हिंदी साहित्य के रत्न भारतेंदु हरिश्चंद्र सेठ अमीचंद के घराने से संबंध रखते थे, तो शिवप्रसाद सितारेहिंद जगत-सेठ घराने से।
'वहाबी' तख़ल्लुस से शायरी करने वाले हमारे राजाजी उर्दू-हिंदी मिश्रित उस भाषा के समर्थक थे, जो तत्कालीन समाज में प्रचलित थी व साधारण जनमानस की चेतना को परिभाषित करती थी। परंतु १९वीं सदी के उस दौर में, जब पश्चिमोत्तर प्रांत के प्रशासन और सरकारी गलियारों में फ़ारसी-निष्ठ उर्दू छाई हुई थी, तब राजाजी ने नागरी लिपि को प्रतीक बनाते हुए एक ऐसे आंदोलन की चिंगारी सुलगाई, जिसने सिकुड़ती हुई हिंदी भाषा को तपिश दी। इसी आंदोलन को भारतेंदु-मंडली, काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिंदी साहित्य सम्मेलन जैसी संस्थाओं ने आगे जारी रखा। हालाँकि इन सब ने राजाजी को इसका श्रेय कभी नहीं दिया। इसका कारण हज़ारी प्रसाद द्विवेदी अपने एक कथन में स्पष्ट करते हैं - "शिवप्रसाद की भाषा हिंदी और उर्दू को निकट लाने का प्रयत्न है।"
नागरी लिपि को लागू करवाने का राजाजी का इरादा इतना पक्का था कि साठ साल की उम्र में उन्होंने हंटर आयोग से कहा -
"अगर युक्तप्रांत की अदालतों में हिंदी लिपि लागू कर दी जाए, तो मैं फिर से इस बुढ़ापे में भी स्कूल इंस्पेक्टर की ड्यूटी लेने को तैयार हूँ। और अगर मैं शिक्षा के क्षेत्र में युक्तप्रांत के लड़कों की संख्या बंगाल से ज़्यादा न बढ़ा दूँ, तो मेरी पेंशन बंद कर दी जाए। इस काम को मैं बिना किसी अतिरिक्त तनख़्वाह के करने को तैयार हूँ।"
राजाजी का यह संकल्प नया नहीं था। इसकी एक झाँकी वे साल १८६८ में "मेमोरेंडम : कोर्ट कैरेक्टर इन दी अपर प्रोविंसेज़ ऑफ इंडिया" को प्रस्तुत कर दिखा चुके थे, जिसमें उन्होंने दावा किया कि प्रांत में प्रचलित बोलचाल की ज़ुबान में हिंदी-उर्दू का कोई फ़र्क नहीं है। इसी भाषा के लिए उन्होंने नागरी लिपि की माँग उठाई। सरकारी नौकरी में रहते हुए वे इस मेमोरेंडम का सार्वजनिक प्रकाशन तो नहीं कर सकते थे, लेकिन बावजूद इसके उन्होंने इसकी कई प्रतियाँ प्राइवेट सर्कुलेशन के नाम से छपवाकर पूरे प्रांत में बँटवाईं। इसकी माँग में भविष्य की उथल-पुथल के बीज छिपे हुए थे। इसने शिक्षित समाज में तीखी बहस को जन्म दिया और लिपि परिवर्तन की माँग ने उर्दूभाषी भद्रवर्ग के हिंदुओं और मुसलमानों को वर्ग के बजाय धार्मिक समुदायों के आधार पर आमने-सामने कर दिया।
राजाजी का सरकार से कहना था कि जैसे राज-काज से फ़ारसी भाषा को हटाया गया, उसी तरह उसकी लिपि को भी हटा देना चाहिए। इसके कई फ़ायदे होंगे - जनता को अदालती कार्रवाई समझ में आ सकेगी, शिक्षा पूरी करने में कम समय लगेगा, देशी भाषाओं का विकास होगा और हिंदू जातीयता की भावना फिर से कायम हो सकेगी। जिसे हिंदी नवजागरण कहा जाता है, उसकी शुरुआत १८६८ के इसी मेमोरेंडम से हुई थी।
