुरू हो गया था। गोस्वामी जी ने अपने जीवनकाल में ही मैथिलीशरण गुप्त और छायावाद का उत्कर्ष देखा। जनवरी १९१० से १९२० तक वृंदावन से उन्होंने धार्मिक मासिक पत्र 'श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्रिका' का संपादन-प्रकाशन किया था। उक्त मासिक पत्र के प्रथमांक (जनवरी १९१०) में स्वयं 'श्री विष्णुप्रिया का विलाप' शीर्षक कविता खड़ी बोली पद्य में लिखी थी।
गोस्वामी राधाचरण जी ने 'मेरा संक्षिप्त जीवन परिचय' शीर्षक अपनी संक्षिप्त आत्मकथा में लिखा था -
"लिखने के समय किसी ग्रंथ की छाया लेकर लिखना मुझे पसंद नहीं। जो कुछ अपने मन का विचार हो वही लिखता हूँ। भारत के राजनीतिक क्षितिज पर महात्मा गाँधी के अभ्युदय के बहुत पूर्व स्वदेशी स्वीकार और विदेशी बहिष्कार की प्रखर राष्ट्रीयता के फलस्वरूप उनके प्रयत्नों से विदेशी चीनी की बोरियाँ वृंदावन की यमुना में विसर्जित कर दी गई थीं। १८८२ ई० में देशभाषा की उन्नति के लिए अलीगढ़ में भाषावर्धिनी सभा को अपना सक्रिय समर्थन प्रदान करते हुए कहा था, "यदि हमारे देशवासियों की सहायता मिले, तो इस सभा से भी हमारी देशभाषा की उन्नति होगी।"
गोस्वामी जी सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत के प्रतीक थे। श्रीराधारमण जी के अनन्य उपासक और ब्राह्म माध्व गौड़ीय संप्रदाय के मुख्य आचार्य होने के बावजूद उनमें किसी भी धर्म अथवा धार्मिक संप्रदाय के प्रति दुराव अथवा दुराग्रह नहीं था। अपने जीवन चरित के नौवें पृष्ठ पर उन्होंने स्वयं लिखा है -
"मैं एक कट्टर वैष्णव हिंदू हूँ। अन्य धर्म अथवा समाज के लोगों से विरोध करना उचित नहीं समझता। बहुत से आर्यसमाजी, ब्रह्मसमाजी, मुसलमान, ईसाई मेरे सच्चे मित्र हैं और बहुधा इनके समाजों में जाता हूँ।"
भारतेंदु हरिश्चंद्र से वे बहुत प्रभावित थे, शायद इसीलिए उन्होंने १८८३ से प्रारंभ अपनी मासिक पत्रिका, जो साढ़े तीन साल तक निकली, का नाम भी 'भारतेंदु' रखा था। उन्होंने 'सारसुधानिधि', विक्रम संवत् १९३७ , वैशाख २९ चन्द्रवार १० मई १८८० (भाग २ अंक ५ ) में प्राप्त 'स्तंभ' के अंतर्गत 'काबुल का अचिन्त्य भाव' शीर्षक लेख लिखा था। गोस्वामी जी के सतत प्रयत्न से मथुरा वृंदावन रेल का संचालन हुआ। डाक और रेल के टिकटों में भी नागरी लिपि का प्रवेश होना चाहिए था, इसके लिए उन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे थे। उन्होंने 'सारसुधानिधि' ७ अगस्त १८८१ को यह सवाल उठाया था, "आर्य राजाओं ने अपनी रियासतों में फारसी सिक्का क्यों जारी रखा है? रेल की टिकटों में नागरी नहीं लिखी जाती है, जिससे नागरी का प्रचार नहीं हो पाता। क्या रेलवे अध्यक्षों को नागरी से शत्रुता है या हमारे देशवासी नागरी जानते ही नहीं।"
सम्मान
प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन पर व्रत रखा जाए या नहीं और चैतन्य महाप्रभु का पूजन श्रीकृष्ण मंत्र से किया जाए अथवा श्रीमहाप्रभु के ही मंत्र से किया जाए। इस विवाद ने प्रायः दो वर्षों तक व्यापक रूप धारण कर लिया था। अंत में गोस्वामी राधाचरण जी ने विभिन्न प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया कि महाप्रभु चैतन्य के व्रत और मंत्र सर्वथा स्वतंत्र हैं। इस गंभीर विवाद पर विजय प्राप्त करने पर नवद्वीप और वृंदावन के सांप्रदायिक आचार्यों ने उन्हें 'विद्यावागीश' की उपाधि ससम्मान प्रदान की ।
पंडित बालकृष्ण भट्ट और हिंदी प्रदीप ने कहा था कि हिंदी के साढ़े तीन सुलेखक थे- बाबू हरिश्चंद्र अर्थात भारतेंदु हरिश्चंद्र, ब्राह्मण मासिक पत्र के संपादक प्रतापनारायण मिश्र और राधाचरण गोस्वामी, आधा पीयूष प्रवाह संपादक अंबिकादत्त व्यास। इस कथन से गोस्वामी जी की महत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है। राधाचरण गोस्वामी जी ने अपने नाटक "अमर सिंह राठौर" के द्वारा देश प्रेम की भावनाओं को जन जन तक पहुँचाया।
संतोष जी, आपने राधचरण गोस्वामी जी पर विस्तृत एवं बहुत अच्छा लेख लिखा है। मेरे लिए तो यह लेख नई जानकारी भरा है। आपको इस लेख के लिये धन्यवाद एवं हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteदीपक जी, बहुत बहुत आभार
Deleteसंतोष जी, हिंदी के साढ़े तीन लेखकों के बीच भारतेंदु हरीशचंद्र की तरह पूरी इकाई के हिस्सेदार राधाचरण गोस्वामी जी पर आपने विस्तृत और रोचक जानकारी प्रस्तुत करके सराहनीय कार्य किया है। उनकी अद्भुत व्यंग्य शैली के अनुपम नमूनों से परिचय पाकर मन प्रसन्न हुआ। इस आलेख के लिए आपको बहुत-बहुत आभार और बधाई।
ReplyDeleteप्रगति जी, आभार
Deleteब्रजभाषा के समर्थक कवि और परमपूज्य भारतेंदु जी को गुरु माननेवाले आद.राधाचरण जी का ऐतिहासिक उपन्यासकार की श्रंखला में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। खड़ी भाषा में ब्रजभाषा की मिठास भरने वाले, स्वछंदता की धारा कहने वाले वह पहले कवि है। उन्होंने हिंदी साहित्य में अपने काव्य और व्यंगरचना से स्वच्छंदतावादी प्रकृति के कारण नए मार्ग का प्रवर्तन किया है। आदरणीया संतोष जी के आलेख ने हिंदी भाषा प्रचार के सूत्रपात गोस्वामीजी का विस्तृत चित्रण किया है। आपने उनके काव्य की समीक्षा बड़ी खूबसूरत और मौलिक तरीके से प्रस्तुत की है। आपने उनके गद्य और पद्य दोनों भावो को एकत्रित कर विशष्ट रूप से मनोदित किया। इस जानकारी और भावपूर्ण आलेख के लिए आपका आभार और शुभकामनाएं।
ReplyDeleteसंतोष जी आपके इस लेख के माध्यम से ही मैं राधाचरण गोस्वामी जी के जीवन और साहित्यिक योगदान को जान पाई हूँ। भारतेंदु युग के एक मत्वपूर्ण कवि से परिचय कराने के लिए आपका हार्दिक आभार। और इस रोचक लेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई।
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