यह ऐसा समय था, जब हिंदी वाले भी अपनी पुस्तकें फ़ारसी लिपि में लिखने लगे थे, जिसके कारण देवनागरी अक्षरों का भविष्य ही खतरे में पड़ गया था। जैसा कि बालमुकुंद गुप्त जी की इस टिप्पणी से स्पष्ट होता है -
फ़ारसी भाषा के विरोधी राजाजी ने उसका विरोध यूँ ही नहीं किया, बल्कि फ़ारसी की प्रत्येक ध्वनि को नागरी से व्यक्त करने हेतु हिंदी में नुक्ता ध्वनियों की नवीन कल्पना भी की।
मेमोरेंडम से शुरू हुए नागरी आंदोलन ने साँझे उर्दू-भाषी भद्रवर्ग के बीच जो दरार पैदा की, वह दिन-ब-दिन गहरी और चौड़ी होती चली गई। ३२ साल बाद वर्ष १९०० में सरकार ने जब प्रांतीय राजभाषा के लिए नागरी को भी मंजू़री दे दी, तो इस भद्रवर्ग का बँटवारा पूरी तरह हो गया। इस बँटवारे से एक तरह से १९४७ में होनेवाले बँटवारे की शुरुआत हो गई थी, पर इसका गुमान उस दौर में किसी को भी नहीं हुआ।
भारतेंदु हरिश्चंद्र, जो संस्कृतनिष्ठ हिंदी का समर्थन कर रहे थे, कभी राजाजी के शिष्य रहे थे। उन्होंने एक तरह से गुरुजी के ख़िलाफ़ विरोधी अभियान ही छेड़ दिया, जिसमें उनकी मंडली के लेखकों ने बढ़-चढ़ कर सहभागिता दी। उनके जीवनीकारों द्वारा इसे हवा दी गई। साहित्य के इतिहासकारों द्वारा इसकी पुनरावृत्ति की गई और शिक्षकों ने इसका महिमामंडन किया।
यह अभियान शोर मचाता हुआ तो नज़र आया, परंतु यहाँ बड़ी ही लापरवाही से राजाजी की भाषा पर इल्ज़ाम लगाए जाते रहे।
वास्तव में राजाजी जो हिंदी लिख रहे थे, उस ज़माने में वैसी निखरी हुई और साफ़-सुथरी हिंदी किसी और ने नहीं लिखी।
हिंदी के तीन प्रभावशाली लोकप्रिय गद्यलेखक देवकीनंदन खत्री, प्रेमचंद और राजाजी एक ही भाषा-परंपरा में हुए, लेकिन लोकप्रियता के बावजूद भारतेंदु-समर्थकों ने उनका विरोध करते हुए मज़ाक उड़ाया।
१९वीं सदी में भाषाई सांप्रदायिक राजनीति के शिकार सबसे ज़्यादा शिवप्रसाद हुए। और उनके साथ-साथ अयोध्याप्रसाद खत्री और देवकीनंदन खत्री भी राह के रोड़े समझे गए।
रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं - "राजा शिवप्रसाद मुसलमानी हिंदी का ही स्वपन देखते रहे कि भारतेंदु ने स्वच्छ आर्य हिंदी की शुभ्र छटा दिखाकर लोगों को चमत्कृत कर दिया।" राजाजी का विरोध करनेवालों में 'हरिश्चंद्र मैगज़ीन' और 'हिंदी प्रदीप' जैसे पत्र आगे थे। उन्हें सरकारी पिट्ठू तक कहा गया।
'हिंदी प्रदीप' के दिसंबर १८८० के अंक में बालकृष्ण भट्ट ने तो यहाँ तक कह दिया -"बाबू हरिश्चंद्र ने कब झूठी लल्लोपता के लिए सरकार की हाँ में हाँ मिलाई है, जो ख़िताब दिया जाए?"
अयोध्याप्रसाद ने इस विवेकहीन व्यक्ति-पूजा का विरोध करते हुए कहा - "भारतेंदु ईश्वर नहीं थे और वे भाषाशास्त्र के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे।"
राजाजी की भाषा-नीति का आदर्श, जूनियर सिविल सर्वेंट्स और फ़ौजी अफ़सरों के हिंदी पाठ्यक्रम के लिए बनाए गए, उनके गद्य-पद्य संग्रह 'गुटका' में दिखाई देता है। यह राजाजी का बड़प्पन ही था कि उन्होंने इस संग्रह में उन लेखकों की रचनाओं को भी शामिल किया, जिनकी भाषा पर उन्हें एतराज़ था। मकसद था- हिंदी में प्रचलित नई और पुरानी, ज़्यादा से ज़्यादा लेखन शैलियों से पाठकों को परिचित कराना।
उन्होंने आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, भूगोल, इतिहास और साहित्य की किताबें जिस हिंदी में लिखीं, उनके बिना हिंदी में स्कूली शिक्षा का लोकप्रिय होना तो दूर, चल पाना भी असंभव था।
वर्ष १८९५ में संस्कृतनिष्ठ, ठेठ हिंदी, और उर्दू-मिश्रित जैसी कई शैलियों में लिखने वाला, हिंद का ये बेमिसाल सितारा सदैव के लिए अस्त हो गया।
राजाजी के देहांत के करीब १७ साल बाद उनके भाषाई उद्यान की कुछ दबी हुई आवाज़ें सुनाई देती हैं -
(पहली आवाज़ प्रेमघन बाबू की और दूसरी गुरुजी के शिष्य की।)
संदर्भ
रस्साकशी - वीर भारत तलवार
हिंदी कोविंद माला
शिवप्रसाद सितारे हिंद - एक परिचय
आभार - प्रो० डॉ शोभा कौर
बहुत रोचक लेख है, सृष्टि जी।अंग्रेज़ीयत के साथ चलते , अंग्रेजों से ईनाम लेते , उनकी नौकरी करते हुए देवनागरी लिपि की हिमायत करना और उसे प्रोत्साहित करने के लिए जोखिम उठाना , विरोधाभास सा लगता है। शायद इसीलिए शिव प्रसाद जी को विरोध झेलना पड़ा। आपने बड़ी मेहनत से ऐतिहासिक तथ्य खोजे हैं, और जो आपको मिला उसकी निर्भीक प्रस्तुति की है ।बहुत कुछ नया जानने को मिला। आपको बधाई एवं शुभकामनाएँ। 💐💐
ReplyDeleteसितारे हिन्द पर बहुत ही गहन अध्ययन के साथ लिखे गए आलेख के लिए धन्यवाद और शुभकामनाएं भी लज्जित हो रही हैं।
ReplyDeleteफिर भी शुभकामनाओं के साथ धन्यवाद!
बहुत बहुत बढ़िया
ReplyDeleteहिंदी में शिक्षण और देवनागरी के पैरोकार की गाथा बख़ूबी प्रस्तुत की आप सृष्टि। साथ ही तत्कालीन भाषाई राजनीति के भी दर्शन हो गए। हार्दिक आभार व शुभकामनाएं
ReplyDeleteउत्तम संकलन,संपादन व प्रस्तुति।मानक हिंदी की अच्छी जानकारी।
ReplyDeleteअभिनंदनीय।
देवनागरी के साथ हिंदुस्तानी देशज भाषाओं को स्थापित करनेवाले राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद का उत्कृष्ट परिचय हेतु सृष्टि जी का हार्दिक अभिनंदन , आपने बहुत परिश्रमपूर्वक एक सितारा सामने लाया है। 🙏💐
ReplyDeleteभाषाई संप्रदायिक राजनीति भी इस कदर हुई ये आज ही जाना,सितारे हिंद राजाजी के बारे में इतने उत्तम तरीके से जानकारी देने के लिए हार्दिक आभार सृष्टि साथ ही बड़ा गर्व महसूस होता है कि आज के समय में युवाओं में आपकी तरह सोच रखने वाले भी हैं जो हिंदी के लिया इस कदर आत्मीयता रखते हैं, तालियों की गूँज के साथ आपको हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ सृष्टि।
ReplyDeleteराजा शिवप्रसाद (सितारे हिंद) पर लेख लिखने के लिए सृष्टि भार्गव को बहुत सारी शुभकामनाएँ.... महत्त्वपूर्ण जानकारियों से युक्त लेख प्रस्तुत किया गै सृष्टि भार्गव ने। शिवप्रसाद जी परमार वंशीय क्षत्रिय थे। इनके पितामह, नवाब कासिमअली के अत्याचारों से ऊबकर मुशिर्दाबाद से काशी आ गये थे। काशी में ही १८२३ में इनका जन्म हुआ। तृतीय सिख युद्ध में इन्होंने अंग्रेजो की जी खोलकर सहायता की थी परिणाम स्वरूप स्कूलों के इंस्पेक्टर हो गये। अंग्रजी सरकार की प्रसन्नता उनकी प्रसन्नता थी. उनकी दृष्टि में भारत का सदैव शिक्षित समुदाय रहा कोटि कोटि जन समुदाय उनकी दृष्टि में कभी नहीं रहा। अँग्रेजी सरकार जिस तरह की भाषा चाहती थी उसके वे हिमायती थे.... सन् १८७२ में इनकी सेवाओं से खुश होकर अंग्रेजी सरकार ने "सी० एस० आई०" की इन्हें उपाधि दी और सन् १८८७ में अंग्रेजी सरकार ने इन्हें "राजा" की उपाधि दी।
ReplyDeleteयह संयोग ही है कि उसी समयावधि में "राजा लक्ष्मण सिंह" आगरा में रहकर हिन्दी में अरबी, फारसी युक्त उर्दू शब्दों का विरोध कर रहे थे जबकि शिवप्रसाद जी बनारस में रहकर अंग्रेजी सरकार की नीति के समर्थन में हिन्दी में उर्दू फारसी की पक्षधरता कर रहे थे। दोनों अंग्रेजी सरकार की भरपूर सहायता कर रहे थे दोनों को "राजा" की उपाधि दी गई थी लेकिन भाषा को लेकर राजा लक्ष्मण सिंह [०९-१०-१८२६- १४-७-१८९६ ई० ] विशुद्ध हिन्दी के समर्थक थे.... ।
हिन्दी गद्य के आविर्भाव काल में जब राजा शिवप्रसाद "हिन्दुस्तानी" के नाम पर हिन्दी का "गँवरपन" दूर करने के बहाने खालिस "उर्दू" लिख रहे थे.... राजा लक्ष्मण सिंह ने सरल, सरस और सुबोध हिन्दी का आदर्श उपस्थित करके एक बहुत बड़े जन समुदाय को उल्लसित करने का कार्य किया था।
सृष्टि भार्गव ने बहुत परिश्रम से लेख तैयार किया है, उन्हें बधाइयाँ।
-डा० जगदीश व्योम
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ReplyDeleteसृष्टि, राजा शिवप्रसाद जी की दूरदर्शिता से परिचय कराता है यह लेख। उर्दू तो मूलतः बोली जाने वाली बोलियों में अरबी-फारसी के कुछ शब्दों के सम्मिश्रण से उपजी हमारी ही भाषा है, परन्तु फ़ारसी विदेशी थी। शिवप्रसाद जी ने इस अंतर को भली-भांति समझकर भाषा को फ़ारसी-करण से बचाने के लिए मुहिम चलाई और देवनागरी लिपि में नुक़्ते को जोड़कर उसका संवर्धन भी किया। जानकारीपूर्ण और रोचक लेख के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteसृष्टि जी,आपने शिवप्रसाद सितारेहिंद जी पर बहुत जानकारी भरा लेख लिखा। इस शोधपूर्ण एवं रोचक लेख के लिये आपको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteआदरणीया सृष्टि जी क्षमा करें !🙏
ReplyDeleteमुझे तो विश्वास ही नही हो रहा है कि मीर मुंशी राजा शिवप्रसाद *सितारे हिंद* जी का आलेख आपके द्वारा उत्कीर्ण किया गया है। जिस तरह राजा जी की कलम का जादू चला वैसे ही आज आपकी लेखनी इस लेख को सम्मोहित कर रही है। राज जी के जीवनी के कुछ अविश्वनीय पहलुओं को आपने इतनी शुद्धता और खरेपन से प्रमाणित किया है कि आलेख की विरलता, लाक्षिणकताए और पारिभाषिक शब्द प्रयोग निखरकर आ रहा है जो प्रारंभ से लेख पढ़ने की उमंग जगा रहा है। आपकी शब्द रचना को अभिवादन। अतिप्रामाणिक और बेजोड़ आलेख के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद और ख़ूब सारी शुभकामनाएं। जय हो।
सृष्टि, तुम्हारे शिवप्रसाद सितारेहिंद पर आलेख से बहुत सारी नई जानकारी मिली है। इस शोधपूर्ण एवं रोचक आलेख के लिए तुम्हें बहुत-बहुत बधाई!
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